यह कमरतोड़ महँगाई क़ुदरत की नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था की देन है : ”महँगाई डायन” का इलाज पूँजीवादी ओझाओं के पास है ही नहीं

आनन्द

देश की मेहनतकश आबादी पिछले पूरे साल भीषण महँगाई से जूझती रही। दाल, अण्डे, दूध, मांस व मछली जैसी प्रोटीनयुक्त चीजें तो पहले ही देश की आम आबादी की पहुँच के बाहर हो गयी थीं, साल का अन्त आते-आते प्याज, टमाटर और हरी सब्जी आदि भी मजदूर वर्ग और निम्न मध्‍य वर्ग के रोजमर्रा के भोजन से नदारद दिखे। साल के मध्‍य में देश के अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री ने जनता को भरोसा दिलाते हुए कहा कि साल के अन्त तक महँगाई पर काबू पा लिया जायेगा। लेकिन साल का अन्त आते-आते तो महँगाई अपनी चरमसीमा पर पहुँच गयी। दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर 18 फीसदी से भी ऊपर पहुँच गयी। ऐसे में देश की 77 प्रतिशत आबादी, जिसकी आमदनी मात्र 20 रुपये प्रतिदिन की है, कैसे गुजारा करती होगी, यह कल्पना करने मात्र से सिहरन हो उठती है।

वैसे तो इस व्यवस्था में मेहनत- मजूरी करने वाली आबादी हमेशा ही महँगाई से त्रस्त रहती है, लेकिन इस बार की महँगाई का चरित्र भिन्न है। वर्ष 2008 के मध्‍य से ही कमरतोड़ महँगाई का जो दौर चला वह अभी तक थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसके लिए सरकार कभी सूखे को जिम्मेदार ठहराती है तो कभी बारिश को। लेकिन दरअसल इस दौर की महँगाई के कारण पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे में ही हैं। महँगाई का असर कुछ चुनिन्दा वस्तुओं पर ही नहीं बल्कि आम जनता के इस्तेमाल की  लगभग सभी वस्तुओं पर पड़ा है। लोगों की बुनियादी जरूरत की चीजें जैसे कि खाद्य सामग्री, मकान का भाड़ा, यातायात के साधनों का किराया इत्यादि के दाम तो आसमान छू रहे हैं।

इस दौर की महँगाई दरअसल पूँजीवादी व्यवस्था के संकट का ही द्योतक है। अति-उत्पादन के संकट से निजात पाने के लिए और मुनाफे की गिरती दर को काबू में करने के लिए पूँजीपति वर्ग महँगाई को शोषण के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करता है। महँगाई मेहनतकश वर्ग पर लगाये गये छिपे हुए टैक्स के समान होती है जिसके माध्‍यम से पूँजीपति वर्ग अधिशेष निचोड़ता है। जैसा कि भारत में देखने में आया है, महँगाई की वजह से मेहनतकश वर्ग, ख़ासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूर व खेतिहर मजदूरों, की वास्तविक आय में भारी कमी आयी है, भले ही उनकी आमदनी में कमी न आयी हो, क्योंकि उनकी क्रय-शक्ति लगातार कम होती जा रही है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मजदूर वर्ग का शोषण केवल मिल मालिक ही नहीं बल्कि समूचा पूँजीपति वर्ग करता है। मिल मालिकों के अलावा मुनाफाख़ोर व्यापारियों और सूदख़ोर बैंकरों के मुनाफे का ड्डोत भी मजदूरों की वास्तविक आय घटाकर प्राप्त किया गया अधिशेष ही है।

इस महँगाई का कारण ढाँचागत है। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि एक ओर तो 6 करोड़ टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है या फिर चूहों की भेंट चढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में करोड़ों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं जिसमें सबसे अधिक संख्या बच्चों और महिलाओं की है। प्रसिध्द अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के एक अध्‍ययन के मुताबिक इस समय प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धाता 1942-43 में बंगाल में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच गयी है। भारत दूध, ताजे फलों और खाद्य तेलों के उत्पादन में दुनिया के देशों में अग्रणी है और गेहूँ, चावल, प्याज, अण्डे इत्यादि के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। इसके बावजूद इण्टरनेशनल पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटयूट द्वारा 2010 में जारी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान 85 देशों में 67 वाँ था।

वर्ष 2009 में महँगाई का कारण सूखे की वजह से कृषि उत्पादन में आयी कमी को बताया गया था। किन्तु पिछले साल तो कृषि उत्पादन में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई। इसके बावजूद महँगाई से राहत तो दूर, 44 करोड़ मजदूर आबादी के लिए तो दो जून का भोजन भी दुश्वार हो गया है। पिछले साल सरकार की नीतियों ने महँगाई को कम करने की बजाय उसे और रफ्तार देकर आग में घी डालने का काम किया। पिछले बजट में सरकार ने निजीकरण और उदारीकरण के रथ के पहिये को कृषि क्षेत्र में भी मोड़ा। कृषि उत्पादों के खुदरा व्यापार में निजी कम्पनियों को मुनाफा कमाने के लिए छूट दी गयी। खाद्यान्न सब्सिडी की मात्रा कम की गयी। वायदा व्यापार में मिली छूट का लाभ उठाकर मुनाफाख़ोर व्यापारियों ने जबर्दस्त अटकलबाजी और जमाख़ोरी करके जिंसों के दामों को आसमान में पहुँचाने का काम किया। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई जिसकी वजह से महँगाई और भी बढ़ी। सरकार द्वारा परोक्ष कर बढ़ाने की वजह से भी महँगाई बढ़ी।

निकट भविष्य में महँगाई कम होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जो तमाम भ्रष्टाचार के बावजूद महँगाई पर नकेल कसने में एक हद तक कारगर साबित होती थी, उसको पिछले दशक से ही योजनाबध्द तरीके से नष्ट किया जा रहा है। कृषि की उत्पादकता औद्योगिक उत्पादकता से हमेशा पीछे रहती है और इसलिए कृषि में सब्सिडी और योजनाबध्द सार्वजानिक निवेश की जरूरत पड़ती है। परन्तु कृषि के क्षेत्र में पिछले दो दशकों में सार्वजनिक निवेश और सब्सिडी में भारी कमी हुई है जिसकी वजह से कृषि उत्पादों की आपूर्ति कुछ ख़ास बढ़ने की सम्भावना नहीं लगती। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों की वजह से बीजों, खादों और कीटनाशकों की कीमतों में भारी वृध्दि हुई है। मोन्सैण्टो और कारगिल जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय खाद्य कम्पनियों को खुली छूट देने की वजह से फसलों का पैटर्न बदला है। खाद्यान्न की बजाय नकदी फसलों जैसे कि कॉटन, जूट, गन्ना, चाय, तम्बाखू इत्यादि का उत्पादन बढ़ा है क्योंकि उनमें ज्यादा मुनाफा होता है। इसके अतिरिक्त कृषि योग्य भूमि को भी विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस.ई.जेड.) बनाने के लिए किसानों से जबरन या पैसे का लालच देकर हड़पा जा रहा है। इन सभी कारणों से कृषि उत्पादों की आपूर्ति बढ़ाकर खाद्य मुद्रास्फीति पर काबू पाने की सम्भावना नहीं दिखती। इसके अलावा अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत में सम्भावित वृध्दि महँगाई को और अधिक भयावह बना सकती है।

देश के शासक इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि लम्बे समय तक भीषण महँगाई बने रहने से जनता में व्यवस्था-विरोधी विद्रोही भावनाएँ पनपती हैं। इसलिए जब प्याज की कीमतें आसमान छूने लगीं तो सरकार ने आनन-फानन में प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी और आयात बढ़ाने की योजना बनायी। इसी प्रकार, महँगाई को एक सीमा तक नियन्त्रिात करने के लिए रिजर्व बैंक ने पिछले साल 6 बार मौद्रिक नीति के जरिये ब्याज की दरें बढ़ायीं, जिससे अर्थव्यवस्था में फैली नकदी में कमी आये। लेकिन ये नीतियाँ अभी तक कारगर नहीं साबित हुई हैं। यदि भविष्य में इस प्रकार की नीतियाँ महँगाई पर कुछ हद तक काबू पा भी लेती हैं तो देश की जनता को इसका ख़ामियाजा बढ़ती बेरोजगारी, छँटनी, कुपोषण एवं भुखमरी के रूप में चुकाना होगा।

महँगाई और इन सभी समस्याओं के जड़मूल निवारण हेतु आम मेहनतकश जनता को संगठित होकर अपने बुनियादी हकों के लिए लड़ने के साथ-साथ एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण के लिए भी लड़ना होगा जिसका आधार चन्द लोगों का मुनाफा नहीं बल्कि व्यापक समाज की जरूरतें हो।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments