उन्हें स्त्रियों की अस्मिता या जिन्दगी से ज्यादा प्यारा है मुनाफा! : देश की राजधानी में कामगार महिलाएँ सुरक्षित नहीं
हाल ही के दिनों में दिल्ली में रात की पारी में काम करने वाली महिलाओं के उत्पीडन की ख़बरें अख़बारों में छपीं। इसके बाद जैसाकि हमेशा होता है अपनी लाज बचाने के लिए सरकार ने कुछ ‘सख्त’ दिशा-निर्देश जारी किये। ऐसा लगा मानो सरकार को कामगार महिलाओं की कितनी चिन्ता है। लेकिन सरकार भी जानती है कि इन दिशा- निर्देशों का क्या हश्र होना है। पूँजीपति सर्दियों के इस मौसम में इन्हें अपने फायरबॉक्स में जलाकर हाथ भी सेंक सकते हैं। पूँजीपतियों ने यह साफ कह दिया है कि इन दिशा-निर्देशों का पालन करना उनके लिए सम्भव नहीं है। अन्याय व लूट पर टिकी इस व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए सरकार कुछ नियम-कानून (जिसके पालन का भविष्य क्या है उसके बारे में वह भी जानती है।) बनाती है, पर पूँजीपतियों के बीच गलाकाटू होड़ के चलते पूरा पूँजीपति वर्ग इन नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाता रहता है।
इस बार कामगार महिलाओं की सुरक्षा के बारे में सरकार ने कम्पनियों को कहा है कि रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं को सुरक्षित घर छोड़ने की जिम्मेदारी कम्पनी की होगी व इसके लिए कुछ सुझाव भी दिये गये हैं जैसेकि महिला कर्मचारी को घर के दरवाजे तक छोड़ना होगा, आदि। पर मालिकों का कहना है कि वह ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इससे उनकी प्रचालन लागत (Operating Cost) बढ़ जाती है! अब पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफा बचाये या महिला कामगारों को? इन कम्पनियों ने अपनी प्राथमिकता साफ कर दी है कि वे महिलाओं को घर छोड़ने की लागत नहीं उठा सकतीं। जिन्हें काम करना हो करें और अपनी सुरक्षा की व्यवस्था भी करें। यानी, पहले काम पर अपनी मेहनत की लूट झेलें और फिर रास्ते में पूँजीपतियों के अपराधी लौण्डों के हाथों अपनी इज्जत पर भी ख़तरा झेलें।
दरअसल इस व्यवस्था में महिलाएँ शायद ही कहीं सुरक्षित हों। हमारे समाज में कहीं पितृसत्तात्मक ढाँचे में मौजूद पुराने सामन्ती मूल्यों की मौजूदगी के चलते,तो कहीं पूँजीवादी मूल्यों के वर्चस्व के चलते महिलाएँ दोहरे शोषण की शिकार होती हैं। एक तरफ कहीं उन्हें मात्र प्रेम करने पर गोली मार दी जाती है, तो कभी दहेज के लिए उन्हें जला दिया जाता है, घरेलू हिंसा व यौन शोषण तो आम बात है। इन मामलों में भी राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश अव्वल नम्बर पर आते हैं, जहाँ कि संस्कृति में सड़े गले पुराने सामन्ती मूल्य कूट-कूटकर भरे हुए हैं। दूसरी ओर जब वह चूल्हे- चौखट की गुलामी से आजाद होकर बाजार में जाती है तो पूँजीपतियों की गिद्धदृष्टि उनके सस्ते श्रम पर लगी होती है। हम सभी इस कड़वी हकीकत को जानते हैं की समान काम के लिए उन्हें कम वेतन मिलता है। सबसे कठिन व उबाऊ किस्म का काम महिला श्रमिकों को मिलता है। कई काम तो ऐसे होते हैं जहाँ महिलाओं को काम करना ही नहीं चाहिए पर उनके पास और कोई चारा भी नहीं होता सिवाय इसके कि मालिक की शर्त पर काम किया जाये। उनकी कोई यूनियन भी नहीं होती जो मालिकों के ख़िलाफ संघर्ष में उनका नेतृत्व करे और जहाँ तक परम्परागत अर्थवादी और संशोधनवादी यूनियनों का सवाल है, वह तो महिलाओं का इस्तेमाल मात्र संघर्ष में करते हैं क्योंकि महिला कामगार ख़ूब डटकर संघर्ष करती हैं पर जब उनके अधिकारों की बात आती है तो कोई भी यूनियन उनके मुद्दों को नहीं उठाती। और तो और इसके लिए बाकायदा सरकारी कानून है कि उनके लिए कार्यस्थल पर पूरी सुविधाओं का इन्तजाम हो, अलग शौचालय, शिशु गृह व अन्य सुविधाएँ हों, काम की परिस्थिति ठीक हो,मातृत्व अवकाश मिले, आदि पर इन कानूनों को भी मालिक कभी लागू नहीं करता ताकि अपने मुनाफे के मार्जिन को अधिक से अधिक बनाया जा सके।
उधर सामान बेचने के लिए जिस तरह महिलाओं का इस्तेमाल विज्ञापनों में किया जाता है, वह भी इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के यौन उत्पीडन को बढ़ाता ही है व उन्हें मात्र वस्तुओं में बदलकर उनकी मानवीय गरिमा को तार-तार कर देता है। दरअसल पूँजीवाद के इस नखलिस्तान में देश-दुनिया की उन करोड़ों कामगार औरतों के लिए कोई जगह ही नहीं है जो अपना हाड़-मांस गलाकर मालिकों की तिजोरी भरती चली जाती हैं। इधर जब से नब्बे के दशक के बाद’उदारीकरण’ की लहर चली है तब से मजदूरों ने पिछले 120 सालों में जो भी अधिकार लड़कर हासिल किये थे उन सब पर लगातार डाका डाला जा रहा है। श्रम कानूनों को लचीला करने के नाम पर एक-एक करके उनके सब अधिकार छीने जा रहे हैं।
जाहिर है कि इसकी चोट महिला कामगारों पर भी पड़ रही है। आज स्त्री कामगारों को अपने विशिष्ट मुद्दों पर अलग से भी संगठित होना होगा और साझा मुद्दों पर पुरुष मजदूरों के साथ भी जुड़कर लड़ना होगा। उन्हें पुरुष साथियों के साथ समानता के लिए भी संघर्ष चलाना होगा। जहाँ उन्हें अपने रोजमर्रा के अधिकारों के लिए लड़ना होगा, वहीं उन्हें यह भी समझना होगा कि उनकी मुक्ति पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के धवंस और समाजवाद के निर्माण के बिना सम्भव नहीं है। आज उन्हें अपनी सुरक्षा, बराबर वेतन और काम करने योग्य स्थितियों के लिए लड़ते हुए भी अपना दूरगामी लक्ष्य याद रखना होगा। पूरे मजदूर वर्ग की मुक्ति के बिना स्त्रियों की मुक्ति सम्भव नहीं है और स्त्रियों के संघर्ष को मजदूर मुक्ति के प्रोजेक्ट का अंग बनाये बिना मजदूर मुक्ति सम्भव नहीं है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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