क्रान्तिकारी चीन ने प्रदूषण की समस्या का मुक़ाबला कैसे किया और चीन के वर्तमान पूँजीवादी शासक किस तरह पर्यावरण को बरबाद कर रहे हैं!
संदीप
प्रस्तुत लेख इस बात पर रोशनी डालता है कि समाजवादी चीनी जनता ने किसी प्रकार प्रदूषण और औद्योगिक कचरे का सफलतापूर्वक मुक़ाबला किया। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस लेख से पता चलता है कि यह काम ऐसे समाज के निर्माण के एक अंग के रूप में किया गया जिसका लक्ष्य हर प्रकार की वर्ग असमानताओं, उत्पीड़क सम्बन्धों और विचारों से छुटकारा पाना था। महत्वपूर्ण बात यह है कि जनसमुदाय इन समस्याओं को हल करने के क्रान्तिकारी मार्ग तक पहुँच और खाका बनाने में लगा था और यह सब वर्ग संघर्ष और समाजवाद के निर्माण के एक अंग के रूप में समाज में मौजूद उन ताक़तों से जूझते हुए किया गया जो चीन को पूँजीवादी रास्ते पर धकेलना चाहती थीं। इसने दिखा दिया कि प्रदूषण और पर्यावरण के विनाश का कारण पूँजीवादी उद्योग है न कि अपने आप में उद्योग। – सम्पादक
आज पूरी दुनिया में पर्यावरण बचाओ की चीख़-पुकार मची हुई है। कभी पर्यावरण की चिन्ता में दुबले हुए जा रहे राष्ट्राध्यक्ष, तो कभी सरकार की बेरुख़ी से नाराज़ एनजीओ आलीशान होटलों के एसी कमरों-सभागारों में मिल-बैठकर पर्यावरण को हो रहे नुक़सान को नियन्त्रित करने के उपाय खोजते फिर रहे हैं। लेकिन पर्यावरण के बर्बाद होने के मूल कारणों की कहीं कोई चर्चा नहीं होती। न ही चर्चा होती है उस दौर की जब जनता ने औद्योगिक विकास के साथ शुरू हुई इस समस्या को नियन्त्रित करने के लिए शानदार क़दम उठाए। जी हाँ, जनता ने! इसका एक उदाहरण क्रान्तिकारी चीन है, जहाँ 1949 की नव-जनवादी क्रान्ति के बाद कॉमरेड माओ के नेतृत्व में चीनी जनता ने इस मिथक को तोड़ने के प्रयास किए कि औद्योगिक विकास होगा तो पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा ही।
लेकिन समाजवादी दौर के चीन की उन उपलब्धियों पर चर्चा करने से पहले बेहतर होगा कि ‘‘बाजार समाजवाद’’ के नाम पर पूँजीवादी नीतियों पर चल रहे चीन में पर्यावरण की दुर्दशा पर नज़र डाल ली जाये।
पूँजीवादी “सुधारों” ने किया पर्यावरण को बर्बाद
तीस वर्षों के “सुधार” ने चीन के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर डाला है। चीन में सीमित प्राकृतिक संसाधन और बेहद कम खेती योग्य जमीन है। ऐसे में चीन में किसी भी तरह का दीर्घकालिक विकास प्राकृतिक संसाधनों और खेती योग्य जमीन के संरक्षण पर ही आधारित हो सकता है। लेकिन तीस वर्षों के पूँजीवादी सुधारों में देश के लिए ज़रूरी नीतियों से उलट नीतियों पर अमल किया गया।
चीन में विश्व की खेती योग्य ज़मीन का केवल 9 प्रतिशत है, जबकि उसे दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी को भोजन उपलब्ध कराना होता है। सुधारों के आरम्भ से अब तक कृषि भूमि को औद्योगिक और व्यापारिक इस्तेमाल के लिए देने और किसानों द्वारा खेती नहीं करने के कारण खेती योग्य ज़मीन में काफ़ी कमी आयी है।
इसके अलावा, चीन में प्रति व्यक्ति केवल 2,000 क्यूबिक मीटर पानी ही उपलब्ध है, जोकि पूरी दुनिया में उपलब्ध औसत पानी का एक चौथाई है। औद्योगिक उत्पादन और शहरीकरण की ऊँची दर के कारण पानी की खपत बढ़ गयी है, जिससे सिंचाई और ग्रामीण आबादी को बेहद कम पानी मयस्सर होता है। चीन के जल संसाधन मन्त्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन की कुल 114,000 किलोमीटर की लम्बाई वाली नदियों में से 28.9 प्रतिशत का पानी ही अच्छी गुणवत्ता वाला है और 29.8 प्रतिशत पानी की गुणवत्ता ख़राब है। 16.1 प्रतिशत पानी मनुष्यों के छूने लायक भी नहीं है और नदियों का शेष 25.2 प्रतिशत पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि उसे किसी काम में नहीं लाया जा सकता।
प्रदूषण का आलम यह है कि 1990 के दशक के अन्त में, क्षेत्र के 17 करोड़ लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने वाली पीली नदी 226 दिनों तक सूखी रही। नदियाँ ही नहीं, बल्कि चीन में भूमिगत जल भी तेज़ी से कम हो रहा है। जल संसाधन मन्त्रालय के ही अनुसार, भूमिगत जल के तेज़ी से घटते स्तर ने भूकम्पों और भूस्खलनों के ख़तरे तथा ज़मीन के बंजर होने की समस्या को और बढ़ा दिया है। जल और भूमि प्रदूषण ग्रामीण आबादी के लिए घातक साबित हो रहा है; कुछ गाँवों में, कैंसर की दर राष्ट्रीय औसत से 20 या 30 प्रतिशत अधिक है। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग और चीन के पर्यावरण की तबाही निर्यात को बढ़ाकर जीडीपी की उच्च दर को क़ायम रखने की अन्धाधुन्ध रणनीति का सीधा परिणाम है।
जल प्रदूषण के साथ ही, वायु और भूमि प्रदूषण की समस्या भी बहुत गम्भीर हो चुकी है। दुनिया के 20 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में से 16 शहर चीन के हैं। वायु प्रदूषण से शहरवासियों को साँस की गम्भीर बीमारियाँ हो रही हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ओईसीडी के एक अध्ययन के अनुसार चीन में 300 मिलियन लोग प्रतिदिन दूषित पानी पीते हैं, और 190 मिलियन लोग दूषित जल के कारण होने वाले रोगों से पीड़ित हैं। यही नहीं इस अध्ययन के अनुसार यदि जल्दी ही चीन में वायु प्रदूषण की समस्या को नियन्त्रित नहीं किया गया तो आने वाले 13 वर्षों में सांस सम्बन्धी बीमारियों से चीन के 600,000 लोगों की समय से पहले मौत हो जायेगी, जबकि 2 करोड़ लोग इन बीमारियों से पीड़ित होंगे।
क्रान्तिकारी चीन की जनता ने निकाला प्रदूषण की समस्या का हल
संशोधनवादियों की अगुवाई में चल रही पूँजीवादी नीतियों का पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव अब चीन की जनता के साथ ही साथ पूरी दुनिया के भी सामने है। अब ज़रा इस पर नज़र डाली जाए कि समाजवादी निर्माण (1976 में माओ के देहांत से पहले) के दौर में चीन की जनता ने पर्यावरण की समस्या का सामना कैसे किया।
1960 के दशक के अन्त में क्रान्तिकारी चीन में त्सित्सिहार दस लाख जनसंख्या वाला एक शहर था। ननचियांग नदी से प्राप्त होने वाली मछली पूरे प्रान्त की पैदावार के आधे के बराबर थी। लेकिन नदी में पायी जाने वाली मछलियों की संख्या दिन-ब-दिन काफ़ी कम होती जा रही थी। जाड़ों में जब नदी जम जाती थी तो बड़ी संख्या में मछलियाँ मर जाती थीं और वर्ष 1960 के मुक़ाबले में अब प्रतिवर्ष सिर्फ़ 12 प्रतिशत मछलियाँ पकड़ी जाने लगीं। ये मछलियाँ इसलिए मर रही थीं क्योंकि उद्योग प्रतिदिन रसायन युक्त 250,000 टन दूषित पदार्थ और कचरा नदी में प्रवाहित कर रहे थे।
1968 में त्सित्सिहार पार्टी कमेटी और शहर की क्रान्तिकारी कमेटी ने इस समस्या को हल करने का निश्चय किया। चौदह शोध संस्थानों से चालीस से अधिक वैज्ञानिकों एवं तकनीशियनों को त्सित्सिहार आने और स्थानीय मज़दूरों, मछुआरों व तकनीशियनों के साथ मिलकर काम करने, तथा नदी का सर्वेक्षण करने के लिए लामबन्द किया गया। उन्होंने पाया कि दिसम्बर से अप्रैल के मध्य तक, जब नदी जमी रहती थी, नदी की तलहटी में एक पीला चिपचिा पदार्थ जम जाता था, जिससे पानी से एक भयानक दुर्गन्ध निकलती थी। नदी में एक प्रकार की फफून्द और कुछ कार्बनिक पदार्थ जमा होते जा रहे थे क्योंकि उसमें भारी मात्रा में गन्दा पानी और रसायन फेंके जाते थे। इन अवशिष्ट रसायनिक पदार्थों से युक्त जल सामान्य जल की तुलना में 22.5 गुना अधिक ऑक्सीजन सेाख लेता था और यही वह कारण था जिससे मछलियाँ मर रही थीं।
मज़दूरों, पार्टी की क़तारों और वैज्ञानिकों की एक टीम को इस समस्या से निपटने के काम में लगाया गया। उन्होंने सबसे पहले आम लोगों के बीच जाकर, उनके विचारों को जाना और यह भी जानकारी ली कि समस्या से निपटने के बारे में वे क्या सोचते हैं। इन विचारों ने समस्या के हल के लिए सुस्पष्ट दिशानिर्देशों का खाका तैयार करने में मदद की।
1. जनता की भलाई प्रस्थान बिन्दु होना चाहिए।
2. भावी पीढ़ियों के हितों को ध्यान में रखना चाहिए – समस्या का दूरगामी समाधान निकलना चाहिए न कि सिर्फ़ तात्कालिक समाधान।
3. समस्या पर सभी पहलुओं से विचार करना चाहिए ताकि एक आपदा को दूर करने से कोई दूसरी आपदा न पैदा हो जाये।
स्वावलम्बन पर बल देते हुए टीम ने आर्थिक ज़रूरतों के लिए ऊपर के आदेशों का इन्तज़ार नहीं किया। उन्होंने एक प्रस्ताव तैयार किया और जनता के साथ विचार-विमर्श करके अन्तिम योजना तैयार कर ली गयी। कारख़ाने अब अपने हानिकारक कूड़े-कचरे का उचित प्रबंधन करने और उन्हें उपयोगी बनाने के रास्ते निकालने के लिए स्वयं उत्तरदायी होंगे। रसायनों से युक्त गन्दा और बेकार पानी अब जलाशयों में एकत्र किया जायेगा और उसे साफ़ कर सिंचाई में इस्तेमाल किया जायेगा।
त्सित्सिहार शुगर रिफ़ाइनरी में औद्योगिक कूड़े-कचरे को उपयोगी चीज़ों में बदलने के लिए नयी शॉप स्थापित की गयी। अवशिष्ट पदार्थों से प्रतिवर्ष 1400 टन कम लागत का बढ़िया सीमेण्ट पैदा किया जाता था। जले हुए कोयले से प्रतिवर्ष 20 लाख ईंटें तैयार की जाती थीं जिनका इस्तेमाल और नई शॉपों को तैयार करने में किया जाता था। ये शॉप गन्ने की जड़ों से अल्कोहलिक स्पिरिट तैयार करती थीं, रद्दी शक्कर से प्रतिदिन 2 टन डिस्टिल्ड अल्कोहल तैयार करती थीं और एक पेपर मिल के निकट के गड्ढे से प्रतिवर्ष लगभग 150 टन लुगदी इकट्ठा कर उनसे पैकेजिंग पेपर बनाती थीं।
जून 1970 में, मज़दूरों, किसानों, सैनिकों, छात्रों और स्थानीय निवासियों ने मिलकर गन्दे पानी को सिंचाई के लिये इस्तेमाल करने की एक परियोजना में भाग लिया। प्रतिदिन 5000 से अधिक लोग कार्यस्थल पर आते थे और छह महीने के भीतर ही एक विशाल जलाशय और बाँध का निर्माण कर दिया गया।
जनवरी 1971 में, ननचियांग के जल में ऑक्सीजन की मात्रा मापने के लिये हुए परीक्षण से यह पता चला कि पिछले वर्ष की तुलना में अब पांच से दस गुना अधिक ऑक्सीजन मौजूद है। पीला पदार्थ और दुर्गन्ध दोनो ग़ायब हो गये थे और नदी में मछलियों की संख्या बढ़ने लगी थी।
यह तो महज़ एक उदाहरण है, दरअसल त्सित्सिहार के लोगों की ही तरह पूरे चीन में प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए लाखों लोगों को लामबन्द किया गया। लेकिन यह बिना वर्ग संघर्ष के नहीं हुआ। इस प्रश्न पर जमकर संघर्ष हुआ कि यह सब ‘किसके लिये’ और ‘किस लिये’ है?
महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान मज़दूरों के बीच बहस छेड़ दी गयी। क्या किसी कारख़ाने को सिर्फ़ स्वयं की और अपने उत्पादन की परवाह करनी चाहिए या पूरी जनता की? क्या वे ‘मुनाफ़े को कमान में रखने’ के रास्ते पर जा रहे हैं या संयंत्र को संचालित करने सम्बन्धी तमाम फैसले, ‘सच्चे दिल से जनता की सेवा करने’ और मज़दूरों-किसानों के स्वास्थ्य और जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए लिये जाने चाहिए?
समूचे चीन में “तीन क़िस्म के रद्दी पदार्थों – रद्दी द्रव पदार्थ, रद्दी गैसों और धातु-कचरे के खि़लाफ़ जनअभियान” शुरू किया गया। यह नारा दिया गया कि “हानिकारक चीज़ों को लाभदायक चीज़ों में बदल दो।” पुनः “रद्दी पदार्थों” के प्रश्न पर किस तरह विचार किया जाये। क्या यह औद्योगिक समाज की अपरिहार्य “बुराई” है? क्या हर तरह के रद्दी पदार्थों को इकट्ठा करके उन्हें कहीं और फेंक देने मात्र से इस समस्या से निपटा जा सकता है? क्या यह एक ऐसी समस्या है जिससे हर व्यक्ति और हर कारख़ाने को सरोकार रखना चाहिए?
किसी चीज़ को पैदा करने में संसाधनों का कुछ अंश नये उत्पादों में रूपान्तरित हो जाता है और शेष “रद्दी” हो जाता है। लेकिन प्रश्न यह था कि इस “रद्दी पदार्थ” को किस तरह देखा जाये? किस दृष्टिकोण से और किस रवैये से? मज़दूरों के व्यापक समुदाय को माओ की दार्शनिक कृतियों का अध्ययन करने के लिए लामबन्द किया गया, विशेषकर अन्तरविरोध के नियम का अध्ययन करने के लिये जो हर चीज़ को दो में बाँटता है। उन्होंने यह रवैया अख्त़ियार किया कि “वस्तुगत विश्व को जानने और उसे बदलने की लोगों की क्षमता की कोई सीमा नहीं है।”
एकांगी, आधिभौतिक दृष्टिकोण से, रद्दी पदार्थों को उपयोगी नहीं बनाया जा सकता। लेकिन क्रान्तिकारी, भौतिकवादी और द्वंद्वात्मक दृष्टि यह बताती है कि किसी एक दशा में “रद्दी पदार्थ” भिन्न दशाओं के अन्तर्गत मूल्यवान हो सकता है। और इस प्रकार “रद्दी पदार्थ” को उपयोगी पदार्थ में बदला जा सकता है। यदि यूँ ही छोड़ दिया जाये तो औद्योगिक कचरा वातावरण को विषाक्त करता है और लोगों को नुक़सान पहुँचाता है। लेकिन जब इन रद्दी पदार्थों के संघटन (कम्पोजिशन) का अध्ययन किया गया और उनमें बदलाव किया गया तो यह पाया गया कि उन्हें उपयोगी कच्चे मालों और उत्पादों में बदला जा सकता है। इस प्रकार इसे एक “निपटारे की समस्या” के रूप में देखने के बजाय जनसमुदाय ने इसे “उपयोग की समस्या” के रूप में देखे जाने के लिए संघर्ष किया। और यह सब इसलिए हुआ क्योंकि समाजवादी निर्माण के दौर में समाज की चालक शक्ति मुनाफ़ा नहीं, बल्कि मनुष्य था। इसी वजह से प्रदूषण और पर्यावरण संरक्षण की समस्या से काफ़ी हद तक निपटा जा सका।
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन