बेइज़्ज़ती में किसी तरह जीते रहने से अच्छा है इज़्ज़त और हक़ के साथ जीने के लिए लड़ते हुए मर जाना
एक मज़दूर, लिबासपुर, दिल्ली
जिन लोगों ने आजकल के औद्योगिक इलाक़ों को नज़दीक से नहीं देखा है वे सोचते होंगे कि आज के आधुनिक युग में शोषण भी आधुनिक तरीक़े से, बारीक़ी से होता होगा। किसी अख़बार में मैंने एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी महोदय का लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि अब पहले की तरह मज़दूरों का नंगा, बर्बर शोषण-उत्पीड़न नहीं होता। ऐसे लोगों को ज़्यादा दूर नहीं, दिल्ली के किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर देखना चाहिए जहाँ 95 प्रतिशत मज़दूर असंगठित हैं और काम की परिस्थितियाँ सौ साल पहले के कारख़ानों जैसी हैं। मज़दूर आन्दोलन के बेअसर होने के कारण ज़ालिम मालिकों के सामने मज़दूर इतने कमज़ोर पड़ गये हैं कि उन्हें रोज़-रोज़ अपमान का घूँट पीकर काम करना पड़ता है। मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी छोटे-छोटे कारख़ानों में काम कर रही है और ये छोटे मालिक पुराने ज़माने के ज़मींदारों की तरह मज़दूरों के साथ गाली-गलौच और मारपीट तक करते हैं।
दिल्ली के लिबासपुर इलाक़े में ऐसी ही एक फ़ैक्ट्री है जिसके मालिक के अमानवीय आचरण के चलते फ़ैक्ट्री इलाक़े की आसपास की गलियों के बच्चों तक को इसकी जानकारी है। रबर के गास्केट बनाने वाली इस फ़ैक्ट्री में 30 मज़दूर काम करते हैं जिनमें से 13 महिलाएँ हैं।
इसके मालिक चोपड़ा के व्यवहार का अन्दाज़ा इसकी बदतमीज़ी भरी बातों से चल जाता है। कुछ नमूने आप ख़ुद देख लीजिए –
एक दुबली-पतली महिला हेल्पर से, ‘ऐ पिंकी खाके नहीं आयी क्या? बाऊ को तेरे जैसे आउटपीस नहीं चाहिए!’ एक महिला हेल्पर से चिल्लाते हुए, ‘ऐ रेनू तेरे भी हाथों में जान नहीं है। काम और तेज़ कर! बिहारी साले चावल खाते हैं। हड्डी में तेल कहाँ से आयेगा।’ एक महिला हेल्पर को गाली देकर, ‘ऐ भगवान देवी, उठ वहाँ से, नेता बन गयी है, चल माल बाँध।’ छोटी-सी बात पर कान पकड़कर उमेठना, चोटी पकड़कर झकझोरना, गर्दन दबा देना, गाल पकड़कर नोचना इसके लिए आम बात है। करीब पाँच महिलाएँ तो इसकी माँ की उम्र की होंगी। मगर इसका बरताव सबके लिए एक समान रहता है।
एक मज़दूर से चिल्लाते हुए बोला – ‘ऐ मास्टर, समझ में नहीं आता क्या तेरे। साले बिहारी सब ऐसे ही होते हैं।’ उसको पकड़कर उसकी छाती दबाते हुए बोला, ‘तू लिख यहाँ तू बिहारी है!’ मज़दूर भारत के किसी भी क्षेत्र का हो, मगर ये सबको बिहारी ही कहता है। बात-बात पर माँ-बहन की गालियाँ देता रहता है। ये अकेला 30 मज़दूरों को अपनी उँगली पर नचाता है और सब मज़दूर चुपचाप एक पैर पर नाचते रहते हैं।
इसी उठा-पटक में पिछले महीने मालिक का ख़ास आदमी (मज़दूरों की भाषा में ‘चमचा’) राजू पावर प्रेस चला रहा था और चोपड़ा सुबह से आसमान सिर पर उठाये हुए था। सभी मज़दूर बड़े आतंकित थे। राजू प्रेस पर हाथ रखे था। हड़बड़ी में पैर दबा दिया और उसके सीधे हाथ का अँगूठा नाख़ून सहित पिस गया। कानोकान सभी मज़दूरों को ख़बर पहुँच गयी। मगर चोपड़ा के आतंक की वजह से किसी मज़दूर की हिम्मत नहीं पड़ी कि काम छोड़कर अपने भाई का हालचाल पूछ लें।
इस तरह से डर-डर कर, रोज़-रोज़ मरते हुए मज़दूर कबतक जीते रहेंगे? इसी डर का नतीजा है कि कारख़ानेदार से लेकर मकानमालिक और दुकानदार तक हमारे साथ इस तरह बर्ताव करते हैं जैसे कि हम इंसान से नीचे की किसी नस्ल के जीव हों। इसी डर के कारण हम मुसीबत में भी अपने मज़दूर भाई-बहनों का साथ नहीं देते और अकेले-अकेले घुटते रहते हैं। इस तरह बेइज़्ज़त होकर किसी तरह ज़िन्दा रहने से तो अच्छा है कि इज़्ज़त और हक़ के साथ जीने के लिए लड़ते हुए मर जायें।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2012
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन