मजदूर की कलम से कविता : मैंने देखा है…
आनन्द, हरियाणा
एक मज़दूर की आँखों में ख़ुशी
चेहरे की रौनक
बात-बात पर हँसना
भरी सभा में लोगों को हँसा देना
बड़ी जल्दी ही लोगों के दिलों में जगह बना लेना
आपस में घुलमिल जाना
एक-दूसरे से सुख-दुख पूछना
और बताना – मैंने देखा है।
मैंने देखा है..
वो महीने की 20 तारीख़ का आना
और 25 तारीख़ तक अपने ठेकेदार से
एडवांस के एक-एक रुपये के लिए गिड़गिड़ाना
और उस निर्दयी जालिम का कहना कि
‘तुम्हारी समस्या है।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं,’ – मैंने देखा है।
मैंने देखा है…
वो 25 से 30 तारीख़ तक चेहरे पर छायी निराशा
वो मज़दूरों की भरी महफिल में कुछ न बोलना
चुपचाप एकान्तवास में चले जाना…
खलल पड़ती है, अगर कोई आ जाता है पास
दिल में उठती कसक,
जब कोई पूछता है, हाल-चाल –
मैने देखा है।
मैंने देखा है…
वो 1 से 5 तारीख़ तक
अपनी बीड़ी, तम्बाकू के लिए
यार-दोस्तों से वो 4-5 रुपये उधार माँगना
और न मिल पाना किसी से उधार
क्योंकि ऐसा ही कुछ हाल होता है
लगभग सभी का – मैंने देखा है।
मैंने देखा है…
वो 5 से 10, 12, 15 तारीख़ तक का समय
जब बेसब्री से इन्तजार होता है
कि आज मिल जायेगी तनख्वाह,
मगर नहीं मिलती
और घिर आती है चेहरे पर उदासी –
मैंने देखा है।
फिर इन्हीं उदास दिनों में तकादादारों का
बार-बार टोकना,
दुकानदार का ऊँची आवाज में पूछना:
‘और भाई, क्या इरादा है?’
मालिक का धमकी देना… – मैंने देखा है।
एक मज़दूर का दर्द… – मैंने देखा है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
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