स्त्री मज़दूर
पूँजी के ऑक्टोपसी पंजों में जकड़ी स्त्री मज़दूर
पूरी दुनिया में सबसे अधिक शोषण और उत्पीड़न की शिकार
कविता
कभी आप अपने मोबाइल फ़ोन या चार्जर के भीतर झाँककर देखिये। आप सोचते होंगे कि इन बारीक़ पुर्जों को शायद किसी ऑटोमेटिक मशीन से जोड़ा गया होगा। आपको उन औरतों की हाड़तोड़ मेहनत और नारकीय ज़िन्दगी का अन्दाज़ा तक नहीं होगा जो तंग अँधेरी कोठरियों में बेहद कम मज़दूरी पर बारह या चौदह घण्टों तक बैठकर फ़ोन के चिप जोड़ती रहती हैं या चार्जर के तार लपेटती रहती हैं। बेंगलुरु-गुड़गाँव से लेकर अमेरिका की सिलिकॉन वैली तक कम्प्यूटर उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की दुनिया में घुसकर सुख-समृद्धि के सपने देखने वाले खाते-पीते घरों के नौनिहालों को उन स्त्रियों का घुटन, अभाव और बीमारियों भरा जीवन सपने में भी नहीं दिखता होगा जो सुबह से रात तक कम्प्यूटर और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक सामानों के बारीक़ कल-पुर्जों को जोड़ने के यत्न में आँखें फोड़ती रहती हैं। सड़को-बाज़ारों में घूमते लोगों के शरीरों पर सजे फ़ैशनेबल कपड़ों पर तिरुपुर और बेंगलूरू की उन स्त्री मज़दूरों के ख़ून के छींटे नंगी ऑंखों से दिखायी नहीं देते, जो बर्बर शोषण-उत्पीड़न से तंग आकर आये दिन ख़ुदकुशी करती रहती हैं।
मजदूरों की मुक्ति का विचार देने वाले महान क्रान्तिकारी विचारक कार्ल मार्क्स का कहना था कि पूँजी का सारा वैभव स्त्रियों और बच्चों के सस्ते श्रम की बुनियाद पर खड़ा है। उनका यह कहना आज भी सौ फ़ीसदी सही लगता है कि ”पूँजी सर से पाँव तक, पोर-पोर तक ख़ून और गन्दगी में लिथड़ी हुई है।” उन्होंने ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में 1863 के लन्दन का एक उदाहरण दिया है, जो उन दिनों आम बात हुआ करती थी। कपड़ों की एक प्रतिष्ठित दूकान के लिए कपड़े तैयार करने के लिए 60 लड़कियाँ मात्र दो कमरों में ठुँसी हुई रोज़ाना 16-16 घण्टे और तेज व्यवसाय के दिनों में लगातार 30-30 घण्टों तक काम करती थीं। उनके सोने के लिए लकड़ी के छोटे-छोटे सूराखनुमा केबिन थे। इनमें से एक लड़की मेरी वाल्कते काम करते-करते मर गयी थी।
अतिलाभ निचोड़ने की अन्धी हवस ने और सरकारों द्वारा श्रम क़ानूनों को ज्यादा से ज्यादा ढीला और काग़ज़ी बनाने की कोशिशों ने आज के पूँजीवादी उत्पादन को एक बार फिर उन्नीसवीं शताब्दी जैसा ही बर्बर और ख़ूनी बना दिया है। भारत के टेक्सटाइल और गारमेण्ट उद्योग के स्त्री मज़दूरों की स्थिति उन्नीसवीं शताब्दी के लन्दन जैसी ही बदतर है। विश्व बाज़ार में भारत के गारमेण्ट उद्योग की सफलता इसमें काम करने वाली औरतों की हड्डियाँ निचोड़कर हासिल की गयी है। ये औरतें बहुत बुरी स्थिति में काम करती हैं और कोई भी श्रम-क़ानून इनके लिए बेमानी होता है। भारत में दिल्ली-नोएडा, गुडगाँव, मुंबई, तिरूपुर और बेंगलूरु, गारमेण्ट उद्योग के पाँच प्रमुख केन्द्र है। यहाँ लाखों स्त्रियाँ टेक्सटाइल और गारमेण्ट के विभिन्न कामों में लगी हुई हैं। कताई-बुनाई, सिलाई-कटाई, कढ़ाई, कपड़े-रंगने, बटन टाँकने, धागा काटने, प्रेस करने, पैंकिंग आदि दर्जनों काम होते हैं। सभी स्त्री मज़दूरों पर काम का बहुत अधिक बोझ होता है। मशीन पर काम करने वाली स्त्रियों को एक घण्टे में 100 से 120 गारमेण्ट तक का टारगेट दिया जाता है। अक्सर तय समय में टारगेट पूरा होना असम्भव होता है। लेकिन जब तक काम ख़त्म न हो जाये तब तक कारख़ाने से बाहर वे क़दम नहीं रख सकतीं। सुपरवाइज़रों की गाली-गलौज, बदसलूक़ी और बात-बात पर पैसे काट लेना आम बात होती है। इन हालात में काम करने वाली ज्यादातर स्त्रियाँ तरह-तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझती रहती हैं। गहरी निराशा के चलते आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। तमिलनाडु के तिरुपुर में पिछले दो वर्षों के दौरान 1500 से ज्यादा स्त्री मज़दूरों ने खुदकुशी की है। बेंगलुरु में पिछले वर्ष नवम्बर में सात टेक्सटाइल स्त्री मज़दूरों ने एक साथ ट्रेन से कटकर जान दे दी। इस तरह की आत्महत्याओं की ख़बरें अन्य जगहों से भी आती रही हैं। ऐसी नब्बे प्रतिशत से भी अधिक स्त्री मज़दूर कुपोषण और गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त रहती हैं। कई नमूना सर्वेक्षणों और रिपोर्टों में यह बात सामने आ चुकी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लम्बे संघर्षों के बाद यूरोप के मज़दूरों ने बहुत सारे अधिकार हासिल किये थे। दूसरे, पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों की अकूत लूट के एक छोटे से भाग से अपने देश के मज़दूरों के तुष्टिकरण की प्रक्रिया शुरू की। मज़दूर आन्दोलन के भ्रष्ट नेतृत्व को ख़रीदकर भी उन्होंने अपना मक़सद पूरा किया। इधर भारत और तमाम दूसरे उपनिवेशों में राष्ट्रीय मुक्ति के साथ-साथ मज़दूर आन्दोनल भी आगे बढ़ रहा था। उनपर मज़दूर क्रान्तियों की ऐतिहासिक लहर का भी प्रभाव था। आन्दोलन के दबाव में भारत में भी अंग्रेज़ों को कुछ श्रम क़ानून बनाने पड़े। आज़ादी मिलने के बाद भारत में देशी पूँजीपतियों की सत्ता आयी जिनकी गाँठ साम्राज्यवादियों से जुड़ी थी। पूँजीवाद के विस्तार के साथ देशी-विदेशी लूट तो बढ़ती रही, फिर भी सत्ता के अस्थिर हो जाने के डर से पूँजीवादी सत्ता मज़दूरों को कुछ छूटें-राहतें देती रही। फिर सबसे बड़ा लाभ उसे मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व के पतित होकर बिक जाने से मिला। राजकीय और निजी क्षेत्र के बड़े उद्योगों के संगठित मज़दूरों को श्रम क़ानूनों का लाभ और ज्यादा सुविधाएँ मिली। यह छोटी सी आबादी जुझारू संघर्षों से दूर हो गयी और तरह-तरह के, बहुसंख्यक असंगठित मज़दूरों से एकदम कट गयी। फिर दौर आया निजीकरण-उदारीकण का। संकटग्रस्त साम्राज्यवादी अपनी पूँजी का अम्बार झोंककर ग़रीब और पिछड़े देशों की सस्ती श्रमशक्ति निचोड़ने के लिए आतुर थे। ग़रीब और पिछड़े देशों के पूजीपतियों को भी अब अपना मुनाफ़ा और अधिक बढ़ाने के लिए साम्राज्यवादियों से तकनोलॉजी और पूँजी की दरकार थी। यह नया दौर लातिन अमेरिका के देशों में तो 30-35 वर्षों पहले ही शुरु हो चुका था। भारत में 1990 के बाद यह प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ी।
नयी तकनोलॉजी ने आज इस चीज़ को आसान बना दिया है कि किसी भी चीज का उत्पादन एक छत के नीचे, एक असेम्बली लाइन पर करने के बजाय, पूरी उत्पादन प्रक्रिया को कई हिस्सों में तोड़ दिया जाये। अलग-अलग पार्टस को बनाने-जोड़ने का काम अलग-अलग वर्कशॉपों में और यहाँ तक कि पीसरेट पर घरों पर कराया जाये। खण्ड-खण्ड में बँटे इन कामों को थोड़ी-बहुत ट्रेनिंग के बाद अकुशल-अर्द्धकुशल मज़दूर भी कर सकते थे। इन नयी प्रणालियों का लाभ यह हुआ कि बड़े पैमाने पर मज़दूर आबादी को असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया गया, जिससे कम से कम मज़दूरी देकर आधुनिकतम (इलेक्ट्रॉनिक सामान, मोबाइल, कम्प्यूटर, वस्त्र, खिलौने, जूते, कार, जेनरेटर आदि-आदि) चीजों का उत्पादन करवाया जा सकता था। केवल असेम्बलिंग के अन्तिम चरण या कुछ जटिल चरणों के लए ही प्रशिक्षित टेकनीशियनों की एक छोटी टीम की ज़रूरत होती थी। असंगठित मज़दूर ज्यादातर श्रम क़ानूनों के दायरे के बाहर होते हैं और उनके लिए यदि कुछ श्रम क़ानून (जैसे ठेका मज़दूरी सम्बन्धी कानून, न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे आदि से सम्बन्धित क़ानून) और सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी योजनाएँ होती भी हैं तो उनका कोई मतलब नहीं होता है। आप दिल्ली, नोएडा, गुड़गाँव के ज्यादातर कारख़ानों और वर्कशापों में जाकर देखें तो पता चलेगा कि अधिकतर ठेका या कैजुअल मज़दूरों और अप्रेण्टिसों को दिहाड़ी मज़दूरी के अतिरिक्त कोई भी सुविधा नहीं मिलती। साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं होती (यानी उस दिन की पगार नहीं मिलती)। सिंगल रेट पर ही ओवरटाइम करना पड़ता है। उनके पास पगार की स्लिप या ऐसा कोई प्रमाण नहीं होता कि वे अपने को किसी कारख़ाना, वर्कशॉप या ठेकेदार का मज़दूर सिद्ध कर सकें। ऐसे में न तो उनका ई.एस.आई. कार्ड बन पाता है, न वे मज़दूरों के लिए घोषित आवास, बीमा पेंशन या दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़े जैसी किसी सुविधा के हक़दार हो पाते हैं।
कृषि क्षेत्र को छोड़ भी दें तो शहरी उद्योगों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में लगे मज़दूरों की नब्बे प्रतिशत आबादी इसी श्रेणी में आती है। और इनके सबसे निचले पायदान पर स्त्री मज़दूर आती हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका जैसे देशों की ओर कूच करने का मुख्य कारण है यहाँ का कम वेतन। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी या इंग्लैण्ड के मुक़ाबले वही काम मेक्सिको, ब्राज़ील, चीले, हाइती दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, फिलिप्पींस, मलेशिया जैसे देशों में एक चौथाई से लेकर दसवें हिस्से तक कम मज़दूरी देकर कराया जा सकता है। जनतान्त्रिक चेतना की कमी के कारण यहाँ की सरकारें श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर नाममात्र ख़र्च करती हैं और कम्पनियों को भी अन्धेरगर्दी की इजाज़त देती हैं। जो क़ानून हैं, वे भी महज़ काग़ज़ों पर ही सीमित रह जाते हैं।
सबसे कम वेतन पर, सबसे कठिन परिस्थितियों में सबसे उबाऊ, थकाऊ और बारीक़ काम भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में असंगठित स्त्री मज़दूरों द्वारा कराये जाते हैं। अस्सी के दशक में ताइवान, हाइती, मेक्सिको जैसे देशों में इस प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ा। नब्बे के दशक से भारत, चीन, फिलिप्पींस, बंगलादेश, इण्डोनेशिया, मलेशिया जैसे देशों में भी ऐसी ही प्रवृत्ति प्रधान बन गयी। केवल खिलौने, जींस, माइक्रोप्रोसेसर, हार्डवेयर आदि ही नहीं वॉलमार्ट जैसी ख़ुदरा व्यापार की दैत्याकार कम्पनियाँ और एग्रीबिज़नेस में लगी कम्पनियाँ भी फलों और खाद्य पदार्थों की छँटाई, बिनाई, पैकिंग आदि में मुख्यत: स्त्री कामगारों को लगाने लगीं।
महज़ कुछ आँकड़ों की रोशनी में पूरी दुनिया और भारत की स्त्री मजदूरों की स्थिति को समझा जा सकता है। पूरी दुनिया में स्त्रियों की मज़दूरी पुरुषों के मुक़ाबले 17 प्रतिशत कम है। भारत में यह 23 प्रतिशत कम है। पूरी दुनिया में काम के कुल घण्टों का दो-तिहाई स्त्रियाँ करती हैं। दुनिया में होने वाली कुल आमदनी का मात्र 10 प्रतिशत स्त्रियों को मिलता है। दुनिया में स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले कुल काम के दो-तिहाई के लिए कोई भुगतान नहीं मिलता। ग़रीबी में रहने वाले लोगों में 80 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं।
अब भारत की स्त्री मज़दूरों की चर्चा पर वापस लौटते हैं। ‘नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च’ के अनुसार भारत में 97 प्रतिशत स्त्री मज़दूर असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इन स्त्रियों के लिए ट्रेड यूनियन एक्ट (1926), न्यूनतम मज़दूरी क़ानून (1948), मातृत्व लाभ क़ानून (1961) और बहुतेरे ऐसे क़ानून हैं, जो कहीं भी लागू नहीं होते। इनमें ऐसे सुरक्षा क़ानून भी शामिल हैं जो ज़िला प्रशासन के पास पंजीकरण कराये जाने पर मज़दूरों को स्वास्थ्य और मातृत्व लाभ सहित कई सुविधाएँ देता है, लेकिन यह भी सिर्फ़ काग़ज़ पर ही। ज्यादा मालिक स्त्री मज़दूरों को अपना मुलाज़िम होने का कोई सबूत ही नहीं देते। ढेर सारी स्त्रियाँ कारख़ानों में भी पीस रेट पर ही काम करती हैं। काम का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्त्रियाँ घरों पर लाकर पीस रेट पर करती हैं। ऐसे 70-80 प्रकार के काम दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में स्त्रियाँ करती हैं। औसतन 8-10 घण्टे काम करके भी ये स्त्रियाँ 30 से 50 रुपये तक की कमाई ही कर पाती हैं। विडम्बना यह है कि सरकारी परिभाषा के मुताबिक़ घरों पर पीस रेट पर किया जाने वाला यह काम मज़दूरी की श्रेणी में आता ही नहीं। इसे स्वरोज़गार माना जाता है। इन स्त्रियों के स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा या दुर्घटना के लिए सरकार या मालिकों की कोई ज़िम्मेदारी नही होती। इधर सरकारी और विदेशी सहायता प्राप्त बहुत सारे एन.जी.ओ. कुकुरमुत्तों की तरह पनपे हैं जो स्वावलम्बन के नाम पर बहुत सस्ती दरों पर इन स्त्रियों से माल उत्पादन कराते हैं और माइक्रोक्रेडिट के नाम पर कर्ज देकर उनसे बैंकों से कई गुनी अधिक दरों पर सूद वसूलते हैं। अपने लुटेरे चरित्र पर पर्दापोशी करने के लिए सुधार कार्यक्रम भी चलाते रहते हैं। इन एन.जी.ओ. के मुलाज़िम भी नाम-मात्र की पगार पाते हैं और उनकी स्थिति भी कमोबेश असंगठित मज़दूरों जैसी ही होती है।
भारत की जिस तरक्की का खाता-पीता मध्यवर्ग दीवाना हो रहा है, उसके पीछे स्त्री-मज़दूरों के अकूत शोषण की अहम भूमिका है। इसका एक उदाहरण टेक्सटाइल और सिले-सिलाये कपड़ों का उद्योग है। खेती के बाद दूसरे नम्बर पर सबसे अधिक लोग इसी उद्योग में लगे हैं। कुछ साढ़े चार करोड़ लोगों को इस क्षेत्र में रोज़गार मिला हुआ है जिनमें लगभग तीन-चौथाई स्त्रियाँ हैं। वर्ष 2008 से जारी विश्वव्यापी मन्दी का भी सबसे ज्यादा असर स्त्री मज़दूरों पर पड़ा है। पिछले तीन वर्षों में दुनिया में ढाई करोड़ औरतें बेरोज़गार हो गयी हैं। जो काम कर रही हैं, उनकी भी वास्तविक मज़दूरी में बहुत अधिक गिरावट आयी है। 2008 में भारत में 10 लाख टेक्सटाइल मज़दूर बेकार हो गये। इनमें ज्यादातर स्त्रियाँ थीं।
पूँजीवादी लूटमार की सर्वाधिक शिकार इस असंगठित सर्वहारा समुदाय की करोड़ों की आबादी को जागृत और संगठित करना क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य है, पर यह अत्यधिक चुनौती भरा, श्रमसाध्य और लम्बा काम है। केवल सौदेबाज़ी करने वाले ट्रेडयूनियनों का ग़द्दार नेतृत्व तो यह काम कर ही नहीं सकता। पुरुष मज़दूरों में जो परम्परागत पुरुष स्वामित्ववादी मानसिकता गहरी जड़े जमाये है, वह भी स्त्री मज़दूरों की पहलक़दमी और सक्रियता को दबाने में अहम भूमिका निभाता है। स्वयं स्त्री मज़दूरों में अशिक्षा और राजनीतिक जागरूकता की कमी एक बड़ी बाधा है। जीवन की निराशा और अपनी दुरावस्था के मूल कारणों से अपरिचित होने के चलते स्त्री मज़दूरों में अन्धविश्वासों और धार्मिक रूढ़ियों का भी काफ़ी प्रभाव है। अगर स्त्री-पुरुष दोनों मज़दूरी करते हैं तब भी घरेलू कामों और बाल-बच्चों को सम्भालने की सारी ज़िम्मेदारी स्त्री के मत्थे होती है। बहुत पुरुष मज़दूर ख़ुद ही चाहते हैं कि कारख़ानों में काम करने बाहर निकलने के बजाये ”उनकी औरतें” घर-बार सम्भालते हुए घर पर ही पीस रेट पर काम करके कुछ ”अतिरिक्त कमाई” कर लिया करें। वे ख़ुद ही स्त्रियों की श्रम-शक्ति का कोई मोल नहीं समझते।
इन कठिन परिस्थितियों में भारत की स्त्री सर्वहारा की सोयी हुई, बिखरी हुयी विराट महाशक्ति को जगाने के लिए कई मोर्चों पर लम्बा और कठिन संघर्ष चलाना होगा। रात्रि पाठशालाओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सघन प्रचार के जरिये उन्हें अपने अधिकारों के प्रति तथा धार्मिक रूढ़ियों-अन्धविश्वासों के विरुद्ध जागरूक बनाना होगा। मज़दूर बस्तियों में रोज़मर्रे के जीवन से जुड़ी माँगों पर उन्हें संगठित करना होगा। मज़दूर आन्दोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ाने की लगातार कोशिशें करनी होंगी और स्त्री मज़दूरों की अपनी माँगों पर उनकी अलग से लामबन्दी की भी कोशिश करनी होगी। साझा यूनियनों के अतिरिक्त स्त्री मज़दूरों के स्वतन्त्र संगठन भी बनाने होंगे। यह कठिन और लम्बा काम है, लेकिन ज़रूरी काम है। अधिक जागरूक और अगुवा स्त्री-मज़दूरों के अध्ययन-मण्डल अलग से संगठित करने होंगे जिनमें उन्हें मज़दूर क्रान्तियों के बारे में, समाजवाद के बारे में, क्रान्तियों में आधी आबादी की अनिवार्य सक्रिय भूमिका के बारे में, समाजवादी समाज में उनकी आज़ादी के बारे में तथा मज़दूरों के आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्षों की प्रक्रिया के बारे में शिक्षित किया जाये। स्त्री मज़दूरों के भीतर से उनका नेतृत्व विकसित करना बेहद ज़रूरी है।
स्त्री मज़दूरों को संगठित करने की प्रक्रिया आर्थिक संघर्षों में उन्हें सक्रिय बनाने और बुनियादी जनवादी हक़ों के लिए लड़ना सिखाने के साथ ही सतत् सघन राजनीतिक प्रचार करती है। बहुत धैर्यवान, रचनात्मक और क्रान्तिकारी वैज्ञानिक समझ से लैस कार्यकर्ता ही इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकते हैं। उन्हें मज़दूर आबादी के साथ एकरूप हो जाना होगा। निश्चय ही, आज ऐसे क्रान्तिकारी मज़दूर संगठनकर्त्ताओं की भारी कमी है। इस कमी को दूर करना होगा। करते हुए सीखना होगा और फिर जनता को सिखाना होगा। चीज़ों को बदलने के लिए उन्हें समझना होगा और चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ख़ुद को बदल डालना होगा।
मज़दूर बिगुल, मई 2012
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