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पूँजीपतियों की सेवा में एक और बजट
जनता को और कष्टभरे दिनों के लिए तैयार हो जाना चाहिए
सम्पादकीय
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के सिवा और कुछ नहीं होतीं। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस कथन को सही साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है। ख़ासकर हर साल पेश होने वाले बजट में यह भूमिका बख़ूबी निभाने की कोशिश की जाती है। हर बार की तरह इस बार भी बजट में देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बड़ी राहतें दी गयी हैं और ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई की चक्की में पिस रही देश की मेहनतकश जनता पर बेहिसाब बोझ लाद दिया गया है। वैसे, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बजट का महत्व भी दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है क्योंकि बहुतेरे बड़े फ़ैसले अक्सर बजट के आगे पीछे ले लिए जाते हैं और लागू भी कर दिये जाते हैं।
वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी ने 1991 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी वचनबद्धता को एक बार फिर दोहराया है। इस वचनबद्धता को निभाने के लिए सरकार के सामने दोहरा कार्यभार है। एक है भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की रफ्तार तेज़ करना। उदारीकरण का अर्थ है भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाज़े अधिक से अधिक विदेशी पूँजी के लिए खोलते जाना और श्रम क़ानूनों को पूँजीपति वर्ग के हित और मज़दूरों के अहित में बदलते जाना। निजीकरण का अर्थ है सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों और अन्य संस्थानों को कौड़ियों के भाव देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपना। वैश्वीकरण का अर्थ है भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जोड़ना। सरकार के सामने दूसरा संकट है बजट घाटा कम करना। इन कामों को पूरा करने के लिए सरकार ने जो इन्तज़ाम किये हैं उनसे जहाँ देशी-विदेशी पूँजीपति मालामाल होंगे वहीं इस देश के मज़दूरों, ग़रीब और निम्न-मध्यवर्ग का हाल और भी बदतर हो जायेगा।
इस बार बड़े पूँजीपतियों को करों से सीधे कोई राहत नहीं दी गयी है लेकिन वर्तमान बजट में कुल 50,000 करोड़ रुपये के कारपोरेट आय कर माफ़ कर दिये गये हैं। पिछले छह वर्ष में केन्द्र सरकार ने क़रीब 4 लाख करोड़ का कारपोरेट आय कर माफ़ किया है। इस वर्ष के बजट में कस्टम और आबकारी शुल्क पर दी गयी रियायतों और कारपोरेट कर्ज़ माफ़ी को जोड़ा जाये तो कुल मिलाकर 5 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच जाता है।
इस बार करों से और छूट न मिलने से इस देश के पूँजीपति प्रणब मुखर्जी से नाराज़ भी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार ने पूँजीपतियों को कुछ भी नहीं दिया है। सरकार ने वित्तीय पूँजी ख़ासकर विदेशी पूँजी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए स्टॉक बज़ारों में होने वाले लेन-देन पर लगाये जाने वाले कर पर 20 प्रतिशत की कटौती कर दी है। यह कर पहले ही बहुत मामूली (1.25 प्रतिशत) था जो कि अब सिर्फ़ 0.1 प्रतिशत रह जायेगा। यह कर घटाये जाने पर सट्टेबाज़ी बढ़ेगी। दूसरा सरकार ने 10 लाख वार्षिक से कम आमदनी वाले मध्यवर्ग के लोगों को शेयर बाज़ार में निवेश के लिए उत्साहित करने की कोशिश की है। शेयर बाज़ार में 50 हजार रुपये तक निवेश की गयी पूँजी पर आय कर में 50 फ़ीसदी छूट दी गयी है। इससे भी पूँजीपतियों को शेयर बाज़ार से पूँजी जुटाने में आसानी होगी।
2011-12 के वित्तीय वर्ष के लिए केन्द्र सरकार का बजट घाटा कुल घरेलू उत्पादन का 5.9 प्रतिशत था जबकि सरकार का लक्ष्य इसे 4.9 प्रतिशत तक लाने का था। 2012-13 के वित्तीय वर्ष के लिए सभी कोशिशों के बावजूद यह घाटा 5.1 प्रतिशत रहने का सरकारी अन्दाज़ा है। सरकार इस घाटे को अधिक से अधिक घटाना चाहती है। मौजूदा बजट में सरकार ने बजट घाटे को कम करने के लिए जो क़दम उठाए हैं वे इस देश की मेहनतकश जनता को बुरी तरह निचोड़ने वाले हैं।
एक्साइज़ डयूटी को 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया है। इससे केन्द्रीय उत्पाद करों से सरकारी आमदनी 150,075 करोड़ से बढ़कर 197,729 करोड़ होने का अन्दाज़ा है यानि एक वर्ष में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। दूसरे हाथ सरकार ने खादों और पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी घटाने का फैसला किया है। 2011-12 के लिए संशोधित अनुमानों के मुताबिक़ खादों पर सरकार 67,199 करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है, जो 2012-13 में घटकर 60,974 करोड़ रुपये रह जाएगी। इस तरह पेट्रोलियम पदार्थों पर 2011-12 में 68,481 करोड़ रुपये सब्सिडी दी जाती थी जो कि 2012-13 में घट कर 43,580 करोड़ रुपये रह जाएगी। इसका भी बोझ आम जनता पर ही पड़ेगा। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र से पूँजी विनिवेश के कार्यक्रम को तेज़ करने का भी फैसला किया है। 2011-12 के बजट में सरकार ने विनिवेश से 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था लेकिन 14,000 करोड़ रुपये ही जुटा पायी थी। इस बजट में सरकार ने विनिवेश से 30,000 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य तय किया है। इससे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की रफ्तार तेज़ हो जायेगी। सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की छँटनी का सिलसिला तेज़ होगा, नयी भरती रुकेगी। पक्के सुरक्षित रोज़गार के अवसर सिकुड़ेंगे।
ये हैं वे तरीक़े जिनके जरिए सरकार बजट घाटा कम करना चाहती है। इनमें कहीं भी देशी-विदेशी पूँजीपतियों के बेहिसाब मुनाफों पर कर लगाकर धन जुटाना और इसे ग़रीबों-मेहनतकशों के हितों में इस्तेमाल करना शामिल नहीं है और देश के हुक्मरानों से ऐसी उम्मीद करना भी हद दर्जे का भोलापन होगा।
सरकार करों से जो धन संग्रह करती है उसका बड़ा हिस्सा अप्रत्यक्ष करों का है जिसका बड़ा हिस्सा इस देश के मेहनतकश अदा करते हैं। प्रत्यक्ष कर, यानि आमदनी पर कर जो कि प्राय: अमीरों पर लगता है, उसका सरकारी आमदनी में बहुत कम हिस्सा है। 2010-11 में सरकार को करों से होने वाली कुल आमदनी में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 38 प्रतिशत था जो कि अब घटकर अन्दाज़न 35 प्रतिशत रह जायेगा। साफ़ है कि साधारण मेहनतकशों पर करों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है।
यूपीए सरकार के बहु-प्रचारित ‘खाद्य सुरक्षा क़ानून’ को लागू करने पर 2011-12 में 73,000 करोड़ रुपये रखे गये थे और 2012-13 के लिए इसमें सिर्फ़ 2 हज़ार करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी की गयी है जबकि इस समय के दौरान खाने-पीने की सभी वस्तुओं की क़ीमतें असमान छू रही हैं। इस क़ानून के दायरे में भी आबादी के एक बहुत छोटे हिस्से को लिया जा रहा है। जिस देश में 80 प्रतिशत आबादी भुखमरी से जूझ रही हो, वहाँ खाद्य सुरक्षा पर यह मामूली सा ख़र्च जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार क़ानून के तहत ग्रामीण मज़दूरों को रोज़गार देने के लिए किये जाने वाले ख़र्च का भी यही हाल है। चालू वर्ष में इस स्कीम पर 31,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये गये जो कि इस स्कीम के लिए रखे गए कुल फ़ण्ड का 75 प्रतिशत था। आने वाले वर्ष के लिए सरकार ने इस स्कीम पर होने वाले कुल ख़र्च में 7,000 करोड़ रुपये की कमी करके इसे 33,000 करोड़ रुपये कर दिया है। वैसे भी यह स्कीम देश में आधी-अधूरी ही लागू हो रही है। लगभग पूरे देश में ही ग्रामीण ग़रीबों को इस स्कीम के तहत 50 दिन भी रोज़गार नहीं मिलता। यह स्कीम बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरशाही और ग्रामीण दबंगों के भ्रष्टाचार की शिकार है। अन्य सभी सरकारी कार्यक्रमों की तरह ही इसके अन्तर्गत ग़रीबों के लिए जारी होने वाला धन सरकारी नौकरशाही और ग्रामीण चौधरियों के ही पेट में जाता है। इसके असल हक़दारों तक तो कुछ टुकड़े ही पहुँच पाते हैं।
वैसे महँगाई का राक्षस तो हमेशा ही देश के मेहनतकशों को कुचलता रहा है, लेकिन पिछले दो-ढाई वर्षों से महँगाई छलाँगें लगाते हुए बढ़ी है। प्रणब मुखर्जी का यह बजट महँगाई में और भी तीख़ी बढ़ोत्तरी करेगा। एक्साइज़ डयूटी में बढ़ोत्तरी प्रत्यक्ष तौर पर महँगाई में बढ़ोत्तरी है। पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी के ख़ात्मे के साथ साधारण लोगों की ज़रूरत की सभी वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ जायेंगी। परिवहन भी महँगा होगा।
खादों पर सब्सिडी कम करने का नतीजा भी महँगाई ही होगा। खादों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल ग्रामीण पूँजीपति ही करते हैं, इसके लिए खादों पर सब्सिडी का फ़ायदा भी इसी वर्ग को होता है। अब खादों पर सब्सिडी घटने का असर इस वर्ग के मुनाफ़े घटने में नहीं निकलेगा। यह वर्ग तो कृषि जिंसों की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी के रूप में अपना मुनाफ़ा पहले की ही तरह बरक़रार रखेगा जबकि सारा बोझ इस देश की मेहनतकश आबादी पर ही पड़ेगा।
कुल मिलाकर इस बजट में जहाँ अमीरों के लिए राहत है वहीं ग़रीबों के लिए आफ़त है। यह अमीरों को और अमीर बनाने वाला और ग़रीबों को और अधिक निचोड़ने वाला बजट है। सरकार की ऐसी नीतियाँ समाज के भीतर वर्ग ध्रुवीकरण को लगातार तीख़ा कर रही हैं जिसके नतीजे के तौर पर सामाजिक हालात लगातार विस्फोटक होते जा रहे हैं। बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, अन्याय, अपमान के विरुद्ध मेहनतकशों के ग़ुस्से के सम्भावित विस्फोटों से भी देश के हुक्मरान चिन्तित हैं। ऐसी हर परिस्थिति से निपटने के लिए भी वे पहले से ही तैयारी कर रहे हैं। यही मुख्य वजह है कि इस बजट में रक्षा बजट में भारी बढ़ोत्तरी की गयी है और भविष्य में और भी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है। 2012-13 के रक्षा बजट के लिए 1.93 लाख करोड़ की रक़म रखी गयी है जो कि कुल घरेलू उत्पादन के 1.90 प्रतिशत के क़रीब है। निकट भविष्य में सरकार की योजना इसे बढ़ाकर ढाई लाख करोड़ करने की है। रक्षा बजट में इस बड़ी बढ़ोत्तरी के लिए चीन से ख़तरे का बहाना बनाया गया है। लेकिन इस देश के लुटेरे हुक्मरानों को वास्तविक ख़तरा बाहरी नहीं है बल्कि छह दशकों से लूट-दमन की मार झेलते आ रहे मेहनतकशों से है, जिनके सब्र का प्याला लगातार भरता जा रहा है। इस देश के हुक्मरानों को दिन-रात इस देश के करोड़ों मेहनतकशों के इस दमनकारी-अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का डर सताता रहता है। उनका यह सम्भावित डर कब एक हक़ीक़त बनेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
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पूँजीवादी बजट और अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ नंगी सच्चाइयाँ
पूँजीपतियों के प्रवक्ताओं से लेकर मधयवर्ग के लोग तक ग़रीबों को दी जाने वाली सब्सिडी (सरकारी सहायता) पर अक्सर शोर मचाते रहते हैं। पूँजीवादी मीडिया में भी अक्सर यह प्रचार किया जाता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बस-रेल भाड़ा, खाद आदि पर सरकार जो सब्सिडी देती है या विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में सरकार जो पैसे ख़र्च करती है उसी के कारण सरकारी घाटा होता है। कहा जाता है कि सरकार का काम स्कूल अस्पताल आदि चलाना नहीं है और इन सबको निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए। (खाये-पिये-अघाये) मध्यवर्ग के प्रिय धर्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने तो यहाँ तक फ़रमाया कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे आतंकवादी और नक्सलवादी बनते हैं इसलिए देश के सभी स्कूलों का निजीकरण कर देना चाहिए! मगर ये तमाम लोग पूँजीपतियों को दी जाने वाली भारी सब्सिडी पर चुप्पी मार जाते हैं। वैसे इनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि सरकार अगर देश की जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, संचार-यातायात, जैसी बुनियादी कल्याणकारी सुविधाएँ भी नहीं प्रदान कर सकती तो फिर पूँजीवादी जनवाद भला है किसलिए? देश की ग़रीब जनता से अरबों-ख़रबों रुपये के टैक्स किसलिए वसूले जाते हैं? जनवाद का मतलब क्या बस इतना है कि पाँच साल पर जनता अपने ऊपर शासन करने के लिए कुछ लोगों को चुन लिया करे? इस देश का संविधान भी देश की जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने का आश्वासन देता है।
सब्सिडी की असलियत को समझ लेना भी ज़रूरी है। कुल-मिलाकर जो सब्सिडी दी जाती है उसका बहुत बड़ा हिस्सा कारपोरेट घरानों, व्यापारियों और पूँजीपतियों की जेब में जाता है। ग़रीबों को मिलने वाली सरकारी सहायता तो लगातार पिछले बीस वर्षों में कम होती चली गयी है। एक-एक कर, तमाम सुविधाओं का निजीकरण किया जा रहा है या फिर सरकारी अस्पतालों, स्कूलों आदि में फीसें बढ़ायी जा रही हैं। दूसरी तरफ, कारपोरेट घरानों को मिलने वाली सब्सिडी, टैक्स माफ़ी लगातार बढ़ती ही गयी है। खाद आदि पर मिलने वाली सब्सिडी का फ़ायदा भी दरअसल खाद कम्पनियों को ही मिलता है। बेहद सस्ती दर पर उद्योगों के लिए बिजली, नब्बे-नब्बे साल की लीज़ और नाममात्र के किराये पर विशाल भूखण्ड, नये उद्योग लगाने पर कई साल के लिए टैक्सों में छूट, बहुत सस्ती दर पर बैंकों से कर्ज़ आदि के रूप में पूँजीपतियों को ज़बर्दस्त फायदा पहुँचाया जाता है। इसके बाद भी ज़्यादातर घराने भारी टैक्स चोरी करते हैं, सालों-साल तक बिजली आदि के बिलों का भुगतान नहीं करते, फिर वसूली के सवाल पर अदालत चले जाते हैं या लम्बी किश्ते बँधवा लेते हैं और अक्सर उसे भी नहीं चुकाते। सरकारी बैंकों के घाटे की एक बहुत बड़ी वजह यह है कि देश के पूँजीपति घरानों के पास बैंकों का क़रीब एक लाख करोड़ रुपया बरसों से पड़ा है जिसे वे न लौटा रहे हैं और न ही ब्याज़ अदा कर रहे हैं। ग़रीब किसान और मज़दूर कर्ज़ न चुका पाने के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं या उन्हें जेल और कुर्की की सज़ा भुगतनी पड़ती है, मगर अरबों रुपए डकार कर अमीर लोग शान से घूमते रहते हैं।
किंगफिशर एयरलाइन्स का उदाहरण सामने है जिसके मालिक विजय माल्या अपनी अश्लील क़िस्म की अय्याशियों के लिए कुख्यात हैं और अपनी शराब कम्पनियों से दुनियाभर में भारी कमाई करते हैं। मगर एयरलाइन्स का सैकड़ों करोड़ का घाटा पूरा करने के लिए वह सरकार से सैकड़ों करोड़ रुपये का सस्ता कर्ज़ माँगते हैं और वह उन्हें मिल भी जाता है। वोडाफोन कम्पनी के उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है। कम्पनी ने सीधे-सीधे धोखाधड़ी करके सरकार को हज़ारों करोड़ का चूना लगाया है मगर उसके मालिकों को गिरफ्तार करने के बजाय सरकार उसे छूट देने के लिए पिछली तारीख़ से क़ानून में संशोधन करने पर आमादा है।
यहीं पर यह जान लेना भी ज़रूरी है कि सरकार को टैक्सों से जो भारी कमाई होती है उसका बड़ा हिस्सा देश की ग़रीब जनता चुकाती है। अक्सर मध्यवर्ग तक के लोग काफ़ी नाराज़ हुआ करते हैं कि अमीरों और मध्यवर्गीय लोगों से वसूले गए टैक्सों की रकम सरकार ग़रीबों पर लुटा रही है। उन्हें यह बताया जाना ज़रूरी है कि ग़रीब उन्हें मिलने वाली थोड़ी बहुत सहायता का भी ख़र्च उठाते हैं बल्कि इस देश की नेताशाही और अफ़सरशाही की विलासिता और शानोशौक़त का बोझ भी उन्हीं की पीठ पर पड़ता है। देश के कुल टैक्सों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा परोक्ष करों से आता है, यानी देश की करोड़ों जनता अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए जो कुछ भी सामान ख़रीदती है उसके दाम में शामिल उत्पाद कर, बिक्री कर, सीमा शुल्क आदि के ज़रिये जो परोक्ष कर वह चुकाती है उसकी कुल मात्रा आयकर जैसे प्रत्यक्ष करों की लगभग दोगुनी होती है। सभी अर्थशास्त्री इस बात को जानते हैं कि प्रत्यक्ष कर मध्यवर्ग और अमीर आबादी चुकाती है और परोक्ष करों का भारी हिस्सा ग़रीब चुकाते हैं फिर भी यह झूठ लगातार प्रचारित होता रहता है।
ग़रीबों से वसूले जाने वाले इन्हीं परोक्ष करों की बदौलत भारत की विशाल नौकरशाही और नेताशाही की फिज़ूलख़र्चियाँ होती हैं। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल और सम्बद्ध विभागों का कुल ख़र्च वर्ष 2006-07 में 1 ख़रब 36 अरब डॉलर (यानी क़रीब 61 ख़रब 20 अरब रुपये) और 2007-08 में 1 ख़रब 66 अरब डॉलर था। वर्ष 2007-08 में केन्द्र सरकार की टैक्सों से होने वाली शुद्ध आय 23 प्रतिशत बढ़कर 3 खरब 75 अरब डॉलर हो गयी। सचिव स्तर से लेकर नीचे कलक्टर-तहसीलदार तक, डीजीपी से लेकर एसपी तक, बिजली, सिंचाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, रेल, डाक-तार, यातायात, उद्योग-व्यापार आदि विभागों के अफ़सरों-इंजीनियरों से लेकर राजनयिकों तक देश में क़रीब 70-75 लाख ऐसे अधिकारी होंगे जो अपनी वैध कमाई से पश्चिमी देशों के पैमाने पर उच्च-मध्यवर्ग की ज़िन्दगी बिताते हैं।
इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। कल्याणकारी राज्य को जिन ज़िम्मेदारियों को पूरा करना ही चाहिए उनसे एक-एक कर सरकारें पल्ला झाड़ती गयी हैं और हर बार संसाधनों की कमी का रोना रोया जाता है। मगर इस सच्चाई को कोई सामने नहीं लाता कि जब अमीरों को फ़ायदा पहुँचाना हो तो चुटकी बजाते सारे संसाधन इकट्ठा हो जाते हैं। टाटा की ”ग़रीबों की कार” नैनो का कारख़ाना लगाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने उन्हें ज़मीन, टैक्सों में छूट, बिजली की दरों में रियायत आदि के ज़रिये जो फायदा पहुँचाया है उसे अगर जोड़ा जाए तो टाटा की हर लखटकिया कार पर क़रीब साठ हज़ार रुपए की सब्सिडी बैठेगी (स्रोत, टाइम्स ऑफ़ इण्डिया)।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
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