पीड़ा के समुद्र और भ्रम के जाल में पीरागढ़ी के मज़दूर
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दिल्ली के पीरागढ़ी इलाक़े में उद्योग नगर मेटो स्टेशन के पास एक तरफ फैक्टरी इलाका है और दूसरी तरफ मज़दूरों की रिहायश है। सुबह आठ बजे से मज़दूरों के झुण्ड फैक्टरी इलाके में प्रवेश करते है तो दूसरी तरफ मज़दूरों का जत्था रात में काम करके फैक्टरी इलाके से निकलता रहता है। जैसे-जैसे समय बढ़ता है मज़दूरो की संख्या भी बढ़ने लगती है और 9 बजे के आस-पास चारों तरफ मज़दूरों का सैलाब उमड़ पड़ता है। ज्यादातर हाथ में लंच बॉक्स लिए तेज कदम से, तो कुछ आराम से फैक्टरी इलाके में प्रवेश करते है। धीरे-धीरे इनकी संख्या घटने लगती है और लाखों मज़दूर फैक्टरी में 10-12 घण्टे के लिए बंद हो जाते हैं फिर 6 बजे से देर रात तक फैक्ट्रियां से निकलते रहते हैं। पश्चिम दिल्ली का औद्योगिक इलाका जिसमें पीरागढ़ी (उद्योगनगर), मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी, नागलोई से लेकर बहादुरगढ़ तक फैला हुआ है। यहाँ लाखों की संख्या में मज़दूर रहते हैं।
इलाके का इतिहास
दिल्ली में सत्तर के दशक में जब लाखों की संख्या में झुग्गी को हटाया गया तो झुग्गी में रहने वाले लोगों को 25-25 गज का प्लॉट दिया गया था। यह प्लॉट ज्वालापुरी, मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी और नांगलोई में दिया गया था। ये लोग उस समय झुग्गी में रहने वाले मज़दूर थे जो निर्माण क्षेत्र, कारखानों में काम करते थे और सरकारी विभाग में चपरासी या सफाई कर्मचारी थे। बाद में जिनको ये प्लाट मिले थे उसमें से बहुत सारे अपना प्लाट बेचकर दूसरी जगह चले गये और फिर कोई ओर उस प्लाट का मालिक बन गया। इसमें ज्यादातर लोग यू.पी. और बिहार से थे जो ज्यादातर पिछड़ी जातियों, दलित जातियों से थे व एक हिस्सा मुस्लिमों का भी था। धीरे-धीरे इन इलाकों में फैक्टरियां लगनी शुरू हुई और मज़दूरों की आबादी भी इलाके में बढ़ने लगी। 1990 के बाद जब निजीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने लगी तो फैक्टरी इलाका बनाना शुरू किया गया और उसी तर्ज पर उद्योग नगर औद्योगिक क्षेत्र और मंगोलपुरी औद्योगिक क्षेत्र और मंगोलपुरी औद्योगिक क्षेत्र बनाया गया। तेजी से फैक्टरियां लगनी शुरू हुई और धीरे-धीरे इलाका बढ़ता गया और आज ये नांगलोई से बहादुर गढ़ तक फैल गया है जहाँ अब हजारों की संख्या में छोटी-बड़ी फैक्टरियां चल रही है।
इलाके की वर्तमान स्थिति
वर्तमान में, 25-25 गज प्लाट जो झुग्गी के मज़दूरों को दिया गया था या जिसने उस प्लाट को खरीद लिया था, अब उसे 3 से 4 मंजिल का मकान बना रखा है जिसमें नीचे मकान मालिक रहता है और ऊपर के मंजिल पर किराए पर मज़दूर रहते हैं। ज्यादातर कमरे 10गुणा12 या 12गुणा15 फीट के हैं जिसमें प्रत्येक कमरे में 3 से 4 की संख्या में मज़दूर रहते हैं। कमरे का औसत किराया 2000 रूपये से 3000 रूपये तक है। मकान मालिक जो पहले ज्यादातर सफाई कर्मचारी, चपरासी या किसी फैक्टरी में काम करते थे या अभी भी कहीं काम करते हैं उनकी आय का बड़ा स्रोत मकान से मिलने वाला किराया है। इनकी मानसिकता भी जब घर पर होते हैं तो मकान मालिक जैसी ही होती है जो किराएदार पर रौब जमाता है। मज़दूरों का सबसे बड़ा हिस्सा इसी इलाके में रहता है। इसके अलावा हाल के वर्षों में बहुत से नए इलाके भी बसे है जैसे निहार विहार, प्रेम नगर, किराड़ी, अल्वी नगर इनमें भी मज़दूरों की दूसरी बड़ी आबादी रहती है। इसके लावा इलाके में 6-7 झुग्गी बस्ती भी है जिसमें लगभग सभी मज़दूर ही रहते है पर यहाँ भी झुग्गी मालिक जो खुद मज़दूरी करता है, अपनी झुग्गी के ऊपर एक छोटा सा कमरा बनाकर किसी प्रवासी मज़दूर को किराए पर दे देता है। एक समय में यहाँ रहने वाले सभी लोग प्रवासी थे पर अब जिनका यहाँ प्लाट है वे अपने को दिल्ली वाला बताते है और जो किराए पर रह रहा है वो प्रवासी मज़दूर कहलाता है। वर्तमान में इलाके में प्रवासी मज़दूर की आबादी सबसे ज्यादा है जिसमें बड़ी संख्या बिहार, यू.पी., बंगाल से है इसके अलावा हरियाणा, उतराखण्ड, उत्तर-पूर्व के राज्य तथा छोटी सी आबादी दूसरे राज्यों से भी है। इन छोटे-छोटे कमरों में 3-4 की संख्या में रहने वाली लाखों मज़दूरों की आबादी बस रात काटने के लिए और खाना बनाकर खाने के लिए और दिन भर फैक्टरी में काम करने के लिए किसी तरह जीती रहती है। एक छोटा सा इनका भी 25 गज का प्लाट हो या गांव में जाकर थोड़ा घर बना लेने का सपना पालकर दिन रात काम करते है और छोटे-छोटे कमरे में जिन्दगी बीता देते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था ने इनको मनोरंजन के नाम पर मोबाइल दे दिया है जिसमें ज्यादातर अश्लील गाने और फिल्म को परोसा जा रहा है जिससे मज़दूरों की सामूहिकता की भावना और राजनीतिक चेतना को भी बड़ा नुकसान हो रहा है और अन्ततः मज़दूरों का ही नुकसान हो रहा है। झुग्गी इलाके में रहने वाले मज़दूरों की तो और भी बदतर स्थिति है वहाँ न पीने का पानी है, न साफ शौचालय और चारों तरफ गंदगी है। बीमारियों का प्रकोप सबसे ज्यादा इन्हीं इलाकों में होता है। इस पूरे इलाके में कांग्रेस पार्टी का दबदबा पहले से रहा है क्योंकि इंदिरा गांधी के समय से इलाके में अपने दलाल नेताओं के जरिए लोगों को छोटी-छोटी भीख देकर खुश रखती है और अपने वोट बैंक को बनाकर रखती है। इसके अलावा बीजेपी ने भी इलाके का साम्प्रदायिकीकरण करके अपने आधार को कहीं कहीं मजबूत किया है। बहुजन समाजवादी पार्टी का भी थोड़ा काम इलाके में है। चुनावी पार्टियों के अलावा विभिन्न धर्मों के धार्मिक संस्थान और इलाके में कई एनजीओ भी है जो लोगों को गुमराह करने में लगे हुए है।
फैक्टरियों में काम के हालात
उद्योग नगर और मंगोलपुरी औद्योगिक क्षेत्र में ज्यादातर फैक्टरी जूता चप्पल बनाने की है। इसके अलावा गारमेण्ट, ऑटो पाटर्स, मेडिसिन, ग्लास, सर्विस सेन्टर, कॉल सेन्टर तथा अनेको तरह के दूसरे उद्योग भी हैं। बाहर से चमकती इन फैक्टरियों में आये दिन दुघर्टनाएँ होती रहती है । 2011 में उद्योग नगर में जूता चप्पल की फैक्टरी मे आग लगने से 50 से ज्यादा मज़दूर जिन्दा जल गए थे। इसी तरह की एक घटना मंगोलपुरी में भी हुई थी जिसमें कई मज़दूर जल कर मर गये थे। जूता-चप्पल की इन फैक्टरियों में जहाँ प्लास्टिक के दाने से चप्पल बनाया जाता है या जूता का तल्ला बनाया जाता है, वहाँ काफी गर्मी होती है और चारों तरफ जूता-चप्पल का ढेर लगा होता है। आग का छोटा-सा तिनका आग को पूरे फैक्टरी में फैला सकता है क्योंकि चारों तरफ प्लास्टिक का ढेर रहता है और बड़ी मशीन चलते से वहाँ गर्मी भी काफी होती है। मज़दूरो की सुरक्षा के नाम पर कहीं-कहीं आग बुझाने के उपकरण रखे होते है पर ज्यादातर फैक्टरियों में तो आग बुझाने का उपकरण तक नहीं है। जहाँ आग बुझाने का उपकरण है भी तो वहाँ मज़दूरों को इसके चलाने की जानकारी नहीं है और न ही फैक्टरियों में इमरजेन्सी गेट होता है बल्कि उल्टे प्रत्येक फैक्टरी के बाहर भारी भरकम लोहा का गेट लगा रहता है और उसको ताला लगा कर रखा जाता है। बहुत सी फैक्टरियों में तो साफ पीने का पानी तक नहीं है और शौचालय का हाल ऐसा है कि शौचलय के पास खड़ा नहीं रहा जा सकता है। दूसरी तरफ उसी फैक्टरी में जहाँ मालिक और बड़े अधिकारी बैठते है और शौचालय जाते है वहाँ सबकुछ साफ-सुथरा रहता है और ए.सी. की व्यवस्था रहती है। गारमेण्ट की एक फैक्टरी में तो काम करते हुए पता चला कि वहाँ दो किस्म की चाय बनती है। एक चाय बनती है मज़दूरों के लिए जिसमें 150 मज़दूरों की चाय 1 लीटर दूध से बनायी जाती है और दूसरी तरफ बड़े अधिकारीयों और मालिक के लिए चाय में थोड़ा-सा भी पानी नहीं मिलाया जाता और उनके लिए चाय बनाने वाले बर्तन भी अलग होते हैं। जिन मज़दूरों को निचोड़कर ये मालिक और अधिकारी ऐय्याशी करते है उन मज़दूरों को ये इंसान तक नहीं समझते हैं। मज़दूरों से गाली से बात करना, उनके साथ मार-पीट करना तथा जब मन चाहे उसे काम से बाहर निकाल देना, इतना अपमान सहते हुए भी मज़दूर, पुलिस, नेता, मंत्री और बड़े ताकतवर लोगों के मजबूत गठजोड़ के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं कर पाता है। मज़दूरों में मालिकों की ताकत का इतना खौफ है कि छुट्टी के समय मज़दूर खुद सिक्यूरिटी गार्ड के सामने जाकर अपनी जांच कराते हैं कि वह कुछ नहीं ले जा रहा है क्योंकि मज़दूर को पता है अगर गलती से भी फैक्टरी की कोई चीज उसके साथ गयी और सिक्युरिटी गार्ड ने पकड़ लिया तो पिटाई तो होगी ही साथ में पुलिस के हवाले कर दिया जायेगा।
मालिकों का यूनियन पहले से बना हुआ है और उनका बड़ा सा एक आफिस भी है। इलाके में घुमते हुए ज्यादातर फैक्टरी में ‘18 साल से काम उम्र के बच्चे का काम करना मना है’ का बोर्ड लगा हुआ है और कुछ फैक्टरी के सामने डिस्प्ले बोर्ड भी लगा हुआ है जो देखने से लगता है इसे 6-7 साल पहले लगाया गया होगा। इलाके में ज्यादा फैक्टरियां रजिस्टर्ड है लेकिन किसी भी फैक्टरी में न्यूनतम वेतन व अन्य श्रम कानून लागू नहीं होते। फैक्टरियों में महिला मज़दूरों की दशा तो ओर भी खराब है। उनको पुरूष मज़दूर की तुलना में वेतन कम मिलता है तथा उनके लिए तो ज्यादातर जगह पर अलग शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है। इसके अलावा महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाएं भी होती रहती है। ठेकेदार, सुपरवाइजर, मालिक के चमचे और मैनेजर, ये लोग ज्यादातर महिलाओं से छेड़खानी करते है क्योंकि उनको पता होता है मालिक का हाथ उनके सर के ऊपर है और उनको कुछ नहीं होने वाला है। महिलाओं का संगठन नहीं होने से अकेली महिला इन सबके खिलाफ कुछ नहीं बोल पाती है और चुपचाप सहती रहती है क्योंकि अगर बोलने पर काम से निकाल दिया गया तो घर में खाने के लाले पड़ जायेंगे।
काम की प्रकृति
जूते-चप्पल की इन फैक्टरियों में ज्यादातर काम ठेके पर होता है। मालिक किसी भी तरह की मुसीबत से बचने के लिए और बैठे-बैठे आराम से मुनाफ़ा कमाने के लिए काम को ठेके पर दे देता है। जूते-चप्पल के काम में अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग ठेकेदार को ठेका दिया जाता है। जैसे जूते की सिलाई के लिए एक या दो ठेकेदार को दे दिया गया, जूता से तल्ला (shole) चिपकाने के लिए भी कई ठेकेदार या एक ही ठेकेदार को उसके बाद पैकिंग के लिए भी एक या दो ठेकेदार को काम दे दिया जाता है। इसके अलावा अगर जूता या चप्पल में पेंटिग का काम है तो इस काम को भी एक पेंटिग के ठेकेदार को ठेके पर दे दिया जाता है। इन ठेकेदार से मालिक एक जोड़ी चप्पल या जूता सिलाई या पैकिंग का रेट तय करता है। अधिकांश फैक्टरियों में पुरूष मज़दूर (हेल्पर) को आठ घण्टे के लिए 3800 से 4500 रूपये मिलते है, महिला मज़दूर (हेल्पर) को 3000 से 3500 रूपये मिलते है और अर्द्धकुशल मज़दूर को 5000 से 6000 रूपया प्रति माह मिलता है जो कि दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन का लगभग आधा है। इसके अलावा ठेकेदार जिस रेट से काम मालिक से लेता है उससे कम रेट पर अपने अर्द्धकुशल कारीगर से पीस रेट पर काम करवाता है। ठेकेदार ज्यादातर अपने गांव , क्षेत्र, धर्म के आदमी को साथ रखता है ताकि मज़दूरों को ‘अपना आदमी’ का भ्रम रहे। मज़दूर सोचता है कि ठेकेदार अपने क्षेत्र, धर्म का या रिश्तेदार है और जो मिल रहा है उसे रख लिया जाय। जबकि ठेकेदार ‘अपने’ क्षेत्र या धर्म के मज़दूर के सर पर बैठकर काम करवाता है, मज़दूरों की कम चेतना का फायदा उठता है उनसे अश्लील बातें करता है और किसी दिन कुछ खिला-पिला देता है। इन सबके बीच मज़दूर अपने हक अधिकार को भूल जाता है जिसका फायदा मालिक और ठेकेदार को ही होता है। मज़दूर यह सवाल नहीं उठाता है कि अगर ठेकेदार अपना आदमी है तो मज़दूरों को जो हक अधिकार मिलने चाहिए उसके लिए क्यों नहीं वो कुछ करता है जिससे मज़दूरो का भला होगा। बहुत मज़दूर ऐसे भी हैं जो उन जगह पर काम करना पसन्द करते है जहाँ प्रत्येक रोज ओवर टाइम लग सके जबकि आठ घण्टे पर मिलने वाला पैसा बहुत कम होता है, इस पर खुलकर नहीं बोलता है। दूसरा ओवर टाइम भी सिंगल टाइम 10 घण्टे के बाद से शुरू होता है। इलाके में कुछ नए नियम भी बना दिए गए हैं जैसे फैक्टरी में अगर रविवार को काम बंद रहता है और कोई मज़दूर शनिवार या सोमवार किसी दिन छुटटी करता है तो उसका दो दिन की दिहाड़ी काट ली जाती है। मज़दूरो ने भी इसे इस इलाके का कानून मान लिया है और बस काम करते रहते है। मज़दूरों के बीच ठेकेदारों ने एक भ्रम फैला रखा है कि जो लिमिटेड फैक्टरी है सिर्फ वहाँ ही श्रम कानून लागू होंगे जो कि एकदम गलत है। बहुत से मज़दूरो को यह भी भ्रम होता है कि मालिक तो अच्छा है पर ठेकेदार बीच में मज़दूरों को निचोड़ता है जबकि मालिक जानबुझ कर काम ठेके पर करवाता है ताकि वह कोई विवाद होने पर मज़दूर और ठेकेदार का विवाद बताकर बच निकले और बैठे-बैठे कमाता रहे। बहुत सी फैक्टरियों में वेतन पर काम होता है और कुछ में ई.एस.आई. और पी.एफ. भी मिलता है । जिस फैक्टरी में वेतन पर मालिक की निगरानी में काम होता है वहाँ मालिकों की मनमानी चलती है और थोड़ा सा काम पर देर से आने वाले से गाली से बात की जाती है और कोई भी श्रम कानून लागू करने की बात करने पर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। कुछ फैक्टरियों में काम पर रखते समय मज़दूरों से सभी पेपर लेते है (पहचान पत्र, फोटो वर्तमान पता आदि) और काम पर रखने से पहले बहुत से स्टाम्प पेपर पर हस्ताक्षर और अंगूठा लगवाया जाता है जिसमें क्या लिखा होता है मज़दूर को नहीं बताया जाता है तथा पूछने पर कहा जाता है अगर काम करना है तो इन पेपर पर अंगूठा लगाना पड़ेगा। मज़दूरों से बातचीत में पता चला कि उसमें से एक पेपर पर हस्ताक्षर इस नाम पर करवाया जाता है कि उक्त मज़दूर ने कम्पनी से 50 हजार रूपये उधार लिए है और जब भी मज़दूर फैक्टरी के खिलाफ होगा तो उसे आसानी से कानूनी मामलों में फंसाया जा सकता है। पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों का पीस का रेट इतना कम रखा जाता है कि वो ज्यादा पैसे कमा ही नहीं सकते। पीसरेट पर काम करने वाले मज़दूर सुबह सबसे पहले काम शुरू कर देते है और देर शाम तक करते है, लंच में भी पूरा आराम नहीं करते, लंच खत्म कर तुरन्त काम पर लग जाते हैं। इन मज़दूरों में भी मालिकों ने भ्रम पैदा किया हुआ है कि यह अपना काम है जितना मर्जी है, करो और पैसा कमाओ जबकि ये मज़दूर सबसे ज्यादा देर तक काम करते रहते है और इनको कोई भी अधिकार नहीं मिलता है। कार्यस्थल की सुरक्षा, जीवन की सुरक्षा का प्रश्न महत्वहीन बना दिया जाता है। बस आंख मुंद कर पीस बनाओ एक ही बात ध्यान में रहती है। एक और बात जो इन मज़दूरों के बीच होती है कि ये अपने आप को कारीगर कहते हैं, अपने आप को मज़दूर से ऊपर समझते हैं जिसके कारण मज़दूरों की आपसी एकता नहीं बन पाती और इन सबका फायदा मालिक का होता है। जबकि मालिक किसी को भी किसी वक्त काम से निकाल सकता है, पैसा रोक लेता है, गाली-गलौच करता है और मज़दूर चुपचाप देखते रहते है और एक-एक मज़दूर को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। आपसी एकता के अभाव में मज़दूर कुछ बोल नहीं पाता है और इन सबका फायदा मालिक को ही होता है। फैक्टरी में काम करने वाले ज्यादातर प्रवासी मज़दूर है। इनकी भी एक मानसिकता होती है कि काम करने आये हैं, कमाने खाने आये हैं, भैया लड़ाई झगड़े से दूर ही रहो। मालिक जो देता है चुपचाप रखो और दिन-रात काम करो तो तरक्की मिलेगी। वास्तव में वो न यहाँ बहुत कमा रहा है न ही अच्छी जिन्दगी जी पा रहा है। मुर्गी के दड़बेनुमा छोटे-छोटे कमरों में 3-4 आदमी रहते हैं। फैक्टरी में दिन रात गुलामों की तरह काम करते रहते हैं और ऊपर से गाली-गलौज और अपमान भी सहना पड़ता है। काम करते करते बीमारियों ने शरीर को कमजोर और बुढ़ा बना दिया हैा ऐसे नारकीय जीवन को जीते रहना और कहना ‘‘कमाने खाने आये हैं’’ यह भी बहुत बड़ा भ्रम है। मज़दूरों को अगर एक इंसानी जिन्दगी जीनी है और और हक अधिकार को पाना है तो उसे संगठित होना पड़ेगा। अपने आपस की क्षेत्र, धर्म, जाति की दीवारों को तोड़ना ही पड़ेगा तथा भ्रम की दुनिया से बाहर आना होगा। इलाके की सभी फैक्टरियों के मज़दूर चाहे वो अलग-अलग काम क्यों न करते हों, को इलाके के आधार पर संगठित होना पड़ेगा क्योंकि आज एक-एक फैक्टरी का आन्दोलन जीतना संभव नहीं है। साथ ही साथ नकली लाल झण्डे वाली यूनियनों जैसे सीटू, एटक, ऐक्टू से सावधान रहना होगा क्योंकि मज़दूरों का नाम लेनी वाली ये यूनियनें मज़दूरों का सबसे अधिक नुकसान कर रही हैं। मज़दूर अपनी माँगों के आधार पर संगठित हो सकते हैं और एक सही सोच और दिशा के साथ ताकतवर यूनियन बनाकर अपने हक-अधिकार को पा सकते है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2013
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