संयुक्त राज्य अमेरिका के तथाकथित ख़ुशहाल समाज की हक़ीक़त पर एक नज़र
ग़रीबी-बदहाली के गड्ढे में गिरते जा रहे अमेरिका के करोड़ों मेहनतकश लोग
लखविन्दर
हमारे देश में एक आम धारणा है कि अमेरिका में एक बढ़िया व्यवस्था है, जिसकी वजह से वहाँ बहुत बढ़िया हालात हैं। भारत के लोगों में आमतौर पर अमेरिकी समाज की तस्वीर एक अति ख़ुशहाल समाज की है। एक ऐसा समाज जहाँ ना ग़रीबी है, ना बेरोज़गारी। जहाँ ना बेबसी है, ना लाचारी। आमतौर पर भारतीय लोगों को लगता है कि अमेरिकी समाज इतना बेहतर समाज है, जहाँ हर व्यक्ति अच्छी और स्वाभिमान भरी ज़िन्दगी जीता है। पर असलियत इससे कोसों दूर है। आइये ज़रा संसार के “स्वर्ग” में “नर्क” पर नज़र डालते हैं।
सबसे पहले सरकार द्वारा तय ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या पर नज़र डालना ठीक होगा। ग़रीबी रेखा तय करते समय अमेरिकी सरकार यह मानकर चलती है कि एक अमेरिकी अपनी कुल आमदनी का तीसरा हिस्सा भोजन पर ख़र्च करता है। इसलिए कम से कम ज़रूरी भोजन (सरकार की नज़रों में ज़रूरत) पर जितना ख़र्च आता है, अगर उससे तीन गुना अधिक नहीं कमा सकता तो वह ग़रीबी रेखा से नीचे के स्तर पर है। इस सरकारी पैमाने के मुताबिक़ लगभग 15 फ़ीसदी अमेरिकी आबादी यानी 4.62 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं। ये वे लोग हैं जो ग़रीबी, बेरोज़गारी, ख़ुराक़ की कमी झेल रहे हैं और स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं। अति ग़रीब लोग यानी ग़रीबी रेखा के लिए तय कम से कम आमदनी की भी आधी या उससे भी कम आमदनी वाले ग़रीब कुल अमेरिकी आबादी के 6.7 फ़ीसदी है। भारत की ही तरह अमेरिका में भी सरकार द्वारा तय ग़रीबी रेखा का पैमाना सही नहीं है। एक तो लोगों की भोजन की कम से कम ज़रूरतों को भी घटाकर देखा जाता है; दूसरा यह मानकर चला जाता है कि लोगों की कुल आमदनी का तीसरा हिस्सा भोजन की ज़रूरत पूरी करने के लिए ख़र्च होता है। जबकि यह हिस्सा इससे काफ़ी कम होता है। लोगों को अपने आवास, कपड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन और अन्य बुनियादी ज़रूरतों पर 80.90 फ़ीसदी ख़र्च करना पड़ता है। जो व्यक्ति इन सारी ज़रूरतों को नहीं पूरा कर सकता, उसको ग़रीब माना जाना चाहिए। जैसाकि हम देख चुके हैं कि इस ग़लत सरकारी पैमाने के मुताबिक़ भी अमेरिका की 15 फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है। एक आँकड़े के अनुसार सामाजिक सुरक्षा से वंचित ग़रीब लोगों की गिनती इस देश में लगभग 6.76 करोड़ है यानी लगभग 22 फ़ीसदी अमेरिकी। अगर ग़रीबी रेखा के स्तर को दुगुना (4 लोगों के परिवार के लिए 46,042 डॉलर प्रति वर्ष) कर दिया जाये (जो पूरी तरह जायज़ है) तो 10.6 करोड़ अमेरिकी यानी हर तीन में एक से भी ज़्यादा अमेरिकी ग़रीब माना जायेगा। जुलाई के आखि़री हफ़्ते में ‘एसोसिएट प्रेस’ द्वारा प्रकाशित आँकड़े के मुताबिक़ अमेरिका में 80 फ़ीसदी लोग साठ साल की उम्र तक ज़िन्दगी में कम से कम एक साल या इससे भी ज़्यादा समय के लिए ग़रीबी या लगभग ग़रीबी की हालत और बेरोज़गारी झेलते हैं। एक आँकड़े के अनुसार साढ़े चार करोड़ अमेरिकी “भोजन बैंकों” पर निर्भर हैं यानी वे ख़ुद भोजन की ज़रूरत पूरी करने में असमर्थ हैं। अमेरिका के 28 फ़ीसदी मज़दूरों की मज़दूरी ग़रीबी रेखा के स्तर से नीचे है।
काले (अफ़्रीकी-अमेरिकी) और ग़ैर-अमेरिकी मूल के लोगों की हालत ज़्यादा बुरी है। काले लोगों की 27.4 फ़ीसदी, स्पेनी मूल के लोगों की 26.4 फ़ीसदी और एशियाई मूल के लोगों की 12.2 फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है। इन आँकड़ों से पता लगता है कि अमेरिकी मूल के गोरों के मुक़ाबले अन्य नस्लों और मूल के लोग ज़्यादा ग़रीब हैं।
औरतों की हालत अमेरिका में भी पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा बुरी है। कुल ग़रीबों में औरतों की संख्या पुरुषों के मुक़ाबले 34 फ़ीसदी अधिक है। 2010 में यह 29 फ़ीसदी था। मौजूदा समय में अमेरिका में पुरुष औरतों के मुक़ाबले औसतन 68 फ़ीसदी ज़्यादा कमाते हैं।
अमेरिका में बच्चों की ग़रीबी के बारे में ज़्यादा आँकड़े जारी किये जाते हैं। सरकारी पैमाने के मुताबिक़ अमेरिका के 18 साल से कम उम्र वाले 22 फ़ीसदी बच्चे यानी 1.67 करोड़ बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। बच्चों के मामले में काली आबादी की हालत और भी बदतर है, क्योंकि इस आबादी में 39 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह लातिनी बच्चों की हालत भी काफ़ी बुरी है। लातिनी बच्चों का 34 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा से नीचे माना गया है। ग़रीबी की हालत में रहने वाले बच्चों को भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति या तो होती ही नहीं या बेहतर तरीक़े से नहीं होती। अमेरिका के पब्लिक स्कूलों में लगभग एक लाख पैंसठ हज़ार बेघर बच्चे हैं। विधवा या पति से अलग हो चुकी औरतों के बच्चों की हालत भी बहुत दयनीय है। 2010 के एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अमेरिका में ऐसे बच्चों की संख्या 1.08 करोड़ है यानी कुल बच्चों का 24 फ़ीसदी। इन बच्चों में 42.2 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। स्पेनी मूल के परिवारों के 50.9 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी झेल रहे हैं। काले लोगों के लिए यह 48.8, एशियाई मूल के लोगों के लिए 32.1 और ग़ैर-स्पेनी लोगों के लिए 32.1 फ़ीसदी है।
कोलम्बिया, अरीजोना, न्यू मैक्सिको और फ़्लोरिडा राज्यों में सबसे ज़्यादा ग़रीबी है। पिछले एक दशक के दौरान मध्य पश्चिम के कुछ शहरों जैसे डेट्राएट, टोलेडो और ओहायो में बेरोज़गारी बढ़ने और नौकरियाँ कम हो जाने के कारण ग़रीबी की दर दुगुनी हो गयी है। एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका के दक्षिणी हिस्से में अलाप्स, टेक्सास, बैटन रूस, लुसियाना जैसे महानगरों में ग़रीबी एक तिहाई से भी ज़्यादा बढ़ी है।
ऊपर हमने लोगों की ज़रूरतों की पूर्ति के अनुसार अमेरिका में फैली ग़रीबी पर नज़र डाली है। पर ग़रीबी निरपेक्ष ही नहीं होती, बल्कि सापेक्षिक भी होती है। आइये अमेरिका में आर्थिक ग़ैर-बराबरी पर नज़र डालें।
अमेरिका की कुल धन-दौलत का 35.4 फ़ीसदी हिस्सा सबसे अमीर ऊपर की सिर्फ़ 1 फ़ीसदी आबादी के पास है। अगली 19 फ़ीसदी अमीर आबादी के पास कुल दौलत का 53.5 फ़ीसदी हिस्सा इकट्ठा हो चुका है। इसका मतलब है कि ऊपर की 20 फ़ीसदी आबादी के पास अमेरिका की कुल दौलत का 88.9 फ़ीसदी हिस्सा है। दूसरी तरफ़ नीचे की 80 फ़ीसदी आबादी के पास सिर्फ़ 11.1 फ़ीसदी बचता है। सन् 2007 की आर्थिक महामन्दी के बाद कुल दौलत में नीचे की 80 फ़ीसदी आबादी के हिस्से में बड़ी गिरावट आयी और यह 15 फ़ीसदी से घटकर 11.1 फ़ीसदी तक आ गया है। यानी आर्थिक संकट का सारा बोझ मेहनतकशों पर लाद दिया गया। 1983 से लेकर 2010 तक के आँकड़ों पर नज़र डालने से पता चलता है कि 1983 में 80 फ़ीसदी अमेरिकियों के पास अमेरिका की कुल दौलत का 18.7 फ़ीसदी हिस्सा था, जो लगातार कम होता हुआ मौजूदा स्तर पर आ गया है। देखिये सारणी।
संयुक्त राज्य अमेरिका में कुल दौलत का बँटवारा
वर्ष ऊपरी 1% आबादी अगली 19% आबादी नीचे के 80% लोग
1983 33.8% 47.5% 18.7%
1989 37.4% 46.2% 16.5%
1992 37.2% 46.6% 16.2%
1995 38.5% 45.4% 16.1%
1998 38.1% 45.3% 16.6%
2001 33.4% 51.0% 15.6%
2004 34.3% 50.3% 15.3%
2007 34.6% 50.5% 15.0%
2010 35.4% 53.5% 11.1%
आइये ज़रा अब आमदनी के आँकड़ों पर नज़र डालें। इसी साल हुए एक अध्ययन में सामने आया है कि अमेरिका की सालाना कुल आमदनी का 20 फ़ीसदी हिस्सा तो 1 फ़ीसदी आबादी की जेब में ही चला जाता है। सन् 1976 में यह 9 फ़ीसदी था। आमदनी में यह अन्तर भी लगातार बढ़ता जा रहा है। सन् 1992 से लेकर 2007 तक ऊपर के सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले 400 लोगों की आमदनी में 392 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी हुई। यह भी ग़ौरतलब है कि इस अरसे के दौरान इन 400 लोगों के टैक्स 37 फ़ीसदी कम हो गये हैं। आमदनी में ग़ैर-बराबरी किस तरह लगातार बढ़ती गयी है, इसका अन्दाज़ा इस आँकड़े से भी लगाया जा सकता है कि 1979 से लेकर 2007 तक ऊपर के 1 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी में 275 फ़ीसदी और अगले 19 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी में 65 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके बाद के 60 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी में सिर्फ़ 40 फ़ीसदी और निचले 20 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी में तो सिर्फ़ 18 फ़ीसदी ही बढ़ोत्तरी हुई। इसका अर्थ है कि इस अरसे के दौरान उत्पादक शक्तियों का जो भारी विकास हुआ, उसका सारा फ़ायदा कुछ मुट्ठीभर अमीरों को ही मिला। बढ़ती महँगाई के कारण मेहनतकशों को थोड़ीसी आमदनी बढ़ने का कोई फ़ायदा नहीं हुआ बल्कि उनकी असली आमदनी (क्रयशक्ति) घटी है।
2007 से 2009 के अरसे में आयी महामन्दी के दौरान देश की कुल आमदनी में सबसे बड़ा हिस्सा लेने वाली 1 फ़ीसदी आबादी की कमाई में 36.3 फ़ीसदी की गिरावट आयी, जबकि 99 फ़ीसदी की कमाई में 11.6 फ़ीसदी की गिरावट आयी थी। पर 2009-10 के दौरान जहाँ इस 1 फ़ीसदी आबाबी की आमदनी में 11.6 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, वहीं बाक़ी 99 फ़ीसदी आबादी की आमदनी में सिर्फ़ 0.2 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी हुई यानी लगभग पहले जितनी ही रही।
1970 के दशक से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लगातार मन्दी के दौर से गुज़र रही है। बजट घाटे और व्यापार घाटे से इसका पीछा नहीं छूट रहा। 1930 की महामन्दी के बाद सबसे बड़े संकट का 2008 में सामना करने के बाद अब फिर अमेरिका इस समय क़र्ज़ संकट से जूझ रहा है। अमेरिका का आर्थिक संकट विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का अतिउत्पादन का संकट है। अतिउत्पादन का अर्थ यह नहीं है कि लोगों की ज़रूरतों से ज़्यादा उत्पादन हो गया है। इसका अर्थ लोगों की ख़रीदने की शक्ति के मुक़ाबले पैदावार का ज़्यादा होना है। पर पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस से पैदा हुए इस संकट का ख़ामियाज़ा भी मेहनतकशों को ही भुगतना पड़ता है। यही कुछ अमेरिका में भी हो रहा है। अमेरिकी सरकार आर्थिक संकट से निकलने के लिए हाथ-पैर मारते हुए संकट का सारा बोझ आम लोगों पर ही लादने में लगी हुई है। सरकार की तरफ़ से लोगों पर किया जाने वाला ख़र्च लगातार घटाया जा रहा है और कर बढ़ाये जा रहे हैं; करोड़ों अमेरिकियों को आर्थिक मन्दी के कारण नौकरियों से भी हाथ धोना पड़ रहा है। मज़दूरों को तनख़्वाहों में कटौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस तरह आर्थिक मन्दी ने लोगों की हालत और भी पतली कर दी है।
पर क्या इस लूट-खसोट के खि़लाफ़ अमेरिकी मेहनतकशों के बीच कोई आवाज़ नहीं उठी? क्या वे सब कुछ चुपचाप सह रहे हैं? नहीं, यह कैसे हो सकता है? जहाँ लूट-खसोट, ग़ैर-बराबरी और अन्याय है, वहाँ विरोध भी होगा। अमेरिकी मेहनतकश लोगों की तरफ़ से भी ग़रीबी, लगातार बढ़ रही आर्थिक ग़ैर-बराबरी, सरकार की मज़दूर विरोधी और पूँजीवादी नीतियों के खि़लाफ़ विरोध हो रहा है। सन् 2011 और 2012 में चला “वालस्ट्रीट क़ब्ज़ा करो आन्दोलन” इसका ताज़ा उदाहरण है जिसमें लाखों लोग शामिल हुए थे। पर अमेरिका की पूँजीवादी व्यवस्था के खि़लाफ़ लड़ने वाली क्रान्तिकारी ताक़तें और जनवादी आन्दोलन कमजोर हालात में हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि अमेरिकी पूँजीवादी व्यवस्था का ख़ात्मा तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि अमेरिकी साम्राज्य को मिट्टी में नहीं मिला दिया जाता। एशिया, अफ़्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों के मुक़ाबले अमेरिका में जो ख़ुशहाली (या कम ग़रीबी) नज़र आती है, उसका कारण वहाँ की व्यवस्था का अच्छा होना नहीं है, बल्कि वित्तीय पूँजी और फ़ौजी ताक़त के दम पर दूसरे देशों के मेहनतकश लोगों और संसाधनों की भयंकर साम्राज्यवादी लूट है। तीसरी दुनिया के पूँजीवादी देश विश्व पूँजीवादी व्यवस्था यानी साम्राज्यवाद की कमज़ोर कड़ियाँ हैं, जिनके टूटने के बाद ही अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी मुल्क़ों में इन्क़लाब हो सकता है यानी पूँजीवादी व्यवस्था को पलटा जा सकता है।
यह है अमेरिका की हालत! इस संक्षिप्त लेख में दिये गये तथ्य तो अमेरिकी समाज की सिर्फ़ एक झलक है। पर यह झलक ही अमेरिका की तथाकथित ख़ुशहाल हालात और तथाकथित बढ़िया व्यवस्था के बारे में भ्रम दूर करने के लिए काफ़ी है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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