अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर गोरखपुर में बिगुल मज़दूर दस्ता और टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन द्वारा निकाला गया पर्चा
1 मई को रस्म या छुट्टी का दिन नहीं, अपने क्रान्तिकारी पुरखों की जीत के जश्न और पूँजी की जकड़बन्दी को छिन्न-भिन्न करने के फ़ौलादी संकल्प का दिन बनाओ!

हमारी मौत दीवार पर लिखी ऐसी इबारत बन जायेगी जो नफ़रत, बैर, ढोंग-पाखण्ड, अदालत के हाथों होने वाली हत्या, अत्याचार और इन्सान के हाथों इन्सान की ग़ुलामी के अन्त की भविष्यवाणी करेगी। दुनियाभर के दबे-कुचले लोग अपनी क़ानूनी बेड़ियों में कसमसा रहे हैं। विराट मज़दूर वर्ग जाग रहा है। गहरी नींद से जागी हुई जनता अपनी ज़ंजीरों को इस तरह तोड़ फेंकेगी जैसे तूफ़ान में नरकुल टूट जाते हैं। -(मई दिवस के शहीद नेता अल्बर्ट पार्सन्स का अपनी पत्नी के नाम चिट्ठी)

मेहनतकश साथियो! 1 मई, अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस राजनीतिक रूप से चेतनबद्ध मज़दूरों के जुझारू संघर्ष और शहादत से जन्मा एक ऐतिहासिक दिन है। इस संघर्ष में पूरी दुनिया के मेहनतकशों के सामूहिक हितों के लिए मज़दूरों और उनके नेताओं ने सड़कों पर अपना ख़ून बहाया था और फाँसी का फन्दा चूमा था। मज़दूर वर्ग ने जिस अँधेरी दुनिया से उजाले की तरफ़ अपना क़दम बढ़ाया था वो तकलीफ़ और अकूत कुर्बानियों से सम्भव हो सका। लेकिन 1 मई का दिन पूरी दुनिया के मज़दूर वर्ग के लिए अपनी जीत का जश्न मनाने और भविष्य में पूँजी की ग़ुलामी को हर-हमेशा के लिए इतिहास की कचरापेटी के हवाले करने की तैयारी का दिन बन गया।

लेकिन वर्तमान समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आज देशभर के मज़दूर अपनी इस शानदार विरासत से परिचित नहीं हैं। बहुत से मज़दूरों के लिए यह बस छुट्टी का दिन या घर के छूटे काम निपटाने का दिन बनकर रह गया है। हालाँकि इसमें मज़दूरों की ग़लती नहीं है। क्योंकि पूँजीपतियों की मीडिया और उसकी सरकार दिन-रात मज़दूरों से उनकी क्रान्तिकारी विरासत छिपाने की साज़िश करती है। क्रान्तिकारी ताक़तों के देश स्तर पर फैलाव की कमी तथा मज़दूरों की भौतिक परिस्थितियों से यह समस्या और बढ़ जाती है। दूसरी तरफ़ सीटू, एटक, इंटक, एक्टू जैसी मज़दूर वर्ग से गद्दारी करने वाली ट्रेड यूनियनों और फ़ासीवादी संघ परिवार से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ द्वारा इसे रस्म अदायगी और विश्वकर्मा पूजा जैसे धार्मिक कार्यक्रम तक में बदल दिया गया है।

1 मई की क्रान्तिकारी विरासत को जानो!

मज़दूर भाइयो! अपने क्रान्तिकारी अतीत को जाने बग़ैर वर्तमान समय में हम अपने संघर्ष को सही दिशा नहीं दे सकते और न ही अपनी मुक्ति की राह पर आगे क़दम बढ़ा सकते हैं। मई दिवस की विरासत को सहेजकर रखना हमारा फ़र्ज़ है और भविष्य के संघर्ष के लिये ऊर्जा का स्रोत भी। इसलिए आइये, मई दिवस की विरासत को जानें।

वास्तव में, पहले मज़दूरों के काम के घण्टे तय नहीं थे। ‘सूर्योदय से सूर्यास्त’ के नियम के मुताबिक़ उजाला होने से पहले मज़दूरों को कारख़ानों में पहुँच जाना पड़ता था और अँधेरा होने तक उनकी मेहनत को अच्छी तरह निचोड़कर ही मालिक जाने देते थे। मज़दूरों के काम के घण्टे 18 से 20 तक पहुँच जाते थे। इस स्थिति के ख़िलाफ़ अमेरिका के मज़दूरों ने उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही विरोध दर्ज़ कराना शुरू कर दिया था।

इस दौर में अमेरिका के अलावा अन्य देशों के मज़दूर भी काम के घण्टे कम करवाने आदि माँगों के लिए आवाज़ उठाना शुरू कर दिये थे।1848 से पहले लियॉन शहर में औद्योगिक दंगे, सिलेसियाई बुनकरों का विद्रोह और इंग्लैण्ड के मज़दूरों का माँगपत्रक आन्दोलन इसके मुख्य उदाहरण हैं। इसी प्रक्रिया में 1871 में पेरिस कम्यून के रूप में मज़दूरों ने इतिहास में पहली बार अपना राजकाज स्थापित किया। पेरिस कम्यून केवल 72 दिन ही चल सका। लेकिन पेरिस कम्यून ने न केवल भविष्य की क्रान्तियों के लिए ज़रूरी सबक दिये बल्कि यह साबित कर दिया कि समाजवाद कल्पना नहीं वरन समता व न्याय पर टिकी एक व्यवहारिक व्यवस्था है और मज़दूर वर्ग राजकाज संभालने में सक्षम है।

इधर काम के घण्टे आठ करने का आन्दोलन अमेरिका में बढ़ता जा रहा था। ‘आठ घण्टे काम की समितियों’ के नेतृत्व में “आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम” के नारे के इर्द-गिर्द शिकागो के मज़दूरों ने 1 मई 1886 के दिन को आम हड़ताल का दिन तय किया। इस दिवस के तीन दिनों बाद ही 4 मई को ‘हे मार्केट चौक’ पर मज़दूरों ने इस माँग को लेकर एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया, जहाँ साज़िशाना तरीक़े से पुलिस और मालिकों ने मिलकर बम फिंकवा दिया। इस सभा में बम के धमाके की अफरातफ़री में पुलिस ने मज़दूरों की सभा पर गोली चला दी, जिसमें चार लोगों की मौत हो गयी। इस घटनाक्रम में सात पुलिसकर्मी भी मारे गये। पुलिस ने मज़दूर नेताओं को जेल में ठूँस दिया, जिनमें से चार नेतृत्‍वकारी मज़दूरों को बाद में एक नक़ली मुक़दमे में बिना किसी सुबूत के फाँसी दे दी गयी। यह मुक़दमा एक नाटक था, जिसमें मज़दूरों को आवाज़ उठाने के लिए सज़ा देने का निर्णय पहले ही किया जा चुका था। लेकिन शिकागो के शहीदों की क़ुर्बानी से दुनिया भर का मज़दूर वर्ग जाग उठा।

1889 में द्वितीय इण्टरनेशनल ने, जो कि दुनियाभर की कम्युनिस्ट व मज़दूर पार्टियों का अन्तरराष्ट्रीय मंच था, पूरी दुनिया में 1 मई को मई दिवस मनाने का फ़ैसला किया क्योंकि यह मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संघर्ष का एक प्रतीक बन चुका था। आने वाले दिनों में मज़दूर आन्दोलन के दबाव में दुनिया के तमाम देशों समेत भारत में भी काम के घण्टे 8 को क़ानूनी मान्यता दी गयी।

सारे नियमों को ताक पर रखकर पूँजीपति वर्ग मज़दूरों का ख़ून चूस रहा है!

अमेरिका के मज़दूरों ने जब आठ घण्टे के काम की माँग की थी तब उस समय तकनीक और मशीनें आज की मशीनों और तकनीक के मुक़ाबले बहुत पिछड़ी हुई थीं। अब जबकि मशीनें और तकनीक इतनी उन्नत हो चुकी हैं कि काम व समूचे माल के निर्माण को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़कर काम को सरल व तेज़ रफ़्तार से किया जाना सम्भव बना दिया गया है। तब मज़दूर की मज़दूरी का हिस्सा घटता जा रहा है और काम के घण्टे बढ़ते जा रहे हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में दिया जाता था वो 2010 तक घटकर 25 प्रतिशत रह गया। संगठित क्षेत्र में पैदा होने वाले हर 10 रूपये में मज़दूर वर्ग को केवल 23 पैसे मिलता है। ऑटो सेक्टर में एक विश्लेषण के अनुसार तकनीकी विकास के हिसाब से ऑटो सेक्टर का मज़दूर 8 घण्टे के कार्यदिवस में अपनी मज़दूरी के बराबर का मूल्य मात्र 1 घण्टे 12 मिनट में पैदा कर देता है, जबकि 6 घण्टे 48 मिनट मज़दूर बिना भुगतान के काम करता है। मज़दूरों की मेहनत की इसी लूट से एक ओर ग़रीबी और दूसरी ओर पूँजी का अम्बार खड़ा होता है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट मुताबिक़, भारत में ग़रीबों की संख्या 23 करोड़ है जबकि दूसरी ओर वर्ष 2020 में अरबपतियों की संख्या 102 थी जो 2022 में बढ़कर 166 हो गयी।1981 में भारत के सबसे ऊपर के 10 प्रतिशत अमीरों की सम्पदा देश की कुल सम्पदा की 45 फ़ीसदी थी जो 2012 में बढ़कर 63 फ़ीसदी और 2022 में बढ़कर 80 फ़ीसदी से भी अधिक हो गयी। सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत धन्नासेठों के पास देश की 40 फ़ीसदी से भी अधिक सम्पदा इकट्ठी हो गयी है जबकि नीचे से 50 प्रतिशत लोगों के पास कुल सम्पदा का मात्र 3 फ़ीसदी है।

आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, सभी ने पूँजीपति वर्ग के पक्ष में मज़दूरों के मेहनत की लूट का रास्ता ही सुगम बनाया है। लेकिन 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद और खासकर मोदी के सत्तासीन होने के बाद से मज़दूरों पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है। चार नए लेबर कोड के ज़रिये मज़दूरों के 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। विरोध प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को वैध-अवैध तरीक़ा अपनाने की खुली छूट दे दी गयी है। जर्जर ढाँचे और सुरक्षा उपकरणों की कमी के चलते कारख़ाने असमय मृत्यु और अपंगता की जगहों में तब्दील हो गये हैं। हवादार खिड़कियाँ, ऊँची छत, दुर्घटना होने पर त्वरित बचाव के साधन नहीं हैं। अत्याधनिुक मशीनों पर तेज़ गति से काम करने, अधिक काम से होने वाली थकान और मालिकों द्वारा स्पीड कम न होने देने के लिए सेंसर हटा देने आदि से दुर्घटनाओं की संख्या बहुत बढ़ गयी है। असगंठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को न तो ई.एस.आई. की कोई सुविधा है न ही बीमा आदि की। ‘श्रम और रोज़गार मन्त्रालय’ के आँकडों के अनुसार 2014 से 2016 के बीच पूरे देश के कारख़ानों में हर दिन 3 के औसत से 3562 मज़दूरों की दुर्घटनाओं में मौत हो गयी, जबकि इस अवधि में 51000 से अधिक मज़दूर घायल हुये। इन आँकडों में अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाली बहुत-सी दुर्घटनायें शामिल नहीं हैं।

ग्रामीण मज़दूरों की स्थिति और भी बुरी है। खेतों, भट्ठों, भवन निर्माण आदि में काम करने वाले बहुत से मज़दूर 250 से 400 रुपये तक के रेट से काम करने पर मजबूर हैं। जो भी श्रम क़ानून हैं उनके भी दायरे से ग्रामीण मज़दूर बाहर हैं। ‘मनरेगा’ के तहत पूरे देश में पंजीकृत लगभग 13 करोड़ मनरेगा मज़दूरों की दैनिक मज़दूरी अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा 200 से 250 रुपये तक निर्धारित किया गया है। 100 दिन के 200-250 रूपये की दर से आय में किसी परिवार का गुज़ारा चल सकने की बात सोचना ही मूर्खता है। जबकि स्थिति यह है कि 100 दिन की जगह 30-40 दिन से ज़्यादा काम मिल ही नहीं रहा है। मोदी सरकार द्वारा इस योजना में किये जा रहे ख़र्च को निरन्तर घटाया जा रहा है। इसी तरह गाँवों-शहरों में काम करने वाली आँगनवाड़ी, आशा जैसे स्कीम वर्करों की बुरी स्थिति है। पूरे देश में लगभग 39 लाख स्कीम वर्कर्स काम कर रहे हैं। नियमित और अतिआवश्यक काम करने वाले इन स्कीम वर्करों को सरकार अपना कर्मचारी नहीं मानती और बहुत मामली-सा मेहनताना देती है। इसी तरह जनता के ख़ून-पसीने की कमाई से खड़े हुए सरकारी विभागों को एक—एक कर मोदी सरकार द्वारा निजीकरण की भेंट चढ़ाया जा रहा है। पेंशन की पुरानी स्कीम 2005 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ही ख़त्म कर दी गयी थी। सरकारी विभागों के खाली पदों को ख़त्म किया जा रहा है। कर्मचारियों की संख्या कम होने से कर्मचारियों पर काम का बोझ लगातार बढ़ाया जा रहा है।

कुल मिलाकर, हर तरह की मेहनत करने वालों पर मोदी सरकार का कहर बरस रहा है। लेकिन भाजपा के अलावा कांग्रेस, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी, सीपीआई, सीपीएम, लिबरेशन जैसी पार्टियों और इनकी यूनियनों से किसी तरह की उम्मीद करना व्यर्थ है। बड़े-छोटे पूँजीपतियों के चन्दों से चलने वाली इन पार्टियों की अदला-बदली से मज़दूरों की ज़िन्दगी बेहतर होने की जगह बदतर ही हुई है।

पूँजी के किलों पर धावा बोलने के लिए मज़दूर वर्ग को नए सिरे से लामबन्द होना होगा!

मज़दूर भाइयो! पूँजीपति वर्ग की पार्टियों और उनकी ट्रेड यूनियनों के भ्रमजाल से मुक्त होकर हमें सबसे पहले यह बात समझनी होगी कि आख़िर उनकी मेहनत की लूट को सम्भव कौन बनाता है? वास्तव में, पूँजीपति वर्ग की लूट को सरकार, उसकी मशीनरी, पुलिस-फ़ौज आदि सम्भव बनाती है। जब तक यह पूँजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक मज़दूर वर्ग मेहनत की लूट से मुक्ति नहीं पा सकता। मज़दूर वर्ग की वास्तविक मुक्ति तभी सम्भव है, जबकि इस मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों के सामहिूक मालिकाने की व्यवस्था क़ायम हो, राज-काज पर मज़दूर वर्ग के प्रतिनिधि क़ाबिज़ हों और फ़ैसला लेने की ताक़त उनके हाथ में हो। शहीदेआज़म भगतसिंह जैसे महान क्रान्तिकारी ऐसे ही समाज के निर्माण के लिए लड़ते हुए शहीद हुए थे।

मज़दूर वर्ग को अपने क्रान्तिकारी अतीत को जानना होगा, अपनी वर्गीय एकता की ताक़त को समझना होगा, पूँजीवादी व्यवस्था और उसके प्रतिनिधियों के हथकण्डों की समझ हासिल करनी होगी। पूँजीवादी/संशोधनवादी यूनियनों के द्वारा दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई में उलझाए जाने और उसे भी खोते जाने से कमज़ोर हुए आत्मविश्वास को फिर से हासिल करना होगा। मज़दूरों को यह बात समझनी होगी कि पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दर को बरक़रार रखने के लिए वर्तमान समय में फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार की शरण में गया है। फ़ासीवादी भाजपा सरकार एक तरफ़ मज़दूरों के हक़ों को छीनती जा रही है दूसरी ओर उनके हक़ में बोलने वालों का निर्ममता से दमन कर रही है। मज़दूर वर्ग को अपने वर्गीय हितों के आधार पर एकजुट होने से रोकने के लिए फ़ासीवादी ताक़तों ने पूरे देश को साम्प्रदायिक उन्माद में झोंक दिया है। इसके अलावा जाति, क्षेत्र, भाषा, अन्धराष्ट्रवाद की विभाजनकारी राजनीति को मज़दूरों की वर्गीय एकता को बनने से रोकने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए मज़दूर वर्ग को इस साज़िश को समझना होगा और अपने वर्ग हितों के आधार पर राजनीतिक तौर पर लामबन्द होना होगा।

मज़दूर वर्ग को पूँजी की सत्ता को ध्वस्त करने की निर्णायक लड़ाई तक पहुँचने के लिए उन अधिकारों के लिए संगठित होना होगा, जिसको देने की बात यह पूँजीवादी व्यवस्था और संविधान करता है, लेकिन देता नहीं। इन अधिकारों को हासिल करने और अपने हक़ों को बढ़ाने की लड़ाई के अनुभवों से और क्रान्ति के विज्ञान के ज़रिये ही हम यह भी सीखेंगे कि अपने दूरगामी लक्ष्य को कैसे हासिल करना है।

मज़दूर वर्ग के तात्कालिक संघर्ष के मुद्दे

  1. तकनीकी विकास के मौजूदा स्तर के अनुसार 6 घण्टे के कार्यदिवस का क़ानून बनाया जाये। दैनिक न्यूनतम मज़दूरी रु. 800 और मासिक रु. 25,000 की जाये और महँगाई की दर के अनुसार उसे नियमित अन्तराल पर बढ़ाया जाये।
  2. काम के अधिकार को मूलभूत अधिकार बनाया जाए और रोज़गार न दे पाने की सूरत में हर बेरोज़गार को प्रतिमाह रु.10000 बेरोज़गारी भत्ता दिया जाए।
  3. कुख्यात मज़दूर-विरोधी चारों नये लेबर कोड को तत्काल रद्द किया जाये। मानकों के हिसाब से मज़दूरों की सुरक्षा का पूरा इन्तज़ाम किया जाये। श्रम क़ानूनों के उल्लंघन को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में डाला जाये तथा इसके लिए कम-से-कम तीन माह का ग़ैर-ज़मानती कारावास होना चाहिये।
  4. खेतिहर मज़दूरों समेत ग्रामीण मज़दूरों को श्रम क़ानून के दायरे में लाया जाये और उनके क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये उपयुक्त ढाँचे का निर्माण किया जाये।
  5. आशा-आँगनवाड़ी-पंचायत मित्र और अन्य स्कीम वर्कर्स को कर्मचारी का दर्ज़ा और पे ग्रेड के अनुसार वेतन दिया जाये। हर प्रकार के नियमित कार्य में ठेका-सविंदा और अस्थायी काम को समाप्त किया जाये।
  6. हर शाखा में स्त्रियों को पुरुषों के समान वेतन की व्यवस्था लागू करवाई जाये। जिन भी उपक्रमों में स्त्रियाँ काम करती हैं, वहाँ पर कारख़ानों के भीतर साफ-सथुरे शौचालय, पालना घर व नर्सरी की समचिुत व्यवस्था की जाये।
  7. मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए राजकीय बीमा की पूर्ण व्यवस्था की जाये। इसके लिए धन विशेष टैक्स लगाकर पूँजीपतियों से जुटाया जाये।
  8. श्रम विभाग में बड़े पैमाने पर भर्ती करके उसका विस्तार किया जाये। नये श्रम निरीक्षक, कारख़ाना निरीक्षक व ब्वायलर निरीक्षकों की इतनी संख्या में भर्ती की जाये कि सभी आर्थिक इकाइयों की नियमित और गहरी जाँच की जा सके । सभी निरीक्षण दलों को ‘थ्री-इन-वन’ के सिद्धान्त पर गठित किया जाये, जिसमें सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक, मज़दूर संगठनों/यनिूयनों के चुने हुए प्रतिनिधि, मालिकों के प्रतिनिधि हों। इसमें मज़दूर प्रतिनिधियों की बहुसंख्या हो।
  9. सरकारी विभागों में निजीकरण की नीतियाँ वापस ली जायें। नयी पेंशन स्कीम व यूपीएस को रद्द करके पुरानी पेंशन स्कीम को बहाल किया जाये। मज़दूरों व कर्मचारियों के हड़ताल जैसे जनवादी अधिकारों के दमन के लिये बनाये गये ‘एस्मा’ जैसे क़ानूनों को ख़त्म किया जाये।
  10. सभी मेहनतकश लोगों के लिये सरकारी आवास की व्यवस्था की जाये। सभी ख़ाली पड़े निजी अपार्टमेण्टों, फ़्लैटों व मकानों को सरकार ज़ब्त कर उन्हें भोगाधिकार के आधार पर मेहनतकशों को आवण्टित करे।
  11. सभी प्रकार के अप्रत्यक्ष करों जैसे एसजीएसटी/जीएसटी, वैट, सेस पर तत्काल रोक लगाकर प्रगतिशील प्रत्यक्ष करों की व्यवस्था लागू की जाये।
  12. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशनिंग की प्रभावी व्यवस्था का निर्माण किया जाये और मज़दूर इलाक़े में सब्सिडाइज़्ड सरकारी राशन की दुकानें और सब्सिडाइज़्ड भोजनालय खोले जायें।
  13. स्कूली उम्र (सोलह साल) से कम उम्र के नवयुवकों व बच्चों द्वारा काम कराये जाने पर पूरी तरह रोक लगायी जाये। 16 से 18 वर्ष के मज़दूरों के काम के घण्टे 4 से ज़्यादा नहीं होने चाहिये।

गोरखपुर के बरगदवा इलाक़े के मज़दूरों की स्थिति

गोरखपुर के बरगदवा में ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के नेतृत्व में एक दौर में मज़दूरों ने अपने संघर्ष के बूते बहुत से अधिकार हासिल किये थे। लेकिन बरगदवा के मज़दूरों ने इस आन्दोलन से ज़रूरी राजनीतिक सबक नहीं लिए। मज़दूर यह बात भूल गये कि मालिक आज जो कुछ देने पर मजबूर हुआ है वह मज़दूरों की एकजुट संघर्ष की वजह से सम्भव हुआ है। मज़दूर संघर्ष से पाये इन अधिकारों को तभी सुरक्षित रख सकते थे जबकि वो अपनी यूनियन को मजबूत बनाते और उसका विस्तार करते। जबकि वो अपनी राजनीतिक समझ विकसित करते और अपने भीतर से आन्दोलन को संभालने वाले लोग तैयार करते। लेकिन मज़दूरों को जो मिला वो उसी से सन्तुष्ट होकर बैठ गए। उसके बाद मालिकों ने मज़दूरों के बीच से ही कुछ भितरघातियों को मिलाकर पहले मज़दूरों की एकता कमज़ोर की। उसके बाद आन्दोलनकारी मज़दूरों को बाहर निकाला। फिर जो हक़-अधिकार मज़दूरों ने लड़कर हासिल किया था वो एक-एक कर फिर से छीन लिया। आज मालिक पूरी तरह से मज़दूरों पर हावी हैं। अब स्थिति यह हो गयी है कोई भी मज़दूर अपने वाजिब हक़ के लिए थोड़ी भी आवाज़ उठाये तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ऋषिक कारख़ाने में तो छुट्टी के दिन भी काम करवाया जाना शुरू कर दिया गया है। बरगदवा के मज़दूर अपने हक़-अधिकार तभी हासिल कर सकते हैं जबकि वो पुराने संघर्षों की कमियों से सीखते हुए नये सिरे से संगठित हों और पूरे इलाक़े में अपनी इलाक़ाई/पेशागत अटूट एकता क़ायम करें।

 


 

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