अमेरिका में ट्रम्प की वापसी के मज़दूर वर्ग के लिए क्या मायने हैं?
आनन्द
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भूचाल-सा आ गया है। गत 20 जनवरी को शपथ लेने से पहले ही ट्रम्प ने अपनी भावी योजनाओं का खाका पेश करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि अपने दूसरे कार्यकाल में वह पहले से भी ज़्यादा उग्र और सिरफ़िरे क़दम उठाने वाला है। उसने अमेरिका से अवैध आप्रवासियों को खदेड़ने का वायदा करने के साथ ही पनामा नहर को फिर से अमेरिकी नियन्त्रण में करने, कनाडा को अमेरिका का 51वाँ राज्य बनाने और ग्रीनलैण्ड पर क़ब्ज़ा करने और अमेरिका को फिर से ‘महान’ बनाने के सपने अमेरिकी लोगों को दिखाये। दोबारा राष्ट्रपति पद की शपथ लेते ही ट्रम्प ने दर्ज़नों कार्यकारी आदेशों पर दस्तख़त किये जिनमें अमेरिका व मेक्सिको की सीमा के आसपास राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने, अमेरिका में पैदा होने वाले बच्चे को स्वत: अमेरिकी नागरिकता देने के प्रावधान को ख़त्म करने, केवल दो यौनिकताओं, यानी पुरुष व स्त्री को ही स्वीकार करने, विविधता, समता और समेकता सम्बन्धित कार्यक्रमों को समाप्त करने, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से अमेरिका की वापसी, 2021 में अमेरिकी सरकार के केन्द्र कैपिटल हिल पर हमला करने वाले अपने 1600 समर्थकों को आम माफ़ी देने के फ़ैसले शामिल थे। उसके बाद ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल के दूसरे सप्ताह में ही अमेरिकी सहायता एजेंसी यूएसएड को बन्द करने एवं कनाडा, मेक्सिको व चीन पर 25 प्रतिशत, 25 प्रतिशत और 10 प्रतिशत अतिरिक्त आयात शुल्क लगाने की भी घोषणा कर दी, हालाँकि अगले ही दिन कनाडा व मेक्सिको पर लगाने वाले आयात शुल्क को फ़िलहाल 1 महीने के लिए स्थगित करने का फ़ैसला किया गया। यही नहीं अमेरिका से अवैध आप्रवासियों को अपराधियों की भाँति निहायत ही अपमानजनक ढंग से उनके देश वापस भेजने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। ये सभी क़दम दिखाते हैं कि आने वाले दिनों में ट्रम्प का कार्यकाल ऐसे सनसनीखेज घटनाक्रमों से भरपूर होगा जिनके दुनियाभर की मेहनतकश आबादी के लिए गम्भीर निहितार्थ होंगे। विश्व राजनीति में चल रही इस उथल-पुथल और उसके निहितार्थ को समझने के लिए और ट्रम्प नामक परिघटना को और गहराई से समझने की ज़रूरत है।
ट्रम्प परिघटना को मज़दूर वर्ग के नज़रिये से कैसे समझें?
ट्रम्प के सनक भरे बयानों और उसके सिरफ़िरेपन को देखकर बहुत से लोग ताज्जुब करते हैं कि भला ऐसा शख़्स दुनिया के सबसे ताक़तवर देश का राष्ट्रपति कैसे बन सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह व्यक्ति अपने आप में एक नमूना है जिसके नमूनेपन को देखकर अमेरिकी पूँजीवाद के तमाम समर्थक व प्रशंसक भी शर्म से झेंप जाते हैं। हालाँकि हमारे देश के ‘सुप्रीम लीडर’ को देखकर उनकी झेंप की भावना अक्सर प्रतिस्पर्द्धा की भावना में भी तब्दील हो जाती है! बहरहाल, ऐसा भी नहीं है कि अमेरिकी राजनीति में ऐसे शख़्स का तूफ़ानी उभार बिल्कुल समझ से परे है। अगर हम अमेरिकी समाज की वर्तमान दशा व विश्व के पैमाने पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदा सेहत की रोशनी में इस परिघटना को देखें तो हमें ट्रम्प नामक परिघटना को समझना मुश्किल नहीं होगा।
ट्रम्प की दोबारा ताज़पोशी एक ऐसे समय हुई जब अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने ढलान के रास्ते पर काफ़ी आगे निकल चुका है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से साम्राज्यवादी दुनिया की चौधराहट कर रहे अमेरिका के सितारे पिछले कुछ दशकों से लगातार गर्दिश में चल रहे हैं। 1991 में सोवियत यूनियन के पतन के बाद एकध्रुवीय दुनिया के एकछत्र साम्राज्य की रहबरी का दावा ठोंकने वाले अमेरिकी पूँजीवाद का विजयोल्लास ज़्यादा दिन तक नहीं टिका और नयी सदी आते-आते उसके ढलान पर उतरने के संकेत नज़र आने लगे थे। 21वीं सदी की शुरुआत में पहले डॉट-कॉम बुलबुले के फूटने और फिर 2007-08 में हाउसिंग बुलबुले के फूटने के बाद से यह स्पष्ट हो चुका था कि अमेरिकी अर्थव्यस्था अपने अधोपतन की ओर बढ़ रही है, हालाँकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मन्दी की जड़ें 1960 व 1970 के दशक की मन्दी में ही देखी जा सकती हैं जिसके बाद नवउदारवादी साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर की शुरुआत हुई थी। इसी बीच रूस की अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ होने की वजह से वह साम्राज्यवादी दुनिया के रंगमंच पर एक बार फिर से बड़ी ताक़त के रूप में उभरा और दूसरी ओर चीन में पूँजीवाद के अभूतपूर्व रफ़्तार से विकास की बदौलत वह भी साम्राज्यवादी मुल्कों की दहलीज़ पर दस्तक देने लगा। रूस और चीन का गठजोड़ अमेरिका नीत पश्चिमी साम्राज्यवादी ध्रुव को चुनौती देने लगा। हालाँकि अभी भी अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, परन्तु इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों के दौरान चीन की अर्थव्यवस्था में हुए तेज़ रफ़्तार विकास की वजह से चीन अर्थव्यवस्था के कई अहम क्षेत्रों में अमेरिका से आगे निकल चुका है या फिर उसको कड़ी टक्कर देने लगा है। चीन अब दुनिया की सबसे बड़ी मैन्युफ़ैक्चरिंग औद्योगिक अर्थव्यवस्था बन चुका है और वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। टेलीकम्युनिकेशन, इलेक्ट्रिक वाहन और रिन्यूएबल ऊर्जा के क्षेत्रों में वह पहले ही अमेरिका को मात दे चुका है और हाल ही में उसने चैटजीपीटी व पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में निर्मित आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) के अन्य मॉडलों की तुलना में डीपसीक नामक बेहद सस्ता और कार्यकुशल एआई मॉडल विकसित करके तहलका मचा दिया। हाई-टेक उद्योगों के अन्य क्षेत्रों में भी वह अमेरिका को कड़ी टक्कर दे रहा है। चीन लैटिन अमेरिका सहित दुनिया के तमाम हिस्सों में सड़कों, बन्दरगाहों, हवाई अड्डों के निर्माण में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है जिससे उसका वर्चस्व बढ़ता रहा है। ट्रम्प द्वारा पनामा नहर को अमेरिकी क़ब्ज़े में करने की घोषणा के पीछे मुख्य कारण इस नहर पर चीन द्वारा बनाए गए बन्दरगाह हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों के आँखों में किरकिरी बने हुए हैं। इसी प्रकार ग्रीनलैण्ड पर क़ब्ज़ा करने की आकांक्षा के पीछे भी आर्कटिक सागर में रूस व चीन की साम्राज्यवादी ध्रुव के साथ चल रही साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा ही है। चीन के इस फ़र्राटा पूँजीवादी विकास और उसकी बढ़ते वर्चस्व को देखकर अमेरिकी शासक तबक़ा सकते में आ गया है और अमेरिका में पिछले कुछ वर्षों से चीन को मुख्य शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त रूस, चीन, ब्राज़ील, भारत व दक्षिण अफ़्रीका जैसे तमाम पूँजीवादी देशों ने विश्व ब्रिक्स नामक समूह बनाया जो जी7 को टक्कर दे रहा है और इसमें नये सदस्य देश भी शामिल हुए हैं। हाल के वर्षों में इसमें मिस्र, इथोपिया, इण्डोनेशिया, ईरान व संयुक्त राज्य अमीरात भी शामिल हो गए हैं। ब्रिक्स के उभार और विस्तार से विश्व बाज़ार में अमेरिकी डॉलर का दबदबा भी कम होने के संकेत स्पष्ट हैं क्योंकि ये देश आपस में एक-दूसरे देशों की मुद्रा में व्यापार करने के समझौते कर रहे हैं और यहाँ तक कि ब्रिक्स की एक साझा मुद्रा की भी बातें चल रही हैं। इन सभी वजहों से पिछले कुछ वर्षों से अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे में बौखलाहट मची हुई है।
अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त सैन्य व सामरिक क्षेत्र में अमेरिका को पिछले दो-तीन दशकों के दौरान बड़ी शिकस्तों का समाना करना पड़ा है। इराक़ व अफ़गानिस्तान में मात खाने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादी सेना को अपमानजनक ढंग से वापस जाना पड़ा। यूक्रेन में जारी युद्ध में भी रूस का पलड़ा भारी पड़ रहा है और अमेरिका नीत नाटो एक और शिकस्त की ओर अग्रसर है। ग़ज़ा में भी ज़ायनवादी इज़रायल के नरसंहारक युद्ध में अमेरिका द्वारा दिये गये हथियारों व सैन्य सहायता की बदौलत इज़रायल ग़ज़ा में अभूतपूर्व रूप से तबाही मचाने के बावजूद हमास और फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को नेस्तनाबूद करने में नाकाम साबित हुआ और अन्तत: उसे युद्धविराम के लिए मजबूर होना पड़ा जो इज़रायल के साथ ही साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद की भी अभूतपूर्व और शर्मनाक शिकस्त है और दिखलाता है कि जनता कभी हारती नहीं।
विश्व पटल पर अमेरिका के आर्थिक व सैन्य वर्चस्व में गिरावट की वजह से अमेरिकी समाज में पिछले कुछ वर्षों से एक बौखलाहट-सी मची हुई है। देश के भीतर भी 2007-08 की मन्दी के बाद से मज़दूर वर्ग के साथ ही साथ मध्य वर्ग के जीवन के हालात में लगातार गिरावट आयी है। वहाँ मज़दूरी की दर 1960 के दशक की दर से भी नीचे जा चुकी है। कोविड महामारी व यूक्रेन युद्ध ने आग में घी डालने का काम किया और जीवनयापन का ख़र्च आम इन्सान की पहुँच के बाहर होता जा रहा है। छोटे-मोटे काम-धन्धे तबाह हो रहे हैं और आर्थिक तंगी की वजह से मध्य वर्ग में एक चिड़चिड़ाहट व झल्लाहट पैदा हुई है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद के पराभव की इस परिस्थिति और बढ़ती आर्थिक तंगी की वजह से अमेरिकी मध्यवर्ग में पैदा हुई चिड़चिड़ाहट, झल्लाहट और बौखलाहट को ट्रम्प ने अपने सनक भरे अन्दाज़ में अभिव्यक्ति दी। हालाँकि वह ख़ुद एक रियल एस्टेट धनपशु है और इलॉन मस्क जैसे अरबपति उसकी टीम में हैं, परन्तु उसने ख़ुद को सत्ताधारी कुलीन लोगों से अलग बताते हुए कहा कि इन सत्ताधारियों ने अमेरिका को उसके पतन की ओर धकेल दिया है और उन्होंने आप्रवासन को बढ़ावा दिया जिसकी वजह से आप्रवासियों की तादाद इतनी बढ़ गयी कि स्थानीय लोगों की नौकरी छिन गयी। उसने न सिर्फ़ डेमोक्रैटिक पार्टी की आलोचना की बल्कि रिपब्लिकन पार्टी के कन्ज़र्वेटिव उम्मीदवारों को भी अपने निशाने पर लिया और इस प्रकार उसने बेलागलपेट बात करने वाले शख़्स के रूप में अपनी एक अलग स्वतन्त्र छवि बनायी। उसने लोगों से वायदा किया कि सत्ता में आने पर वह ग़ैर-प्रवासी आप्रवासियों को वापस उनके देश भेजेगा। अमेरिका में निवेश को बढ़ावा देने के लिए वह चीन सहित अन्य देशों से आयातित मालों पर भारी आयात शुल्क लगाएगा ताकि अमेरिका में अमेरिकियों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। साथ ही उसने वायदा किया कि वह यूक्रेन में जारी युद्ध को समाप्त करेगा क्योंकि उसमें अमेरिका को बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ रहा है और उसके मुक़ाबले यूरोपीय देश कम पैसा ख़र्च कर रहे हैं। इस प्रकार वह ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति अपनाते हुए हर क्षेत्र में अमेरिका को वरीयता देगा और इस प्रकार को अमेरिका को फिर से ‘महान’ बना देगा। बाइडेन जैसे उदारवादी राष्ट्रपति के घोर जनविरोधी शासनकाल से त्रस्त अमेरिका मध्य वर्ग ट्रम्प को एण्टी-इस्टैब्लिशमेण्ट शख़्सियत के रूप में देखा और उसके सख़्त वायदों और अमेरिका की श्रेष्ठता को पुर्नस्थापित करने के सपने में यक़ीन करते हुए उसको वोट दिया। मज़दूर वर्ग के एक हिस्से ने भी किसी क्रान्तिकारी शक्ति की ग़ैर-मौजूदगी और अपनी पिछड़ी वर्गीय चेतना की वजह से अपनी ख़स्ताहाल आर्थिक स्थिति के लिए बाइडेन सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए ट्रम्प को वोट दिया।
अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से ने भी ट्रम्प में अपने हितों की हिफ़ाजत करने वाला शख़्स दिखा। ट्रम्प का समर्थन करने वाले पूँजीपतियों में मुख्य रूप से तेल कम्पनियों के मालिक, कैसिनो के मालिक और वित्तीय एवं प्राद्योगिकी क्षेत्र के पूँजीपति शामिल हैं। टेस्ला, स्पेसएक्स और एक्स जैसी दैत्याकार कम्पनियों के मालिक और अमेरिका के सबसे बड़े धनपशुओं में से एक इलॉन मस्क ने ख़ुलेआम ट्रम्प को समर्थन किया और वह ट्रम्प को सबसे ज़्यादा फ़ण्डिंग करने वाला पूँजीपति है। बदले में राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रम्प ने उसे सरकार की कार्यकुशलता को बेहतर करने के लिए बनाये गये नये विभाग डिपार्टमेण्ट ऑफ़ गवर्नमेण्ट एफ़िशिएंसी (डीओजीई) का प्रमुख बना दिया। इस विभाग के ज़रिये मस्क सरकार की तमाम कल्याणकारी नीतियों में कटौती कर रहा है और साथ ही अपने निजी हित भी साध रहा है। इस प्रकार ट्रम्प के पिछले कार्यकाल के मुक़ाबले इस बारे चुनावों में ट्रम्प को पूँजीपति वर्ग के सापेक्षत: ज़्यादा बड़े हिस्से का समर्थन मिला। मस्क के अलावा मेटा के मार्क जकरबर्ग, एमेज़ॉन के मालिक जेफ़ बेजॉस, माइक्रोसॉफ़्ट के सत्या नडेला, गूगल के सुन्दर पचाई और एप्पल के टिम कुक भी ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए जो ट्रम्प की ओर उनके बढ़ते झुकाव को पुष्ट करता है। हालाँकि अभी भी ट्रम्प को समर्थन देने को लेकर अमेरिका के पूँजीपति वर्ग में कोई आम सहमति नहीं है।
क्या ट्रम्प फ़ासिस्ट है?
इसमें कोई शक नहीं है कि ट्रम्प की सोच पर अमेरिकी समाज में मौजूद तमाम धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी विचारों का ज़बर्दस्त असर है। वह हद दर्जे का नस्लवादी, पितृसत्तात्मक, समलैंगिक द्वेषी, इस्लाम द्वेषी, कम्युनिज़्म-विरोधी और मानवता-विरोधी है और वो अपने इन प्रतिक्रियावादी विचारों को निहायत ही बेशर्मी के साथ ख़ुलकर अभिव्यक्त करता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि उसकी सोच निर्वात में पैदा नहीं हुई है। अमेरिकी समाज में समय-समय पर प्रतिक्रियावादी विचार विभिन्न रूपों मे पनपते रहे हैं। बीसवीं सदी के अमेरिका में दक्षिणपन्थी पॉप्युलिस्ट आन्दोलन, कू क्लक्स क्लैन, मैकार्थीवादी कम्युनिज़्म-विरोध और इक्कीसवीं सदी में टी पार्टी आन्दोलन से निकले प्रतिक्रियावादी विचारों का ज़हरीला मिश्रण ट्रम्प की सोच में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। परन्तु सवाल यह उठता है कि क्या ट्रम्प को फ़ासीवादी कहा जा सकता है?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें देखना होगा होगा कि अमेरिका में ट्रम्प परिघटना में फ़ासीवाद की बुनियादी चारित्रिक अभिलाक्षणिकताएँ मौजूद हैं। निश्चय ही ट्रम्प को अमेरिकी जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से का समर्थन प्राप्त है, परन्तु उसके पीछे टुटपुँजिया वर्गों का कोई संगठित प्रतिक्रियावादी आन्दोलन नहीं मौजूद है। उसको मिल रहे जन समर्थन में संगठित आन्देालन की बजाय बदहाल आर्थिक हालात और क्रान्तिकारी विकल्प की ग़ैरमौजूदगी में उपजी स्वत:स्फ़ूर्त प्रतिक्रिया का तत्व प्रधान है। और न ही ट्रम्प के पीछे फ़ासीवादी विचारधारा से लैस कोई कॉडर-आधारित फ़ासीवादी संगठन मौजूद है। वह रिपब्लिकन पार्टी के सबसे दक्षिणपन्थी धड़े की नुमाइन्दगी करता है जोकि एक रूढ़िवादी बुर्जुआ पार्टी है नाकि कॉडर-आधारित फ़ासीवादी पार्टी। इसी प्रकार ट्रम्प की सोच में धुर-दक्षिणपन्थी विचारों की मौजूदगी होने के बावजूद उसकी विचारधारा को फ़ासीवादी नहीं कहा जा सकता है। जब वह अमेरिका को फिर से ‘महान’ बनाने की बात करता है तो वह निश्चित ही एक साम्राज्यवादी ताक़त के रूप में अमेरिका के पतन से अमेरिकी शासक वर्ग की झल्लाहट व बौखलाहट की अन्धराष्ट्रवादी अभिव्यक्ति करता है, परन्तु वह उस प्रकार व्यवस्थित रूप से किसी विशुद्ध विचारधारात्मक समुदाय और काल्पनिक शत्रु का निर्माण नहीं करता जिस प्रकार कोई फ़ासीवादी विचारधारा करती है। इन वजहों से ट्रम्प को फ़ासीवादी कहना इस परिघटना की सटीक व्याख्या नहीं होगी। इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि भविष्य में यह परिघटना एक व्यवस्थित रूप से फ़ासीवादी विचारधारा पर आधारित कॉडर-आधारित संगठन द्वारा संचालित एक फ़ासीवादी आन्दोलन का रूप ले ले। लेकिन फ़िलहाल उसे फ़ासीवादी कहना कतई सही नहीं है।
आने वाले दिनों की तस्वीर
दोबारा अमेरिका का राष्ट्रपति के बाद से ही ट्रम्प अपनी छवि को बरकरार रखने के लिए रोज़ाना ऐसे सनसनीखेज फ़ैसले ले रहा है जो दुनियाभर में चर्चा का विषय बन रहे हैं। अपनी छवि को बरकरार रखने के लिए उसकी यह मजबूरी है कि आये दिन ऐसी सनसनी फैलाता रहे। परन्तु इसकी सम्भावना नगण्य है कि ट्रम्प अपने इन फ़ैसलों को पूरी तरह से लागू कर पाएगा क्योंकि आज दुनिया उपनिवेशवाद वाले साम्राज्यवाद के दौर से काफ़ी आगे निकल चुकी है और अब उपनिवेशवाद के दौर में वापसी मुमकिन नहीं है। कनाडा को 51वाँ राज्य बनाने, पनामा नहर व ग्रीनलैण्ड पर अमेरिकी क़ब्ज़ा करने और ग़ज़ा से फ़िलिस्तीनियों को विस्थापित वहाँ पर्यटन विकसित करने की ख़्वाहिश को पूरी करने की दिशा में जैसे ही ट्रम्प आगे क़दम बढ़ाएगा उसका सामना न सिर्फ़ जन प्रतिरोध और रूस तथा चीन जैसे प्रतिस्पर्द्धी साम्राज्यवादी देशों से होगा, बल्कि अमेरिका के सहयोगी देश, मसलन यूरोपीय देश भी उसका कड़ा विरोध करेंगे। अमेरिकी पूँजीवाद के दूरगामी हितों की परवाह करने वाले पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे भी उसे ऐसा करने से रोकेंगे क्योंकि यह पूँजीवाद के अस्तित्व के संकट को और गहरा करने का काम करेगा। यहाँ तक कि अवैध आप्रवासियों को अमेरिका से वापस भेजने का फ़ैसला यदि एक हद से ज़्यादा लागू होता है तो अमेरिकी पूँजीपति वर्ग इसका विरोध करेगा क्योंकि यह अवैध या ग़ैर-दस्तावेज़ी आप्रवासन अमेरिका में मज़दूरी को नीचे रखता है और अमेरिकी मज़दूर वर्ग की पूँजीपति वर्ग के सम्मुख मज़दूरी के लिए मोलभाव की क्षमता को कम करता है और इसलिए यह अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के हित में है। इसलिए यह फ़ैसला भी लम्बे समय तक पूरी तरह से लागू हो पाएगा इसपर बड़ा प्रश्नचिह्न है। इसी प्रकार प्रतिस्पर्द्धात्मक आयात शुल्क लगाने की कवायद एक सीमा से आगे नहीं जा सकती क्योंकि उससे पैदा होने वाली महँगाई पूँजीपति वर्ग के लिए भी लम्बे दौर में फ़ायदेमन्द साबित नहीं होगी। अभी ही इसके संकेत मिलने लगे हैं कि ट्रम्प अपने तमाम फ़ैसलों पर आगे बातचीत करने के लिए तैयार है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ट्रम्प के लिए ये फ़ैसले विश्व स्तर पर अमेरिका के पक्ष में मोलभाव करने के औजार हैं और वह हालात के हिसाब से इन फ़ैसलों में आसानी से फेरबदल कर सकता है या उनमें संशोधन कर सकता है। यदि ट्रम्प ऐसा नहीं करता है और अपनी सनक पर कायम रहता है तो अमेरिका का पूँजीपति वर्ग स्वयं उससे सत्ता से बाहर करने की तैयारी करेगा।
परन्तु जिस हद तक भी ट्रम्प अपने फ़ैसलों पर अमल करेगा, इतना तो तय है कि विश्व राजनीति की अस्थिरता बढ़ने ही वाली है और जो राजनीतिक यथास्थिति बनी चली आ रही थी, वह टूटेगी। इसका लाभ अन्तत: किसे मिलेगा यह इस पर निर्भर करता है कि जनता की शक्तियाँ निरन्तरता के टूटने और विच्छेद से पैदा होने वाली स्थिति में सही क्रान्तिकारी हस्तक्षेप कर पाती हैं, या पूँजीपति वर्ग अन्तत: स्थिति को सम्भाल लेता है और अपने वर्ग शासन के हितों के अनुसार समायोजित कर लेता है। पहले ही ख़ासतौर पर अमेरिका व चीन के बीच व्यापार युद्ध की शुरुआत हो चुकी है। ट्रम्प के रवैये से अमेरिका व चीन के बीच दक्षिण चीन सागर में झड़प बढ़ सकती है और मध्यपूर्व जैसे दुनिया के अन्य हिस्सों में भी युद्ध व हिंसात्मक गतिविधियों में इज़ाफ़ा होने की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी। ट्रम्प परिघटना को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तेज़ी से उभर रही धुर-दक्षिणपन्थी संगठनों व आन्दोलनों की रोशनी में देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सड़ते हुए विश्व पूँजीवाद के पास अब मानवता को देने के लिए हिंसा, उन्माद और नफ़रत के अलावा और कुछ नहीं बचा है। विश्व पूँजीवाद ने मानवता को जिस ख़तरनाक मानवद्रोही मुकाम पर पहुँचा दिया है ट्रम्प उसी का एक मूर्त रूप है। ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो वह पुराने दौर के समाप्त होने और नये दौर के शुरू होने के बीच के समय के संकट का रुग्ण लक्षण है। यह एक त्रासदी है कि दुनिया भर की मेहनतकश आबादी को इस रुग्ण लक्षण को झेलना पड़ रहा है। इस त्रासदी का ख़ात्मा करने के लिए दुनिया की मेहनतकश अवाम को पूँजीवाद को उसकी कब्र तक पहुँचाने और समाजवाद के नये दौर को वजूद में लाने के लिए कमर कसनी होगी।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2025
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