कौन हैं हमारे देश के ‘मुफ़्तखोर’?

सनी

दिल्ली के चुनाव में रईसों और उच्चमध्यवर्गीय कॉलोनियों में यह जुमले काफ़ी ज़ोर-शोर से सुनने में आये कि राजधानी दिल्ली और हमारा देश ग़रीबों को मिलने वाल राशन और सरकारी सुविधाओं के कारण “ग़रीब” हो रहा है। रुपये की गिरावट का ठीकरा भी ग़रीब जनता को मिलने वाली सुविधाओं पर फोड़ा गया। गोदी मीडिया पर पैनलिस्ट आकर छाती पीट रहे थे कि अमीरों और मध्य वर्ग का टैक्स ‘मुफ़्त सुविधाओं’ पर खर्च हो रहा है और यह देश के विकास में बाधा है। कई लोग यह तर्क भी दे रहे थे कि इस टैक्स को देश के “विकास” पर खर्च होना चाहिए जबकि यह मज़दूरों, झुग्गीवालों, रिक्शा चलाने वालों, रेहडी-खोमचा लगाने वालों पर या कहें कि आम तौर पर ग़रीब आबादी पर बिजली मुफ़्त देने, इलाज मुफ़्त देने, स्कूली शिक्षा मुफ़्त देने, यातायात आदि पर “बर्बाद” किया जा रहा है।

इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह था कि जब निर्मला सीतारमन ने चुनाव से ऐन पहले बजट में 12 लाख तक आय वर्ग के लोगों पर लगने वाले आयकर से पूरी छूट और उससे ऊपर कमाई वालों को भी कुछ छूट की घोषणा की तो “देश-निर्माण” में अपने टैक्स की “क़ुर्बानी” पर अपनी छाती पीटने वाले अमीर और उच्च-मध्यवर्ग के लोग सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। आठवीं पेंशन स्कीम की घोषणा और आयकर की नीतियों में बदलाव के ज़रिये भाजपा ने दिल्ली की बड़ी मध्यवर्ग आबादी का वोट पक्का कर चुनाव जीतने में क़ामयाबी पायी है, हालाँकि आयकर में किये गये बदलावों का फ़ायदा जनता के केवल 2 प्रतिशत हिस्से को मिलेगा। टैक्स छूट मिलने पर ग़रीबों के लिए भाजपा द्वारा की जा रही जुमलों की बारिश और साम्प्रदायिकता का ज़हर भी अब दिल्ली के रईसों को अमृतवाणी प्रतीत हो रहा है। इस बार आयकर की छूट के कारण क़रीब 1 लाख रुपये सरकारी ख़ज़ाने में जाने की जगह मध्यवर्ग का खाता पीता हिस्सा सरकारी ख़ज़ाने में जमा करने की जगह अपनी जेब में रख पायेगा। भाजपा के प्रचार के प्रभाव को आत्मसात करते हुए मज़दूर-मेहनतकश का एक छोटा-सा हिस्सा भी प्रचार में बहकर बता रहा था कि “मुफ़्त” सुविधाओं से देश का बण्टाधार हो गया है और महँगाई बढ़ रही है। गोदी मीडिया, भाजपा का व्हाट्सएप्प तन्त्र और नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों ने इस झूठ स्थापित किया है कि इस देश का ग़रीब मुफ़्तखोर है! यह तथ्य टीवी चैनल, अखबार और सोशल मीडिया पर बार-बार दोहराया जाता है कि सरकार अमीरों पर लगाये करों और मध्य वर्ग के प्रत्यक्ष आयकर से चल रही है! हम इस झूठ की जाँच-पड़ताल आगे करेंगे लेकिन एक बात यहाँ साफ़ है कि भाजपा ने दिल्ली में सरकार बनाने से पहले ही जिनकी माँगों को चुनाव से पहले ही पूरा कर दिया वह उच्च मध्य वर्ग और अमीर वर्ग हैं।

भाजपा सरकार बनाने के बाद भी मज़दूर ठेका प्रथा पर खटते रहेंगे, बेरोज़गार सड़कों पर चप्पल फटकारते हुए घूमेंगे, ग़रीब सरकारी अस्पतालों की लम्बी लाइनों में दम तोड़ते रहेंगे और झुग्गियाँ हर मौसम में तोड़ी जाती रहेंगी। लेकिन इस ग़रीब आबादी को गोदी मीडिया और नवउदारवादी कलमघसीट मुफ़्तखोर बतायेगी। इस प्रश्न का जवाब देना ही होगा कि इस देश में मुफ़्तखोर कौन है? इस “मुफ्तखोरी” के शोर के पीछे की असलियत क्या है? मुफ़्तखोर हैं इस देश के पूँजीपति घराने, धन्नासेठ, व्यापारी, कुलक, नेता मन्त्री और ऊँची तनख्वाह पाने वाले उच्च मध्य वर्ग के लोग जो इस देश की मेहनतकश जनता की मेहनत की कमाई को लूटते हैं और सरकार द्वारा जनता से वसूले जाने वाले करों का बड़ा हिस्सा डकारने के बाद भी इस देश की ग़रीब जनता को ही मुफ्तखोर कहते हैं! कैसे? आइये तथ्यों पर गौर फरमाएँ! सबसे पहले इस पर ही नज़र डालें कि सरकार की आमदनी कहाँ से आती है?

बजट की घोषणा में वित्त मन्त्री निर्मला सितारमन द्वारा आयकर के छह स्लैब्स स्थापित किये गए हैं। हालाँकि छूट के ज़रिये अब रु.12 लाख प्रति वर्ष की आय तक कोई कर नहीं लगेगा, रु.12 से 15 लाख प्रति वर्ष वाले को 15 प्रतिशत और रु.16-20 लाख प्रति वर्ष से अधिक वालों को 20 प्रतिशत आयकर देना होगा, रु.20-24 लाख प्रति वर्ष से अधिक वालों को 25 प्रतिशत आयकर देना होगा और 24 लाख से अधिक आय वालों को 30 प्रतिशत आयकर देना होगा। आयकर की छूट का भाजपा का यह तोहफ़ा मुख्यतः उच्च वर्ग और उच्च-मध्य वर्ग की झोली में आकर गिरा है। यह बात भी गौर करने लायक है कि प्रत्यक्ष करों की इस छूट से सरकारी ख़ज़ाने को 1 लाख करोड़ रु. का नुकसान होगा। इसकी भरपाई कहाँ से होगी? अप्रत्यक्ष करों में जारी बढ़ोतरी से ही! मोदी सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती से सरकारी ख़ज़ाने को होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए जीएसटी लगाया और पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर अप्रत्यक्ष करों में बेइन्तहा बढ़ोतरी की है। पेट्रोल की क़ीमत में सरकार 54 प्रतिशत कर लेती है और डीजल की क़ीमत पर 49 प्रतिशत कर लेती है। इसके चलते ही कुल टैक्स में अप्रत्यक्ष करों की बढ़ोतरी हुई है और कॉरपोरेट टैक्स और प्रत्यक्ष आय कर का प्रतिशत घटता गया है। भारत में मुख्यत: आम मेहनतकश जनता द्वारा दिया जाने वाला अप्रत्यक्ष कर, जिसमें जीएसटी, वैट, सरकारी एक्साइज़ शुल्क, आदि शामिल हैं, सरकारी खज़ाने का क़रीब 60 प्रतिशत बैठता है। यह टैक्स इस देश की ग़रीब जनता ही देती है। यह इस देश के सरकारी ख़ज़ाने का सबसे बड़ा स्रोत है।

सरकार की आमदनी जिसे पब्लिक रेवेन्यू या सार्वजनिक राजस्व कहते हैं उसके तीन स्रोत होते हैं प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर और अन्य स्रोत। यह अन्य स्रोत सरकारी उद्यमों से आने वाला मुनाफ़ा, ऋण पर ब्याज़, विनियामक शुल्क आदि होते हैं। असल में भारतीय सरकार की आमदनी के मुख्य स्रोत पहले दो स्रोत ही हैं यानी प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर। इसमें भी आज मुख्य स्रोत अप्रत्यक्ष कर बन चुके हैं। यह वह टैक्स है जो सभी वस्तुओं व सेवाओं को ख़रीदने पर आम जनता देती है यानी माचिस से लेकर कपडे धोने की साबुन जैसी वस्तु जिनके ऊपर ही लिखा रहता है ‘सभी करों समेत’। न केवल वस्तु बल्कि सेवा भी इस कर दे दायरे में आती है। इस अप्रत्यक्ष कर का सबसे बड़ा हिस्सा कौन देता है? इस देश की आम ग़रीब मेहनतकश जनता! आय के अनुसार देश की नीचे की 50 प्रतिशत आबादी कुल अप्रत्यक्ष करों का छह गुने से अधिक का भुगतान करती है। दूसरी बात यह कि करों के रूप में दिए जाने वाला हिस्सा एक मज़दूर की कमाई का बड़ा हिस्सा होता है जबकि अमीरों के ऊपर लगने वाले कर उनकी कमाई का बेहद मामूली हिस्सा होते हैं। कर की व्यवस्था की एकमात्र तार्किक प्रणाली प्रगतिशील कराधान की प्रणाली हो सकती है जिसमें लोगों की आय के अनुसार ही कर बढ़ाये जाएँ लेकिन हमारे देश में ग़रीब जनता अपनी गाढ़ी कमाई के बड़े हिस्से से अमीरों की व्यवस्था को चलाने वाले सरकारी ख़ज़ाने को भरने का काम करती है और यह वह सच है जिसे गोदी मीडिया, नवउदारवादी कलमघसीट और सड़कों पर चलते फिरते भाजपा-संघ के भोंपू छिपाना चाहते हैं।

इस सच का दूसरा पहलू यह है कि सरकार बड़े मालिकों, धन्नासेठों, कम्पनियों आदि से जो प्रत्यक्ष कर लेती है उसमें लगातार कटौती कर रही है। 1990 के दशक तक यह कर आमदनी का 50 प्रतिशत तक हुआ करता था जिसे घटाकर 22 प्रतिशत तक कर दिया गया है। इसके कारण जो सरकारी ख़ज़ाने का भार भी अप्रत्यक्ष करों पर डाल दिया गया है। इस नीति के चलते कुल 1.84 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ और इस वजह से 2019-20 में सरकार को कर राजस्व में संशोधन करने की ज़रूरत पड़ी। राजस्व बढ़ाने के लिए, केन्द्र सरकार द्वारा  माल और सेवा कर (जीएसटी) में बढ़ोतरी की गयी और डीजल और पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया गया। इस साल के बजट में भी उच्च वर्गों और उच्च मध्य वर्ग के ही करों में कटौती की गयी है। इसका बोझ भी मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता के कन्धों पर ही आयेगा। तो कौन है जिसके दम पर यह सरकार और देश चल रहा है? केवल सरकारी ख़ज़ाने की ही बात करें तो साफ़ है कि इस सरकारी ख़ज़ाने का बहुलाँश ग़रीब जनता ही भरती है। इसलिए ही अनाज, शिक्षा, चिकित्सा, आवास, बिजली, पानी से लेकर हर सरकारी सुविधा का असल हक़दार इस देश की ग़रीब जनता है। उच्च वर्गों को भी इस देश की जो भी सुविधाएँ मिल रही हैं वह भी ग़रीब जनता के द्वारा दिए जा रहे करों के ज़रिये ही मिलती है।

फिर मुफ़्तखोरी कौन कर रहा है? बड़ी-बड़ी कम्पनियों को न सिर्फ़ टैक्स से छूट मिलती है बल्कि फ्री बिजली मिलती है, फ्री पानी मिलता है, कौड़ियों के दाम ज़मीन दी जाती है। इन कम्पनियों को घाटा होने पर बचाया जाता है। इन बड़ी कम्पनियों को बेहद कम ब्याज पर ऋण दिया जाता है जिसे न चुकाने पर एनपीए बोलकर माफ़ कर दिया जाता है! ये ही हैं जो इस देश के असली मुफ़्तखोर हैं जो इस देश के संसाधनों से लेकर मेहनत की खुली लूट मचा रहे हैं। इनके लिए ही सरकार श्रम क़ानूनों को लचीला बना रही है और मज़दूरों को फैक्ट्रियों में 18-18 घण्टे लूटने की योजना बना रही है। अमीरों को दी जाने वाली इन सौगातों से सरकारी ख़ज़ाने को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई आपके और हमारे ऊपर टैक्सों का बोझ लाद कर मोदी सरकार कर रही है। आम मेहनतकश जनता की माँग बनती है कि सरकार अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को पूरी तरह से समाप्त करे और बड़े-बड़े पूँजीपतियों और धन्नासेठों पर अतिरिक्त कर लगाकर जनता की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करे।

सरकारी ख़ज़ाने का एक हिस्सा जो अमीरों के प्रत्यक्ष करों के ज़रिये आता है वह भी उनकी तिजोरी में मज़दूरों की मेहनत के ज़रिये ही आता है। इन धनकुबेरों के पास जो जमा पूँजी है वह मज़दूरों की मेहनत का ही नतीजा है। धन और कुछ नहीं बल्कि मूल्य को ही प्रतिबिम्बित करता है। मूल्य का एकमात्र स्रोत मेहनत है और पूँजीपति उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने के दम पर मज़दूर को उज़रत के रूप में केवल उसकी श्रम शक्ति के मूल्य का भुगतान कर उत्पादन की प्रक्रिया में ‘अतिरिक्त मूल्य’ को हड़प लेता है। यही पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत है, यही वह कारण है जिससे अमीरी और ग़रीबी पैदा होती है। यानी सरकारी ख़ज़ाने के छोटे हिस्से के रूप में प्रत्यक्ष करों का भुगतान अमीर या अमीरों के टुकड़खोर करते हैं वह भी मज़दूरों ने पैदा किया है। इस बात से क्या निष्कर्ष निकलता है? बात केवल सरकारी ख़ज़ाने की नहीं है बल्कि इस दुनिया में सम्पदा मेहनतकशों के श्रम और प्रकृति से बनी है और उनका ही इसपर साझा हक़ होना चाहिए। इस दुनिया में मुफ़्तखोर केवल और केवल अमीर वर्ग हैं जो जोकों की तरह मज़दूरों-मेहनतकशों के शरीर से चिपके हुए हैं जो उनके जीवन-रक्त को चूस चूस कर मुटा रहे हैं। अमीर और अमीरों के टुकड़खोर और उनके शोषण को चलने वाली व्यवस्था को कचरा पेटी में फेंकना ही मज़दूरों-मेहनतकशों का नारा है। मज़दूरों-मेहनतकशों की मुक्ति के पथ का दीर्घकालिक लक्ष्य एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करना है जो इस शोषणकारी व्यवस्था को ध्वस्त करने के बाद स्थापित होगी और जिसमें कोई मुफ़्तखोर नहीं होगा। 

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2025


 

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