दिल्ली विधानसभा के चुनावी मौसम में चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों को याद आया कि ‘मज़दूर भी इन्सान हैं!’
अजय
दिल्ली विधानसभा में चुनावी दंगल शुरू होने वाला है। दिल्ली का दंगल जीतने के लिए राजनीतिक दल अपनी-अपनी तैयारी में जुटे हैं। एक ओर भारतीय जनता पार्टी के नेता मज़दूर झुग्गियों-बस्तियों में जाकर रात्रि प्रवास कर रहे हैं, तो दूसरी ओर ‘आप’ नेता अरविन्द केजरीवाल सफाई कर्मचारियों से लेकर ऑटोवालों के साथ चाय पर चर्चा कर रहे हैं। साथ ही कांग्रेस पार्टी नेता भी अपने बिलों से निकलकर गली-गली घूम रहे हैं और दिल्ली “न्याय” यात्रा चला रहे हैं। साफ़ है कि चुनावी मौसम आते ही पूँजीपतियों की पार्टियों को “याद” आता है कि हम मज़दूर भी इन्सान है सिर्फ़ इसलिए कि हमारे वोट से ये सत्ता की सीढ़ी चढ़ सकते हैं। सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते ही इन्हें फिर से ‘गजनी’ के आमिर ख़ान की तरह ‘मेमोरी लॉस’ (याददाश्त का जाना) हो जाता है। इसलिए पिछले पाँच साल अपने आलीशान महलों की ऐय्याशी से थोड़ा वक़्त निकालकर ये जनता का सेवक बनने का ढोंग कर रहे हैं। आइये, हम इन चुनावी मदारियों के कुछ वायदों और उनकी हक़ीक़त को देखते हैं, जिससे हम पता चलेगा कि ये कितने मज़दूर हितैषी हैं।
हम जानते है कि पिछले 10 सालों से दिल्ली की गद्दी पर बैठी आम आदमी पार्टी 2014 में ठेका प्रथा खत्म करने के वादे के साथ सत्ता में आयी थी। लेकिन बीते 10 सालों आप सरकार ने बस चन्देक मज़दूरों-कर्मचारियों को स्थायी नियुक्ति दी है जबकि आज भी जल बोर्ड, गेस्ट टीचरों, डीटीसी कर्मियों से लेकर सफाईकर्मियों ठेका पर गुलामी करने को मजबूर है। बल्कि इसी दौर में इससे कहीं ज़्यादा संख्या में ठेका मज़दूर बढ़े हैं। आज भी हजारों डीटीसी के कर्मचारी समान वेतन और संविदा कर्मचारियों को नियमित करने की अपनी माँगों के साथ संघर्षरत हैं लेकिन अभी तक आप सरकार की तरफ़ से उनकी माँगों पर कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है। इसके विपरीत, सरकार ने परिवहन के सार्वजनिक विभाग को निजी कम्पनियों के हाथों में देने की शुरुआत कर दी है और लगातार नयी भर्तियाँ ठेके पर की जा रही हैं।
अगर केजरीवाल को वाकई मज़दूरों की इतनी चिन्ता है तो वे वजीरपुर, बवाना, बादली के औद्योगिक एरिया में जाकर अपने पार्षदों-विधायकों और सदस्यों की फैक्टरियों व शोरूमों का निरीक्षण कर लें। आज भी दिल्ली की फैक्टरी, शो रूम, दुकानों में खुलेआम श्रम-कानूनों का उल्लंघन किया जाता है। सभी मज़दूर जानते है कि नियमित प्रकृति के कामों में ठेका मज़दूर कार्यरत है, न्यूनतम मज़दूरी से लेकर ओवर टाइम, सुरक्षा मानकों से लेकर बोनस आदि जैसे श्रम-कानून कहीं लागू नहीं होते है। यूँ तो अभी हाल में दिल्ली की मुख्यमन्त्री आतिशी ने ‘कागजों पर’ न्यूनतम वेतन में बढ़ोत्तरी की घोषणा की, जो अब लगभग 21 हजार के आस पास है। लेकिन आप ही बताइये दिल्ली में कितने मज़दूरों को आठ घण्टे काम के लिए 21 हजार वेतन मिल रहा है? मुश्किल से 7-8 प्रतिशत मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिलता है, जो आम तौर पर संगठित क्षेत्र के स्थायी कर्मचारी हैं।
दरअसल न्यूनतम वेतन बढ़ाने की घोषणा दिल्ली सरकार द्वारा आगामी विधान सभा चुनाव के मद्देनज़र फेंका गया एक जुमला ही है, क्योंकि असल में सरकार की मज़दूरों को न्यूनतम वेतन देने की कोई मंशा नहीं है। वैसे भी आप सरकार हर साल ही ऐसी बढ़ोत्तरियों का एलान करती है, लेकिन श्रम विभाग आदि को अनौपचारिक निर्देश है कि श्रम कानूनों को लागू करवाने का कोई प्रयास वह बिल्कुल न करे और कारखाना-मालिकों को बेरोक-टोक श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हुए मज़दूरों का शोषण करने की पूरी आज़ादी मिले। कारण यह है कि आम आदमी पार्टी को चुनाव में चन्दा देने वाली एक बड़ी आबादी दिल्ली के छोटे-बड़े दुकानदारों, फ़ैक्टरी मालिकों और ठेकेदारों की है और ये वही जोंक है जो मज़दूरों खून चूसकर आपनी तिजोरियाँ भरते हैं। इसलिए इस चुनाव में मज़दूरों को इन छोटे पूँजीपतियों की सेवा करनी वाली आम आदमी पार्टी को भी सबक सिखाना चाहिए। सच है कि केवल चुनावी सबक सिखाने से मज़दूरों का लक्ष्य पूरा नहीं होने वाला है। उसके लिए अपने श्रम अधिकारों के लिए हम मज़दूरों को एक जुझारू जनान्दोलन सड़कों पर खड़ा करना होगा और व्यापक हड़ताल की ओर जाना होगा।
अब आते हैं भाजपा के मज़दूर की झुग्गियों-बस्तियों के दौरों पर।
इस बार चुनावी दंगल में भाजपा मज़दूर आबादी को भी अपने झाँसे में लेने के लिए तीन-तिकड़में कर रही है। भाजपा नेता वोट की फसल काटने के लिए मज़दूरों की झुग्गी-बस्तियों में जाकर प्रवास कर रहे हैं। पहले इन बेशर्म भाजपा नेताओं से मज़दूरों को पूछना चाहिए कि 2022 तक मोदी सरकार ने वादा किया था कि ‘जहाँ झुग्गी वहीं मकान’, उसका क्या हुआ? हुआ यह कि दिल्ली में पिछले तीन सालों में ही आधा दर्जन झुग्गी-बस्तियाँ उजड़ गयीं। तब ये भाजपा नेता कहाँ ग़ायब थे? आज भाजपा मज़दूर बस्तियों की नारकीय परिस्थितियों को मुद्दा बना रही है, लेकिन सवाल उठता है कि इन चुनावी मदारियों को हमेशा चुनाव से चन्द दिनों पहले ही मेहनतकश आबादी की बदहाली क्यों नज़र आती है? दूसरे, भाजपा इन बस्तियों में रहने वाले मज़दूरों के काम की स्थितियों, उनके श्रम अधिकारों के हनन या शोषण पर सवाल नहीं उठाती क्योंकि मज़दूर जिन फैक्टरी, शो-रूमों में काम करते है, उसके मालिक खुद भाजपा के समर्थक है और इन मालिकों के चन्दे से भाजपा चुनावी प्रचार करती है। वैसे भी सभी श्रम अधिकारों को समाप्त करने वाले नये लेबर कोड लाने वाली भाजपा इन मुद्दों पर बात कैसे कर सकती है?
असल में भाजपा मज़दूर बस्तियों में भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके वोट हासिल करना चाहती है। दिल्ली चुनाव में भाजपा महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों को छोड़कर ‘ना बँटेंगे-ना कटेंगे’ जैसे नफ़रती नारे को उछल रही है, जिसका मक़सद है हिन्दू और मुसलमान मज़दूरों के बीच नफ़रत की दीवार खड़ी करना, जबकि इन मज़दूरों की साझी दुश्मन स्वयं मौजूदा मोदी-शाह सरकार और आम तौर पर समूची पूँजीवादी व्यवस्था है, जो मज़दूरों का ख़ून निचोड़कर धन्नासेठों की तिजोरियाँ भरने की एक ऐसी व्यवस्था है, जो धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती। अम्बानी-अडाणी और इन इजारेदार पूँजीपतियों के नेतृत्व के मातहत खड़े समूचे पूँजीपति वर्ग की सेवक भाजपा मज़दूरों की ‘दुश्मन नम्बर एक’ पार्टी है। इसलिए हम मज़दूरों को भाजपा व संघ परिवार के असली फ़ासीवादी एजेण्डे को पहचानना होगा। हम अपने धर्म पर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन राजनीति पर हम एक हैं, हमारे हित राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर एक हैं। जैसा कि हमारे महान शहीद भगतसिंह ने कहा था, हमें धर्म को पूरी तरह से निजी मसला मानना चाहिए, इसका हमारी राजनीति से कोई रिश्ता नहीं है। हमें समझना होगा कि हमारे असली मुद्दे रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास के हैं। ये ही वे मुद्दे हैं जो सीधे हमारी ज़िन्दगी से जुड़ते हैं। इसलिए इस चुनाव में मज़दूर बस्तियों, कॉलोनियों में दौरा कर रहे इन नफ़रती भाजपा नेताओं का बहिष्कार जनता को करना चाहिये और इन्हें अपने इलाकों से सेवा-सत्कार कर खदेड़ना चाहिए। ये हमें धर्म के नाम पर बाँटकर वास्तव में धन्नासेठों को ही बचाते हैं और उनकी सेवा करते हैं।
अब दो बातें पूँजीपतियों की पुरानी पार्टी कांग्रेस के बारे में।
पूँजीपतियों की पुरानी पार्टी कांग्रेस भी दिल्ली की सत्ता में वापस आने के ज़ोर-आज़माइश में लगी हुई है। दिल्ली में 2014 में केजरीवाल की सरकार के आने के पहले (जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने प्यादे और सेवक अन्ना हज़ारे के ज़रिये बड़ी भूमिका निभायी थी) कांग्रेस की सरकार लगभग 15 साल रही, तत्कालीन मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित का न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाना एक हवाई घोषणा ही होता था। तब भी दिल्ली की मज़दूर आबादी शोषण और अन्याय भरी जि़न्दगी जीने को मजबूर थी। अब चुनाव आने पर कांग्रेस द्वारा निकाली जा रही ‘ दिल्ली न्याय यात्रा’ एक ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं है। यह भूलना नहीं चाहिए कि ठेकाकरण को बढ़ावा देने वाली निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत देश में कांग्रेस सरकार ने ही 1991 में की थी। आज भी कुछ राज्यों में जो कांग्रेसी सरकारें मौजूद हैं, वे देश के पूँजीपतियों और धन्नासेठों की सेवा करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ती हैं।
मेहनतकशों-मज़दूरों के इस भयंकर शोषण के ख़िलाफ़ क्या ये चुनावबाज़ पार्टियाँ असल में कोई क़दम उठायेंगी? नहीं। क्यों? क्योंकि ये सभी पार्टियाँ दिल्ली के कारखाना-मालिकों, ठेकेदारों, बड़े दुकानदारों और बिचौलियों के चन्दों पर ही चलती हैं। अगर करावलनगर, बवाना, वज़ीरपुर, समयपुर बादली औद्योगिक क्षेत्र से लेकर खारी बावली, चाँदनी चौक या गाँधी नगर जैसी मार्किट में 12-14 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों का भंयकर शोषण वही मालिक या व्यापारी कर रहे हैं जो ‘आप’ ‘भाजपा’ या ‘कांग्रेस’ के व्यापार प्रकोष्ठ और उद्योग प्रकोष्ठ में भी शामिल हैं और इन्हीं के चन्दों से चुनावबाज पार्टियाँ अपना प्रचार-प्रसार करती है। साफ़ है कि ये पार्टियों अपने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के खिलाफ़ मज़दूर हितों के लिए कोई संघर्ष चलाना दूर इस मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोलने वालीं।
इसलिए दिल्ली के सभी मज़दूर-मेहनतकशों को ध्यान रखना है कि आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में अमीरों, धन्नासेठों, पूँजीपतियों की चुनावबाज पार्टियों (भाजपा, आप, कांगेस व अन्य ) का पिछलग्गू नहीं बनना है। बल्कि शिक्षा,स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और जनता के अन्य अधिकारों के लिए और मँहगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और मेहनतकश जनता की लूट के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता का क्रान्तिकारी पक्ष मजबूत करना है। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (RWPI) एक ऐसी पार्टी है जिसे स्वयं मज़दूरों और मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संगठनकर्ताओं ने खड़ा किया है। इस पार्टी का उद्देश्य मज़दूर वर्ग के अन्तिम लक्ष्य यानी कि मज़दूर सत्ता और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए काम करना है। इस लम्बी लड़ाई के एक अंग के तौर पर पूँजीवादी चुनावों में भी पार्टी रणकौशलात्मक हिस्सेदारी करती है ताकि मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को खड़ा किया जा सके और उनके वर्ग हितों को मज़बूती से पेश किया जा सके। आम मेहनतकश जनता का एकमात्र विकल्प RWPI है। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर मज़दूरों के तमाम श्रम अधिकारों व जनवादी-नागरिक अधिकारों में जो भी हासिल हो सकता है वह RWPI के नेतृत्व में संघर्ष के ज़रिये ही हो सकता है। लेकिन RWPI का मक़सद केवल चुनाव के ज़रिये जनता के लिए महज़ कुछ सुधार हासिल करना नहीं है। RWPI का अन्तिम लक्ष्य है एक ऐसी व्यवस्था क़ायम करना जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे पर उन वर्गों का हक़ और नियन्त्रण हो, जो हर वस्तु और सेवा का प्रत्यक्ष रूप में और सामूहिक तौर पर उत्पादन करते हैं, चाहे वे खेतों-खलिहानों में करते हों, कल-कारखानों में करते हों या फिर खानो-खदानों व तमाम दफ्तरों, कार्यालयों में करते हों। इस दूरगामी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही पूँजीवादी चुनावों में मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष का निर्माण करना एक क़दम मात्र है। इस क़दम के ज़रिये भी असली लक्ष्य मेहनतकश जनता को उसके वर्ग हितों के बारे में सचेत करना, और संघर्ष करने के लिए संगठित करना है। इसलिए आने वाले चुनावों में दिल्ली में हम मेहनतकशों-मज़दूरों को मज़दूर पार्टी यानी RWPI के साथ मज़बूती से एकजुट और संगठित होना चाहिए।
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