‘हरियाणा विधानसभा चुनाव – 2024’ में भाजपा की जीत के मायने और मज़दूरों-मेहनतकशों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ज़रूरत
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI), हरियाणा
हरियाणा के विधानसभा चुनाव का परिणाम आ चुका है। हरियाणा विधानसभा चुनाव नतीजों ने न केवल कांग्रेसियों बल्कि भाजपाइयों को भी चौंका दिया है। ज़मीन पर मौजूद पत्रकारों, चुनावी विश्लेषकों और ख़ुद भाजपाइयों के अनुमानों के उलट प्रदेश में कांग्रेस की बजाय भाजपा चुनाव जीत गयी है। हरियाणा प्रदेश की जनता में भाजपा के प्रति ज़बरदस्त गुस्सा था। इसको हम इस बात से भी ज़ाहिर होता हुआ देख सकते हैं कि भाजपा के 10 मन्त्रियों में से 7 को हार का मुँह देखना पड़ा और अन्य 8 भाजपा उम्मीदवारों की ज़मानत ही ज़ब्त हो गयी। इसके बावजूद हरियाणा में भाजपा का जीत जाना कई तरह के सवालों की ओर इशारा करता है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। बहरहाल 90 विधानसभा सीटों में से भाजपा को 48, कांग्रेस को 37, इनेलो-बसपा गठबन्धन को 2 तथा निर्दलीय उम्मीदवारों को 3 सीटें मिली हैं। चुनाव में जीतकर आये 90 में से 96 प्रतिशत यानी 86 विधायक करोड़पति हैं, पिछले सत्र में इनकी संख्या 84 थी। वहीं 12 विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। इसमें कोई शक़ नहीं है कि मौजूदा चुनाव परिणाम के बाद प्रदेश की जनता के लिए नयी-नयी आफ़तें रास्ता तलाश रही हैं। पिछले दस साल के दौरान भाजपा ने लूट, झूठ और दमन के जो कीर्तिमान स्थापित किये थे अब यह उन्हें नये चार चाँद लगायेगी। प्रदेश की जनता पर दुःख-तकलीफ़ों के पहाड़ टूटना लाज़िमी है। हरियाणा के मेहनतकशों को अपनी जुझारू-लड़ाकू एकजुट ताक़त पर ही भरोसा करना चाहिए जिसका प्रदर्शन उन्होंने पिछले कुछ समय में किया भी है।
भाजपा की “जीत” के पीछे के प्रमुख कारक
हरियाणा विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के प्रमुख कारकों के रूप में इसका पन्ना प्रमुख स्तर तक का सांगठनिक ढाँचा, इसके पक्ष में खड़ी आरएसएस नामक ‘ज़हर खुरानी गिरोह’ की मशीनरी, जाति और धर्म के नाम पर बँटवारे की राजनीति के परिणामस्वरूप ग़ैर-जाट ओबीसी वोटों का अपने पक्ष में सुदृढ़ीकरण, इलेक्शन बूथों पर माइक्रो मैनेजमेण्ट, डेटा मैन्युपुलेशन और इसकी सेवा में एड़ियाँ उचकाकर खड़ा ‘केंचुआ’ यानी केन्द्रीय चुनाव आयोग को चिन्हित किया जा सकता है। चुनाव से पहले ही मुख्यमन्त्री नायाब सिंह सैनी कहते हुए पाये गये कि वे यह चुनाव जीत रहे हैं सारी “व्यवस्थाएँ” हो चुकी हैं! मोदी के सन्दर्भ के साथ छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की तर्ज़ पर चुनाव जीतने की बात भी की गयी, हालाँकि हरियाणा के चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी की छवि का उतना इस्तेमाल भाजपा ने नहीं किया जितना पहले वह किया करती थी। भाजपा ने 90 सीटों में से 89 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे जिनमें से 7 सीटों पर इसके निवर्तमान मन्त्री तक चुनाव हार गये। बची 80 में से 8 सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की ज़मानत ही ज़ब्त हो गयी, फिर भी क्या चमत्कार हो गया कि बची हुई 72 सीटों में भाजपा 48 सीटें जीत गयी। इन 48 सीटों में से भी 9 सीटें ऐसी हैं जिनपर भाजपा मात्र क़रीब 23,000 वोटों के अन्तर से जीती है। आपको ज्ञात होगा चुनाव आयोग द्वारा हरियाणा में चुनाव के दिन अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित किये गये मत प्रतिशत में चुनाव सम्पन्न होने के दिन 5 अक्तूबर के 2 दिन बाद तक यानी 7 अक्तूबर तक भी बढ़ोत्तरी दर्ज होती देखी गयी। कुछ विश्लेषकों के अनुसार ईवीएम सील होने के बावजूद भी वोट प्रतिशत में यह बढ़ोत्तरी एक बार नहीं बल्कि दो बार की गयी। कई सीटों पर यह बढ़ोत्तरी 2-4 फ़ीसदी नहीं बल्कि 10-11 प्रतिशत तक भी देखी गयी। चुनाव विश्लेषकों की मानें तो इस बढ़े हुए वोट प्रतिशत से सीधा फ़ायदा भाजपा को ही हुआ है। पहली बार बढ़े वोट प्रतिशत के बाद भाजपा को 17 सीटें अधिक जाती हुई दिखी तथा दूसरी बार वोट प्रतिशत बढ़ने से भाजपा को 9 और सीटों पर फ़ायदा हुआ। यानी भाजपा द्वारा जीती गयी कुल 26 सीटें ऐसी हैं जिनपर वोट प्रतिशत के बढ़ाये जाने के बाद भाजपा जीती है। ‘केंचुआ’ की मौजूदा स्थिति को देखते हुए निश्चित तौर पर यह तथ्य चौंकाने वाले नहीं हैं। मुख्य प्रतियोगी पार्टी कांग्रेस ने भी क़रीब 20 सीटों पर ईवीएम व चुनाव प्रक्रिया में धाँधली के आरोप लगाये हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान भी अन्तिम वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी होती देखी गयी थी। और चुनाव आयोग के पास इसका कोई जवाब नहीं है।
ईवीएम और चुनाव प्रक्रिया में धाँधली की किसी सम्भावना पर मात्र दो बिन्दुओं पर बात करना पर्याप्त रहेगा। पहली बात, ईवीएम में छेड़छाड़ का भाजपा द्वारा अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल के प्रति सशंकित विश्लेषकों में से ज़्यादातर का मानना है कि फ़िलहाल इसका सीमित इस्तेमाल होगा क्योंकि फ़ासीवादी अभी कारपोरेट पूँजी व दलाल मीडिया के भरोसे जीत को लेकर आश्वस्त हैं तथा खुल्लमखुल्ला ईवीएम धाँधली से व्यवस्था की विश्वसनीयता भी संकटग्रस्त हो सकती है। लेकिन सामने आये तथ्यों से इसी बात की सम्भावना अधिक लगती है लगता है कि चुनाव प्रक्रिया में छेड़छाड़ हुई है, चाहे सीमित पैमाने पर ही सही। दूसरा यदि ईवीएम में छेड़छाड़ असम्भव है तो डालने के बाद और गणना करने से पहले वोटों में अन्तर क्यों पाया जाता है? ईवीएम ‘स्ट्राँग रूमों’ के बाहर और अन्दर भाजपाई ही क्यों मक्खियों की तरह भिनभिनाते हुए पाये जाते हैं? ईवीएम रखरखाव में इतनी अनियमितताएँ क्यों पायी जाती हैं? पहले ख़ुद ईवीएम पर सवाल उठाने वाले भाजपाई ही अब शान्त क्यों हैं?
हरियाणा में पोस्टल बैलेट पर डाले गये वोटों की गणना में 73 सीटों पर कांग्रेस और 1 सीट पर इसके गठबन्धन में चुनाव लड़ रही सीपीएम आगे रहीं जबकि ईवीएम पर ये 37 सीटों पर ही सिमट गयीं। वहीं पोस्टल बैलेट पर मात्र 16 सीटों पर आगे रहने वाली भाजपा ईवीएम पर 48 सीटों पर जीत गयी। आख़िर केन्द्र और राज्य के सरकारी कर्मचारी और बुज़ुर्ग भी तो समाज के आम रुझान को ही अभिव्यक्त कर सकते हैं। हरियाणा विधानसभा चुनाव के आँकड़े एक दफ़ा फिर से केन्द्रीय चुनाव आयोग की निष्पक्षता के ढोल की पोल को बखूबी बयान करते हैं। चुनाव आयोग की निष्पक्षता के ढोंग को इस बात से भी देख सकते हैं कि हरियाणा में भाजपा बहुमत प्राप्त होने के 10 दिन बाद तक भी सरकार का गठन टालती रही और चुनाव आयोग के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी लेकिन वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र के बारे में चुनाव आयोग का कहना है कि चुनाव परिणाम के दो दिन बाद तक यदि सरकार नहीं बनायी गयी तो वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया जायेगा! क्योंकि वहाँ पर अभी फ़िलहाल सरकार बनाने को लेकर भाजपा शायद उतनी आश्वस्त नहीं है। वहीं हरियाणा में यदि किसी दूसरे दल ने बहुमत को इतनी क़रीब से प्राप्त किया होता तो भाजपा यहाँ ‘ऑपरेशन कमल’ के लिए अपने सारे घोड़े दौड़ा देती। कर्नाटक, गोवा, बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक में यह खेल हम पहले भी देख चुके हैं।
चुनाव जीतने के बाद भी भाजपा के खेमे में कई दिन तक सन्नाटा क्यों पसरा रहा?
चुनाव के कई दिन बाद तक भी भाजपा के नेता जनता के बीच विजया जुलूस निकालते नज़र नहीं आये। हालाँकि केन्द्रीय भाजपा नेतृत्व ने इस जीत को “ऐतिहासिक” क़रार दिया था! पूँजी की अकूत और बेशुमार ताक़त, सरकारी अमला, ‘केंचुआ’, बिकाऊ गोदी मीडिया, चुनाव प्रक्रिया व ईवीएम, सीबीआई-ईडी आदि का इस्तेमाल करके और साथ ही निर्दलीय के नाम पर चुनाव लड़ने वालों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करके ताकि इनके द्वारा वोट काटने के बाद भाजपा के उम्मीदवार जीत सकें और ऐसा कई जगहों पर हुआ भी और इनेलो-जजपा का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के बावजूद भी भाजपा बहुमत के 46 के आँकड़े से थोड़ा ही आगे बढ़ पायी है। हरियाणा नायाब सैनी की कैबिनेट के 10 में से 7 मन्त्री चुनाव हार गये और 8 उम्मीदवार तो ज़मानत भी नहीं बचा पाये। इस दौरान धर्म के नाम पर मेवात में नफ़रत का ज़हर भी घोला गया, जाति के नाम पर 35 बनाम 1 की बँटवारे की राजनीति भी की गयी, फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद भी अपनी बुलन्दियों को छू गया, बिना पर्ची-खर्ची के नौकरी देने के झूठ का भी खूब यशोगान हुआ, तथाकथित ईमानदार सरकार के भी खूब नगाड़े बजे और ये सभी हथकण्डे आज़माकर फ़ासीवादी भाजपा लगातार तीसरी बार हरियाणा में सरकार बनाने में क़ामयाब हो गयी। बावजूद इसके इतना तो ज़ाहिर है कि भाजपा सरकार जनता में बेहद अलोकप्रिय हो चुकी है और हाँफते-काँपते, ईवीएम धाँधली और वोटों की ख़रीद-फ़रोख़्त के बाद 48 के आँकड़े तक ही पहुँच पायी है। इसी बात को यदि निगमनात्मक ढंग से देखें तो भाजपा को कुल डाले गये मतों के 40 फ़ीसदी से भी कम प्राप्त हुए हैं यानी वोट डालने वाली 60 फ़ीसदी आबादी ने तो इसे सीधे तौर पर नकार दिया और कुल आबादी के क़रीब 30 प्रतिशत ने तो वोट न डालकर इस पूँजीवादी व्यवस्था को ही नकार दिया।
हरियाणा के मज़दूरों-मेहनतकशों को पूँजीवादी पक्ष नहीं बल्कि सशक्त क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करना होगा!
हरियाणा प्रदेश के लिबरल, “समझदार” और सामाजिक जनवादी या संशोधनवादी कम्युनिस्ट कांग्रेस के सहयोगी और सलाहकार की भूमिका में आ चुके हैं और ‘काश’ लगा-लगा कर नसीहतों की बारिश किये जा रहे हैं। जैसे काश कांग्रेसी थोड़ा और जमीन से जुड़ गये होते, काश जनता थोड़ी और समझदारी दिखाती, काश राहुल और केजरीवाल गलबहियाँ कर लेते, काश शैलजा-हुड्डा-सुरजेवाला एक हो गये होते, काश कांग्रेस अति आत्मविश्वास में नहीं आयी होती आदि-आदि। इनके सभी ‘काश’ पूरे भी हो जाते और भाजपा हरियाणा में चुनाव हार भी जाती तब भी न तो फ़ासीवाद का ख़तरा कम होना था और न ही कोई अन्य वैकल्पिक सरकार जनता के जीवन में ख़ुशहाली लाने वाली थी। कर्नाटक की कांग्रेस सरकारों और इससे पहले की भी राजस्थान की गहलोत सरकार व मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार की कारगुज़ारियों के बाद किसी शक़-संशय की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। फ़ासीवाद को चुनावों से नहीं हराया जा सकता क्योंकि वह सरकार में रहे न रहे, समाज और राजसत्ता के ढाँचे में इसकी स्थायी मौजूदगी बनी रहती है और इस तौर पर फ़ासीवाद आम जनता व ख़ासकर मज़दूर वर्ग का चरम शत्रु बना रहता है। और आज के दौर में तो इसे चुनाव के मैदान में हराना भी टेढ़ी खीर है क्योंकि इसने शासन-सत्ता की पूरी मशीनरी का अन्दर से ‘टेक ओवर’ कर लिया है, अपने लोगों को बिठाकर पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र की संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर अन्दर से नियन्त्रण कर लिया है। इसीलिए यह हारी हुई बाज़ी जीतने में भी सक्षम बन जाता है। यह बात सच है की फ़ासीवादी पार्टी की बजाय कोई भी दूसरी ताक़त सत्ता में आती है तो जनता के लिए स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर होती है और उसे कुछ तात्कालिक राहतें मिलने की कुछ गुंजाइश होती है। साथ ही जनता की अगुवा शक्तियाँ आगामी संघर्षों के लिए तैयारी करने के लिए भी अपेक्षाकृत रूप से बेहतर स्थिति में होती हैं, हालाँकि नवउदारवाद के दौर में कांग्रेस या किसी अन्य ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी दल के बारे में भी गुलाबी सपने बुनना जनता की क्रान्तिकारी अगुवा ताक़तों के लिए घातक होगा। लेकिन सुधारवादी और सामाजिक जनवादी सलाहकारों के ‘काश’ और आहों-कराहों में यह सोच झलकती है कि भाजपा की बजाय कोई दूसरी शक्ति के सरकार में आने से सभी बीमारियों का इलाज हो जाना था और ये सभी बुर्जुआ विभ्रमों से ग्रस्त लोग इसे ही फ़ासीवाद की मुकम्मल हार के तौर पर भी देखते हैं। पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के मौजूदा उदारीकरण के दौर में सरकार चाहे किसी की भी बने यह बात तय है कि उदारीकरण-निजीकरण की रफ़्तार में कोई गुणात्मक फ़र्क नहीं आना है।
आज जनता का सही विकल्प ऐसी ताक़त ही हो सकती है जो न केवल सड़क के संघर्षों को एक सूत्र में पिरो सके और पूँजीवादी चुनावों व संसद-विधानसभा के मंचों पर प्रभावी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप कर पूँजीवादी व्यवस्था के सीमान्तों को उजागर कर सके बल्कि मौजूदा व्यवस्था की सीमाओं को इंगित करते हुए एक नयी व्यवस्था का मॉडल और उसे हक़ीक़त में तब्दील करने का क्रान्तिकारी रास्ता भी कमेरे वर्गों के सामने रख सके। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) इसी सोच के साथ पूँजीवादी चुनावों में मज़दूरों, मेहनतकशों व ग़रीब किसानों के स्वतन्त्र स्वर को पेश करने के प्रयास की शुरुआत कर चुकी है। हरियाणा विधानसभा चुनावों में RWPI ने उचाना कलां की सीट से अपने उम्मीदवार कॉमरेड रमेश खटकड़ को खड़ा किया था।
हरियाणा की जनता के सामने उपस्थित चुनौतियाँ
आज चुनावों में पूरी तरह से अवसरवाद-धनबल-बाहुबल का ही बोलबाला है और अब तो इसमें धाँधली और जनमत की चोरी का पहलू भी बखूबी जुड़ चुका है लेकिन यदि चुनाव पूरी तरह से साफ़-सुथरे हों तो भी चुनी जाने वाली कोई भी सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी से ज़्यादा और कुछ नहीं होती। केवल अपवादस्वरूप स्थिति में ही कोई क्रान्तिकारी शक्ति पूँजीवादी चुनावों में विजयी हो सकती है, हालाँकि इससे भी समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की प्रक्रिया नहीं पूरी होती। आरडब्ल्यूपीआई का यह स्पष्ट मानना है कि वर्ग संघर्ष के हर मोर्चे और समाज के हर क्षेत्र में मेहनतकश जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की उपस्थिति ज़रूरी है चाहे वह संसद-विधानसभा का ही मंच क्यों न हो। संसद और विधानसभा में रणकौशालात्मक भागीदारी के ज़रिये और उनके चुनावों तथा उनके मंच पर मेहनतकशों-मज़दूरों के स्वतन्त्र पक्ष की मौजूदगी के ज़रिये ही पूँजीवादी जनतन्त्र के सीमान्तों को उजागर किया जा सकता है। लेकिन RWPI की क्रान्तिकारी गतिविधियाँ मुख्य तौर पर इस चुनावी संघर्ष से नहीं बल्कि जनता के क्रान्तिकारी जनान्दोलनों व वर्ग संघर्ष से निर्धारित होती हैं और चुनावों व संसद-विधानसभा के मंच पर होने वाला संघर्ष भी इसी क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष व जनान्दोलनों से निर्धारित होता है व इसके अधीन होता है।
रोडवेज़ के निजीकरण का मुद्दा हो या कॉलेजों की बढ़ी हुई फ़ीसों का, निजीकरण का मुद्दा हो या ठेकाकरण का, सरकारी भ्रष्टाचार हो या नौकरशाही का भ्रष्टाचार, ग़रीब किसानों की लूट हो या मज़दूरों-कर्मचारियों का दमन-शोषण, दलितों के उत्पीड़न-शोषण के मामले हों या स्त्रियों के उत्पीड़न के मुद्दे हों, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) ने विभिन्न जन-संघर्षों में यथासम्भव भागीदारी की है और कई जगहों पर इन संघर्षों को नेतृत्व भी दिया है। हरियाणा की जनता को यह बात समझनी होगी कि मज़दूरों, कर्मचारियों, ग़रीब किसानों, छात्रों, युवाओं, स्त्रियों समेत कमेरों के संघर्षों की दम पर ही भाजपा की फ़ासीवादी और जनविरोधी राजनीति को सही मायनों में टक्कर दी जा सकती है। किसी भी अन्य पूँजीवादी दल के भरोसे बैठे रहने से हमें हमारे हक़ नहीं मिलने वाले हैं। हमें अपना स्वतन्त्र क्रान्तिकारी राजनीतिक विकल्प खड़ा करना होगा तथा मज़बूत करना होगा जिसमें हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं। एक ऐसा विकल्प जो सड़कों से लेकर संसद तक के संघर्षों में मेहनतकश जनता के हितों की नुमाइन्दगी कर सके। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) जनता का ऐसा ही विकल्प बनने के लिए प्रतिबद्ध है।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) ने हरियाणा में एक सीट से अपने उम्मीदवार को खड़ा किया था। उचाना कलां विधानसभा क्षेत्र से कॉमरेड रमेश खटकड़ कमेरे पक्ष के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे। हमें यहाँ कुल 127 मत प्राप्त हुए हैं। निश्चय ही यह संख्या हमारी अपेक्षा से काफ़ी कम है। लेकिन इस बार हमने अपेक्षाकृत नये इलाक़े से चुनाव में शिरक़त की थी। दूसरा मतों का ध्रुवीकरण भी यहाँ काफ़ी तीखा था। बेहद सीमित संसाधनों और कम समय के प्रचार के बावजूद हमें 127 मत प्राप्त हुए हैं। ये राजनीतिक वोट हैं, जो RWPI के कार्यक्रम व विचारधारा के आधार पर दिये गये हैं। पूँजीवादी चुनावों में समर्थन के मतों में रूपान्तरित होने के पीछे बहुत से पहलू काम कर रहे होते हैं, जैसे जातिवाद, धनबल, बाहुबल आदि जिन्हें जनता की राजनीतिक वर्ग चेतना के स्तरोन्नयन के साथ और संघर्षों की प्रक्रिया में ही खत्म किया जा सकता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस दौरान हम विधानसभा क्षेत्र के लाखों लोगों तक जनता का क्रान्तिकारी एजेण्डा और कमेरे तबक़ों के असली मुद्दों ले जाने में क़ामयाब रहे हैं। हमने हज़ारों पर्चे बाँटे और सैकड़ों बैठकें व नुक्कड़ सभाएँ की। सड़क के हमारे संघर्ष आगे भी लड़े जाते रहेंगे तथा जनता का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष खड़ा करने का हमारा प्रयास भविष्य में भी जारी रहेगा।
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