आख़िर कब तक उत्तर बिहार की जनता बाढ़ की विभीषिका झेलने को मजबूर रहेगी?

विवेक

विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार के लगभग 12 ज़िलों के क़रीब 16 लाख लोग नदियों का जलस्तर बढ़ने के कारण आयी बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। सिर्फ़ 23 सितम्बर को नदियों के जलस्तर में हुई अचानक वृद्धि से आयी बाढ़ के कारण क़रीब दस लोगों की मौत हुई। सैंकड़ों की तादाद में नदियों के किनारे बने मकान ढह गये, हज़ारों हेक्टयर में लगी धान और अन्य खरीफ़ फ़सलें बर्बाद हो गयीं। आश्चर्य की बात यह है कि इस बार बिहार में औसत से क़रीब 28 फ़ीसदी कम बारिश हुई है, इसके बावजूद उत्तर बिहार के अधिकांश ज़िलों को बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ी। अक्तूबर की शुरुआत तक कई इलाक़ों में लोग राहत शिविरों की दयनीय स्थितियों में रहने को मजबूर थे। इतनी बड़ी विभीषिका के घटित होने के बावजूद क्षेत्रीय मीडिया को छोड़ दिया जाये तो राष्ट्रीय स्तर की मुख्यधारा की मीडिया (पढ़े ‘गोदी मीडिया’) के लिये यह ख़बर ही नहीं बनी। बाढ़ से पीड़ित लगभग 16 लाख लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं था कि “तिरुपति के लड्डू में इस्तेमाल होने वाले घी में मिलावट” की अफ़वाह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बन गयी, लेकिन उसी समय बाढ़ से प्रभावित 16 लाख लोगों की पीड़ा को दरकिनार कर दिया गया। राज्य सरकार ने भी वही किया, जो वह हर साल करती है, बड़े अधिकारियों और मंत्रियों ने बाढ़ ग्रस्त इलाक़ों का “हवाई दौरा” किया और “बाढ़ से पीड़ितों के पुनर्वास” के हर सम्भव प्रयास की कोशिश के लिए वायदे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। पुनर्वास योजनाओं में वही होगा, जो अक्सर होता है, सरकारी राशि की भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं द्वारा बंदरबाँट होगी, ज़रूरतमंद लोगों के हिस्से में कुछ आ भी जाये तो गनीमत है!

बिहार में बाढ़ का आना नयी समस्या नहीं है, क़रीब हर साल उत्तर बिहार के ज़्यादातर ज़िलों को बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ती है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस समस्या का कोई हल नहीं है? क्या बाढ़ की विभीषिका को कम नहीं किया जा सकता है? इन प्रश्नों की पड़ताल करने के लिए बाढ़ के कारणों को समझना होगा।

राज्य सरकार के फ़्लड मैनेजमेंट इमप्रूवमेंट सपोर्ट सेंटर (एफएमआईएससी) के अनुसार, बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित राज्य है। उत्तरी बिहार की 76 प्रतिशत आबादी बाढ़ के ख़तरे में रहती है। पूरे देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल का लगभग 22 फ़ीसदी हिस्सा अकेले बिहार में है। इसमें बिहार की भौगोलिक स्थिति का बड़ा योगदान है, जिसकी संक्षिप्त चर्चा नीचे की गयी है।

महानंदा, गंडक, कोसी, बागमती और बूढ़ी गंडक उत्तर बिहार में बहने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ नेपाल में अवस्थित हिमालय से निकलती हैं, इसलिए इनमें जल का मुख्य स्त्रोत हिमालय में अवस्थित अलग-अलग हिमनद है। इसलिए पूरे साल इन नदियों में पानी बरक़रार रहता है। मॉनसून के वक़्त मे अत्यधिक वर्षा से इन नदियों का जल स्तर बढ़ जाता है जो बाढ़ का मुख्य कारण बनती है। बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए तत्कालीन सरकारों ने अदूरदर्शी क़दम उठाये, जिसका ख़ामियाज़ा आज तक उठाना पड़ रहा है। उत्तर बिहार मे बहने वाली उपरोक्त वर्णित नदियाँ अपने साथ बड़े पैमाने पर तलछट और गाद (सिल्ट) लेकर आती हैं। बाढ़ से बचने के उपाय के तौर पर आज़ादी के बाद उत्तर बिहार में नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये गये। तटबन्ध बनने से कोसी एवं अन्य नदियों का विस्तार सीमित हो गया, जिसके कारण इन नदियों के साथ बहकर आयी तलछट नदी की तलहटी में बैठती चली गयी और नदियाँ छिछली होती चली गयीं। ज़ाहिरा तौर पर मॉनसून के दौरान इन नदियों का जलस्तर बढ़ने के कारण तटबंध के द्वारा भी बाढ़ का पानी रुक नहीं पाता है। डाउन टू अर्थ’  पत्रिका की वेबसाइट पर छपी ख़बर के अनुसार 30 सितम्बर को क़रीब सात जगहों पर तटबंध बाढ़ के पानी को रोकने में असफल रहे।

इस बार जब नेपाल में हिमालय के निचले हिस्सों में ज़ोरदार बारिश हुई तो कोसी नदी का जलस्तर इतना बढ़ गया कि नदी के जल प्रवाह पर नियंत्रण के लिए भारत-नेपाल सीमा पर बने कोसी बराज के सारे 56 स्लुइस फाटकों को खोलना पड़ा और क़रीब 6.61 लाख क्यूसेक पानी उत्तर बिहार की ओर छोड़ दिया गया। नतीजतन, उत्तर बिहार के नेपाल सीमा से सटे जिलों में बाढ़ आ गयी।

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए) की स्थापना भारत में बाढ़-नियंत्रण के उपायों का अध्ययन करने के लिए 1976 में कृषि और सिंचाई मंत्रालय द्वारा की गयी थी। इसने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हाल के वर्षों में भारत में वर्षा में कोई वृद्धि नहीं हुई है, अत: बाढ़ के लिए मानवजनित कारक ही ज़िम्मेदार हैं। उत्तर बिहार में हर वर्ष आने वाली बाढ़ के लिए यह सत्य सिद्ध हुआ है। अक्सर यह देखा जाता है कि उत्तर बिहार में आने वाली बाढ़ को प्राकृतिक समस्या बताकर सत्ता में नेता-मंत्री अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। हालाँकि गहराई से इसकी पड़ताल करने पर यह पता चलता है कि यह महज़ किसी प्राकृतिक आपदा के कारण होनी वाली परेशानी नहीं है बल्कि इसके लिए ज़िम्मेदार सत्ता में बैठे लोगों द्वारा अतीत में लिए गये अदूरदर्शी एवं ग़लत निर्णय भी है जिनमें आज भी कोई सुधार नहीं किया जा रहा है।

ख़ैर, 1976 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की उपरोक्त रिपोर्ट आने के बाद बाढ़ की विभीषिका की रोकथाम के लिए न ही केन्द्र में बैठने वाली कांग्रेस सरकारों ने ही कुछ किया और न ही भाजपा सरकार ने कोई ख़ास क़दम उठाया।

इसके अलावा आपदा प्रबन्धन को लेकर बिहार की राज्य सरकार द्वारा जितने दावे किए जाते है, उसकी भी पोल इस वर्ष बाढ़ के दौरान खुल गयी। अगर बिहार में आपदा प्रबन्धन तंत्र इतना ही मज़बूत है तो आख़िर क्यों बाढ़ की पूर्वसूचना होते हुए भी इससे निपटने के उपायों का अभाव था? बाढ़ से इतनी बड़ी मात्रा में फ़सलों सहित अन्य संसाधनों को हुए नुक़सान को क्यों नहीं बचाया जा सका? और राहत शिविरों के ऐसे दयनीय हालात क्यों थे? इन प्रश्नों का उत्तर राज्य सरकार को देना होगा।

 अंत में…

बाढ़ के कारण कृषि पर निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा जा जाती है। चूंकि बाढ़ के कारण कृषि कार्य रुक जाते हैं, इसलिए कृषि पर निर्भरता घाटे का सौदा बन जाती है। बहुसंख्यक छोटी जोत वाले किसान और भूमिहीन खेतिहर मज़दूर राज्य के बाहर बड़े शहरों का रुख करते हैं जिससे कि उनका और उनके परिवार का गुज़ारा चल सके। सीधे शब्दों में कहें तो बाढ़ के कारण भी बिहार से बड़ी संख्या में मेहनतकश आबादी का पलायन होता है। अगर बाढ़ की विभीषिका से बचने के सफल उपाय किये जायें तो बाढ़ के कारण होने वाले पलायन को भी एक हद तक रोका जा सकता है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था की यही हक़ीक़त है कि इसमें आम मेहनतकश आबादी की समस्याओं को हमेशा दरकिनार किया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान आपदा प्रबन्धन के सम्बन्ध में समाजवादी सोवियत यूनियन (1956 के पहले के), समाजवादी चीन (1976 के पहले के) और एक हद तक क्यूबा के उदाहरण दिये जा सकते है, जहाँ ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए वैज्ञानिक नज़रिया और ठोस नीतियाँ मौजूद थीं।

आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी जिस हद तक आगे बढ़ चुकी है, उसका उपयोग कर ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रभावों को कम किया जा सकता है। हालाँकि जैसा कि पहले भी कहा पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत भी उत्पादक शक्तियों के विकास के कारण ऐसा सम्भव होते हुए भी इसे नहीं किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। हमें सत्ता में बैठी सरकारों को इन मसलों पर घेरते हुए उनसे सवाल करना होगा और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना होगा। बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए हमें सरकारों को मजबूर करना होगा।

 

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2024


 

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