मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (आठवीं किश्त)

सनी

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कम्युनिस्ट लीग मज़दूर आन्दोलन की पहले क्रान्तिकारी दौर का संगठन था। क्रान्तिकालीन यूरोप में सत्ता के चरित्र के अनुरूप ही संगठन का स्वरुप ‘प्रचार के संगठन’ का तथा गोपनीय था। इसके बाद मज़दूर आन्दोलन को पुनःसंगठित करने के लिए मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में जो संगठन खड़ा हुआ वह ‘प्रथम इण्टरनेशनल’ था जो 1864 में अस्तित्व में आया। इस संगठन का स्वरुप समझने से पहले उन ऐतिहासिक परिस्थितियों की चर्चा करना आवश्यक होगा जिसमें यह संगठन जन्मा।

1852 में यूरोप क्रान्तिकारी ज्वर के नीचे उतरने के साथ लीग भी भंग हो गयी। 1850 के दशक के आख़िरी दौर को छोड़ दें तो यह दशक मज़दूर आन्दोलन की पराजय का दशक था। मार्क्स एंगेल्स इस दशक में ज़रूरी अध्ययन को समय देते हैं। मार्क्स लन्दन में आकर बसते हैं और बेहद ग़रीबी में जीवन वहन करते हैं। क्रान्ति के अनुभवों का सार-संकलन करने के बाद मार्क्स अपना अधिकांश समय मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों को स्थापित करने में देते हैं वहीं एंगेल्स मार्क्सवादी विचारधारा को विकसित करने और उसकी रक्षा करने के लिए विविध विषयों में अपना शोध जारी रखते हैं। इस दौर में दोनों ही मज़दूर आन्दोलन के साथियों से क़रीबी सम्पर्क में थे और क्रान्तिकारी आन्दोलन की सम्भावनाओं पर नज़र रखे हुए थे।

मार्क्स-एंगेल्स ने इस दौर में उन क्रान्तिकारियों की आलोचना की जो ‘गड्ढा खोदकर क्रान्ति की लहर’ पैदा कर देना चाहते थे यानी क्रान्ति को केवल मनोगत शक्तियों के प्रयासों का नतीजा मानते थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन का उभार महज़ क्रान्तिकारियों के मनोगत प्रयासों का नतीजा नहीं होता है, बल्कि बुनियादी तौर पर वह वस्तुगत परिस्थितियों का नतीजा होता है। 1858 में आर्थिक संकट के चलते मज़दूरों की जीवनस्थिति बेहद ख़राब हो चली थी लेकिन इसके बावजूद इस समय ही क्रन्तिकारी आन्दोलन नहीं फ़ैला, हालाँकि मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त आन्दोलनों का फूटना इस दशक के अन्त तक शुरू होने लगा था। 1860 के दशक में जाकर मज़दूर आन्दोलन फिर से उफ़ान पर चढ़ता है लेकिन यह उस समय नहीं हुआ जिस समय का अनुमान मार्क्स-एंगेल्स ने पहले लगाया था। 1858 में आर्थिक संकट तो घिरा पर मज़दूर आन्दोलन की शक्तियाँ अभी बिखरी हुयी थीं। वे अगले 4-5 सालों में संगठित होती हैं। इस दौर में यूरोप से लेकर अटलाण्टिक के पार अमरीका में भी आर्थिक स्थितयाँ बदल रहीं थी।  

यूरोप में इंग्लैण्ड में जिस तरह औद्योगीकरण हुआ उसके मुकाबले जर्मनी और फ्रांस अभी पिछड़े हुए थे। हालाँकि फ़्रांस और जर्मनी दोनों में 1848 के बाद से तेज़ी से पूँजीवादी विकास हो रहा था। चार्टिस्ट आन्दोलन की हार के बाद ब्रिटिश मज़दूर आन्दोलन बिखराव का शिकार रहा। 1858 के आर्थिक संकट के बाद से मज़दूर संगठित होकर लड़ने की प्रक्रिया पुनः शुरू करते हैं। 1861 में इंग्लैण्ड में पहली ट्रेड काउन्सिल स्थापित होती है। फ़्रांस में बुर्जुआ सत्ता ने 1848 की मज़दूर क्रान्ति को ख़ून में डुबो दिया था। कम्युनिस्ट लीग के भंग होने के बाद फ़्रांस में मज़दूर आन्दोलन पर प्रूदोंवादियों का बोलबाला रहा जो कम्युनिस्ट व्यवस्था की स्थापना और निजी सम्पत्ति के खात्मे की जगह जगह छोटे उत्पादकों की निजी सम्पत्ति पर आधारित टुटपुँजिया व्यवस्था के यूटोपिया के हिमायती थे। उनके अनुसार मज़दूरों को को-ऑपरेटिव, पारस्परिक सहायकता की वित्तीय संस्थाएँ बनानी चाहिए। वे मज़दूरों की राजनीतिक गतिविधियों में शिरकत को ग़लत ठहराते थे। प्रूदों का दर्शन बर्बाद होते छोटे उत्पादकों का दर्शन था। वह पूँजीवाद द्वारा छोटी पूँजी के अनिवार्य नाश की समस्या का समाधान भविष्य में यानी वैज्ञानिक समाजवाद में नहीं देखते थे, बल्कि अतीत में, यानी टुटपुँजिया “समाजवाद” के यूटोपिया में देखते थे। चूँकि फ़्रांस में औद्योगीकरण इंग्लैण्ड के बनिस्पत कम हुआ था इसलिए यहाँ छोटे उत्पादकों की आबादी सापेक्षिक रूप से इंग्लैण्ड के मुक़ाबले अधिक थी। 1860 तक परिस्थितियाँ बदलने लगी थी परन्तु अभी भी मज़दूर आन्दोलन पर प्रूदोंवादियों का बोलबाला था।

जर्मनी में भी मज़दूर आन्दोलन 1848 की हार के बाद बिखर गया था। ज़्यादातर मज़दूर संगठन लिबरल पूँजीपति वर्ग के नेतृत्व को स्वीकार कर रहे थे। 1860 तक यह परिस्थिति बदलने लगी और स्वतन्त्र मज़दूर संगठन अस्तित्व में आने लगे। जर्मनी में सामाजिक जनवादी पार्टी भी 1869 में अस्तित्व में आई जिसके नेता बेबेल और लिब्नेख्त भी थे। यह दोनों मज़दूर नेता मार्क्स के विचारों के समर्थक थे। जर्मन मज़दूर आन्दोलन में एक दौर में एक सीमा तक जर्मन नेता लासाल की भूमिका का एक पहलू सकारात्मक था जब उसने मज़दूर वर्ग के नेताओं को लिबरल पूँजीपति वर्ग से राजनीतिक तौर पर स्वतन्त्र मज़दूर वर्ग की पार्टी बनाने का सुझाव दिया। हालाँकि खुद लासाल की राजनीति “व्यवहारिक” होने के नाम पर अवसरवादी थी। उनकी यात्रा एक “वामपन्थी” भटकाव (“मज़दूर वर्ग एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है”) से दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव (जर्मन जनवाद-विरोधी मज़दूर-विरोधी सत्ता से समझौतापरस्ती) तक की यात्रा थी। “रियालपोलीतिक” के नाम पर लासाल ने बिस्मार्क से समझौते किये और मार्क्स के विचारों से चौर्यलेखन करते हुए भी उनकी दुर्व्याख्या की। लासाल ने सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयवाद के विपरीत पोलैण्ड को जर्मनी में शामिल करने की हामी भरी और बिस्मार्क का राष्ट्रवादी के नाम पर समर्थन किया। मार्क्स-एंगेल्स ने उन्हें संकीर्ण राष्ट्रवादी क़रार दिया था।

यूरोप के इन तीनों देशों में मज़दूर आन्दोलन में ठहराव टूट रहा था परन्तु यह विजातीय प्रवृतियों से प्रभावित था। 1860 के दशक में मज़दूर संगठनों में सक्रियता आई तो वैचारिक स्तर पर भी संघर्ष शुरू हुए। यह संघर्ष इण्टरनेशनल के बैनर तले मार्क्स ने सफलतापूर्वक चलाये। मार्क्स-एंगेल्स का इस दौर का लेखन आज भी कम्युनिस्ट आन्दोलन में विजातीय प्रवृतियों से संघर्ष चलाने का कुतुबनुमा है।

प्रथम इण्टरनेशनल की स्थापना

1860 के दशक में दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने इण्टरनेशनल की स्थापना की पूर्वपीठिका तैयार की। एक, अमरीका में गृहयुद्ध के चलते कपास की आपूर्ति रुक गयी जिस वजह से यूरोप में कई कपास मिल बन्द हुई और बड़ी संख्या में मज़दूर सड़कों पर आ गये। मालिकों ने इस संकट का बोझ मज़दूरों के कन्धों पर डालने की कोशिश की जिसका मज़दूरों ने डटकर सामना किया। मजदूर वर्गीय ‘लन्दन ट्रेड्स कमिटी’ ने इस समय बेरोज़गार मज़दूरों की मदद के लिए विशेष कमिटी बनायी। ऐसी ही कमिटी फ़्रांस में भी स्थापित हुई। इन दोनों कमिटियों के बीच संवाद स्थापित हुआ और यह इस दौर में अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता की ओर बढ़ा पहला कदम था।

पोलैण्ड द्वारा रूस के ख़िलाफ़ बग़ावत मज़दूरों के बीच अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता उठ खड़ी होने और उसके संगठन की ज़रूरत पर बल देनी वाली दूसरी घटना थी। इस बग़ावत का समर्थन करने के लिए इंग्लैण्ड के मज़दूरों ने एक मीटिंग का आयोजन किया और यूरोप के अन्य देशों के मज़दूरों को इसका समर्थन देने का आह्वान किया। इस बैठक में पूरे महाद्वीप के मज़दूरों के बीच सम्पर्क स्थापित करने और एकजुट संघर्ष के तरीक़े निकालने पर चर्चा की गयी।  फ़्रांस के मज़दूरों ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया और आख़िरकार इन प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए एक ऐसे संघ की स्थापना की गयी जो आम तौर पर मज़दूरों के संघर्षों को नेतृत्व दे सके। यह अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ यानी प्रथम इण्टरनेशनल था। मार्क्स को लन्दन से प्रतिनिधि के तौर पर आमन्त्रित किया गया था। संघ स्वतःस्फूर्त तौर पर उभरा था। इसका चरित्र कम्युनिस्ट लीग सरीखा नहीं था जिसमें कम्युनिस्ट नियमावली की स्वीकार्यता ज़रूरी थी, बल्कि यह एक संघ के चरित्र को रखता था जिसमें मज़दूर आन्दोलन में मौजूद तमाम प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं जिनसे मार्क्स-एंगेल्स ने मज़दूर आन्दोलन की एकता के लिए संघ के भीतर संघर्ष चलते हुए एकता बरक़रार रखी।

एंगेल्स इसके बारे में बताते हैं:

“हमारा संघ इसलिए कायम किया गया है कि वह उन मज़दूर समाजों के लिए मेल-मिलाप तथा संयुक्त गतिविधियों का केन्द्र बना रहे, जो भिन्न-भिन्न देशों में मौजूद हैं और एकसमान लक्ष्य अपनाये हुए हैं, अर्थात् मज़दूर वर्ग की रक्षा, विकास और पूर्ण मुक्ति (संघ की नियमावली की प्रथम धारा)। चूँकि बाकूनिन और उनके मित्रों के विशिष्ट सिद्धान्त इस धारा का खण्डन नहीं करते, इसलिए उनको सदस्य के रूप में अंगीकार करने तथा सभी स्वीकार्य उपायों से अपने विचारों का यथासम्भव प्रचार करने की इजाज़त के विरुद्ध कोई आपत्ति नहीं थी। हमारे संघ में तरह-तरह के लोग हैं – कम्युनिस्ट, प्रूदोंवादी, ट्रेडयूनियनवादी, सहकारी, बाकुनिनपन्थी, आदि, और हमारी जनरल काउन्सिल तक में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले लोग भी हैं।” (एंगेल्स की कार्लो कफ़्येरो को चिट्ठी, 1871)

प्रत्येक देश में इण्टरनेशनल के सदस्य ‘राष्ट्रीय संघीय परिषद’ द्वारा संचालित इण्टरनेशनल के मातहत एकजुट हो गए।  समय-समय पर बुलाये जाने वाले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में श्रमिक वर्ग आन्दोलन के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा की जाती थी और इण्टरनेशनल की मुख्य समिति यानी जनरल काउन्सिल का चुनाव किया जाता था। जनरल काउन्सिल के पास महत्वपूर्ण शक्तियाँ थीं, लेकिन यह सांगठनिक दृष्टिकोण से निर्णायक केन्द्र नहीं था। इसका मुख्य रूप से कार्य अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा आन्दोलन को वैचारिक नेतृत्व प्रदान करना था। यह साफ़ है कि इण्टरनेशनल का सांगठनिक ढाँचा कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के सरीखा नहीं था परन्तु इसने अपने दौर में तथा भविष्य में जन्मने वाली पार्टियों को वैचारिक नेतृत्व प्रदान किया। पेरिस कम्यून इस मायने में इण्टरनेशनल की ही “सन्तान” था। पेरिस कम्यून ने मार्क्स के राज्य और क्रान्ति पर विचारों को सही सिद्ध कर दिया था। इस विषय पर हम अगली किश्त में लिखेंगे। बाकुनिन के षडयन्त्रों के चलते जब इण्टरनेशनल भंग हुआ तब तक वह अपनी भूमिका अदा कर चुका था। इण्टरनेशनल के भंग होने तक मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी अवस्थिति से कई विजातीय प्रवृर्तियों से संघर्ष चलाया और देश स्तर पर खड़ी होने वाली मज़दूर पार्टियों के कार्यक्रम और विचारधारा के प्रश्न पर सही राह दिखाई। मार्क्स लिखते हैं:

“इण्टरनेशनल की स्थापना समाजवादी और अर्द्ध-समाजवादी सम्प्रदायों (सेक्ट) के स्थान पर संघर्ष के लिए मज़दूर वर्ग का एक सच्चा संगठन क़ायम करने के लिए की गयी थी। उसकी अस्थायी नियमावली तथा उद्घाटन-घोषणा इस चीज़ की एकदम पुष्टि करती है। दूसरी ओर, यदि इतिहास की धारा ने सम्प्रदायवाद को पहले ही चूर-चूर न कर दिया होता, तो इण्टरनेशनल अपने को कायम नहीं रख सकता था। समाजवादी सम्प्रदायवाद के विकास और असली मज़दूर आन्दोलन के विकास में सदा से विलोम अनुपात रहा है, जिस अनुपात में एक बढ़ता है उसी अनुपात में दूसरा घटता है। सम्प्रदायों का उस समय तक (ऐतिहासिक दृष्टि से) औचित्य रहता है, जब तक कि मज़दूर वर्ग स्वतन्त्र ऐतिहासिक आन्दोलन के लिए परिपक्व नहीं हो जाता। परन्तु ज्यों ही उसमें यह परिपक्वता आ जाती है, त्यों ही सभी सम्प्रदाय सारभूत रूप से प्रतिगामी बन जाते हैं। इतिहास ने सभी जगह जो दिखाया है, उसकी पुनरावृत्ति इण्टरनेशनल के इतिहास में भी हुई। जो पुराना पड़ जाता है, वह नव-प्राप्त रूपों के अन्दर फिर पैर जमाने तथा अपनी स्थिति कायम करने की कोशिश करता है।”

 “इण्टरनेशनल का इतिहास मज़दूर वर्ग के वास्तविक आन्दोलन के विरुद्ध स्वयं इण्टरनेशनल के भीतर अपनी स्थिति कायम रखने की कोशिश करने वाले सम्प्रदायों और सतही प्रयोगों के ख़िलाफ़ जनरल काउन्सिल के निरन्तर संघर्ष का इतिहास रहा है। यह संघर्ष कांग्रेसों में चलाया जाता था। पर उससे भी कहीं अधिक वह अलग-अलग शाखाओं के साथ जनरल काउन्सिल की निजी वार्ताओं में चला करता था।” (मार्क्स की फ्रेडरिक बोल्ट को चिट्ठी, 1871)

इण्टरनेशनल के भीतर मार्क्स और एंगेल्स ने प्रूदों, लासाल और बाकुनिन तथा अन्य धड़ों के विचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष चलाया। सबसे पहला प्रमुख संघर्ष प्रूदों के ख़िलाफ़ चला। इण्टरनेशनल की कांग्रेस प्रूदों और मार्क्स के विचारों के संघर्ष का मंच बन गयी। प्रूदों के समर्थकों ने इण्टरनेशनल में ज़मीन के समाजीकरण के प्रस्ताव को नकार दिया था। प्रूदोंवादी हड़तालों का समर्थन नहीं करते थे, राजनीति में महिलों की भागीदारी के समर्थक नहीं थे। ज़्यादातर सभी प्रश्नों पर वे परास्त हुए। इण्टरनेशनल में दूसरा महत्वपूर्ण संघर्ष लासाल के समर्थकों से चला जिन्होंने संकीर्ण राष्ट्रवादी अवस्थिति अपनाई थी और कई मसलों में बिस्मार्क की नीतियों का समर्थन किया था। लासाल के ख़िलाफ़ चले संघर्ष में भी इण्टरनेशनल में मार्क्स की अवस्थिति मज़दूर आन्दोलन में मज़बूत हुई। अन्ततः इण्टरनेशनल में बाकुनिन के साथ सबसे तीखा और लम्बा संघर्ष चला था। बाकुनिन ने अपने संगठन ‘समाजवादी जनवाद का सहबन्ध’ को इण्टरनेशनल के साथ मिला लिया लेकिन उसका मकसद इण्टरनेशनल को ही तोड़कर उसे अपने सहबन्ध के मातहत लाना था। मार्क्स कहते हैं:

“1868 के अन्त में रूसी बाकुनिन ने इस इरादे से इण्टरनेशनल में प्रवेश किया कि वह उसके अन्दर ‘समाजवादी जनवाद को सहबन्ध’ नाम से एक दूसरा इण्टरनेशनल क़ायम करें, जिसके नेता वह खुद हों। सैद्धान्तिक ज्ञान से शून्य इस सज्जन ने यह दावा किया कि वह इस अलग संस्था में इण्टरनेशनल के वैज्ञानिक प्रचार का प्रतिनिधित्व करेगा और इण्टरनेशनल के अन्दर के इस दूसरे इण्टरनेशनल का विशेष कार्य यह प्रचार करना होगा।

“उनका कार्यक्रम खिचड़ी था। उसमें इस प्रकार की मज़ाकिया बातें शामिल थीं — वर्गों की समानता (!), सामाजिक आन्दोलन के प्रस्थान-बिन्दु के रूप में उत्तराधिकार का उन्मूलन (यह सन्त-सीमोनवादी बकवास है), इण्टरनेशनल के सदस्यों पर लादे जाने वाले जड़सूत्र के रूप में अनीश्वरवाद, आदि, और मुख्य (प्रूदोंवादी) जड़सूत्र — राजनीतिक आन्दोलन से परहेज़।

“ये बचकाने किस्से इटली और स्पेन में, जहाँ मज़दूर आन्दोलन की वास्तविक अवस्थाएँ अभी तक विकसित नहीं हैं, पसन्द किये गये (वहाँ अब भी इनका कुछ असर है); लैटिन स्विट्जरलैण्ड तथा बेल्जियम के कुछ अहंकारी, महत्वाकांक्षी और खोखले मतवादियों को भी वे अच्छे लगे।

“श्री बाकुनिन के लिए उनका सिद्धान्त (जो प्रूदों, सेंत-सीमोन, आदि से उधार लिया गया कूड़ा-कचरा मात्र है) गौण वस्तु था और आज भी है। वह यह दिखलाने का जरिया मात्र है कि वह भी कुछ है। पर सिद्धान्तकार के रूप में नगण्य बाकुनिन का षड्यन्त्रकारी का रूप उनका सहज, प्रकृत रूप है।” (मार्क्स की फ्रेडरिक बोल्ट को चिट्ठी, 1871)

एंगेल्स बाकुनिन के बारे में बताते हैं:

“बाकुनिन का अपना ही एक विचित्र सिद्धान्त है, प्रूदोंवाद और कम्युनिज़्म की खिचड़ी। मुख्य बात यह है कि वह पूँजी को अर्थात् पूँजीपतियों और उजरती मजदूरों के बीच विरोध को नहीं, जो सामाजिक विकास के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है, बल्कि राज्य को वह मुख्य बुराई मानते है, जिसे ख़त्म किया जाना चाहिए। जहाँ सामाजिक-जनवादी मज़दूरों की बड़ी संख्या हमारे इस विचार को अपनाती है कि राजकीय सत्ता एक ऐसे संगठन के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे सत्तारूढ़ वर्गों – ज़मीदारों और पूँजीपतियों ने अपने लिए स्थापित किया है, ताकि वे अपने सामाजिक विशेषाधिकारों की रक्षा कर सकें, वहाँ बाकूनिन यह मानते हैं कि यह राज्य ही है जिसने पूँजी की सृष्टि की है, कि पूँजीपति के पास केवल राज्य की कृपा से ही पूँजी होती है। इसलिए राज्य चूँकि मुख्य बुराई है, सर्वोपरि राज्य को ही ख़त्म किया जाना चाहिए और तब पूँजी खुद जहन्नुम में पहुँच जायेगी । इसके विपरीत, हमारा विचार है कि पूँजी को – उत्पादन के समस्त साधनों के चन्द हाथों में संकेन्द्रण को खत्म कर दें और राज्य खुद ही ढह जायेगा। अन्तर बुनियादी है – पहले सामाजिक क्रान्ति के बिना राज्य के उन्मूलन की बात बकवास है। ठीक पूँजी का उन्मूलन हो सामाजिक क्रान्ति है और उसमें उत्पादन की पूरी पद्धति में परिवर्तन निहित है। लेकिन बकूनिन के लिए राज्य चूँकि मुख्य बुराई है, इसलिए कोई ऐसा काम नहीं किया जाना चाहिए, जो राज्य को – अर्थात् किसी भी प्रकार के राज्य को, चाहे यह जनतन्त्रीय हो या राजतन्त्रीय या कुछ और – जीवित रखे। इसलिए सारी राजनीति से पूरी विरति होनी चाहिए।” (थियोडोर कुनो को एंगेल्स की चिट्ठी, 1872)

ध्यान रखें : यहाँ एंगेल्स यह नहीं कह रहे हैं कि पूँजीवाद-विरोधी क्रान्ति यानी समाजवादी क्रान्ति में पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस नहीं किया जायेगा। वह यह कह रहे हैं कि उसके ध्वंस के साथ समाजवादी राज्यसत्ता की स्थापना होगी, राज्यसत्ता की संस्था ही इतिहास से समाप्त नहीं हो जायेगी। उसके लिए समाजवादी संक्रमण के दौरान एक समूची सामाजिक क्रान्ति का दौर चलेगा, जिसके बाद वर्ग समाज से कम्युनिस्ट समाज में प्रयाण होगा और उसके साथ ही राज्यसत्ता समाप्त हो सकती है। दूसरी ओर, बाकुनिन अपने अराजकतावादी दृष्टिकोण से तत्काल ही राज्य के उन्मूलन का शेखचिल्ली का सपना दिखा रहे थे।

बाकूनिन के विचारों को सैद्धान्तिक तौर पर परास्त किया जा चुका था परन्तु वह अपनी तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लगा रहा। वैसे भी पेरिस कम्यून के बाद मुख्यतः इण्टरनेशनल अपनी भूमिका निभा चुका था। बाकुनिन के षडयन्त्रों से बचने के लिए जनरल काउन्सिल को पहले न्यूयॉर्क स्थानान्तरित कर दिया गया और 1876 में उसे भंग कर दिया गया। मार्क्स ने इण्टरनेशनल को जिस मक़सद के लिए खड़ा किया था वह पूरा हो चुका था। एंगेल्स समाहार करते हुए कहते हैं कि इण्टरनेशनल

“…द्वितीय साम्राज्य (लूई नेपोलियन बोनापार्त के शासन का दौर जो 1852 से 1870 के बीच था – अनु.) के ज़माने का था, जब सारे यूरोप पर छाया हुआ उत्पीड़न मज़दूर आन्दोलन को, जो उस समय जग ही रहा था, एकता तथा सभी आन्तरिक वाद-विवाद से मुँह मोड़ लेने का निर्देश दे रहा था। यह वह घड़ी थी, जब सर्वहारा के आम अन्तरराष्ट्रीय हित उभरकर सामने आ रहे थे। जर्मनी, स्पेन, इटली तथा डेनमार्क आन्दोलन में अभी-अभी शामिल हुए थे या उसमें शामिल हो ही रहे थे। वास्तव में, 1864 में आन्दोलन का सैद्धान्तिक स्वरूप यूरोप में सर्वत्र अर्थात् जनसाधारण के बीच अभी बहुत अस्पष्ट था। जर्मन कम्युनिज़्म ने अभी मज़दूर पार्टी के रूप में अस्तित्व ग्रहण नहीं किया था। प्रूदोंवाद अभी इतना क्षीण था कि वह अपना सिक्का नहीं जमा सकता था। बाकूनिन की नयी बकवास ने अभी उसके दिमाग में जन्म भी नहीं लिया था; ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनों के नेता तक यह सोचते थे कि नियमावली की प्रस्तावना में निर्धारित कार्यक्रम उन्हें आन्दोलन में शामिल होने का आधार प्रदान करता है। पहली बड़ी सफलता द्वारा सभी गुटों के इस भोलेपन-भरे सहयोग को ध्वस्त किया जाना अवश्यम्भावी था। यह सफलता थी कम्यून, जो निस्सन्देह बौद्धिक रूप से इण्टरनेशनल की सन्तान था, हालाँकि उसे जन्म देने के लिए इण्टरनेशनल ने उँगली तक नही हिलायी थी और इसके लिए इण्टरनेशनल को कुछ हद तक ठीक ही उत्तरदायी ठहराया गया। जब कम्यून के श्रेय की बदौलत इण्टरनेशनल यूरोप में नैतिक शक्ति बन गया, तो तुरन्त टुच्ची साज़िशें शुरू हो गयीं। हर प्रवृत्ति इस सफलता को अपने हितार्थ इस्तेमाल करना चाहती थी। विघटन, जो अवश्यम्भावी था, शुरू हो गया। एकमात्र जर्मन कम्युनिस्टों की, जो सचमुच पुराने व्यापक कार्यक्रम के आधार पर कार्य करने के लिए तैयार थे, बढ़ती शक्ति से ईर्ष्या ने बेल्जियन प्रूदोंवादियों को बाकूनिनवादी जोख़िमबाज़ों की बाँहों में पहुँचा दिया। हेग कांग्रेस वस्तुतः दोनों पार्टियों का ख़ात्मा थी। जिस एकमात्र देश में इण्टरनेशनल के नाम पर अब भी कुछ किया जा सकता था, वह अमेरिका था, और कार्यकारिणी वहीं स्थानान्तरित कर दी गयी थी, जो सुखद सहज बुद्धि का फल था। अब वहाँ भी उसकी प्रतिष्ठा समाप्त हो चुकी है और उसमें फिर से नया जीवन संचारित करना मूर्खता की बात होगी तथा वक़्त बर्बाद करना होगा। इण्टरनेशनल दस वर्ष तक यूरोपीय इतिहास के एक पक्ष पर — उस पक्ष पर, जिसमें भविष्य अन्तर्निहित है- हावी रहा और वह पीछे मुड़कर अपने कार्य को गर्वपूर्वक देख सकता है। लेकिन पुराने रूप में उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है। पुराने ढर्रे पर नये इण्टरनेशनल की — स्थापना, तमाम देशों की सभी सर्वहारा पार्टियों के सहबन्ध के लिए मज़दूर आन्दोलन का वैसा ही आम दमन ज़रूरी होगा, जैसा 1848-1864 में होता रहा। परन्तु इसके लिए सर्वहारा जगत् अब अत्यन्त विशाल, अत्यन्त विस्तृत हो चुका है। मेरे विचार में, अगला इण्टरनेशनल — मार्क्स की रचनाओं द्वारा कुछ वर्षों तक अपना प्रभाव उत्पन्न किये जाने के बाद — विशुद्ध रूप से कम्युनिस्ट होगा और ठीक हमारे सिद्धान्तों की उद्घोषणा करेगा।” (फ्रेडेरिक अडोल्फ़ ज़ोर्गे को एंगेल्स की चिट्ठी, 1874)

इण्टरनेशनल ने अपने जीवन-काल में मज़दूर आन्दोलन को विजातीय प्रवृतियों से मुक्त कर मार्क्सवादी विचारों पर सुदृढ़ करने की भूमिका निभायी और भविष्य में खड़ी होने वाली सर्वहारा पार्टी संगठन को विचारधारा, राजनीति और संगठन के स्वरुप पर बेहद बुनियादी शिक्षाएँ दीं। अगली किश्त में हम पेरिस कम्यून तथा इण्टरनेशनल व इण्टरनेशनल के बाद बनी देश स्तर की मज़दूर पार्टियों की चर्चा करेंगे जिन्हें मार्क्स-एंगेल्स ने निर्देशित किया।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2024


 

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