केन्द्रीय  बजट : जनता की जेब काटकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने का काम बदस्तूर जारी

आनन्द

गत लोकसभा चुनावों में पटखनी खाने के बाद कमज़ोर हुई मोदी सरकार ने अपने इस तीसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करते हुए आने वाले समय में अपनी नीतियों की एक झलक दे दी है। जैसाकि उम्मीद थी, गठबन्धन सरकार को बचाने के लिए चन्द्रबाबू नायडू की टीडीपी और नीतीश कुमार की जदयू को ख़ुश रखने के लिए आन्ध्र प्रदेश और बिहार को विशेष पैकेज देने की घोषणा की गयी। लेकिन देशी-विदेशी पूँजीपतियों और धनी किसानों व कुलकों के हितों की हिफ़ाजत करने और मज़दूरों व मेहनतकशों की लूट-खसोट बरकरार रखने में सरकार ने इस बार भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। प्रत्यक्ष करों के मुक़ाबले अप्रत्यक्ष करों पर ज़ोर बढ़ाने और प्रत्यक्ष करों में भी कॉरपोरेट कर का हिस्सा लगातार कम करते जाने की अपनी पुरानी नीति को कायम रखते हुए मोदी सरकार ने इस गठबन्धन के कार्यकाल में भी पूँजी और श्रम के बीच के बुनियादी अन्तरविरोध में पूँजी के प्रति अपनी स्पष्ट प्रतिबद्धता को एक बार फिर से ज़ाहिर किया है। राजकोषीय घाटे को काबू करने के नाम पर ग़रीब व मेहनतकश जनता को दी जाने वाली सब्सिडी व बजट आबण्टन में कटौती करने की प्रक्रिया भी बदस्तूर जारी रखी गयी है। रोज़गार के नाम पर कुछ दिखावटी स्कीमों के नाम गिनाकर महज़ जुबानी ज़मा ख़र्च से आगे कुछ भी नहीं किया गया है। जो लोग उम्मीद कर रहे थे कि कमज़ोर होने के बाद मोदी सरकार ग़रीबों व मेहनतकशों के प्रति थोड़ा नरमी दिखाएगी उनकी उम्मीदों पर इस नये कार्यकाल के पहले बजट में ही पानी फिर गया है।

वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण ने सरकार की मंशा तभी जाहिर कर दी जब उन्होंने बजट भाषण के दौरान घोषणा की कि सरकार राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को घटाकर जीडीपी का 4.9 प्रतिशत करेगी। ग़ौरतलब है कि चुनावों से पहले प्रस्तुत अन्तरिम बजट में यह लक्ष्य 5.1 प्रतिशत का रखा गया था। नवउदारवादी नीतियों का एक महत्वपूर्ण तत्व राजकोषीय घाटे को कम से कम रखना है जिसका सीधा मतलब होता है कि जनता के कल्याण पर होने वाले सरकारी ख़र्चों में कटौती की जाए ताकि पूँजीपतियों के ऊपर से करों को बोझ लगातार कम से कम किया जा सके और जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ाया जा सके। इस प्रकार मोदी सरकार ने इस कार्यकाल में भी नवउदारवादी नीतियों को धड़ल्ले जारी रखने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। विदेशी पूँजी को भारत में निवेश करके भारत के मज़दूर वर्ग को शोषण करके अकूत मुनाफ़ा कूटने के लिए आमन्त्रित करते हुए इस बजट में विदेशी कम्पनियों के लिए कॉरपोरेट करों की दर 40 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दिया गया है। इससे देशी पूँजीपतियों को भी फ़ायदा होगा क्योंकि उत्पादन के साधनों व मध्यवर्ती उत्पादों का आयात करने वाले पूँजीपतियों के लिए लागत कम हो जायेगी। ग़ौरतलब है कि मोदी सरकार ने अपने 10 साल के कार्यकाल में पहले ही भारतीय कम्पनियों के लिए कॉरपोरेट कर की दर को 35 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया है। अब विदेशी कम्पनियों के लिए कॉरपोरेट करों में कटौती करके पूँजी के प्रति अपनी पक्षधरता का एक बार फिर से ऐलान किया है।

2014 में कुल कर राजस्व में कॉरपोरेट करों का हिस्सा 34.5 प्रतिशत था जो 2024 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। अब विदेशी कम्पनियों को दी गयी राहत के बाद कॉरपोरेट करों का हिस्सा और भी कम होगा। कम्पनियों पर लगने वाले करों में कटौती का तर्क यह दिया जाता है कि इससे निवेश बढ़ेगा और रोज़गार के नये अवसर पैदा होंगे। परन्तु पिछले 10 सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल में कई लाख करोड़ रुपयों की राहत देने के बाद भी रोज़गार की स्थिति बद से बदतर ही हुई है। कम्पनियों को करों में छूट देने का साफ़ मतलब है कि सरकार अपनी आमदनी के लिए जनता पर करों का बोझ बढ़ाती जाएगी। वैसे भी सरकार के कुल राजस्व में जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है जो आम जनता पर भारी पड़ता है क्योंकि वह सभी पर एकसमान दर से लगता है और लोगों की आय से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है। प्रत्यक्ष करों में भी मोदी सरकार कॉरपोरेट करों में कटौती करके आयकर का हिस्सा लगातार बढ़ाती गयी है जिसका सीधा असर वेतनभोगी मध्यवर्ग पर करों का बोझ बढ़ने के रूप में सामने आता है। पिछले 10 सालों में कुल कर राजस्व में आयकर का हिस्सा 20.8 प्रतिशत से बढ़कर 30.9 प्रतिशत हो गया है।         

राजस्व के मामले में जनता पर करों का बोझ बढ़ाने और बड़ी पूँजी को करों में दी जाने वाले छूट के अलावा सरकार द्वारा राजकोषीय घाटे को कम करने की दूसरी रणनीति सरकारी व्यय में कटौती करने की रही है और इस बजट में भी यह रणनीति जारी रही। ख़ास तौर से जनता के कल्याण की स्कीमों यानी सामाजिक क्षेत्र में सरकार द्वारा किये जाने वाले ख़र्च में कटौती का सिलसिला इस बजट में भी जारी रहा। एक ऐसे समय में जब देश की ग़रीब व मेहनतकश जनता भयंकर तंगी और बदहाली से जूझ रही है और बेहिसाब महँगाई का सामना कर रही है, सामाजिक क्षेत्र में सरकारी ख़र्च में कटौती करना किसी आपराधिक कृत्य से कम नहीं है। लेकिन मोदी सरकार शुरू से ही निहायत ही बेशर्मी से यह आपराधिक कृत्य अंजाम देती आयी है। इसका सीधा नतीजा बढ़ती भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों के रूप में सामने आ रहा है। आम लोगों के जीवन की बदहाली कुछ प्रातिनिधिक आँकड़ों से समझी जा सकती है। वर्ष 2024 में घरेलू व्यय की दर में 20 वर्षों में सबसे कम पायी गयी तथा घरेलू बचत की दर 47 वर्षों में सबसे कम पायी गयी। खाद्य पदार्थों में महँगाई की दर जून के महीने में 9.5 प्रतिशत तक पहुँच गयी। ऐसे में जनता को राहत देने की बजाय बजट ने उसकी मुश्किलें और बढ़ाने का काम किया है। सेण्टर फ़ॉर चाइल्ड राइट्स द्वारा किये गये एक विश्लेषण में दिखाया गया है कि पिछले 10 सालों में बच्चों पर सरकार द्वारा किये जाने वाले ख़र्च 4.5 प्रतिशत से घटकर 2.3 प्रतिशत रहा गया है। इस बजट में भी सामाजिक क्षेत्र से सम्बन्धित मन्त्रालयों को आवंटित बजट को जीडीपी के 15.6 प्रतिशत से और कम करके 14.8 प्रतिशत कर दिया है। आँगनवाड़ी स्कीम और मिड-डे मील स्कीम में सरकार द्वारा किये जाने वाले ख़र्च में वास्तविक मूल्य में कटौती का रुझान इस बार भी जारी रखा गया है। इसी प्रकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार गारण्टी एक्ट (मनरेगा) में भी कटौती का सिलसिला जारी रखा गया है। इस वित्तीय वर्ष 2024-25 में मनरेगा में आवंटित अनुमानित बजट 86 हज़ार करोड़ रुपये है जो पिछले वित्तीय वर्ष में हुए वास्तविक ख़र्च यानी 98 हज़ार करोड़ रुपये से काफ़ी कम है। एक अनुमान के मुताबिक़ अगर मनरेगा के तहत वाक़ई 100 दिन का रोज़गार प्रदान करना है तो सरकार को हर वर्ष डेढ़ लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का आबण्टन करना चाहिए। लेकिन मोदी सरकार उसका आधा आबण्टन करती आयी है और उसे भी साल-दर-साल कम करती आयी है। प्रधानमन्त्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना में भी पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान के मुक़ाबले 5000 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। प्रधान मन्त्री आवास योजना व जल जीवन मिशन के बजट में भी मामूली बढ़ोतरी ही की गयी है जोकि अपर्याप्त है। इसी प्रकार भोजन और खाद में सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी में भी कटौती का सिलसिला बरकरार रखा गया है। साथ ही गाँवों में छोटे व मझौले किसानों के हितों में बजट आबण्टन करने की बजाय सरकार ने लगभग सभी प्रमुख फसलों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी को बरकरार रखा है जिसका लाभ सिर्फ़ धनी किसानों व कुलकों को ही होगा। शिक्षा के बजट में भी मामूली बढ़ोतरी की गयी है जिसे वास्तविक मूल्य के मद्देनज़र देखने पर साफ़ होता है कि शिक्षा के बजट में वास्तव में कटौती की गयी है। शिक्षा में कम बजट आवंटित करके सरकार स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को इशारा कर रही है कि वे अपना ख़र्च छात्रों की फ़ीस बढ़ाकर और सेल्फ़-फ़ाइनेंसिंग स्कीमों के ज़रिये निकाले। इस प्रकार सरकार नागरिकों के शिक्षा के मूलभूत हक़ पर डाका डाल रही है। यही हालत स्वास्थ्य के क्षेत्र की है जिसके बजट में भी बेहद मामूल बढ़ोतरी की गयी है।   

वित्तमन्त्री ने अपने बजट भाषण में नये रोज़गार पैदा करने के नाम पर लम्बे-चौड़े वायदे किये। लेकिन ग़ौर से देखने पर हम पाते हैं कि ये वायदे हवाई किले ही साबित होने वाले हैं। रोज़गार के नाम पर अगले 5 सालों में 1 करोड़ युवाओं को अप्रेण्टिसशिप देने की बात की गयी है। देश की शीर्ष की 500 कम्पनियों से कहा गया है कि वे अगले 5 सालों तक हर साल 4 हज़ार अप्रेण्टिस की भर्ती करें जिन्हें सरकार अपनी ओर से हर महीने महज़ 5000 रुपये का स्टाइपेंड देगी। यानी कम्पनियाँ अपने काम इन अप्रेण्टिस से करवाएँगी और बदले में जनता से वसूले गये करों से अप्रेण्टिस को स्टाइपेंड दिया जाएगा। इस अप्रेण्टिसशिप योजना को रोज़गार का नाम देना वास्तव में इस देश के युवाओं के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है। सरकार इन कम्पनियों से यह काम कैसे करवायेगी, इसकी भी कोई चर्चा नहीं की गयी है। यह भी श्रम के अनौपचारिकीकरण की नवउदारवादी योजना के तहत उठाया गया एक हथकण्डा है जिसमें पक्के रोज़गार की गारण्टी देने की बजाय महज़ अप्रेण्टिसशिप का झुनझुना थमाया गया है। अव्वलन तो निजी कम्पनियाँ सरकार की मर्जी के मुताबिक़ अप्रेण्टिस लेने की बजाय अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही अप्रेण्टिस या इन्टर्न को लेंगी। लेकिन जिस भी हद तक यह योजना कारगर रहती है, इससे रोज़गार की समस्या हल करने की दिशा में एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ने वाला है क्योंकि अप्रेण्टिसशिप पूरी करने वाले युवाओं के सामने नौकरी खोजने की जद्दोजहद फिर भी करनी होगी और जिस अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार का सृजन ही नहीं हो रहा है उसमें एक साल की अप्रेण्टिस करने के बाद बस यह फ़र्क़ होगा कि बेरोज़गारों की लगातार बढ़ती फ़ौज में कुछ बेरोज़गार ऐसे भी होंगे जिनके पास डिग्री के अलावा अप्रेण्टिस का प्रमाणपत्र भी होगा।

रोज़गार के सृजन के नाम पर सरकार ने छोटे व मँझोले उद्योगों को क़र्ज़ लेने में सहूलियतें देने की घोषणा की है। परन्तु अतीत का अनुभव हमें बताता है कि जब अर्थव्यवस्था की हालत डाँवाडोल हो तो ये क़र्ज़ लोगों के गले की फ़ाँस ही बनते हैं। यही बात छात्रों और किसानों के लिए प्रोत्साहित किये जा रहे क़र्ज़ों के मामले में भी लागू होती है। ये क़र्ज़ छोटे कारीगरों, छात्रों तथा किसानों के हित में नहीं बल्कि वित्तीय पूँजी के हित में दिये जाते हैं जिसका फ़ायदा बैंकों व वित्तीय संस्थानों को ही होता है। इसके अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं कि कारीगरों, छात्रों व किसानों द्वारा की गयी आत्महत्याएँ में एक प्रमुख कारण उनपर क़र्ज़ों का बढ़ता बोझ होता है।

सामाजिक क्षेत्र में तमाम कटौतियाँ घोषित करने के बाद वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण ने बिहार व आन्ध्र प्रदेश के लिए क्रमश: 56 हज़ार करोड़ रुपये तथा 25 हज़ार करोड़ रुपये का स्पेशल पैकेज देने की घोषणा की। इसके अलावा आन्ध्र प्रदेश की नयी राजधानी अमरावती के निर्माण के लिए 15 हज़ार करोड़ रुपये विश्व बैंक जैसी अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियों से क़र्ज़ उपलब्ध कराने की बात कही गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह पैकेज बिहार और आन्ध्र प्रदेश की जनता के कल्याण को मद्देनज़र रखते हुए नहीं बल्कि गठबन्धन सरकार को स्थिर बनाए रखने के लिए दिया गया है। नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू क्रमश: बिहार व आन्ध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की माँग कर रहे थे, लेकिन मोलभाव करने के बाद दोनो विशेष पैकेज पर रज़ामन्द हो गये हैं। ग़ौरतलब है कि इस विशेष पैकेज से बिहार व आन्ध्र के पूँजीपतियों, नेताओं, नौकरशाहों, भू-माफ़ियाओं, बिल्डरों और ठेकेदारों के ही वारे न्यारे होने वाले हैं, इन राज्यों की आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी में इससे कोई बेहतरी नहीं होने वाली है।  

पेरिस की वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब ने 1923 और 2023 के बीच के सौ सालों के दौरान भारत में असमानता का अध्ययन करते हुए अपनी हालिया रिपोर्ट में दिखाया है कि 2024 में भारत में आय असमानता ब्रिटिश राज के मुक़ाबले भी ज़्यादा है और आज भारत दुनिया के सबसे ज़्यादा असमान देशों में शामिल है। ये हालात आज़ादी के बाद हुए पूँजीवादी विकास और ख़ासतौर पर नवउदारवादी नीतियों के तीन दशकों के दौरान विभिन्न सरकारों द्वारा अपनायी गयी नीतियों का ही नतीजा हैं। पिछले 10 सालों के दौराना मोदी सरकार ने इन नीतियों को अभूतपूर्व रफ़्तार दी है। वर्ष 2024-25 का यूनियन बजट भी उसी दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।  

        

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2024


 

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