क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 21 : पूँजीवादी संचय का आम नियम
अध्याय – 16 (पिछले अंक से जारी)
अभिनव
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प्रगतिशील स्तर पर पूँजी संचय के साथ बढ़ती सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी, या, औद्योगिक रिज़र्व सेना
हमने देखा कि किस प्रकार पूँजी संचय पूँजीवादी उत्पादन का आम नियम होता है। हमने यह भी देखा कि पूँजीवादी संचय का आम नियम यह होता है कि वह सामान्यत: समान स्तर पर नहीं होता बल्कि प्रगतिशील स्तर पर होता है। यानी, पूँजीवादी उत्पादन के साथ श्रम की उत्पादकता बढ़ती है और पूँजी का आवयविक संघटन भी बढ़ता है। हमने यह भी समझा कि पूँजी संचय का नतीजा होता है पूँजी का सान्द्रण और संकेन्द्रण। पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण के नतीजे के तौर पर पूँजी का जिस दर से संचय होता है, उससे भी तेज़ गति से पूँजी का आवयविक संघटन बढ़ता है। और हमने यह भी समझा कि पूँजी का आवयविक संघटन बढ़ने का नतीजा यह होता है कि कुल सामाजिक पूँजी की वृद्धि के साथ उसका स्थिर पूँजी वाला हिस्सा सापेक्षिक रूप से तेज़ गति से बढ़ता है, जबकि उसकी तुलना में, यानी उसके सापेक्ष, परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा घटती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि परिवर्तनशील पूँजी की निरपेक्ष मात्रा में अनिवार्यत: कमी होती है। वजह यह कि कुल सामाजिक पूँजी की मात्रा पूँजी के बढ़ते संचय के साथ बढ़ती जाती है। इसलिए प्रगतिशील स्तर पर पूँजी संचय और कुल सामाजिक पूँजी की मात्रा में बढ़ोत्तरी के साथ निरपेक्ष रूप में कहें तो परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा भी आम तौर पर बढ़ती है। लेकिन उसकी मात्रा में स्थिर पूँजी के सापेक्ष कमी आती है। यानी जिस दर से स्थिर पूँजी बढ़ती है, परिवर्तनशील पूँजी उससे कहीं कम दर पर बढ़ती है।
इसका परिणाम यह होता है कि पूँजी संचय के साथ आम तौर पर श्रमशक्ति की माँग में सापेक्षिक कमी होती है। यानी पूँजी संचय के साथ कुल सामाजिक पूँजी में बढ़ोत्तरी होने के परिणामस्वरूप पहले जिस दर से श्रमशक्ति की माँग भी बढ़ोत्तरी होती थी, अब वह उस दर से नहीं होती बल्कि उससे कम दर से होती है। मार्क्स लिखते हैं:
“चूँकि श्रम की माँग कुल पूँजी की मात्रा से नहीं बल्कि केवल इसके परिवर्तनशील हिस्से से तय होती है, इसलिए कुल पूँजी में वृद्धि के साथ वह माँग उसी अनुपात में बढ़ने के बजाय, जैसा कि हमने पहले माना था, प्रगतिशील स्तर पर गिरती है। जैसे-जैसे कुल पूँजी की मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे यह कुल पूँजी की मात्रा की तुलना में सापेक्षिक तौर पर गिरती है और बढ़ती दर पर सापेक्षिक तौर पर गिरती है। सच है कि कुल पूँजी की वृद्धि के साथ उसका परिवर्तनशील हिस्सा, उसमें शामिल श्रम भी बढ़ता है, लेकिन लगातार गिरते अनुपात में।” (कार्ल मार्क्स. 1982. पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन बुक्स, पृ. 781-82)
परितर्वनशील पूँजी की मात्रा में सापेक्षिक कमी के साथ ही पूँजीवादी संचय के परिणामस्वरूप पूँजीवादी समाज में काम करने वाली आबादी में बढ़ोत्तरी होती है। पूँजी संचय की प्रक्रिया छोटी पूँजियों व छोटे माल उत्पादकों को उजाड़ते हुए लगातार सर्वहारा वर्ग की तादाद में बढ़ोत्तरी करती है। साथ ही, आदिम संचय की प्रक्रिया (इसके बारे में हम अगले अध्याय में विस्तार से जानेंगे – ले.) के ज़रिये उत्पादन व जीविका के साधनों से भी एक आबादी के उजाड़े जाने की प्रक्रिया पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के स्थापित हो जाने के बाद भी जारी रहती है। यानी, जनता का वह हिस्सा जो अभी भी जल, जंगल, ज़मीन का साझी सम्पत्ति के तौर पर किसी हद तक साझा इस्तेमाल करता रहता है, उसे इन संसाधनों का निजीकरण कर उसके उत्पादन व जीविका के साधनों से वंचित किया जाता है और इस रूप में उसे भी सर्वहाराओं की भीड़ में शामिल किया जाता रहता है। यह पूँजी संचय की लगातार जारी प्रक्रिया से ही जुड़ा होता है : अधिक से अधिक उत्पादन व जीविका के साधनों को पूँजी में तब्दील किया जाना। इस प्रकार, जहाँ एक ओर परिवर्तनशील पूँजी में हो रही सापेक्षिक कमी के साथ श्रमशक्ति की माँग में भी कुल पूँजी में होने वाली बढ़ोत्तरी की तुलना में सापेक्षिक गिरावट आती है, वहीं पूँजी संचय अपनी नैसर्गिक गति से मज़दूर वर्ग के आकार में भी बढ़ोत्तरी करता रहता है। लिहाज़ा, पूँजी संचय की इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि एक सापेक्षिक रूप से अतिरिक्त या फ़ालतू आबादी का सृजन होता रहता है। सापेक्षिक रूप से अतिरिक्त आबादी इसलिए क्योंकि यह आबादी अपने आप में, निरपेक्ष रूप में अतिरिक्त नहीं होती है, बल्कि पूँजी की ज़रूरतों के सापेक्ष अतिरिक्त होती है। पूँजी को अपना मूल्य-संवर्धन करने के लिए जितने मज़दूरों की आवश्यकता होती है, उनकी संख्या के सापेक्ष यह आबादी अतिरिक्त या फ़ालतू होती है।
यह प्रक्रिया समूचे पूँजीवादी उत्पादन के अलग-अलग क्षेत्रों में एकसमान रूप में नहीं घटित होती है। अगर हम अलग-अलग उत्पादन की शाखाओं को देखें, तो कुछ में हम पाते हैं कि कुल निवेशित पूँजी पहले के ही समान रही, लेकिन वहाँ पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी हुई, यानी, परिवर्तनशील पूँजी में निरपेक्ष कमी और स्थिर पूँजी में वृद्धि हुई। ऐसी शाखाओं में मज़दूरों की संख्या निरपेक्ष रूप से काम से बाहर धकेल दी जाती है। इस स्थिति को, यानी कुल पूँजी के समान रहने पर पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी को मार्क्स साधारण सान्द्रण (simple concentration) की संज्ञा देते हैं। इसी प्रकार, कुछ अन्य शाखाओं में हम देख सकते हैं कि कुल पूँजी की मात्रा भी बढ़ी है और साथ ही आवयविक संघटन उस दर से ज़्यादा दर से बढ़ा। यहाँ पर भी मज़दूरों की संख्या में निरपेक्ष कमी आती है, क्योंकि पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन जितने मज़दूरों को आकर्षित करता है, आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी उससे ज़्यादा को काम से बाहर धकेलती है। उसी प्रकार, ऐसा भी हो सकता है कि कुल पूँजी का परिमाण बढ़े और आवयविक संघटन उसी दर से न बढ़े। इस सूरत में आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी जितने मज़दूरों को काम से बाहर करती है, उससे ज़्यादा मज़दूरों को पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन आकर्षित करते हैं, यानी काम पर लगाते हैं। कुछ उत्पादन शाखाओं में ऐसा भी होता है कि पूँजी का आवयविक संघटन समान ही बना रहता है, तकनीकी आधार में कोई परिवर्तन नहीं आता, लेकिन फिर भी पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन होता है। यहाँ पर पूँजी संचय मज़दूरों को कहीं ज़्यादा संख्या को आकर्षित करता है और मज़दूरों की संख्या में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होती है। कुल मिलाकर, समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आम तौर पर पूँजी संचय जारी रहता है और साथ ही पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी होती रहती है।
मज़दूरों की पहले से ज़्यादा बड़ी संख्या को पूँजी संचय आकर्षित करता है या ज़्यादा बड़ी संख्या को विकर्षित करता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि पूँजी संचय की दर पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी की दर से ज़्यादा है या कम। प्रति मशीन मज़दूरों की संख्या में निश्चित ही सामान्य तौर पर गिरावट आती है। लेकिन यदि कुल मशीनों की संख्या में बढ़ोत्तरी, यानी उत्पादन के पैमाने में होने वाली बढ़ोत्तरी, प्रति मशीन मज़दूर की संख्या में आने वाली गिरावट की तुलना में ज़्यादा है, तो पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन के बाद भी काम पर रखे जाने वाले मज़दूरों की संख्या में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी आ सकती है। वहीं अगर इसके उलट स्थिति हुई, तो काम पर रखे जाने वाले मज़दूरों की संख्या में निरपेक्ष गिरावट आ सकती है। साथ ही, उत्पादन के पैमाने के विस्तार और साथ ही सर्वहारा आबादी में पूँजीवादी संचय के फलस्वरूप ही आने वाली निरपेक्ष वृद्धि की सूरत में यह भी होता है कि रोज़गारशुदा मज़दूरों की संख्या में भी वृद्धि हो और बेरोज़गार मज़दूरों की संख्या में भी वृद्धि हो। आम तौर पर और दीर्घकालिक रूप में देखें तो बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना में होने वाली बढ़ोत्तरी रोज़गारशुदा मज़दूरों की तादाद में होने वाली बढ़ोत्तरी से ज़्यादा तेज़ रफ्तार से होती है।
एक ओर पूँजी संचय की प्रक्रिया उत्पादन के पैमाने का सामान्य रूप में विस्तार करती है, मज़दूरों की पहले से बड़ी संख्या को काम पर लगाती है, निरन्तर उन मज़दूरों के श्रम की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी करती है, और दूसरी ओर, ठीक इसी प्रक्रिया में वह मज़दूरों को पहले से बड़े पैमाने पर आकर्षित भी करती है और पहले से बड़े पैमाने पर विकर्षित भी करती है। मार्क्स लिखते हैं:
“…पूँजी के आवयविक संघटन और उसके तकनीकी रूप में बदलाव की रफ़्तार में बढ़ोत्तरी होती है, और अधिक से अधिक उत्पादन की शाखाएँ इस बदलाव में शामिल होती जाती हैं, कभी-कभी एक साथ तो कभी-कभी बारी-बारी से। इस प्रकार काम करने वाली आबादी पूँजी के संचय को भी पैदा करती है और उन साधनों को भी पैदा करती है जिनके ज़रिये वह सापेक्षिक रूप से फ़ालतू बनायी जाती है; और यह इस काम को हमेशा बढ़ते स्तर के साथ अंजाम देती है। यह पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का विशिष्ट जनसंख्या का नियम है; और वास्तव में हर विशिष्ट ऐतिहासिक उत्पादन पद्धति के अपने विशेष जनसंख्या के नियम होते हैं, जो उसी विशिष्ट क्षेत्र में ही ऐतिहासिक तौर पर वैध होते हैं। जनसंख्या का कोई अमूर्त नियम केवल पेड़-पौधों और पशुओं के लिए अस्तित्वमान होता है और वह भी उस सूरत में जब इंसानों द्वारा कोई ऐतिहासिक हस्तक्षेप मौजूद न हो।” (वही, पृ. 783-784)
लेकिन पूँजी संचय और एक सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का पैदा होना कोई एकतरफ़ा प्रक्रिया नहीं है। पूँजी संचय की प्रक्रिया सापेक्षिक रूप से अतिरिक्त आबादी को पैदा करती है, तो यह औद्योगिक रिज़र्व सेना भी पलटकर पूँजी संचय की प्रक्रिया को बढ़ते स्तर पर जारी रखने की पूर्वशर्त बनती है। पूँजी अपने मूल्य संवर्धन के लिए प्राकृतिक रूप से होने वाली जनसंख्या वृद्धि पर निर्भर नहीं करती है। वह अपने मूल्य संवर्धन के लिए आवश्यक बेरोज़गारों की सेना को अपनी आन्तरिक गति से पैदा करती है। मार्क्स आयरलैण्ड का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कारण पैदा अकाल व आर्थिक विसंगठन के कारण आयरलैण्ड से एक बहुत बड़ी आबादी आप्रवासन कर मुख्य रूप से अमेरिका व कुछ अन्य देशों में चली गयी। लेकिन आयरलैण्ड में पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया में बची आबादी में से ही एक अतिरिक्त सापेक्षिक आबादी का सृजन हो गया। यह दिखलाता है कि अपने आप में प्राकृतिक व स्वत:स्फूर्त रूप से होने वाली जनसंख्या वृद्धि या उसमें आने वाला ठहराव पूँजी संचय के लिए कोई ऐसी बाधा या सीमा नहीं उपस्थित करता है जिसे पूँजी अपनी नैसर्गिक गति से पार नहीं कर सकती।
सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी स्वयं पूँजी संचय को पहले से ऊँचे स्तर पर जारी रखने की एक पूर्वशर्त बन जाती है। पूँजीवादी औद्योगिक विकास चक्रों में होता आया है जिसमें औसत गतिविधि, तेज़ी, संकट और ठहराव के चक्र आते रहते हैं। इन चक्रों के अनुसार, संकट और ठहराव के दौरों को छोड़ दें, तो औसत गतिविधि के दौर में और विशेष तौर पर तेज़ी के दौर में पूँजी नयी उत्पादन शाखाओं को पैदा भी करती है और उन पुरानी उत्पादन शाखाओं को अपने मातहत लाती है, जो अब तक उसके मातहत नहीं आयी थीं; साथ ही, पहले से जिन उत्पादन शाखाओं पर पूँजी अपना नियन्त्रण पहले ही स्थापित कर चुकी थी, उनका भी विस्तार होता है। नतीजतन, पूँजी के लिए एक आरक्षित औद्योगिक सेना, बेरोज़गारों की एक सेना की मौजूदगी अनिवार्य होती है। इसके बिना पूँजी का यह विस्तार सम्भव नहीं। केवल इस सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी की मौजूदगी के आधार पर ही पूँजी उत्पादन की किसी भी शाखा में कोई संकुचन किये बिना विस्तार कर सकती है। इस प्रकार बेरोज़गारों की यह रिज़र्व सेना जारी पूँजी संचय से पैदा होकर उसका आधार भी बनती है। मार्क्स लिखते हैं:
“लेकिन अगर मज़दूरों की अतिरिक्त आबादी संचय या पूँजीवादी आधार पर होने वाले समृद्धि के विकास का एक अनिवार्य उत्पाद होती है, तो यह अतिरिक्त आबादी, पलटकर पूँजीवादी संचय का उत्तोलक (लीवर) भी बन जाती है, बल्कि कहना चाहिए यह पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के अस्तित्व का ही आधार बन जाती है। यह आबादी इस्तेमाल के लिए सहज व सुलभ उपलब्ध औद्योगिक रिज़र्व सेना होती है, जिस पर एक ऐसे निरपेक्ष रूप में पूँजी का अधिपत्य होता है, मानो पूँजी ने ही उसे अपनी लागत पर जन्म दिया हो। जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि की सीमाओं से स्वतन्त्र वह पूँजी के मूल्य संवर्धन की बदलती आवश्यकताओं के हितों में पूँजी के द्वारा शोषण के लिए हमेशा तैयार मानवीय सामग्री की एक मात्रा को पैदा करती रहती है। संचय के साथ, और इसके साथ जारी श्रम की उत्पादकता के विकास के साथ, अचानक विस्तार की पूँजी की शक्ति भी बढ़ती है…संचय की उन्नति के साथ सामाजिक समृद्धि की आप्लावित होती (overflowing) मात्रा जिसे अतिरिक्त पूँजी में तब्दील किया जा सकता है, उत्पादन की उन पुरानी शाखाओं में उन्मत्तता के साथ घुस जाती है, जिनका बाज़ार अचानक फैलता है, या फिर नयी बनी शाखाओं, जैसे कि रेलवे आदि में घुस जाती है जो पुरानी शाखाओं के ही जारी विकास के परिणामस्वरूप आवश्यक बन जाती हैं। ऐसे सभी मामलों में, अन्य शाखाओं में उत्पादन के पैमाने को हानि पहुँचाये बिना आदमियों की बड़ी संख्या को अचानक निर्णायक क्षेत्रों में लगा देने की सम्भावना अनिवार्यत: मौजूद होनी चाहिए। अतिरिक्त आबादी इन लोगों की आपूर्ति करती है। आधुनिक उद्योग के विकास का पथ, जो कि औसत गतिविधि, उच्च दबाव के साथ उत्पादन, संकट और ठहराव के दसवर्षीय चक्र का रूप लेता है (छोटे-मोटे उतार-चढ़ावों द्वारा अवरोध के साथ), औद्योगिक रिज़र्व सेना या अतिरिक्त आबादी के निरन्तर बनने, उसके कमोबेश (उद्योगों द्वारा) सोख लिये जाने, और उसके फिर से बनने पर निर्भर करता है। पलटकर स्वयं औद्योगिक चक्र के बदलते दौर अतिरिक्त आबादी को भर्ती करते हैं, और उनके पुनरुत्पादन के सबसे ऊर्जावान अभिकर्ताओं में से एक भी बनते हैं।” (वही, पृ. 784-85)
इसके अलावा, पूँजीपति हमेशा यह चाहते हैं कि पहले जितने मज़दूरों से ही ज़्यादा श्रम निचोड़ पाएँ। कभी वे मज़दूरी थोड़ी-बहुत बढ़ाते हैं, लेकिन उस बढ़ोत्तरी की तुलना में मज़दूरों से कहीं ज़्यादा श्रम निचोड़ते हैं, यानी, या तो वे श्रम की सघनता को बढ़ा देते हैं या फिर कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ा देते हैं। इसी प्रकार, वे तकनोलॉजी के विकास के साथ कुशल मज़दूरों की जगह अधिक से अधिक अर्द्धकुशल व अकुशल मज़दूरों को काम पर रखते हैं, जिनकी मज़दूरी कुशल मज़दूरों के मुकाबले कम होती है। इस प्रकार, परिवर्तनशील पूँजी में बढ़ोत्तरी किये बिना वे ज़्यादा श्रम की मात्रा का शोषण कर पाते हैं। इन तरक़ीबों का नतीजा यह होता है कि परिवर्तनशील पूँजी की एक इकाई के बदले वे श्रम की पहले से ज़्यादा मात्रा मज़दूरों से निचोड़ते हैं। साथ ही, इसका यह भी अर्थ होता है कि परिवर्तनशील पूँजी में होने वाली कोई भी बढ़ोत्तरी उसी अनुपात में मज़दूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं करती है। इसके अलावा, जब आम तौर पर श्रम की उत्पादकता का विकास होता है, तो परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा में कोई भी बढ़ोत्तरी पहले से कम संख्या में मज़दूरों को काम पर रखती है।
इन सब कारकों के चलते एक ओर रोज़गारशुदा मज़दूरों पर काम का दबाव बढ़ता जाता है और उनके श्रम के शोषण की सघनता और व्यापकता, दोनों में वृद्धि आती जाती है। दूसरी ओर, यही चीज़ बेरोज़गार मज़दूरों की रिज़र्व सेना के आकार में भी पहले से ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से बढ़ोत्तरी करती है। रिज़र्व सेना में यह बढ़ोत्तरी काम करने वाले मज़दूरों के शोषण की दर में भी वृद्धि करती है क्योंकि यदि बेरोज़गार मज़दूरों की संख्या ज़्यादा होती है, तो इसका अर्थ यह होता है कि श्रमशक्ति की माँग की तुलना में श्रमशक्ति की आपूर्ति ज़्यादा हो जाती है। नतीजतन, काम पर लगे मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता में कमी आती है, उनकी औसत मज़दूरी में कमी आती है और साथ ही उन्हें पूँजीपतियों की शर्तों पर काम करने के लिए पहले से ज़्यादा मजबूर होना पड़ता है। मार्क्स लिखते हैं:
“मज़दूर वर्ग के रोज़गारशुदा हिस्से द्वारा अतिश्रम इसके रिज़र्व की कतारों को बढ़ाता है, जबकि, इसके विपरीत रिज़र्व सेना अपनी प्रतिस्पर्द्धा के कारण रोज़गारशुदा मज़दूरों को बाध्य करती है कि वे अतिश्रम की शर्तों को स्वीकार करें और पूँजी के आदेशों के अधीन रहें। मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को कमरतोड़ अतिश्रम की दण्डाज्ञा के ज़रिये दूसरे हिस्से को जबरन निष्क्रियता की दण्डाज्ञा मिलने का यह कुचक्र अलग-अलग पूँजीपतियों को समृद्ध बनाने का ज़रिया बन जाता है और साथ ही सामाजिक संचय की प्रगति के अनुसार निर्धारित होने वाले स्तर पर औद्योगिक रिज़र्व सेना के उत्पादन को भी त्वरित गति देना है।” (वही, पृ. 789-90)
मार्क्स यहाँ मज़दूरी के प्रश्न पर दोबारा आते हैं। वह बताते हैं कि मज़दूरी में आने वाले उतार-चढ़ाव वास्तव में इस औद्योगिक रिज़र्व सेना और श्रम की सक्रिय सेना, यानी रोज़गारशुदा मज़दूरों की तादाद के आपसी अनुपात पर निर्भर करता है। यह अनुपात और कुछ नहीं बल्कि श्रमशक्ति की माँग और आपूर्ति के समीकरण को दिखलाता है। इस प्रकार मज़दूरी मज़दूरों की निरपेक्ष जनसंख्या पर नहीं निर्भर करती है, बल्कि श्रम की सक्रिय सेना व श्रम की आरक्षित सेना के अनुपात पर निर्भर करती है। अपने लिए श्रम की आरक्षित सेना पूँजी संचय की प्रक्रिया अपनी आन्तरिक गति से ही पैदा करती रहती है, जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं। स्वयं यह अनुपात, यानी श्रम की सक्रिय सेना व श्रम की आरक्षित सेना का अनुपात, मुनाफ़े की दर की गति पर निर्भर करता है, जो अपने आपको औद्योगिक चक्र के अलग-अलग दौरों, मसलन, औसत गतिविधि का दौर, तेज़ी का दौर, संकट का दौर और ठहरावग्रस्तता का दौर, के रूप में अभिव्यक्त करती है। अन्तत:, यह मुनाफ़ा और उसकी औसत दर की गति है, जो इस अनुपात को निर्धारित करती है। तेज़ी के दौर में निवेश की दर में बढ़ोत्तरी होती है, पूँजी संचय व विस्तारित पुनरुत्पादन की दर में वृद्धि होती है और अक्सर यह दर आवयविक संघटन में होने वाली वृद्धि की दर से ज़्यादा होती है। यह वृद्धि बेरोज़गार मज़दूरों की फौज के एक हिस्से को समेट लेती है। लेकिन ठीक यही प्रक्रिया पूँजी के आवयविक संघटन को और ज़्यादा बढ़ाने, श्रम की उत्पादकता को और ज़्यादा बढ़ाने और नतीजतन फिर से मज़दूरों की एक आबादी को विकर्षित करने, यानी काम से बाहर करने के परिणाम को भी जन्म देती है। मार्क्स लिखते हैं:
“अगर इसका (पूँजी का-अनु.) संचय एक ओर श्रम की माँग बढ़ाता है, तो वहीं दूसरी ओर यह ‘मज़दूरों को मुक्त कर’ उनकी आपूर्ति को भी बढ़ाता है, जबकि ठीक उसी वक़्त बेरोज़गारों का दबाव रोज़गारशुदा मज़दूरों को और ज़्यादा श्रम देने को बाध्य करता है, और इस प्रकार श्रम की आपूर्ति को एक हद तक मज़दूरों की आपूर्ति से स्वतन्त्र बना देता है। इस आधार पर श्रम की आपूर्ति और माँग के नियम की यह गति पूँजी की निरंकुशता को पूर्णता तक पहुँचा देती है। इसलिए, जैसे ही मज़दूर इस बात का भेद समझ जाते हैं कि ऐसा क्यों होता है कि जितना ज़्यादा वे काम करते हैं, जितनी अधिक परायी धन-सम्पदा वे पैदा करते हैं, और उनके श्रम की उत्पादकता जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही पूँजी के मूल्य संवर्धन के साधन के रूप में उनका प्रकार्य अनिश्चितता में घिरता जाता है; जैसे ही उन्हें पता चलता है स्वयं उनके बीच प्रतिस्पर्द्धा की सघनता का परिमाण पूरी तरह से सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के दबाव पर निर्भर करता है, जैसे ही वे ट्रेड यूनियन आदि बनाकर रोज़गारशुदा मज़दूरों और बेरोज़गार मज़दूरों के बीच योजनाबद्ध सहकार को संगठित करने का प्रयास करते हैं ताकि उनके वर्ग पर पूँजीवादी उत्पादन के इस नैसर्गिक नियम के विनाशकारी प्रभावों से छुटकारा पा सकें या कम से कम उसे कमज़ोर कर सकें, वैसे ही पूँजी और इसका चाटुकार राजनीतिक अर्थशास्त्र आपूर्ति और माँग के ‘शाश्वत’, बल्कि कहें ‘पवित्र’ नियम के उल्लंघन पर चीख़ उठते हैं। रोज़गारशुदा व बेरोज़गार मज़दूरों के बीच मेल की हर कार्रवाई इस नियम की ‘शुद्ध’ कार्रवाई में विघ्न डाल देती है।” (वही, पृ. 793-94)
सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के अस्तित्व के विभिन्न रूप
इसके बाद मार्क्स उन विभिन्न रूपों की चर्चा करते हैं जिसमें औद्योगिक रिज़र्व सेना अस्तित्वमान होती है। मार्क्स की यह चर्चा आज के दौर में बहुत प्रासंगिक है। सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के एक विशिष्ट रूप की मार्क्स द्वारा की गयी चर्चा आज के दौर में जारी अनौपचारिकीकरण को समझने के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। आज अनौपचारिकीकरण, ठेकाकरण और दिहाड़ीकरण की जो प्रक्रिया धड़ल्ले से चलायी जा रही है, उससे कई लोगों को यह दृष्टि-भ्रम हो जाता है कि अनौपचारिक मज़दूर वर्ग या अनौपचारिक क्षेत्र नवउदारवादी दौर में पैदा हुई कोई चीज़ है। सच यह है कि औपचारिक क्षेत्र अनौपचारिक क्षेत्र से पैदा हुआ था। पूँजीवाद के इतिहास में पहला दौर औपचारिक क्षेत्र और औपचारिक मज़दूर वर्ग का नहीं था। औपचारिक क्षेत्र और औपचारिक मज़दूर वर्ग, मज़दूर वर्ग के संगठित संघर्षों के दशकों का नतीजा थे। इनके आधार पर ही कारखाना अधिनियम, श्रम क़ानून, औद्योगिक विवाद अधिनियम आदि बने। भारत जैसे देशों में तो इन क़ानूनों के द्वारा विनियमन के मातहत बड़ी मज़दूर आबादी कभी आयी ही नहीं। वह हमेशा अनौपचारिक क्षेत्र में ही काम करती रही। आज नवउदारवाद के दौर में औपचारिक क्षेत्र को और भी छोटा किया जा रहा है और स्वयं औपचारिक क्षेत्र के भीतर औपचारिक मज़दूर वर्ग को भी ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण व कैजुअलीकरण के ज़रिये ख़त्म किया जा रहा है। वास्तव में, ठेका प्रथा के ज़रिये व्यापक रोज़गारशुदा आबादी को अर्द्ध-रोज़गारशुदा आबादी में तब्दील किया जा रहा है और वहाँ भी काम मिलना बेहद अनिश्चित है। मार्क्स ने सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के तमाम रूपों के बारे में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो लिखा आज वह एक अलग सन्दर्भ में बेहद प्रासंगिक बन गया है।
मार्क्स कहते हैं कि सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी मुख्य तौर पर चार रूपों में मौजूद रहती है : चलायमान (floating), सुप्त (latent), ठहरावग्रस्त (stagnant) और दरिद्र (pauper)।
चलायमान रूप में मौजूद सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी वह होती है जो उन उद्योगों द्वारा एक समय के बाद बाहर निकाल दी जाती है, जिसमें वह शुरू से काम कर रही होती है। इसके बाद, वह इससे निचले दर्जे़ के उद्योगों में या कम कुशलता वाले काम करने लगते हैं। आधुनिक उद्योगों की लगभग सभी शाखाओं में मज़दूरों को बेहद कम उम्र में लगाया जाता है और कमरतोड़ मेहनत के द्वारा उनके शरीर को पूरी तरह से चूस लिया जाता है। इसके बाद, ये उद्योग उन्हें बाहर फेंक देते हैं और नये कम उम्र मज़दूरों को भर्ती करते हैं। एक उम्र के बाद (आम तौर पर, यह उम्र 25 से 35-40 के बीच होती है) इन उद्योगों द्वारा बाहर कर दिये गये मज़दूर इस चलायमान सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का प्रमुख हिस्सा होते हैं। आप आज इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने के ऑटोमोबाइल उद्योग, टेक्सटाइल उद्योग, आदि सभी आधुनिक उद्योगों में देख सकते हैं। ऐसे मज़दूरों में से कुछ प्रवास या आप्रवास कर जाते हैं और कहीं और जाकर किसी और उद्योग में काम की तलाश करते हैं। मार्क्स लिखते हैं:
“…पूँजी द्वारा श्रमशक्ति का उपभोग इतनी तेज़ होता है कि मज़दूर अपनी ज़िन्दगी का आधा हिस्सा पूरा करते-करते कमोबेश अपने आपको पूरी तरह से ख़र्च कर चुका होता है। वह अतिरिक्त आबादी की कतारों में जा गिरता है, या फिर सीढ़ी पर ऊपर से नीचे की ओर धकेल दिया जाता है। बड़े पैमाने के उद्योगों के मज़दूरों में ही हमें सबसे कम जीवन-प्रत्याशा देखने को मिलती है…इन परिस्थितियों में सर्वहारा के इस हिस्से में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी अनिवार्यत: ऐसा रूप लेती है जो उनकी संख्या को बढ़ाती है, हालाँकि इस आबादी के अलग-अलग व्यक्तियों की बात करें तो उनका तेज़ी से क्षय हो जाता है। इसी वजह से मज़दूरों की एक पीढ़ी की जगह बेहद तेज़ी के साथ दूसरी पीढ़ी ले लेती है (यह नियम जनसंख्या के अन्य वर्गों पर लागू नहीं होता है)। इस सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति समय से पहले विवाह से होती है, जो बड़े पैमाने के उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों के जीवन की स्थितियों से पैदा होने वाला अनिवार्य परिणाम है…” (वही, पृ. 795)
सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का सुप्त हिस्सा वह होता है जो खेती में पूँजीवाद के विकास के साथ खेती के क्षेत्र से अतिरिक्त आबादी के रूप में बाहर कर दिया जाता है। खेती में पूँजीवादी विकास का अर्थ होता है उत्पादक शक्तियों का विकास और उसके साथ श्रमशक्ति की माँग की कमी। उद्योगों के क्षेत्र में जब किसी एक उद्योग में ऐसा होता है, तो कोई दूसरा उद्योग इस आबादी को पूर्ण या आंशिक रूप से समेट सकता है। लेकिन खेती के क्षेत्र के साथ ऐसा नहीं होता है। नतीजतन, खेतिहर आबादी का एक हिस्सा हमेशा मैन्युफैक्चरिंग व अन्य शहरी उद्यमों की ओर जाने की कगार पर खड़ा होता है और इस संक्रमण को पूरा करने के मुफ़ीद मौकों की तलाश में रहता है। इस सुप्त सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का एक हिस्सा लगातार शहरी उद्योगों में जाता रहता है, लेकिन एक हिस्सा गाँव में ही फँसा रहता है। इसकी वजह से खेतिहर मज़दूरों की औसत मज़दूरी पर भी नीचे गिरने का दबाव बना रहता है।
सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का तीसरा हिस्सा होता है ठहरावग्रस्त सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी। इस श्रेणी को समझना आज के समय में पहले से भी ज़्यादा अहम है। यही वह श्रेणी है जो आज अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। इस श्रेणी में बारे में हम सीधे मार्क्स को ही उद्धृत करेंगे। पाठक को यह लग सकता है कि मार्क्स ने यह पंक्तियाँ आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के लिए लिखी हैं। मार्क्स कहते हैं:
“सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी की तीसरी श्रेणी है ठहरावग्रस्त आबादी। यह सक्रिय श्रम सेना का अंग होती है, मगर इसका रोज़गार बेहद अनियमित होता है। इसलिए यह पूँजी को सुलभ उपलब्ध श्रमशक्ति का एक अक्षय भण्डार देता है। इसके जीवन की स्थितियाँ मज़दूर वर्ग के औसत सामान्य स्तर से नीचे गिर जाती हैं, और ठीक यही चीज़ है जो इसे पूँजीवादी शोषण की विशेष शाखाओं का एक व्यापक आधार बना देती है। इसकी पहचान अधिकतम काम के समय और न्यूनतम स्तर की मज़दूरी से होती है। ‘घरेलू उद्योग’ के शीर्षक के तहत हम इसके प्रमुख रूप से पहले ही परिचित हो चुके हैं। इनकी बड़े पैमाने के उद्योगों व खेती से लगातार ही भर्ती होती रहती है, वे जो वहाँ फ़ालतू हो चुके हैं, और विशेष तौर पर उद्योगों की उन क्षयमान शाखाओं से भर्ती होती रहती है जहां दस्ताकरी से मैन्युफैक्चर में और मैन्युफैक्चर से मशीनरी की ओर संक्रमण हो रहा होता है। संचय की सीमाओं और उसकी ऊर्जा के विस्तार के साथ यह आबादी उसी अनुपात में बढ़ती है जिसमें कि अतिरिक्त आबादी की रचना बढ़ती है। लेकिन साथ ही यह मज़दूर वर्ग का एक खुद से पुनरुत्पादन करने वाला और खुद को जारी रखने वाला तत्व होता है, जो उस वर्ग की आम वृद्धि में बड़े-से-बड़ा हिस्सा लेता जाता है। दरअसल, न सिर्फ़ जन्म और मृत्यु की संख्या, बल्कि परिवारों का निरपेक्ष आकार, मज़दूरी के सतर के व्युत्क्रमानुपात में होता है, और इसलिए मज़दूरों की विभिन्न श्रेणियों के लिए सहज उपलब्ध जीविका के साधनों की मात्रा के भी व्युत्क्रमानुपात में होता है। पूँजीवादी समाज का यह नियम जंगली लोगों को, या यहाँ तक कि सभ्य उपनिवेशवादियों को भी, बेतुका लग सकता है। इसे देखकर पशुओं के असीमित पुनरुत्पादन की याद आती है जो अलग-अलग देखें तो बेहद कमज़ोर होते हैं और उनका निरन्तर शिकार होता है।” (वही, पृ. 796-797)
जैसा कि पाठक ख़ुद ही पढ़कर समझ सकते हैं, यह एक प्रकार से आज के अनौपचारिक क्षेत्र व औपचारिक क्षेत्र के अनौपचारिक मज़दूरों का एक विवरण लगता है, जिनके पास पक्का रोज़गार नहीं होता, अक्सर कोई रोज़गार नहीं होता, जो पूँजी द्वारा भयंकर शोषण के लिए उपलब्ध होते हैं, जो सबसे कम मज़दूरी पाते हैं और जो सबसे लम्बे कार्यदिवस का शिकार होते हैं। मार्क्स ने उपरोक्त उद्धरण में यह वैज्ञानिक पूर्वानुमान भी लगाया है कि सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का यह हिस्सा मज़दूर वर्ग में लगातार बढ़ता जायेगा। यह पूर्वानुमान शब्दश: सही सिद्ध हुआ है।
सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी का आखिरी हिस्सा होता है दरिद्रीकृत लोगों का। अपराधियों, वेश्याओं, घुमन्तू आवारा लोगों को छोड़ दें तो इसके तीन हिस्से होते हैं। पहला, वे जो काम कर सकते हैं। दूसरा हैं अनाथ व दरिद्र बच्चे। जब औद्योगिक तेज़ी का दौर होता है, तो इनमें से कइयों को उद्योग श्रम की सक्रिय सेना में शामिल कर लेता है। तीसरा है वह क्लान्त, भ्रष्ट, अमानवीकृत आबादी व काम करने में अक्षम लोग जो तेज़ी से बदलती औद्योगिक दुनिया में अपने आपको अनुकूलित नहीं कर पाते। तेज़ी से बदलता श्रम विभाजन उन्हें कुछ समय बाद ही काम करने वालों की आबादी से बाहर धकेल देता है। इनमें वे लोग भी शामिल होते हैं जो एक मज़दूर के औसत कार्यजीवन को जी चुके होते हैं और अब बेकार हो चुके होते हैं। इसके अलावा, पूँजीवादी उद्योगों में दुर्घटना या औद्योगिक विपत्ति का शिकार हुए लोग होते हैं, जो इसी श्रेणी में आते हैं। जैसे-जैसे उद्योगों में भारी और ख़तरनाक मशीनरी का विकास होता है, तमाम जोखिम भरे कामों से भरे उद्योगों का विकास होता है, वैसे-वैसे उनमें दुघर्टनाओं और विपत्तियों का शिकार होने वाले मज़दूरों की संख्या भी बढ़ती जाती है, जिन्हें पूँजीवादी उद्योग ने किसी योग्य न छोड़ा होता है। ये सारी आबादी पूँजीवादी समाज में दरिद्रीकृत सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी में शामिल होती है। मार्क्स लिखते हैं:
“दरिद्रीकरण सक्रिय श्रम सेना का अस्पताल और औद्योगिक आरक्षित सेना का मृत भार है। इसका उत्पादन सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी में शामिल होता है, इसकी अनिवार्यता उसी की अनिवार्यता में अन्तर्निहित होती है; अतिरिक्त आबादी के साथ, दरिद्रीकरण पूँजीवादी उत्पादन, और सम्पदा के पूँजीवादी विकास की एक पूर्वशर्त होती है। यह पूँजीवादी उत्पादन के आकस्मिक व्यय का हिस्सा है : लेकिन आम तौर पर पूँजी को यह पता होता है कि वह इसका बोझ अपने कन्धों से मज़दूर वर्ग और टुटपुँजिया वर्ग के कन्धों पर कैसे डाले।” (वही, पृ. 797)
अन्त में, मार्क्स बताते हैं कि यह पूँजीवादी संचय का आम नियम है कि समाज में एक छोर पर समृद्धि इकट्ठा होती जाती है और दूसरी ओर ग़रीबी, अभाव और दुख इकट्ठा होता जाता है। पूँजी संचय जितना तेज़ी से आगे बढ़ता है, सम्पदा का पूँजीवादी सृजन जितने बड़े पैमाने पर होता है, सर्वहारा वर्ग की संख्या भी उतनी ज़्यादा बढ़ती है और साथ ही श्रम की उत्पादकता भी उसी अनुपात में छलाँगें मारते हुए बढ़ती है; नतीजतन, बेरोज़गारों की विशाल सेना का निर्माण भी उसी त्वरित गति से होता रहता है। जो कारक पूँजीवादी समृद्धि को द्रुत गति से विकसित करते हैं, ठीक वही कारक पूँजी की सेवा में श्रमशक्ति के विशाल रिज़र्व भण्डार को भी विकसित करते हैं। जिस गति से धनी वर्गों के हाथों धन-सम्पदा का विकास होता है, उसी ऊर्जा से औद्योगिक रिज़र्व सेना भी बढ़ती जाती है। लेकिन श्रम की सक्रिय सेना के सापेक्ष श्रम की आरक्षित सेना जितनी ज़्यादा बढ़ती है, उतना ही श्रम की आरक्षित सेना का वह हिस्सा बढ़ता जाता है, जो इसी हालत में स्थायी स्वरूप ग्रहण कर लेता है, यानी जो आम तौर पर रोज़गारशुदा मज़दूरों की तादाद में कभी शामिल हो ही नहीं पाता। इस आबादी का “कष्ट उस यातना की मात्रा से व्युत्क्रमानुपात में होता है जो उसे श्रम करने के रूप में झेलनी पड़ती है” (वही, पृ. 798)। यानी, औद्योगिक रिज़र्व सेना और समूचे मज़दूर वर्ग का वह हिस्सा जो दरिद्रीकरण में धकेल दिया जाता है, वह बढ़ते पूँजी संचय और उसके साथ ही श्रम की सक्रिय सेना के सापेक्ष श्रम की आरक्षित सेना में होने वाली वृद्धि के साथ बढ़ता जाता है। मार्क्स कहते हैं कि यह “पूँजीवादी संचय का निरपेक्ष सामान्य नियम है।”
(अगले अंक में अध्याय-17 – “तथाकथित आदिम संचय”)
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2024
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