लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राम रहीम की पैरोल पर रिहाई के मायने
अदिति
पिछले ढाई साल से राम रहीम हरियाणा के रोहतक (सुनारिया जेल) में बन्द है और इन ढाई वर्षों के भीतर 9 बार राम रहीम पैरोल पर बाहर आ चुका है। आज़ाद भारत के इतिहास में यह अवश्य ही पहली बार हुआ होगा कि हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में सज़ा काट रहे किसी व्यक्ति को दो वर्ष में 174 दिनों के लिए पैरोल मिली हो। पहली बार, 21 मई 2021 को बीमार माँ से मिलने के लिए गुरमीत राम रहीम को पैरोल मिली। दूसरी बार, 7 फरवरी 2022 में गुरमीत राम रहीम को 21 दिन की पैरोल मिली। तीसरी बार, 17 जून 2022 को 30 दिन की पैरोल मिली। चौथी बार, 15 अक्टूबर 2022 को 40 दिन की पैरोल मिली। पाँचवी बार, 21 जनवरी 2023 को 40 दिन की पैरोल मिली। छठी बार, 20 जुलाई 2023 को 30 दिन की पैरोल मिली। सातवीं बार, 15 अगस्त 2023 को जन्मदिन के मौके पर गुरमीत राम रहीम को पैरोल दी गयी। इससे पहले राजस्थान चुनाव से ठीक चार दिन पहले उसे फिर पैरोल मिली थी।
लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही मिली पैरोल दर्शाती है कि राम रहीम के डेरे और हरियाणा सरकार के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। दोषी राम रहीम को दो साध्वियों के साथ दुष्कर्म करने के आरोप में 28 अगस्त, 2017 को 20 साल की सज़ा सुनायी गयी थी। इसके बाद दोबारा आरोप सिद्ध हुआ था, जिसके चलते बाबा को उम्रकैद हुई थी। पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति की हत्या में अदालत ने राम रहीम को 17 जनवरी 2019 को उम्र कैद की सज़ा सुनाई थी।
डेरा सच्चा सौदा की स्थापना 1948 में हुई थी जिसमें अलग-अलग समय पर डेरा प्रमुख रहे। सितम्बर 1990 से गुरमीत राम रहीम सिंह डेरा के प्रमुख पद पर नियुक्त किये गये। 1990 तक डेरा पंजाब और हरियाणा के दलित ग़रीबों और पिछड़ी जाति के काफी लोकप्रिय हो चुका था। पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस के समर्थक के तौर डेरे ने अहम भूमिका निभाई। लेकिन राम रहीम के डेरा प्रमुख बनने के बाद डेरे ने लोकप्रियता और राजनीति में नये आयाम हासिल किये। राम रहीम ने ख़ुद को एक मॉडर्न बाबा का एक अनूठा कल्ट बनाया। जेड सुरक्षा के बीच और ख़ुद को भगवान बताकर बाबा ने लोगों का खूब ध्यान बटोरा। इसी के साथ और अधिक प्रसिद्धि पाने के लिए दलित और पिछड़ी जातियों के उभरते कारोबारी और बड़े व्यापारी भी बाबा के अनुयायी बन गये। डेरा उनके लिए संजीवनी बूटी से कम नहीं था। धीरे-धीरे डेरा सच्चा सौदा का प्रभाव पंजाब, हरियाणा से निकलकर दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी दिखने लगा। इसी बीच डेरे और बाबा पर बहुत से विवाद भी उठ खड़े हुए, यौन उत्पीड़न के कई बार आरोप लगे, लेकिन बाबा के राजनीतिक दबाव के कारण यह मामले तुरन्त बन्द कर दिये गये। राम रहीम के आपराधिक चरित्र के साफ़ होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। भक्तों को बात बहुत बाद में समझ आती है। लेकिन व्यापक जनता में उसका चरित्र बिल्कुल साफ़ है।
राम रहीम की एक और भूमिका भी थी। व्यापक मेहनतकश दलित व पिछड़़ी आबादी को अपने जीवन की कुरूप सच्चाइयों को स्वीकार करने, झूठी धार्मिक आशा करने, बाबा के चमत्कार पर यक़ीन करवाने के लिए राम रहीम के डेरे ने अहम भूमिका निभायी। हमेशा ही मज़दूरों-मेहनतकशों के असन्तोष की आग पर धार्मिक कीचड़ फेंक कर उसे शान्त करने की कोशिश की जाती है। स्वयं अपनी अतार्किक कूपमण्डूक व ढकोसलेपन्थी सोच के अलावा, तमाम पूँजीपति, दुकानदार, ठेकेदार, व्यापारी इस प्रकार के डेरों की ठीक इसीलिए मदद करते हैं क्योंकि यह मज़दूरों-मेहनतकशों के ऊपर सामाजिक अनुशासन और नियन्त्रण को सुनिश्चित करने का एक मैकेनिज्म देता है। जैसा कि कहा गया है, ‘अमीरों ने ग़रीबों के लिए धर्म और भगवान के अलावा कुछ नहीं छोड़ा है।’
डेरा सच्चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर रहा लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस का सितारा डूबता गया, इस डेरे ने भी नये राजनीतिक विकल्प खोजना शुरू कर शुरू कर दिए 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हरियाणा के विधानसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा ने भाजपा को अपना समर्थन दिया। 2024 के ठीक चुनाव से पहले भाजपा सरकार हरियाणा में अपनी साख बचाने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद इस्तेमाल कर रही है। ताकि चुनाव में जीत हासिल हो सके। हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसे में, गैर-जाट वोटों के संकेन्द्रण के लिए भी उसे डेरा की ज़रूरत है। इसलिए बलात्कारी राम रहीम अचानक चमत्कारी राम रहीम बन जाता है और उसे लगातार पैरोल पर पैरोल मिलती रहती है।
सभी जानते हैं कि विभिन्न कारणों से हालिया महीनों में खट्टर सरकार की खूब किरकिरी हुई है। हरियाणा बेरोज़गारी में देश में पहला राज्य बन गया। सीएनआईई की रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में बेरोज़गारी दर 35.7% दर्ज़ की गयी, यह आँकड़ा खट्टर सरकार के कार्यकाल का है। उसी प्रकार देश के स्तर पर फ़ासीवादी मोदी सरकार का 10 साल का कार्यकाल जनता के लिए नरक के समान साबित हुआ। अपनी नाक़ामियों को छुपाने के लिए भाजपा सरकार ने हथकण्डों का सहारा लिया। लोगों को जाति के नाम पर धर्म के नाम पर बाँटा। इसी कड़ी में भाजपा सरकार ने बाबाओं का भी खूब इस्तेमाल किया। राम रहीम, आसाराम और रामपाल जैसे पाखण्डी बाबाओं का राजनीतिक रोटी सेकने के लिए भाजपा सरकार ने खूब इस्तेमाल किया। हाल में कुछ और उदाहरण हमारे सामने हैं: बागेश्वर बाबा, परमानन्द महाराज और सद्गुरु महाराज। फ़ासीवादी सोच और विचारधारा की विषबेल को संघ परिवार अपनी शाखाओं, स्कूलों आदि में तो पनपा ही रहा है, लेकिन इन तमाम बाबाओं के आश्रमों में भी फ़ासीवाद को फलने फूलने के लिए पर्याप्त खाद-पानी दिया जा रहा है और ये डेरे, आश्रम आदि विशेष तौर पर आम मेहनतकश जनता, मज़दूरों व टुटपुँजिया वर्गों में इस काम को कर रहे हैं।
भारत जैसे देश में जहाँ की आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा ऐतिहासिक तौर पर वैज्ञानिक चेतना की कमी और बौद्धिक पिछड़ेपन का शिकार है, वहाँ तमाम तरह के बाबाओं का मायाजाल फैलाया जाता है। इन बाबाओं ने लोगों की आस्था का फ़ायदा उठाकर उनकी आँखों पर अन्धविश्वास और अतार्किकता की पट्टी बाँध दी है। धर्म राजनीतिक व चुनावी समीकरण तय करने में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और यही कारण है कि इन तमाम बाबाओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। इनके काले धन्धे क़ानून व राजनीति की देखरेख में फलते-फूलते हैं, जिसके बदले में इन चुनावी पार्टियों को इन बाबाओं के अनुयायियों का वोट बैंक हासिल होता है। धर्म और राजनीति के नापाक गठजोड़ का यह नंगा नाच जिस बेशर्मी के साथ भाजपा के सत्ता में आने के बाद हो रहा है शायद ही पहले कभी हुआ हो।
भाजपाई नेताओं व मन्त्रियों द्वारा आसाराम, राम रहीम से लेकर तमाम बाबाओं के मंचों पर जाकर नतमस्तक होना और नंगनाच करना कोई नयी परिघटना नहीं है और ना ही किसी से छुपी है। अटल बिहारी वाजपेयी के आसाराम के साथ किये गये नाच को, और मोदी द्वारा आसाराम बापू के साथ किये गये भजनगायन को कौन भूल सकता है? बेशर्मी की इन्तेहाँ तब हो जाती है जब भाजपा सरकार व भाजपाई नेता ऐसे सज़ा काट रहे अपराधी, बलात्कारी बाबाओं के बार-बार जेल से बाहर आने की योजनाबद्ध रूपरेखा तैयार करते हैं और फिर इनके मंचों पर जाकर नतमस्तक होकर वोटों की भीख माँगते हैं।
इससे एक बात और साबित होती है और न्यायपालिका पर भी कुछ गम्भीर सवाल उठते हैं। एक तरफ़ देश की जेल में राजनीतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, एक पैरोल की बात तो दूर उन्हें रहने-खाने बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रखा जाता है, दूसरी तरफ़ बलात्कारी बाबाओं को पैरोल पर पैरोल मिली जाती है। जनता के हक़ की बात करने वाले तमाम बुद्धजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिना चार्ज़शीट के भी सालों साल जेल में रखा जाता है और बीमार पड़ने पर भी बेल नहीं दी जाती। स्टेन स्वामी को आप भूले नहीं होंगे, जिन्हें झूठा आरोप लगा कर यू.ए.पी.ए लगा दिया गया था। जेल की बद्तर परिस्थितियों में रहने के कारण ही उनकी मौत हुई। वहीं राम रहीम जैसा बलात्कार व हत्या का आरोपी खुलेआम समाज में घूमकर भाजपा का प्रचार कर रहा है। सहज़ ही समझा जा सकता है कि फ़ासीवादी हिन्दुत्ववादी भाजपा का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा महज़ एक ढकोसला है, बल्कि इनका असली नारा है ‘बलात्कारियों के सम्मान में भाजपा मैदान में’।
भगतसिंह ने कहा था कि धर्म हर व्यक्ति का निजी मसला होना चाहिए व सार्वजनिक जीवन तथा राजनीति से अलग होना चाहिए। आज धर्म व राजनीति मिलकर इस देश की अवाम की किस्मत तय कर रहे हैं तथा उन्हें नफ़रत के कुएँ में धकेल रहे हैं। धर्म और राजनीति के मिश्रण को हम मेहनतकशों को सिरे से नकारना होगा। साथ ही, हमें तर्क और विज्ञान के साथ खड़ा होना होगा, जो कि स्वयं मेहनतकश वर्गों के श्रम के अनुभवों से ही पैदा होते हैं। हमें अन्धविश्वास और ढकोसलों को छोड़कर ऐसे बाबाओं को उनकी सही जगह पहुँचाना होगा। इसके लिए आज एक कदम भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को नकारना भी है। कोई आपके धर्म का है, इसका यह अर्थ नहीं कि उसके हित आपसे मिलते हैं। एक हिन्दू पूँजीपति का एक हिन्दू मज़दूर के साथ क्या साझा है? वास्तव में, एक हिन्दू पूँजीपति का एक मुसलमान पूँजीपति से कहीं ज़्यादा साझा है, क्योंकि उनके जमाती हित एक हैं। उसी प्रकार, एक हिन्दू मज़दूर का साझा एक मुसलमान मज़दूर, एक सिख या ईसाई मज़दूर से कहीं ज़्यादा है, क्योंकि उनके जमाती हित और हक़ एक हैं। इसीलिए शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था कि हम धार्मिक आस्था के मामले में अलग हो सकते हैं, फिर भी हमारी लड़ाई और हमारा मक़सद एक हो सकता है, हमारी राजनीति एक हो सकती है और होनी ही चाहिए, अगर हमारा वर्ग समान है।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन