प्रोटेरियल के पुराने ठेका मज़दूरों की हड़ताल की आंशिक जीत और आगे की चुनौतियाँ!
शाम
प्रोटेरियल (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड (पुराना नाम हिताची) का एक प्लाण्ट आईएमटी मानेसर, हरियाणा में स्थित है। इस प्लाण्ट में विभिन्न किस्म की मैगनेटिक कोर व ब्लॉक का उत्पादन होता है जिसका इस्तेमाल ऑटो सेक्टर, हवाई जहाज़ व इलेक्ट्रॉनिक आदि उद्योगों में किया जाता है।
इस बार हड़ताल का कारण क्या था?
पिछली 30 जून को मज़दूरों ने प्रबन्धन द्वारा जबरन बिना उनकी सहमति के शिफ़्ट बदलने को लेकर विरोध किया और अगले दिन अपनी तय शिफ़्ट पर आये। इस पर प्रबन्धन ने 5 मज़दूरों को बिना कोई नोटिस दिये काम से निकाल दिया। इस तानाशाहाना रवैये के ख़िलाफ़ क़रीब 200 पुराने ठेका मज़दूरों ने कम्पनी परिसर के अन्दर ही दोपहर की ‘बी’ शिफ़्ट में टूल डाउन करके शॉप फ़्लोर पर ही धरना शुरू कर दिया था। बाक़ी के 60-70 पुराने ठेका मज़दूर फ़ैक्ट्री गेट के सामने धरने पर बैठे हुए हैं। कुल मिलाकर क़रीब 270 पुराने मज़दूर पिछले 9 दिनों से मारूति-सुज़ुकी कम्पनी के गेट नम्बर 3 के सामने वाली कम्पनी में प्रबन्धन की तानाशाही के ख़िलाफ़ डटे रहे हैं। फ़िलहाल समझौते होने व मज़दूरों को वापस काम पर लेने के बावजूद कुछ हद तक कम्पनी प्रबन्धन व ठेकेदार अभी भी उत्पादन के लक्ष्य (टारगेट) का बहाना बनाकर पूरे हफ़्ते बिना कोई साप्ताहिक अवकाश दिये काम करवा रहा है। वह मनमर्ज़ी से हर मज़दूर से अलग-अलग दिन व अलग-अलग शिफ़्ट में काम करवा रहा है।
ज्ञात हो कि हड़ताली मज़दूरों में 6 महीने से लेकर 12 साल पुराने क़रीब 270 पुराने ठेका मज़दूर शामिल थे। हड़ताल में शामिल न होने वाले मज़दूरों में क़रीब 44 स्थायी मज़दूर और 11 महीने वाले क़रीब 100 पुराने ठेका मज़दूर हैं। कुल मिलाकर यहाँ लगभग 400 मज़दूर कार्यरत हैं।
30 जून से 23 जुलाई तक 24 दिन की टूल-डाउन हड़ताल के बाद 24 जुलाई को समझौते के बाद मज़दूर काम पर वापस लौट आये थे। प्रोटेरियल के ठेका मज़दूरों की 24 दिन लम्बी हड़ताल एक हद तक सफल हुई और कुछ बुनियादी माँगों के लिए लिखित समझौता सम्भव हो पाया। वेतन बढ़ोत्तरी, श्रम क़ानूनों के अनुसार छुट्टियाँ और निकाले गये मज़दूरों को काम पर वापस लेने जैसी बुनियादी माँगों पर आंशिक जीत संघर्ष की बदौलत ही हासिल हो पायी। लेकिन लिखित समझौते को सफलतापूर्वक लागू करवाने के लिए सतर्कता और सावधानी से लगातार डटे रहने की ज़रूरत है। साथ ही जो माँगें फ़िलहाल माँगपत्रक के अनुसार लिखित समझौते में नहीं आ पायी हैं उनके लिए भी एकजुट होकर संघर्ष जारी रखना होगा।
30 जून से लेकर 23 जुलाई तक चली हड़ताल में हर रोज़ सुबह और शाम शिफ़्ट बदलने के वक़्त प्रबन्धन, श्रम विभाग व हरियाणा सरकार के ख़िलाफ़ ज़ोरदार नारेबाज़ी की गयी। हड़ताल की शुरुआत के 15 दिनों के बाद ही कोर्ट ने इन मज़दूरों को उत्पादन क्षेत्र से बाहर जाने का आदेश दे दिया। लेकिन फिर भी मज़दूर फ़ैक्ट्री गेट के बाहर डटे रहे।
यह बात भी ग़ौरतलब है कि 44 स्थायी मज़दूर की पंजीकृत यूनियन (केन्द्रीय फ़ेडरेशन एचएमएस से सम्बन्धित) समझौतापरस्ती व मौक़ापरस्ती की नीति के कारण संघर्ष में शामिल नहीं हुई और उसके मज़दूर उत्पादन में लगे रहे। साथ ही, अभी हाल में ही भर्ती किये गये 11 महीने वाले लगभग 100 नये ठेका मज़दूर फ़िलहाल असंगठित होने के कारण और राजनीतिक चेतना की कमी के कारण हड़ताल में शामिल नहीं हुए।
इस हड़ताल में मारुति-सुज़ुकी मज़दूर संघ (एम.एस.एम.एस.) का नेतृत्व तो आया लेकिन यूनियन के अपने अन्य साथियों को न ला पाया। आज एम.एस.एम.एस. समेत तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन व उनसे जुड़ी यूनियनें अर्थवाद के चलते सिर्फ़ परमानेंट मज़दूरों की बात करती हैं और जुबानी तौर पर ठेका मज़दूरों की गाहे-बगाहे बात करने के बावजूद स्थायी मज़दूरों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। स्थायी मज़दूरों को 90 फ़ीसदी से ज़्यादा ठेका मज़दूरों से जोड़ने की बजाय और उनकी माँगों को प्रमुखता देने की बजाय, वे उनके बीच की खाई को बनाकर रखती हैं। वे राजनीतिक तौर पर स्थायी मज़दूर आबादी के एक छोटे-से हिस्से की नुमाइन्दगी करती हैं, जो कुलीन श्रमिक संस्तर में तब्दील हो चुका है। मारूति के संघर्ष की 11वीं वर्षगाँठ पर गुड़गाँव में लघु सचिवालय पर प्रतीकात्मक धरना-रैली के बजाय इस यूनियन को मारूति के तीन नम्बर गेट पर बैठे मज़दूरों के समर्थन में मानेसर में रैली व रोष प्रदर्शन करना चाहिए था। केन्द्रीय ट्रेड यूनियन तो पहले से ही दक्षिणपन्थी अर्थवाद का शिकार हैं लेकिन इसमें “वामपन्थी” अर्थवाद के शिकार “सहयोगी” व “इन्क़लाबी” केन्द्र ट्रेड यूनियनवादी नीति की बानगी ही पेश कर रहे थे। याद रहे 11 वर्ष पहले मारूति के मज़दूर जिन माँगों के लिए संघर्ष कर रहे थे अधिकांश उन्हीं माँगों के लिए प्रोटेरियल के मज़दूर संघर्षरत हैं।
पिछली बार की हड़ताल क्यों हुई थी?
इसी वर्ष पिछली बार 11-12 मई की डेढ़ दिन की टूल-डाउन हड़ताल दो नेतृत्वकारी साथियों को तानाशाहाना तरीके से काम से हटाने के कारण हुई थी। लेकिन उस हड़ताल के चलते हुए श्रम विभाग की मध्यस्थता में हुए 12 (3) के समझौते को प्रबन्धन ने लागू नहीं किया जिसका गुस्सा मज़दूरों में पहले से ही था, जिसके कारण 30 जून को दूसरी बार टूल-डाउन हड़ताल के रूप मे मज़दूरों का ग़ुस्सा दोबारा फूटा।
श्रम विभाग, पुलिस-प्रशासन व न्यायालय का मज़दूर विरोधी रवैया:
30 जून से क़रीब 15 दिनों तक हड़ताली मज़दूर फ़ैक्ट्री के उत्पादन क्षेत्र में बैठे थे। प्रशासन ने मज़दूरों को वहाँ से बाहर करने का आदेश पारित कर दिया। नतीजतन मज़दूरों को कम्पनी के पार्किंग क्षेत्र में खुले आसमान के नीचे धूप-गर्मी व बारिश में 15 तारीख़ तक बैठना पड़ा। उसके बाद कुछ दिनों के बाद कोर्ट ने मज़दूरों को कम्पनी परिसर से भी बाहर करने का आदेश पारित कर दिया। जबकि हड़ताली मज़दूर न तो स्थायी मज़दूरो़ं और न ही ठेका मज़दूरों के लिए किसी भी तरीके से उत्पादन करने में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। ऐसे मांमलों में पुलिस-प्रशासन व न्यायपालिका का मज़दूर विरोधी रवैया दिख जाता है। जबकि इसी कारख़ाने में श्रम क़ानूनों का खुले तौर पर उल्लंघन किया जाता है – न तो मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिलता है, न ही पक्का काम। ज़्यादातर मज़दूर ठेके पर काम करते हैं, जो कि ग़ैर-क़ानूनी है। लेकिन इन सबकी जानकारी के बावजूद श्रम विभाग आँखें मूँद कर बैठा रहता है। तब कोई सरकारी विभाग, पुलिस, आदि नहीं आता। लेकिन मालिकों और प्रबन्धन के इशारे पर सरकारें, न्यायपालिका, श्रम विभाग सारे दौड़े आते हैं। यही मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई है। इसमें मज़दूर के लिए कोई न्याय नहीं है।
समझौते की प्रमुख माँगे:
पहली माँग वेतन बढ़ोतरी की थी। फ़िलहाल समझौते के तहत मज़दूरों के वेतन में ₹1500 रूपये बढ़ोतरी पर सहमति बनी। है। वेतन बढ़ोतरी बेसिक में नहीं बल्कि एचआरए में हुई है। जबकि मज़दूरों ने बढ़ती महँगाई के अनुसार ₹4000 बढ़ोतरी लागू करने की माँग की रखी थी। साथ ही यह बढ़ोतरी एक साल से कम समय से काम कर रहे ठेका मज़दूरों पर लागू नहीं होगी।
दूसरी माँग श्रम क़ानूनों के तहत छुट्टियाँ लागू करवाने की थी जिसके लिए फ़िलहाल प्रबन्धन तैयार है। लेकिन व्यवहार में यह देखना होगा यह कितना लागू किया जायेगा।
तीसरी माँग निकाले गये लगभग 30-40 मज़दूरों की पुनः कार्यबहाली की थी। फ़िलहाल तीन किस्तों में (178+22+22=222) करके पुन:बहाली (ज्वाइनिंग) पर सहमति बनी है।
मज़दूरों की यह आंशिक जीत यह दिखाती है कि अपनी वर्गीय एकजुटता और संघर्ष के ज़रिए अपनी माँगों को एक हद तक पूरा करवाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में यही एकजुटता अगर सेक्टर के आधार पर बनायी जाये तो इस सेक्टर में मज़दूर वर्ग अपने तमाम हक़ और अधिकार हासिल कर सकता है। और आज उत्पादन के विकेन्द्रीकरण के साथ मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए सेक्टरगत यूनियन ही मुख्य रास्ता हैं। साथ ही, हमें यह समझना होगा कि आज ठेका मज़दूरों को अपना स्वतन्त्र संगठन खड़ा करना होगा और अपने माँगों के लिए सेक्टरगत आधार पर संघर्ष करना होगा। ऐसे में ही स्थायी मज़दूरों का संघर्ष भी पुनर्जीवित किया जा सकता है, दलाल यूनियनों को किनारे लगाया जा सकता है और ऑटोमोबाइल मज़दूरों का एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023
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