अतीक अहमद की हत्या और “माफ़िया-मुक्त” उत्तर प्रदेश के योगी के दावों की असलियत
अपूर्व मालवीय
पिछले 15 अप्रैल की रात को प्रयागराज के कॉल्विन अस्पताल में इलाहाबाद के कुख्यात माफ़िया और पूर्व सांसद अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अज़ीम की गोली मारकर हत्या कर दी गयी । गोली मारने वाले 18 से लेकर 23 साल के तीन नौजवान थे। इन तीनों ने गोली मारने के बाद “जय श्री राम” के नारे लगाये और वहीं पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इस हत्या के बाद यूपी की सियासत में उफान आ गया। गोदी मीडिया से लेकर तमाम तरह के क़लमघसीट पत्रकारों ने इस हत्याकाण्ड के बाद से बुलडोजर बाबा के “माफ़िया मुक्त राज” और “न क़र्फ्यू न दंगा, सब चंगा” का नारा लगाते हुए योगी सरकार की तारीफ़ों के पुल बाँधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन क्या पिछले कुछ सालों से योगी सरकार की माफ़ियाओं पर कार्यवाही से यूपी में सब चंगा हो गया है या इसमें भी कोई पंगा है?
अगर सिर्फ़ तथ्यों और आँकड़ों की बात की जाये तो यहाँ मामला उल्टा नज़र आता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार यूपी में पिछले तीन सालों में अपराध की दर 15.7 व्यक्ति प्रति लाख तक पहुँच गयी है जो 5.4 व्यक्ति प्रति लाख के राष्ट्रीय औसत के तीन गुना है। इस भयमुक्त प्रदेश में पिछले छः सालों में स्त्रियों-दलितों-वंचितों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ने के साथ ही जघन्य हत्या, चोरी-डकैती जैसे अपराधों में लगातार बढ़ोत्तरी हुयी है। माफ़ियाओं और गुन्डों के ऊपर बुलडोजर चलाने और उनकी सम्पत्ति कुर्क करने वाले बाबा का बुलडोजर बृजभूषण शरण सिंह (भाजपा सांसद और भारतीय कुश्ती संघ का अध्यक्ष) के ऊपर नहीं चलता है जो दाऊद इब्राहिम के गुर्गों को छुपाने के ज़ुर्म में टाडा कानून के तहत कभी तिहाड़ जेल हो आया है और आजकल इसके ख़िलाफ़ सैकड़ों महिला पहलवानों के यौन शोषण का आरोप लगाते हुए इसकी गिरफ़तारी और एफआईआर दर्ज़ करने की माँग को लेकर भारतीय कुश्ती संघ के कई राष्ट्रीय खिलाड़ी धरना दे रहे हैं। बाबा का बुलडोजर माफ़िया बृजेश सिंह (106 केस), धनंजय सिंह (46 केस), रघुराज प्रताप सिंह (31 केस), कुलदीप सिंह सेंगर (28 केस) … आदि-आदि सैकड़ों बाहुबलियों-अपराधियों पर नहीं चलता है जिनके ऊपर हत्या, अपहरण, फिरौती, बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराध के इल्ज़ाम हैं। यूपी विधानसभा के ही 403 विधायकों में से 205 पर ही संगीन अपराध के मुक़दमे हैं। क्या बाबा का बुलडोजर इनपर चलेगा? जवाब है, नहीं! क्योंकि सुबह का अपराधी अगर शाम को भाजपा में आ जाये, तो उसे अपराधी नहीं, “राष्ट्रवादी” कहते हैं!
बहरहाल, बुर्जुआ पार्टियों के पक्ष-विपक्ष व आरोप-प्रत्यारोप के साथ ‘लोकतन्त्र की हत्या बनाम माफिया की हत्या’ से अलग इस पूरे मसले के कई पक्ष हैं। इस पर चर्चा करने से पहले इस हत्या और उसके बाद की पृष्ठभूमि की चर्चा जरूरी है।
आजीवन उम्रकैद की सज़ा काट रहे माफिया अतीक अहमद को इसी साल फरवरी में हुये उमेश पाल हत्याकाण्ड में पूछताछ के लिए अहमदाबाद के साबरमती जेल से प्रयागराज के नैनी जेल में शिफ्ट किया गया। 15 अप्रैल को अतीक और उसके भाई की हत्या से ठीक दो दिन पहले उमेश पाल हत्याकाण्ड के ही अभियुक्त उसके बेटे असद और शूटर गुलाम को एक एनकाउण्टर में मार दिया गया था।
अतीक के बेटे व उसके शूटर की एनकाउण्टर में मौत जहाँ राज्य प्रायोजित हत्या थी, वहीं ये भी साफ़ है कि अतीक व उसके भाई की हत्या सत्ताधारी राजनीतिक दल के संरक्षण के बिना सम्भव नहीं हो सकती थी। इस हत्या में शामिल हत्यारों और उनके उद्देश्यों से ये साफ़ झलकता है कि यह बहुत सोच-समझकर बनायी गयी रणनीति का नतीजा है। क्योंकि सवाल ये है कि एक दूसरे से अपरिचित तीन अलग-अलग इलाकों से आने वाले ये हत्यारे अतीक अहमद को मारने के लिए एक साथ कैसे आ गये? दूसरे, ये तीनों ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं, जबकि हत्या में प्रयुक्त पिस्टल की क़ीमत सात से आठ लाख तक की है। ये इन्हें कैसे मिल गयी? तीसरे, इन्होंने दावा किया है कि ये नाम कमाने और बड़ा माफिया बनने के लिए ही इस घटना को अन्जाम दिये, जबकि इन्हें उन 17 पुलिसकर्मियों का कोई डर क्यों नहीं लगा कि जवाबी कार्यवाही में इन्हें भी मारा जा सकता है? इसके साथ अन्य बहुत सारे सवाल भी इस हत्याकाण्ड के प्रायोजित होने की ओर इशारा कर रहे हैं।
वहीं दूसरी तरफ गोदी मीडिया और तमाम भाड़े के क़लमघसीट पत्रकार राज्य प्रायोजित और संरक्षित हत्याओं पर वैधानिक मुहर लगाने, उसे जायज़ ठहराने और “जैसे को तैसा” वाले आदिम बर्बर न्याय सिद्धान्त को अमली जामा पहनाने की मुहिम को ज़ोर-शोर से शुरू कर दिये हैं!
गोदी मीडिया में जिस प्रकार की ख़बर चलायी गयी और जिस प्रकार के बयान योगी के मन्त्रियों और नेताओं की तरफ़ से सामने आये, उससे ये अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि ये हत्या प्रायोजित थी। इस हत्या का टारगेट कोई “माफिया नहीं” बल्कि उसकी धार्मिक पहचान थी। निश्चय ही अतीक माफिया और अपराधी था, ठीक उसी प्रकार जैसे कि योगी सरकार के तमाम विधायक हैं। लेकिन उसे भी तय कानून के अनुसार सज़ा मिलनी चाहिए थी। यही अतीक अहमद 2018 में फूलपुर के चुनाव में भाजपा के साथ अनकही साँठ-गाँठ किये हुए था और उसने भाजपा को वोटकटुआ बनकर जीतने में मदद की थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अतीक के ज़िन्दा रहने पर कई ऐसे राज़ उजागर होते, जिससे अजय सिंह बिष्ट यानी योगी के शासन को असुविधा होती? इन सवालों के जवाब अतीक के साथ ही ख़त्म हो गये।
असल में पिछले कुछ सालों से योगी यूपी में जिस प्रकार हिन्दुत्व की भावना को पोषित करके भविष्य के हिन्दुत्ववादी फासीवादी नायक की भूमिका में अपने को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें अतीक और मुख़्तार जैसे माफियाओं को ही मोहरा बनना है। फ़ासीवाद की ज़मीन एक सख़्त, कठोर नायक और उसकी तानाशाही को स्थापित करती है और उसके कर्मों (कुकर्म) को जायज़ ठहराती है। योगी, अतीक, मुख़्तार-अंसारी, आज़म-खाँ, अकबर-बंजारा जैसे मुस्लिम अपराधियों को निशाना बनाकर बहुसंख्यक हिन्दुओं में “दुश्मन” के साथ सख़्ती से निपटने वाली छवि को पेश करने की कोशिश कर रहा है, जो भविष्य में उसे हिन्दुत्व के नायक के तौर पर स्थापित कर सके। और इस काम के लिए उसके हाथ में राज्य मशीनरी होने के साथ ही साथ आरएसएस द्वारा खड़े किये गये सैकड़ों हिन्दुत्व के कट्टरपन्थी संगठन भी मौजूद हैं। अतीक को मारने वाला लवलेश तिवारी बजरंग दल से जुड़ा हुआ है और अपने आप को ‘बजरंग दल का सह सुरक्षा प्रमुख’ बताता है। यह एक ड्रग एडिक्ट होने के साथ ही एक लड़की को थप्पड़ मारने के ज़ुर्म में जेल भी हो आया है। इसने अपने फेसबुक पर लिखा है कि “मुझे शराब की तरह ही हिन्दुत्व की आदत है और जो जय श्री राम नहीं बोलता उसके ख़ून में ही कोई कमी है!”
ये तीनों हत्यारे गरीब-निम्नमध्यवर्गीय परिवारों से आते हैं। इसमें किसी के पिता ऑटो चालक हैं तो कोई गोलगप्पे बेचकर अपना घर चला रहा है। तीनों लम्बे समय से बेरोजगार हैं और हिन्दुत्व को बचाने का ठेका लिये घूम रहे हैं।
पूँजीवादी समाज व्यवस्था में अपराधमुक्त, गुंडामुक्त, माफिया मुक्त समाज की कल्पना करना एक मुग़ालते में ही जीना है। वैसे भी जब सबसे बड़ी गुण्डावाहिनी ही सत्ता में हो, तो प्रदेश को गुण्डामुक्त व अपराधमुक्त करने की बात पर हँसी ही आ सकती है। पूँजीवादी समाज की राजनीतिक-आर्थिक गतिकी छोटे-बड़े माफियाओं को पैदा करती है। भारत के पिछड़े पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ चुनावों में धनबल-बाहुबल की भूमिका हमेशा प्रधान रही है और इस कारण तमाम बुर्जुआ क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों तक में इन माफियाओं की जरूरत हमेशा से मौजूद रही है। यह भी गौर करने वाली बात है कि 90 के दशक में जैसे-जैसे उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया गया वैसे-वैसे भू माफिया, शराब माफिया, खनन माफिया, शिक्षा माफिया, ड्रग्स माफिया…आदि-आदि का जन्म तेजी से होता रहा। समय के साथ-साथ माफियाओं की आपसी रंजिश या उनके राजनीतिक संरक्षण में परिवर्तन से किसी माफिया की सत्ता का जाना और उस क्षेत्र में नये माफियाओं का आना चलता रहा है।
अतीक और मुख़्तार अंसारी से लेकर बृजेश सिंह, धनंजय सिंह, बृजभूषण शरण सिंह जैसे अपराधी किसी न किसी रूप में इस बुर्जुआ व्यवस्था में बने रहेंगे। इन डॉनों-माफियाओं-गुंडों को तमाम राजनीतिक दल अपने विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति (चाहे वोट बैंक हासिल करने, राजनीतिक विरोधियों को किनारे लगाने, आर्थिक तौर पर मजबूत होने आदि-आदि) करने के लिए अपने में सम्मिलित करते रहेंगे या प्रश्रय व संरक्षण देने का काम करते रहेंगे। मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में इस समस्या का समाधान सम्भव ही नहीं है। जैसा कि प्रसिद्ध लेख बालज़ाक ने कहा था, ‘हर सम्पत्ति साम्राज्य की बुनियाद में अपराध होता है।’
मज़दूर बिगुल, मई 2023
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