जानलेवा शोषण के ख़िलाफ़ लड़ते बंगलादेश के चाय बाग़ान मज़दूर

केशव

“हमारे एक दिन की तनख़्वाह में एक लीटर खाने का तेल भी नहीं आ सकता, तो हम पौष्टिक खाना, दवाइयाँ और बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं?” बंगलादेश के चाय के बाग़ान में काम करने वाले एक मज़दूर का यह कहना है जिसे एक दिन काम करने के महज़ 120 टका मिलते हैं। अगस्त महीने की शुरुआत से बंगलादेश के चाय बाग़ानों में काम करने वाले क़रीब डेढ़ लाख मज़दूर अपनी जायज़ माँगों को लेकर सड़कों पर हैं। इन मज़दूरों की माँग यह है कि उन्हें गुज़ारे के लिए कम से कम 300 टका दिन का भुगतान किया जाये, तभी वे चाय के बाग़ानों में काम करेंगे। अब तक इन मज़दूरों को महज़ 120 टका देकर पूरे दिन बेगारी कराया जाता रहा है। उन्हें जितनी तनख़्वाह मिलती है, उतने में वे खाने की बुनियादी चीज़ें भी नहीं ख़रीद पाते हैं। इन हालातों में उनके लिए अपने बच्चों को स्कूल में भेज पाना या फिर उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराने के बारे में सोच भी पाना किसी अधूरे सपने की तरह है।
बंगलादेश में क़रीब डेढ़ लाख मज़दूर 200 से अधिक चाय के बाग़ानों में काम करते हैं। इन मज़दूरों द्वारा पैदा की गयी चाय अमेरिका, ब्रिटेन से लेकर फ़्रांस जैसे देशों में निर्यात की जाती है। लेकिन इन चाय बाग़ानों में काम करने वाले मज़दूर, जिनमें अधिकतर महिलाएँ होती हैं, बहुत ही नारकीय स्थिति में काम करते हैं जिसके लिए उन्हें महज़ 120 टका दिये जाते हैं, जो कि बंगलादेश में न्यूनतम मज़दूरी से भी कम है। बंगलादेश के इन मज़दूरों की आय केवल बंगलादेश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मज़दूरों की आय में सबसे कम है। चाय के उद्योग में लगे पूँजीपति इनका अतिशोषण कर अकूत मुनाफ़ा कमा रहे हैं। बंगलादेश की सरकार और इन बाग़ानों के मालिकों ने मज़दूरों द्वारा इस नारकीय हालत और कम वेतन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध किये जाने के बाद बेहद ही मामूली और नाकाफ़ी बढ़ोत्तरी की बात की है, जिसे मज़दूरों की यूनियन ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। बाग़ान मालिकों ने इस विरोध के बाद दिन का 14 टका प्रतिदिन बढ़ाने की बात की, वहीं सरकार द्वारा उनकी तनख़्वाह में 25 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी की बात कही गयी है। ज़ाहिर है यह बढ़ोत्तरी बेहद ही मामूली है, और न्यूनतम मज़दूरी से भी बहुत कम है। एक पूँजीवादी समाज में न्यूनतम मज़दूरी वह न्यूनतम आय होती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि मज़दूर ज़िन्दा भर रह सके और अगले दिन काम पर जा सके, लेकिन बंगलादेश के इन चाय बाग़ान के मज़दूरों को तो यह न्यूनतम मज़दूरी भी मयस्सर नहीं है। और सरकार इसे लागू करवाने के बजाय खुलेआम पूँजीपतियों का पक्ष ले रही है।
पिछले 15 सालों में महँगाई के अनुपात में इन मज़दूरों की तनख़्वाह के बढ़ने की रफ़्तार बहुत ही कम रही है। इसका मतलब महँगाई के अनुपात में मज़दूरों की तनख़्वाह में सापेक्षतः गिरावट ही आयी है। पिछले 17 वर्षों में इन मज़दूरों के प्रतिदिन की आय में केवल 88 टका की बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2005 में एक लम्बे संघर्ष के बाद इनकी प्रतिदिन की मज़दूरी 32 टका से 48 टका हुई। उसके बाद वर्ष 2012 में 65 टका, 2015 में 79 टका और 2017 में इनकी तनख़्वाह 85 टका प्रतिदिन तक पहुँची। फ़िलहाल ये मज़दूर 120 टका प्रतिदिन पर पूरा दिन इन चाय बाग़ानों में खटने को मजबूर हैं। वहीं दूसरी ओर महँगाई का आलम यह है कि इनके एक दिन की तनख़्वाह से एक लीटर खाने का तेल भी नहीं आ सकता। ऐसे में इन मज़दूरों के पास संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है। ये मज़दूर पिछले 13 अगस्त से बहादुरी के साथ अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर हैं। लेकिन सरकार से लेकर मीडिया ख़ामोश है।
आज बंगलादेश समेत दुनियाभर के मज़दूर अपने हक़ों और अधिकारों के लिए सड़कों पर हैं। पाकिस्तान के 40,000 पावर लूम मज़दूर पिछले 1 अगस्त से सामाजिक सुरक्षा और तनख़्वाह में बढ़ोत्तरी के लिए सड़कों पर हैं। ग़ौरतलब है कि इस वर्ष 26 मार्च को पाकिस्तान सरकार ने 1 जुलाई से पावर लूम मज़दूरों के लिए उनकी तनख़्वाह में 17 प्रतिशत इज़ाफ़ा करने की घोषणा की थी, लेकिन अब तक किसी भी कारख़ाने में इसे लागू नहीं किया गया है। और सरकार ने भी इसपर कोई पहल नहीं ली, जिसके कारण 40,000 मज़दूरों ने काम बन्द कर हड़ताल की घोषणा कर दी है।
आज दुनिया के सभी देशों की सरकारें वहाँ के पूँजीपति वर्ग के हित में काम कर रही हैं, क्योंकि हम जिस समाज में जी रहे हैं, वह एक पूँजीवादी समाज है और उत्पादन से लेकर तमाम संसाधनों पर पूँजीपति वर्ग का क़ब्ज़ा है। ये सरकारें यह सुनिश्चित करती हैं कि पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का शोषण कर अपने मुनाफ़े को बढ़ाता रहे, और मज़दूर वर्ग इसपर चूँ तक न करे। ये सरकारें मज़दूरों को भरमाने के लिए जनता में मौजूद जाति, धर्म, नस्ल, लिंग के भेदभाव को खाद-पानी देती रहती हैं, क्योंकि एक ओर तो इस भेदभाव का इस्तेमाल कर पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है, वहीं दूसरी ओर इस भेदभाव के ज़रिए जनता को आपस में बाँटकर असल मुद्दों से उनका ध्यान हटा दिया जाता है। हमें यह भी बताया जाता है कि हमारा दुश्मन सरहद के पार है, ताकि हम अपने असल दुश्मन को नहीं पहचान सकें जो देश के भीतर बैठकर हमें लूट रहा है, और साथ ही दूसरे देशों के मज़दूरों की भी सस्ती श्रम शक्ति का इस्तेमाल कर उनकी मेहनत को लूट रहा है। हमारा दुश्मन सरहद के पार काम करने वाला मज़दूर नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग है, चाहे वह किसी भी देश का हो। आज हमें दुनिया को इसी रूप में ही देखने की ज़रूरत है। साथ ही दुनिया में कहीं भी मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिए लड़ता है, तो हमें उनके संघर्ष का समर्थन करना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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