बीते साल क़र्ज़ों की माफ़ी के साथ पूँजीपति हुए मालामाल!
भारत
साल 2021 को याद कीजिए। कोरोना का प्रकोप अपने चरम पर था और सरकार की क्रूरता ने इसे दोगुना घातक बना दिया। लाखों लोगों ने इस कारण अपनी जान गवायी। ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों के लिए हाहाकार मचा हुआ था। श्मशानों के आगे लाशों की क़तारें लगी हुई थीं। ये तो था देश की आम अवाम का हाल। मगर दूसरी तरफ़, 2021 में कोरोना महामारी के दौरान भी बड़े पूँजीपतियों की सम्पत्ति में 35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। अकेले गौतम अडानी की सम्पत्ति में पिछले साल 49 बिलियन डॉलर (यानी लगभग 4 लाख करोड़ रुपये) का इज़ाफ़ा हुआ है। इसी दौरान इनकी वफ़ादार मोदी सरकार जनता को मरता छोड़ इन सेठों का मुनाफ़ा बढ़ाने में जी जान से लगी हुई थी और अपने आक़ाओं के क़र्ज़ माफ़ कर रही थी।
आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार केवल कोरोना के 15 महीनों में पूँजीपतियों का 2,45,456 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया गया। इसी रिपोर्ट में यह भी पता चला कि मोदी सरकार ने पिछले 7 सालों में क़रीब 11 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ किये हैं। रिज़र्व बैंक के 2015 से लेकर 30 जून 2021 के आँकड़े देखें तो 11 लाख 19 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ बट्टे खाते में डाला गया, जबकि रिकवरी केवल 1 लाख करोड़ की है। यानी 10 लाख करोड़ का कोई अता पता नहीं। इसमें सबसे ज़्यादा भागीदारी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की रही है, जहाँ से लगभग साढ़े आठ लाख करोड़ का लोन माफ़ हुआ है। जब हमारे लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे थे, तब इस मोदी सरकार के लिए प्राथमिकता पूँजीपतियों के क़र्ज़ माफ़ करना था। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार पहली सरकार है जो पूँजीपतियों के क़र्ज़ माफ़ कर रही है, यह प्रथा आज़ादी के बाद से ही चालू है। बस मोदी सरकार ने इसे विकास की नयी ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया है। यूपीए सरकार ने 2004 से 2014 तक 2.22 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ किये थे। यानी एक ओर जहाँ समूची पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट से ग्रस्त थी, पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से बिलबिला रहा था, वहीं फ़ासीवादी मोदी सरकार ने पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़े की अन्धी हवस के कारण ही पैदा हुए संकट की क़ीमत आम मेहनतकश जनता से वसूली और पूँजीपति वर्ग का क़र्ज़ माफ़ किया और राजकीय घाटे को कम करने के लिए आम लोगों पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा दिया।
अब ज़रा अपनी ज़िन्दगी पर निगाह डालिए। आज महँगाई में हुई बेतहाशा वृद्धि हमारी ज़िन्दगी पर क़हर बनकर टूटी है। महँगाई का हाल ये है कि थोक महँगाई दर मई 2022 में 15.08 प्रतिशत पहुँच चुकी थी और खुदरा महँगाई दर इसी दौर में 7.8 प्रतिशत पहुँच चुकी थी। बढ़ते थोक व खुदरा क़ीमत सूचकांक का नतीजा यह है कि मई 2021 से मई 2022 के बीच ही आटे की क़ीमत में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। दूध रु. 53-54/लीटर व वनस्पति तेल औसतन रु. 200/लीटर का आँकड़ा पार कर रहे हैं। घरेलू रसोई गैस की क़ीमतों में 76 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है और वह क़रीब रु.1050 प्रति सिलेण्डर की दर पर बिक रहा है। कॉमर्शियल रसोई गैस की क़ीमतों में 126 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है जो कि अब लगभग रु. 2400 पर बिक रहा है। ज़िन्दा रहने के लिए बुनियादी वस्तुओं को ख़रीदने के लिए भी ये सरकार हम पर टैक्स लगा रही है।
मोदी सरकार के एक और नये फ़रमान के मुताबिक़ अब मछली, दही, पनीर, लस्सी, शहद, सूखा मखाना, सूखा सोयाबीन, मटर जैसे उत्पाद, गेहूँ तथा अन्य अनाज पर अब पाँच प्रतिशत जीएसटी लगेगा। इसके अलावा नारियल पानी, फुटवेयर के कच्चे माल पर 12 फ़ीसदी जीएसटी की नयी दरें लागू होगी। पैकेट बन्द और लेबल वाले उत्पादों पर 18 फ़ीसदी की दर से जीएसटी लगाया जायेगा। पहले इस पर सिर्फ़ 5 फ़ीसदी की दर से टैक्स लगता था। यानी खुलेआम क़ानूनी तरीक़े से हमें लूटा जा रहा है।
एक तरफ़ ये सरकार दिनदहाड़े हमसे लूटकर अपने आक़ाओं पर माल लुटा रही है। दूसरी तरफ़ हमारी आय भारतीय रुपये की तरह लगातार गिरती जा रही है। आम आबादी की घटी हुई कमाई का आलम अब ये है कि सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत भारतीय परिवारों की सालाना आय पाँच साल में 52 प्रतिशत तक घट गयी है। पिछले चार महीने में देश में बेरोज़गारों की तादाद 3 करोड़ 18 लाख बढ़ी है। एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अगर आप रु. 25,000 कमाते हैं तो आप भारत के ऊपरी 10 प्रतिशत आबादी में आते हैं! मज़दूरों का 57 प्रतिशत भारत में रु. 10,000 से कम कमाता है और समस्त उजरती श्रमिकों की बात करें तो उनकी औसत आय रु.16,000 है। निश्चित तौर पर, इसमें सबसे कम कमाने वाले मज़दूर वे हैं जो कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और कुल मज़दूर आबादी का क़रीब 93 प्रतिशत बनते हैं।
मोदी सरकार बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से पूँजीपतियों के क़र्ज़ क्यों माफ़ कर रही है? दरअसल, इस पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में गिरावट हो रही है। इस संकट के दौर में भी पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बनाये रखा जा सके, इसके लिए सरकार संकट का बोझ आम मेहनतकश जनता पर डाल रही है। एक तरफ़ हमारी मज़दूरी गर्त में धँसती जा रही है और महँगाई आसमान छू रही है और दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों के क़र्ज़ों को माफ़ किया जा रहा है। यह संकट पूँजीपतियों की मुनाफ़े की अन्धी हवस से पैदा होता है लेकिन इसका बोझ मेहनतकश आबादी उठाती है।
आप पूछ सकते हैं कि बात तो आपकी ठीक है, पर अब करें क्या? इसे हल करने का कोई शॉर्टकट रास्ता तो है नहीं। इसके लिए हमें लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। साथ ही तात्कालिक मुद्दे जैसे महँगाई को कम करने, सार्वभौमिक राशन वितरण प्रणाली लागू करने जैसे मुद्दों पर इस सरकार को घेरना होगा। जब तक इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं उखाड़ा जाता, इसे पूर्णतः समाप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि इस व्यवस्था में सभी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का ही काम करती हैं। क़र्ज़ माफ़ी, सार्वजनिक उद्यमों को बेचना सरकार द्वारा पूँजीपति वर्ग को मैनेज करने के कार्यभार का हिस्सा है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन