बेरोज़गारी की विकराल स्थिति
पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट और मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियाँ हैं इसकी ज़िम्मेदार
सम्पादकीय
आज हमारे देश में बेरोज़गारी की जो हालत है, वह कई मायने में अभूतपूर्व है। मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों की क़ीमत देश की मेहनतकश जनता कमरतोड़ महँगाई और विकराल बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। इन दोनों का नतीजा है कि हमारे देश में विशेष तौर पर पिछले आठ वर्षों में ग़रीबी में भी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। हम मेहनतकश लोग जानते हैं कि जब भी बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी का क़हर बरपा होता है, तो उसका ख़ामियाज़ा भुगतने वाले सबसे पहले हम लोग ही होते हैं। क्योंकि पूँजीपति और अमीर वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस से पैदा होने वाले आर्थिक संकट का बोझ भी हमारे ऊपर ही डाल देते हैं। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। जो आर्थिक संकट पिछले 15 वर्षों से समूची पूँजीवादी दुनिया को अपनी जकड़ में लिये हुए है, उसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत दुनियाभर में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी ही चुका रही है। वास्तव में, यदि काम करने योग्य इन्सान हैं, विकास की आवश्यकता है, प्राकृतिक संसाधन और तकनोलॉजी है, तो फिर कोई वजह नहीं है कि बेरोज़गारी हो। लेकिन ऐसा केवल तभी हो सकता है कि जबकि एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था हो जिसका मक़सद मुट्ठीभर पूँजीपतियों का मुनाफ़ा सुनिश्चित करना न हो, बल्कि सारे समाज की समस्त आवश्यकताओं को पूरा करना और सभी इन्सानों के जीवन को अधिक से अधिक सुन्दर बनाना हो। लेकिन एक ऐसी व्यवस्था जिसके केन्द्र में मुट्ठीभर धन्नासेठों का मुनाफ़ा हो, वहाँ 40 करोड़ मज़दूरों से 12 से 14 घण्टे काम करवाना, उन्हें मुश्किल से जीने की ख़ुराक के बराबर मज़दूरी देना ताकि वे अगले दिन फिर से आकर खट सकें और धन्नासेठों की तिजोरियों को भर सकें, व्यापक बेरोज़गार आबादी का इस्तेमाल रोज़गारशुदा मेहनतकशों की आमदनी को कम करने के लिए करना आम बात है। यही पूँजीवादी व्यवस्था है जिसके मूल में उत्पादन व उपभोग के साधनों पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों की इजारेदारी और दूसरी ओर अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर करोड़ों-करोड़ मज़दूर आबादी है। समूचा उत्पादन तो यह मज़दूर आबादी अपनी सामूहिक मेहनत से सामाजिक तौर पर करती है, लेकिन उसके फलों को हड़प लेने का काम मुट्ठीभर पूँजीपतियों की आबादी करती है। उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से नहीं होता है, बल्कि मुनाफ़े की हवस में अन्धे पूँजीपतियों की अराजकतापूर्ण प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया में होता है। नतीजतन, हमारे समाज में अभाव और प्रचुरता दोनों ही मौजूद होते हैं, आर्थिक मन्दी नियमित तौर पर आती है, बच्चे भूख से मरते हैं, इसलिए नहीं कि अनाज की कमी है, बल्कि इसलिए अनाज ज़रूरत से ज़्यादा पैदा होता है, 18 करोड़ लोग बेघर हैं, और दूसरी तरफ़ करोड़ों-करोड़ मकान बनने के बाद पड़े सड़ रहे हैं, लेकिन उन्हें ख़रीदने के लिए ख़रीदार नहीं हैं। यह है इस व्यवस्था की सच्चाई।
आज बेरोज़गारी के जो हालात हैं, वे कोई प्राकृतिक आपदा नहीं हैं और न ही वे आकस्मिक तौर पर संयोग से पैदा हुई कोई चीज़ है। यह बेरोज़गारी भी इसी अराजक और मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक पैदावार है। पहले हम बेरोज़गारी के कुछ प्रातिनिधिक आँकड़ों पर निगाह डालेंगे और फिर देखेंगे कि किस प्रकार उसके पीछे पूँजीवादी व्यवस्था का नियमित अन्तराल पर आने वाला मुनाफ़े की दर का संकट है।
पिछले आठ वर्षों में, यानी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से क़रीब 22 करोड़ लोगों ने केन्द्र सरकार की नौकरियों के लिए आवेदन किया। इनमें से मात्र 7 लाख लोगों को नौकरियाँ मिलीं, यानी मात्र 0.33 प्रतिशत। भारत में रोज़गार योग्य आयु के कुशल युवाओं की कुल आबादी का 33 प्रतिशत बेरोज़गार है। रोज़गार योग्य आयु, यानी 15 से 60 वर्ष के बीच की कुल आबादी के 40 प्रतिशत से भी कम लोगों के पास रोज़गार है। पूरी दुनिया का औसत देखें तो रोज़गार योग्य आयु के कुल 60 प्रतिशत लोगों के पास रोज़गार है। यानी भारत में रोज़गार योग्य आयु की कुल आबादी के 60 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं। 2003 से 2014 के बीच ग़ैर-कृषि क्षेत्र में हर वर्ष औसतन लगभग 75 लाख नये रोज़गार पैदा हो रहे थे। लेकिन 2016 में मोदी सरकार द्वारा उठाया गया नोटबन्दी का पागलपन-भरा क़दम इतना घातक सिद्ध हुआ कि वह 2019 में घटते-घटते 29 लाख रोज़गार प्रति वर्ष तक पहुँच गया था। कोविड लॉकडाउन के दौरान यह और भी कम हो गया। नोटबन्दी से लेकर कोविड लॉकडाउन के बीच ही क़रीब 4 करोड़ लोग अपने रोज़गार से हाथ धो बैठे थे। इसी दौर में, निजी क्षेत्र में भी नौकरियाँ नहीं पैदा हो रही थीं। नतीजतन, लोगों के बीच सरकारी रोज़गार के लिए बेचैनी और भी बढ़ी और यही कारण है कि पिछले आठ वर्षों में 22 करोड़ लोगों ने सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया हालाँकि इसके एक प्रतिशत को भी नौकरी नहीं मिली।
बेरोज़गारी की दर में निरपेक्ष रूप से बढ़ोत्तरी हो रही है और इसके पीछे एक बड़ा कारण औरतों के बीच रोज़गार की घटती दर है। यह दर आज घटते-घटते सऊदी अरब के बराबर पहुँच चुकी है। यानी इस मामले में अब भारत वाक़ई ‘विश्व गुरू’ बन चुका है और उसकी हालत सबसे दयनीय हो गयी है। कृषि क्षेत्र में बेरोज़गारी दर में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। कोविड लॉकडाउन के दौरान ही क़रीब 3.2 करोड़ लोगों का गाँवों की ओर पलायन हुआ, क्योंकि शहरों में वे अपने रोज़गार खो बैठे थे और नये रोज़गार के अवसर पैदा नहीं हो रहे थे। इसके कारण खेती में पहले से मौजूद भारी छिपी हुई बेरोज़गारी में और बढ़ोत्तरी हुई और वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की औसत मज़दूरी में कमी आयी। ग़रीब किसान आबादी और खेतिहर मज़दूर आबादी पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि उनमें आत्महत्या की दर में भारी बढ़ोत्तरी हुई।
साथ ही, आम तौर पर बेरोज़गारी का मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी या वेतन में भारी कमी आयी है। सरकार आँकड़ों के अनुसार ही कुल रोज़गारशुदा आबादी (जो कि कुल रोज़गार योग्य आबादी का मात्र 40 प्रतिशत है) की औसत आय अभूतपूर्व रूप से घटी है और उसका मात्र 10 प्रतिशत रु. 25,000 प्रति माह कमा पा रहा है। अब आप स्वयं सोचिए कि महँगाई के मौजूदा आलम में हर माह रु. 25,000 में कोई क्या खायेगा, क्या पहनेगा, कहाँ और कैसे रहेगा। और रु. 25,000 या उससे ज़्यादा मासिक आय मात्र 10 प्रतिशत कामगारों की होती है। बाक़ी व्यापक मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी इससे भी कम कमाती है और उसमें भी अस्थायी मज़दूर आबादी मुश्किल से 10 से 15 हज़ार रुपये प्रति माह कमा पाती है। ऐसे में, यह क्या ताज्जुब की बात है कि भारत में कुपोषण, भुखमरी और ग़रीबी के आँकड़ों ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं?
2012 में खुले तौर पर बेरोज़गार लोगों की संख्या 1 करोड़ थी जो कि वास्तविक बेरोज़गारी का 1/25 के क़रीब है। लेकिन 2021 तक यह तादाद बढ़कर 4 करोड़ लोगों तक पहुँच चुकी है। शिक्षाप्राप्त युवा आबादी जो हर वर्ष बेरोज़गारों की इस फ़ौज में जुड़ रही है, उसकी तादाद क़रीब 50 लाख है और इनमें से आधे से ज़्यादा को किसी प्रकार का अस्थायी रोज़गार भी नहीं मिल पा रहा है। बेरोज़गारी की यह विकराल स्थिति क्यों हैं? आइए इसे समझते हैं।
बेरोज़गारी का पहला आधारभूत कारण होता है पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट। बेरोज़गारी की दर तब बढ़ती है, जब पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश की दर घटती है। पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश करने की प्रवृत्ति में कमी कब आती है? हम जानते हैं कि पूँजीपति समाज सेवा के लिए धन्धा नहीं करता है, वह अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए धन्धा करता है। नतीजतन, वह तभी स्वस्थ दर से निवेश करता है, जबकि अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर अच्छी हो। लेकिन मुनाफ़े की औसत दर जब गिरती है, तो निवेश की दर भी गिरती है। जब निवेश की दर गिरती है, तो श्रमशक्ति की माँग में भी गिरावट आती है। और जब श्रमशक्ति की माँग में गिरावट आती है, तो एक ओर बेरोज़गारी बढ़ती है, वहीं दूसरी ओर, रोज़गारशुदा मज़दूर व मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी और वेतन में गिरावट आती है और नतीजतन आम तौर पर समाज में ग़रीबी में बढ़ोत्तरी होती है, लोगों के उपभोग में कमी आती है, ख़रीदारी में कमी आती है। ऐसे में, कई सतही अर्थशास्त्रियों को लगता है कि समाज में लोगों में ख़रीदने की क्षमता में कमी आना संकट का कारण है, जबकि यह केवल लक्षण होता है। यह बात वे समझ जाते यदि वे यह समझ पाते कि क्रय क्षमता में कमी या बढ़ोत्तरी स्वयं कोई प्राकृतिक परिघटना नहीं है, बल्कि मुनाफ़े की दर में आने वाले परिवर्तनों का ही एक लक्षण है।
बहरहाल, सवाल यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में नियमित अन्तरालों पर मुनाफ़े की गिरती दर का संकट पैदा ही क्यों होता है? यह इसलिए होता है कि पूँजीपति वर्ग आपसी प्रतिस्पर्धा के ज़रिए अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस का ग़ुलाम होता है। हर पूँजीपति दो प्रतिस्पर्द्धाओं में लगा होता है : पहली प्रतिस्पर्धा है स्वयं पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्धा। हर पूँजीपति श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर अपने माल के उत्पादन की लागत को कम-से-कम करना चाहता है, ताकि वह अपने माल को अधिक से अधिक सस्ता बेच सके। इसके लिए एक ओर वह मज़दूरों की मज़दूरी को कम-से-कम रखने का प्रयास करता है, जिसकी एक भौतिक सीमा होती है और वहीं दूसरी ओर वह श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्नत से उन्नत मशीनों और तकनोलॉजी का इस्तेमाल करता है। जब कुछ पूँजीपतियों द्वारा उन्नत तकनोलॉजी व मशीनें लगाकर मालों के उत्पादन की लागत को कम किया जाता है, तो उन पूँजीपतियों को अन्य पूँजीपतियों से अधिक मुनाफ़ा, यानी औसत मुनाफ़े से ऊपर अतिरिक्त या बेशी मुनाफ़ा हासिल होता है। क्यों? क्योंकि हर माल की क़ीमत उस माल के उत्पादन की औसत स्थितियों से तय होती है न कि ज़्यादा कुशल व उत्पादक पूँजीपतियों के उत्पादन की स्थिति से। नतीजतन, यदि किसी एक क्षेत्र या सेक्टर के पूँजीपति औसतन अपना माल प्रति इकाई रु. 10 की लागत पर बनाते हैं और उसी क्षेत्र के कुछ पूँजीपति उन्नत मशीनों व तकनोलॉजी के बूते यही माल रु. 5 में बना लेते हैं, तो भी उस समूचे सेक्टर में पैदा हो रहे इस माल का सामाजिक मूल्य रु. 10 ही होता है, लेकिन अधिक उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों का उपयोग करने वाला पूँजीपति उसे रु. 5 से अधिक और रु. 10 से कम क़ीमत पर बेच सकता है। इसके ज़रिए जहाँ उसे औसत मुनाफ़े से ऊपर बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है, वहीं वह बाक़ी पूँजीपतियों को बाज़ार की प्रतियोगिता में पीट सकता है और कालान्तर में निश्चित स्थितियों में उनमें से कुछ को ख़रीदकर निगल भी सकता है। हर सेक्टर में यह प्रक्रिया जारी रहती है और सभी सेक्टरों के बीच भी यह प्रतिस्पर्धा जारी रहती है। लेकिन जब इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा चलती है तो जो पूँजीपति इसमें जीवित बचते हैं, वे भी कालान्तर में उन्नत मशीनें व तकनोलॉजी लगाने को बाध्य होते हैं, ताकि वे प्रतिस्पर्द्धी बने रह सकें। इसके कारण, अन्तत: समूची अर्थव्यवस्था में ही मशीनों और तकनोलॉजी पर निवेश श्रमशक्ति पर निवेश के मुक़ाबले सापेक्षिक तौर पर बढ़ता है। लेकिन हम जानते हैं कि हर माल का मूल्य उसमें लगे औसत सामाजिक श्रम से तय होता है। यदि नये मूल्य को पैदा करने वाले इस जीवित श्रम की मात्रा मशीनों, कच्चे माल, अवरचना आदि पर निवेश के मुक़ाबले सापेक्षिक तौर पर घटती है, यानी जीवित श्रम की मात्रा मृत श्रम (यानी अतीत में श्रम द्वारा उत्पादित उत्पादन के साधनों) के मुक़ाबले घटती है, तो फिर कुल नया उत्पादित मूल्य कुल निवेश के मुक़ाबले सापेक्षिक तौर पर घटता है। और मुनाफ़े की दर क्या है? मुनाफ़े की दर कुल नये उत्पादित मूल्य के एक हिस्से यानी बेशी मूल्य और कुल निवेश का अनुपात होता है। कुल नये उत्पादित मूल्य का दूसरा हिस्सा होता है मज़दूरी, यानी श्रमशक्ति की क़ीमत, जो कि स्वयं कुल निवेश का ही एक हिस्सा होता है। इसलिए यदि उतने ही मज़दूर अधिक अतिरिक्त श्रम करते हैं, उनके शोषण की दर बढ़ती है और इसलिए बेशी मूल्य की दर बढ़ती है, तो मुनाफ़े की दर भी बढ़ती है। ऐसा तब होता है जब उत्पादकता बढ़ती है। लेकिन यदि उत्पादकता नहीं बढ़ रही है और मशीनों, कच्चे माल व अन्य उत्पादन के साधनों पर निवेश बढ़ रहा है, या फिर उत्पादकता के बढ़ने की दर मशीनों, कच्चे माल व अन्य उत्पादन के साधनों पर निवेश के बढ़ने की दर से कम है, तो फिर मुनाफ़े की दर में गिरावट आती है।
इसी प्रकार पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग से भी एक प्रतिस्पर्धा में लगा होता है : नये उत्पादित मूल्य में मज़दूरी को निरपेक्ष और/या सापेक्ष रूप से घटाना और बेशी मूल्य यानी मुनाफ़े के हिस्से को सापेक्षिक और/या निरपेक्ष पर बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा, जबकि मज़दूर वर्ग अपने संगठित संघर्षों के ज़रिए लगातार मज़दूरी के हिस्से को बढ़ाने का प्रयास करता है। इस प्रतिस्पर्धा के जवाब में भी तमाम पूँजीपति वर्ग अधिक से अधिक उन्नत तकनोलॉजी लगाकर मज़दूरों पर अपनी निर्भरता को कम करने का प्रयास करते हैं, छँटनी करते हैं और मज़दूरों की मोलभाव की ताक़त को कम करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए भी पूँजीपति वर्ग को आम तौर पर कुल निवेश में मृत श्रम (यानी उत्पादन के साधनों) पर निवेश को बढ़ाना पड़ता है। जब तक यह प्रक्रिया कुछ पूँजीपतियों तक सीमित होती है, तब तक कुल अर्थव्यवस्था की मुनाफ़े की औसत दर पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि उन पूँजीपतियों को बेशी मुनाफ़ा हासिल होता है। लेकिन जैसे-जैसे अधिकांश पूँजीपति इस प्रतिस्पर्धा में उन्नत मशीनों व तकनोलॉजी पर निवेश को बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे कुल अर्थव्यवस्था की मुनाफ़े की औसत दर में कमी आती है। यानी इन दोनों ही प्रतिस्पर्द्धाओं के कारण पूँजीपति वर्ग द्वारा उत्पादन के साधनों पर निवेश श्रमशक्ति पर निवेश के सापेक्ष बढ़ता जाता है और मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट की प्रवृत्ति पैदा होती है।
यानी बाज़ार पूँजीपति वर्ग को इन दो प्रतिस्पर्द्धाओं में लगातार लगे रहने को बाध्य करता है और मज़दूरों के शोषण की दर को बढ़ाने और बेशी मूल्य की दर को बढ़ाने के लिए जिन तरीक़ों का इस्तेमाल किया जाता है, ठीक उन्हीं तरीक़ों के चलते अन्तत: मुनाफ़े की दर में गिरने की प्रवृत्ति पैदा होती है, जो नियमित अन्तरालों पर पूँजीवादी व्यवस्था को अपने आगोश में लेती रहती है। आज हम जिस आर्थिक संकट के साक्षी बन रहे हैं वह पूँजीपति वर्ग की इसी मुनाफ़े की हवस से पैदा हुआ मुनाफ़े की गिरती औसत दर का संकट ही है। आइए इसे कुछ आँकड़ों से समझते हैं।
सकल घरेलू उत्पाद की दर बिल्कुल सटीकता से मुनाफ़े की औसत दर को नहीं दिखलाती लेकिन यह उसका एक लक्षण अवश्य होती है। हमारे देश में 2003-04 से लेकर 2014-15 के बीच सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर औसतन 8 प्रतिशत रही थी, जो कि कुछ मामलों में हमारे देश के आधुनिक इतिहास में अभूतपूर्व थी। लेकिन 2015 से और विशेष तौर पर 2016 से इसमें तेज़ी से गिरावट आनी शुरू हो गयी। इसमें नोटबन्दी और फिर अनियोजित तरीक़े से मोदी सरकार द्वारा थोपे गये लॉकडाउन की विशेष भूमिका थी। लेकिन इन कारकों ने बाह्य प्रेरक शक्तियों की ही भूमिका निभायी क्योंकि वैश्विक तौर पर मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का संकट 2012 से ही भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ़्त में लेने लगा था। मोदी सरकार की पूँजीपरस्त और कई बार मूर्खतापूर्ण जनविरोधी नीतियों ने इस संकट को और गहरा बना दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि 2020 तक यह वृद्धि दर घटते-घटते 4 प्रतिशत तक आ पहुँची और उसके बाद लॉकडाउन के दौरान शून्य तक जा पहुँची। इसका अर्थ यह था कि निवेश दर लगातार घटती गयी। 2014 में जो निवेश दर सकल घरेलू उत्पाद के 31 प्रतिशत के ऊपर थी, वह घटते-घटते 25 प्रतिशत के भी नीचे चली गयी, जो कि भारी गिरावट थी। इसका अर्थ था रोज़गार सृजन की दर लगातार नीचे गिरना। इसके साथ ही बेरोज़गारी की दर तेज़ी से बढ़ी और अभी भी बढ़ रही है। इसका एक कारण यह भी है कि उत्पादक अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की दर का संकट होने के कारण पूँजीपति सट्टेबाज़ी और वित्तीय क्षेत्र में निवेश कर रहे हैं। इस प्रकार के निवेश से बड़े पैमाने पर रोज़गार नहीं पैदा होते हैं।
जैसा कि हम देख सकते हैं, मौजूदा बेरोज़गारी के हालात पूँजीवादी व्यवस्था के संकट का परिणाम हैं, जो और कुछ नहीं बल्कि मुनाफ़े की गिरती औसत दर का संकट है जो नियमित तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी गिरफ़्त में लेता रहता है। और बेरोज़गारी के इस संकट को और अधिक विकराल रूप देने का काम किया मोदी सरकार की नंगी और बेशर्म पूँजीपरस्त नीतियों ने। नोटबन्दी और अनियोजित और जनविरोधी रूप में लागू किये गये लॉकडाउन की विनाशकारी नीतियों ने विशेष तौर पर यह काम किया। लेकिन उसके बाद भी मोदी सरकार द्वारा पूँजीपति वर्ग के लिए मुनाफ़े की दर को बेहतर बनाने के लिए उठाये गये तमाम क़दमों ने बेरोज़गारी को बढ़ाने और औसत मज़दूरी और जनता की औसत आय को घटाने का ही काम किया है। चाहे वह नये लेबर कोड लागू करने की तैयारी हो, लगातार जनता पर बढ़ाया जा रहा अप्रत्यक्ष करों का दबाव हो, या फिर पूँजीपतियों को देश की प्राकृतिक सम्पदा और श्रमशक्ति को खुलकर लूटने के लिए दी जाने वाली छूट हो। संकट से बिलबिला रहे पूँजीपति वर्ग ने आठ वर्ष पहले मोदी के नेतृत्व वाली फ़ासीवादी भाजपा को हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके सत्ता में पहुँचाया था और यही काम मोदी सरकार कर रही है। मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी ने पिछले आठ वर्षों के अपने अनुभव से समझ लिया है कि फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा से बड़ा दुश्मन जनता का कोई नहीं है। लेकिन यह समझना ही काफ़ी नहीं है। सर्वहारा वर्ग को मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों के क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को संगठित करना होगा, चाहे वह बेरोज़गारी का मुद्दा हो, लेबर कोड का मुद्दा हो, मोदी सरकार की फ़ासीवादी और पूँजीपरस्त नीतियों का प्रश्न हो, या फिर साम्प्रदायिकता और जाति-धर्म आदि पर जनता को बाँटने की संघ परिवार की लगातार जारी साज़िशों का प्रश्न हो।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022
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