सवर्णवादी वर्चस्ववाद और गुण्डागर्दी का फिर शिकार हुआ एक दलित युवक

– आशीष

राजस्थान के पाली ज़िले का रहने वाला एक दलित युवक जितेन्द्र पाल मेघवाल पूँजीवाद ब्राह्मणवाद के नापाक गठजोड़ का शिकार हो गया। पाली ज़िले के बाली स्थित सरकारी अस्पताल में कार्यरत जितेन्द्र विगत 15 मार्च को हॉस्पिटल में ड्यूटी करने के बाद अपने सहकर्मी के साथ मोटरसाइकिल से घर वापस लौट रहा था। लौटने के क्रम में दो स्वर्णवादी गुण्डों ने चाकू से उसपर कई वार किये। इलाज के दौरान जितेन्द्र की मौत हो गयी, मौत से पहले उन्होंने परिजनों को सूरज सिंह एवं रमेश सिंह नामक अपराधियों के बारे में बताया।
मृतक के परिजनों ने कहा है कि जितेन्द्र तनी हुई मूछें रखते थे, यह बात गाँव के स्वर्ण समाज के लोगों के लिए स्वीकार्य नहीं था। कोई दलित व्यक्ति बढ़िया कपड़ा पहने, मूछें रखे यह बात उन्हें कैसे हज़म हो सकती है जिनके दिमाग़ में जातिवाद के गन्दे कीड़े भरे हों! लगभग दो साल पहले किसी मुद्दे पर मृतक और दोनों आरोपियों के बीच विवाद हुआ था। जितेन्द्र ने इस मामले की रिपोर्ट भी दर्ज करवायी थी। उस विवाद के समय से ही ये दोनों स्वर्णवादी गुण्डे इस बात से परेशान थे कि कोई दलित उसके सामने आँखें उठाकर कैसे बात कर सकता है! दोनों आरोपी मामले को वापस लेने के लिए बराबर धमकी देते रहते थे। लेकिन जितेन्द्र बहादुरी से अड़ा रहा। मामला वापस नहीं लिये जाने की क़ीमत जितेन्द्र ने अपनी जान देकर चुकायी।
यह कोई पहली या आख़िरी घटना नहीं है, जब किसी दलित को इस क़िस्म के बर्बर तरीक़े से मारा गया हो। पहले भी कभी मूछें रखने के कारण, तो कभी शादी में घोड़ी चढ़ने के कारण, तो कभी गरबा देखने के कारण और भी ना जाने कितने ऐसे वाहियात कारणों से कई दलितों को अपनी ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ा है। जो लोग बहुजन एकता या ओबीसी-दलित एकता की बात करते हैं, उन्हें इस तथ्य पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए कि ऐसी तमाम वारदातों को अंजाम देने का काम स्वर्ण जाति से आने वाले लोग या ज़्यादातर मध्य जातियों से आने वाले उच्च वर्ग के लोग करते हैं तथा इसका शिकार 100 में से 99 मामलों में मेहनतकश दलित होते हैं। ज़्यादातर मामलों में अपराधी को सज़ा नहीं मिल पाती क्योंकि इन्हें पुलिस प्रशासन से लेकर बड़े-बड़े बुर्जुआ चुनावबाज़ राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से संरक्षण प्राप्त होता है। जब तक हम ऐसी घटनाओं का वर्गीय और मज़दूर-विरोधी चरित्र नहीं पहचानते, तब तक हम उनके ख़िलाफ़ लड़ भी नहीं सकते। जातिवादी विचारों का प्रभाव मज़दूरों के बीच भी होता है। हम मज़दूरों को यह समझ लेना चाहिए कि हमारा दुश्मन दलित नहीं है, बल्कि सभी जातियों के मज़दूरों को लूटने वाला पूँजीपति वर्ग और अमीर वर्ग है। जातिवाद हमें आपस में ही बाँटकर लड़ाता है, ताकि हम एकजुट होकर अपने असली दुश्मन के ख़िलाफ़ लड़ न सकें। दूसरी तरफ़, शासक चाहे दलितों के बीच पैदा हुए छोटे-से अमीर वर्ग से आता हो या फिर स्वर्णवादी हो, उनके बीच दरवाज़े पीछे गलबहिंयाँ जारी रहती हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि किस प्रकार बहुजन समाज पार्टी की मायावती से लेकर जस्टिस पार्टी के उदित राज और रामविलास पासवान जैसे नेता किस प्रकार सबसे ज़्यादा दलित-विरोधी पार्टी भाजपा की गोद में जा बैठते हैं। वहीं हमें आपस में जातियों में बाँटकर रखा जाता है, ताकि हम ग़ैर-मुद्दों पर आपस में सिर-फुटौव्वल करते रहें।
बहरहाल, इस मामले में भी पुलिस का कहना है कि घटना का कारण पुरानी रंजिश है। ऐसा कहकर पुलिस प्रशासन समाज में पसरे हुए जातिवाद की घृणित मानसिकता पर पर्दा डालने का प्रयास कर रहा है। अभी फ़िलहाल दोनों आरोपी गिरफ़्तार कर लिये गये हैं लेकिन पीड़ित परिवार को न्याय मिलेगा इसकी कितनी उम्मीद की जा सकती है? राज्य में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। इससे पहले भी 2020 में मूछें रखने के कारण बीकानेर में प्रदीप कुमार नामक एक दलित युवक की हत्या कर दी गयी थी तथा मूछें रखने के कारण कई सारे दलितों को पिटाई का भी सामना करना पड़ा, गहलोत सरकार प्रशासन इसको रोकने में नाकाम रहा है।
जब से केन्द्र में फ़ासीवादी मोदी सरकार सत्ता में आयी है तब से पूरे देशभर में दलित-विरोधी एवं अल्पसंख्यक-विरोधी घटनाओं में ज़बर्दस्त वृद्धि हुई है। आज भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवाद सरकार पूँजीपतियों को मज़दूरों की लूट की खुली छूट दे रही है, निजीकरण के ज़रिए बेरोज़गारी बढ़ा रही है, ग़रीब किसानों को उजाड़ रही है, महँगाई और भ्रष्टाचार को बढ़ा रही है और देश के श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी पूँजी के लिए लूट का खुला चरागाह बना रही है। ऐसे में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के लिए ज़रूरी है कि वह देश के मज़दूरों, निम्न मध्यवर्ग और ग़रीब किसानों के सामने एक काल्पनिक शत्रु यानी नक़ली दुश्मन खड़ा करे। दलितों व धार्मिक अल्पसंख्यकों को शत्रु के रूप में खड़ा करना इन ब्राह्मणवादी फ़ासीवादी ताक़तों का पुराना तरीक़ा रहा है। दलितों, आदिवासियों व अन्य अल्पसंख्यकों को “महान प्राचीन हिन्दू संस्कृति”, “महान सनातन धर्म” के लिए ख़तरा बताना और महँगाई और भ्रष्टाचार का कारण बताना और साथ ही उन्हें “राष्ट्र का शत्रु” बताना आसान होता है। यही कारण है कि ब्राह्मणवादी भारतीय पूँजीवादी सत्ता हमेशा ही दलितों और धार्मिक व अन्य अल्पसंख्यकों को एक काल्पनिक शत्रु के रूप में खड़ा करती है, ताकि पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, असुरक्षा के लिए लोग पूँजीवाद को निशाना बनाने की बजाय, अपनी प्रतिक्रिया का निशाना इन अरक्षित समुदायों को बनायें। ग़ैर-दलित मज़दूर-मेहनतकश आबादी व आम जनता जो ब्रह्मणवादी मानसिकता की शिकार हो जाती है ख़ासकर उनके बीच इन फ़ासीवादी चालों की असलियत को बताना होगा।
इसके साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि दलितों की आबादी के बीच से निकले पाँच से छह फ़ीसदी लोग जो आज सुविधाभोगी बन चुके हैं, वह शासक वर्ग का हिस्सा हैं उन्हें आज विशेष दिक़्क़तों का सामना नहीं करना पड़ रहा है, इसलिए वह जाति से मुक्ति की लड़ाई में हमारे साथ नहीं आयेगा। दलितों के बीच से निकली हुई यह सुविधाभोगी जमात इस प्रकार की घटना पर केवल ज़ुबानी जमा ख़र्च ही से काम चला लेती है, सड़क पर उतरकर संघर्ष करने का माद्दा इसके भीतर कहीं से भी मौजूद नहीं है। अस्मिता या पहचान की राजनीति से भी जाति उन्मूलन सम्भव नहीं है, क्योंकि आप जब दलितों को एक हो जाने की अपील करते हैं तो दूसरी विरोधी अस्मिता भी एकजुट होती है। एक बात और ग़ौर करने लायक़ है आज भी दलितों की 90 फ़ीसदी आबादी शहरी या ग्रामीण मज़दूर हैं। खेतिहर मज़दूरों का 47 प्रतिशत हिस्सा दलित आबादी का है। कुल मज़दूर आबादी का भी क़रीब 30 प्रतिशत हिस्सा दलित मज़दूर हैं। 80 प्रतिशत से ज़्यादा दलित छात्र ग़रीबी के चलते अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। ऐसे में, यह समझना बेहद आसान है कि दलित उत्पीड़न का एक स्पष्ट वर्ग चरित्र है। यह ज़रूर है कि वह मज़दूर जो कि दलित है, वह किसी भी अन्य मज़दूर से ज़्यादा शोषित है क्योंकि उसकी सामाजिक स्थिति ज़्यादा कमज़ोर है। कहा जा सकता है कि हर मज़दूर शोषित है लेकिन दलित मज़दूर अपनी अरक्षित सामाजिक स्थिति के कारण अति-शोषित है और साथ ही, हर दलित जातिगत अपमान का दंश झेलता है लेकिन मेहनतकश दलित जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों का शिकार होते हैं क्योंकि वे वर्गीय तौर पर मज़दूर वर्ग से आते हैं।
इन आँकड़ों से साफ़ स्पष्ट होता है कि वर्गीय दृष्टिकोण को छोड़कर पहचान या अस्मिता के आधार पर जातिगत भेदभाव को ख़त्म नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ अर्ज़ियाँ लिखने, संविधान की दुहाई देने से जातिवाद के क़िले को नहीं गिराया जा सकता है, इस रास्ते से जातिवाद के ख़ात्मे के बारे में सोचना एक व्यवहारवादी सोच है। व्यवहारवादी सोच वाले लोग यह मानते हैं कि राज्यसत्ता या सरकार के द्वारा ही कोई बदलाव होता है लेकिन वास्तव में स्थिति अलग है समाज में कोई भी बड़ा बदलाव सत्ता से प्रार्थना करके नहीं बल्कि जुझारू तरीक़े से विरोध करके या विद्रोह करके किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि बदलाव ऊपर से नहीं बल्कि जनता के द्वारा होता है व्यवहारवादी लोग इस बात को नहीं समझ पाते हैं।
भारतीय समाज में फैली जाति प्रथा के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए वर्ग आधारित जाति विरोधी आन्दोलन को खड़ा करने की आवश्यकता है तब जाकर ऐसी दलित विरोधी घटनाओं की संख्या में कमी आ सकती है। एक बात और हमें गांठ बांध लेनी चाहिए कि मेहनतकश लोगों की वर्ग एकता के दम पर ही ब्राह्मणवादी ताक़तों को हराया जा सकता है, जाति का सम्पूर्ण अन्त पूँजीवादी व्यवस्था के दायरों के भीतर असम्भव है। बिना क्रान्ति किये जाति उन्मूलन सम्भव नहीं! बिना जाति-विरोधी संघर्ष के क्रान्ति सम्भव नहीं!

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022


 

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