मज़दूर और मेहनतकश दोस्तो! सावधान!
फ़ासिस्ट मोदी सरकार का फ़ार्मूला है : ‘ग़रीबों पर टैक्स का बोझ बढ़ाओ + पूँजीपतियों को छूट-रियायतों के तोहफ़े दो + जनता को धर्म के नाम पर उन्माद फैलाकर आपस में लड़ाओ + पूँजीपतियों की हुकूमत को क़ायम रखो!’
इस साज़िश में मत फँसो! अपनी वर्ग एकजुटता बनाओ!
असली दुश्मन को पहचानो!

– सम्पादकीय

चार राज्यों में विधानसभा चुनावों के समाप्त होते ही मोदी सरकार ने क़रीब दस दिनों तक हर रोज़ पेट्रोल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी की। अब हालत यह है कि पेट्रोल की क़ीमत 100 का आँकड़ा पार कर चुकी है और डीज़ल की क़ीमत 100 के आँकड़े को छूने के क़रीब जा रही है। हम मज़दूर-मेहनतकश जानते हैं कि पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमत बढ़ने का मतलब है हर चीज़ की क़ीमत बढ़ना। इससे न सिर्फ़ पेट्रोल, डीज़ल, सीएनजी और रसोई गैस की क़ीमतों में सीधे बढ़ोत्तरी होती है, बल्कि लगभग हर सामान की क़ीमत में बढ़ोत्तरी होती है। वजह यह है कि हर सामान के उत्पादन की जगह से बाज़ार तक पहुँचने में परिवहन की भूमिका होती है और पेट्रोलियम उत्पादों के महँगे होने का अर्थ है परिवहन की लागत बढ़ना जो कि माल की क़ीमत में जाता है। कोई भी पूँजीपति इस बढ़ोत्तरी को अपनी जेब से नहीं चुकाता है, बल्कि उसका बोझ जनता के ऊपर डाला जाता है। साथ ही, बहुत-से उत्पादों के उत्पादन में पेट्रोलियम उत्पाद कच्चे माल या मध्यवर्ती/सहायक उत्पाद के रूप में लगते हैं। उन वस्तुओं की क़ीमत भी पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमत में बढ़ोत्तरी के साथ बढ़ती है। संक्षेप में, कुल मिलाकर महँगाई में बढ़ोत्तरी होती है।
सरकार पेट्रोलियम की क़ीमत बढ़ाने के लिए तरह-तरह के तर्क दे रही है, जिस पर हम आगे आयेंगे। अभी बस इतना ही बता दें कि ये तर्क वास्तव में कुतर्क हैं, जो कि सफ़ेद झूठ पर आधारित हैं। ग़ौर करने वाली बात यह है कि जब पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ाकर व्यापक मेहनतकश आबादी की जेब पर डाका डाला जा रहा है तो उसी समय उन राज्यों में धार्मिक उन्माद फैलाकर दंगे भड़काये जा रहे हैं, जहाँ चुनाव होने हैं। विक्रम संवत नववर्ष से लेकर रामनवमी व नवरात्र के दौरान देशभर में संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों द्वारा रैलियाँ निकालकर मस्जिदों पर भगवा झण्डा फहराने, भड़काऊ भाषण देने, मुसलमान महिलाओं को बलात्कार की धमकी देने, मुसलमानों पर हमले करने का काम किया गया। इसके वीडियो प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन समूची भगवा फ़ासीवादी सत्ता इन दंगाइयों और गुण्डों के साथ खड़ी है। और खड़ी हो भी क्यों नहीं? यह सब इन्हीं फ़ासीवादियों की तयशुदा योजना के तहत ही तो हो रहा है!
क्या आपने सोचा है कि एक तरफ़ जनता पर करों का बोझ लादकर उसकी जेबों पर डाके डालने का काम करते हुए मोदी सरकार और संघ परिवार अचानक ठीक उन्हीं राज्यों में दंगे क्यों भड़का रहे हैं जिनमें चुनाव हैं? क्या आपने सोचा है कि हर ऐसे दंगे में हम मज़दूरों और मेहनतकशों के साथ क्या होता है, चाहे हम हिन्दू हों, मुसलमान हों, किसी अन्य धर्म के हों, दलित हों या स्वर्ण हों, किसी भी जाति के हों? जी हाँ! हमारे ही घर जलते हैं, हमारे ही लोग मरते हैं। हमारे भीतर हमारे ही भाइयों-बहनों के बारे में डर और नफ़रत भरने का काम किया जाता है। मसलन, हिन्दू मज़दूरों को बताया जाता है कि देश की सभी समस्याओं के ज़िम्मेदार तो मुसलमान हैं; वहीं मुसलमान कट्टरपन्थी ताक़तें इसके जवाब में इस्लामी धार्मिक कट्टरपन्थ की सिगड़ी गर्म करती हैं। नतीजा होता है साम्प्रदायिक तनाव और दंगे जिसमें हमेशा आम मेहनतकश लोग अपनी जान-माल से क़ीमत चुकाते हैं। क्या आपको पता है कि भाजपा या ए.आई.एम.आई.एम. का कोई नेता दंगों में मरा हो या उनका घर जला हो? जी नहीं! जब आप इनके द्वारा फैलाये गये धार्मिक उन्माद में बहकर एक-दूसरे के साथ सिर-फुटौव्वल कर रहे होते हैं, तो सारे ही प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी आपस में भोज कर रहे होते हैं, जाम छलका रहे होते हैं और आप पर हँस रहे होते हैं।
यह सारा धार्मिक उन्माद इसलिए फैलाया जाता है कि हम मज़दूर-मेहनतकश देख ही न पायें कि हमें सरकार और पूँजीपति वर्ग किस प्रकार लूट रहा है, किस प्रकार करों का बोझ बढ़ाकर हमारी जेबों को ख़ाली किया जा रहा है, किस प्रकार हमारी वास्तविक मज़दूरी घटायी जा रही है, किस प्रकार बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके मालिकों और धन्नासेठों को हमें बेरोक-टोक लूटने की खुली छूट दी जा रही है। हमें राम के नाम पर परलोक में सुख का सपना दिखाकर इहलोक में दरिद्रता और अभाव के गर्त में धकेल दिया जाता है। हमें बताया जा रहा है कि भूखे रहो, मगर “राष्ट्र” (पढ़िए: पूँजीपतियों!) की सेवा करो, “रामराज्य” में चुपचाप अपने “कर्तव्य” निभाओ! ज़रा सोचिए, इससे किसे फ़ायदा होता है और किसे नुक़सान?
हम भी कई बार अपने जीवन की कठोर और कड़वी सच्चाई को भूलकर मज़हबी जुनून में बह जाते हैं। इसकी एक वजह यह भी होती है कि हम अपने जीवन की हाड़तोड़ मेहनत, भूख, अभाव, अशिक्षा, असुरक्षा और अनिश्चितता से थके और हताश होते हैं, चिड़चिड़ाये हुए होते हैं। फ़ासीवादी संघ परिवार और तमाम धार्मिक कट्टरपन्थी ताक़तें हमारी इसी हालत का फ़ायदा उठाती हैं। हिन्दू मज़दूरों को फ़ासीवादी संघ परिवार बताता है कि मुसलमान दुश्मन हैं और अतीत के किसी काल्पनिक “राष्ट्र-गौरव” की याद दिलाते हैं, किसी “रामराज्य” का हवाला देते हैं और इन नक़ली “स्वर्ण युग” की बात कर मुसलमानों को उसके ख़त्म होने के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं और बताते हैं कि अगर मुसलमानों को “सबक़ सिखाया जाये”, “उन्हें औक़ात में रखा जाये” तो उस काल्पनिक गौरवशाली अतीत की वापसी हो जायेगी! सब कुछ ठीक हो जायेगा! “रामराज्य” आ जायेगा! इस्लामिक कट्टरपन्थी अपने जीवन की बदहाली से थके मुसलमान मज़दूरों-मेहनतकशों को जवाब में धार्मिक जुनून में बहाने का प्रचार करता है और अपने आप में सिमट जाने के लिए प्रेरित करता है। अन्य धर्मों के धार्मिक कट्टरपन्थी भी यही करते हैं। एक कट्टरपन्थ के बिना दूसरा कट्टरपन्थ पनपना नामुमकिन है। ये सारे एक दूसरे की दुकान चलाने में एक दूसरे की मदद करते हैं।
अपने जीवन की कठिनाइयों से थके-हारे होने के कारण हममें से कई मेहनतकश भाई-बहन भी इस झाँसे और झूठ में आकर अपने ही वर्ग के भाइयों-बहनों के ख़ून के प्यासे हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई क्या है? ऐसा कोई गौरवशाली स्वर्णयुग, “रामराज्य”, सतयुग साहित्य की प्राचीन किताबों के अतिरिक्त कभी कहीं था ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि शोषणकारी वर्ग समाज के सभी युग अमीरों और धन्नासेठों के लिए, पूँजीपतियों और ज़मीन्दारों के लिए स्वर्ण युग ही होते हैं। लेकिन हमारे लिए शोषण पर आधारित वर्ग समाज का हर दौर एक अन्धकार युग ही रहा है। हमें हमेशा ही शोषण और उत्पीड़न का दंश झेलना पड़ा है। इसलिए नहीं कि हम कम हैं और हमारे दुश्मन, यानी पूँजीपति, धन्नासेठ, धनी व्यापारी और दुकानदार संख्या में हमसे ज़्यादा हैं। वे इसलिए हम पर शासन क़ायम रखने में कामयाब हैं, क्योंकि वे राजनीतिक तौर पर संगठित हैं और हम राजनीतिक तौर पर असंगठित, क्योंकि वे हमें धर्म-जाति के नाम पर गुमराह करने में कामयाब हो जाते हैं, क्योंकि वे हमें ख़ैरात देकर हमारा मुँह बन्द करने में कामयाब हो जाते हैं, क्योंकि वे हमें रोटी और रोज़गार की जगह मन्दिर-मस्जिद का झुनझुना पकड़वाने और आपस में ही सिर-फुटौव्वल करवाने में सफल हो जाते हैं। इन बातों पर ज़रा सोचिए मज़दूर और मेहनतकश दोस्तो, बहनो-भाइयो!
यही है फ़ासीवादी मोदी सरकार का फ़ार्मुला जिसका इस्तेमाल कर हम मज़दूरों-मेहनतकशों को संगठित होकर अपने असली दुश्मन को पहचानने और उसके ख़िलाफ़ जुझारू संघर्ष करने में अक्षम बनाया जा रहा है: जनता को करों का बोझ बढ़ाकर लूटो + पूँजीपतियों को हमारी मेहनत की लूट के ज़रिए मुनाफ़ा पीटने की पूरी छूट दो + हमारे श्रम अधिकारों को छीनो और हमें हमारे “कर्तव्यों” का हवाला दो + जो अपने अधिकारों की बात करे उसे “देशद्रोही” क़रार दो + मेहनतकश जनता को तोड़ देने और खण्ड-खण्ड में बाँट देने के लिए धार्मिक उन्माद फैलाओ, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करो। अब यह चाल इतनी बार इस्तेमाल की जा चुकी है कि हमें इसे समझ लेना चाहिए और इसके फन्दे में अपनी गर्दन नहीं देनी चाहिए।
हमें समझ लेना चाहिए कि समाज में आज दो मुख्य जमातें हैं और प्रधान अन्तरविरोध उनके बीच है। अन्य सभी जमातें राजनीतिक तौर पर इन दोनों में से किसी एक पक्ष में खड़ी हैं। एक जमात है मुट्ठीभर पूँजीपतियों और धन्नासेठों की और दूसरी जमात है करोड़ों-करोड़ मज़दूरों-मेहनतकशों की जिनकी मेहनत की लूट के बूते मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था चल रही है।
हमें समझ लेना चाहिए कि हमारे दुश्मन दूसरे धर्म या दूसरी जातियों के लोग नहीं हैं। वे तो हमारे वर्गीय भाई और बहन हैं। वे तो हमारे साथी हैं। जब क़ीमतें बढ़ती हैं, तो हम सबको नुक़सान होता है। जब श्रम क़ानूनों को कचरा-पेटी के हवाले किया जाता है तो हम सबके अधिकार छिनते हैं। जब बेरोज़गारी, छँटनी-तालाबन्दी बढ़ती है, तो हम सबके पेट पर लात पड़ती है। हमारे हितों में अलग क्या है? यह कि हम अलग-अलग मज़हबों को मानते हैं? मज़हब या धर्म तो हमारा व्यक्तिगत मसला है। कोई कौन-से धर्म को मानता है, क्या खाता है, क्या पहनता है, या कोई भी धर्म नहीं मानता, यह उसका व्यक्तिगत मसला है। इससे समाज और राजनीति का क्या लेना-देना? क्या किसी दूसरे धर्म वाले ने आपका कुछ बिगाड़ा? नहीं! क्या उसके द्वारा अपनी पूजा-अर्चना की पद्धति पर अमल करने से आपका कोई नुक़सान हुआ? नहीं! इतनी सदियों से नहीं हुआ, तो अभी भी नहीं हो रहा है। आपके बीच झगड़ा तो फ़ासीवादी और फ़िरकापरस्त ताक़तें फैला रही हैं ताकि आप अपने असली दुश्मन यानी मालिकों, ठेकेदारों, धन्नासेठों के पूरे वर्ग को दुश्मन के तौर पर पहचान न पायें, उन्हें कठघरे में न खड़ा कर पायें।
हमें समझ लेना चाहिए कि सारे ही धर्मों और जातियों के मज़दूरों-मेहनतकशों में कोई दुश्मनी या अन्तरविरोध नहीं है, बल्कि हमारे असली दुश्मन समूचा पूँजीपति वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियाँ और आज के दौर में ख़ास तौर पर उसकी नुमाइन्दगी कर रही फ़ासीवादी भाजपा और मोदी सरकार हैं। ये ही वे ताक़तें हैं जो अपनी कुर्सी, अपनी ऐय्याशियों, अपने ऐशो-आराम, अपने महलों-बंगलों को सुरक्षित रखने के लिए, हमारी मेहनत की लूट पर टिकी व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए हमें धर्म के नाम पर एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा बना रही हैं, भाई को भाई का ख़ून पीना सिखा रही हैं। हम भी अपने जीवन की श्रान्ति-क्लान्ति से पैदा हताशा में कई बार इस धार्मिक उन्माद और जुनून में बह जाते हैं। हमें इसे रोकना होगा वरना हमारी बर्बादी इसी तरह से जारी रहेगी।
साम्प्रदायिक उन्माद का निशाना अब केवल मुसलमान व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं बन रहे हैं, बल्कि ग़रीब मेहनतकश हिन्दू भी बन रहे हैं। हत्या और आगजनी के लिए सड़क पर घूम रही हत्यारी फ़ासीवादी भीड़ अपने जुनून में धर्म और जाति नहीं देखती। उसके निशाने पर समूची मज़दूर-मेहनतकश आबादी और मज़दूर आन्दोलन होता है। इस प्रकार की तमाम घटनाएँ अब सामने आ चुकी हैं, जब बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय के ग़रीब मेहनतकश इस साम्प्रदायिक उन्माद का निशाना बन चुके हैं। वास्तव में, पूँजीपति वर्ग इन फ़ासीवादी वाहिनियों का इस्तेमाल मज़दूरों को डराकर रखने, उनके आन्दोलनों को “राष्ट्रदोही” क़रार देकर कुचलने में भी करता है। ये फ़ासीवादी वाहिनियाँ वे आतंकवादी दस्ते हैं, जिनका असली निशाना मज़दूर-मेहनतकश आबादी है, जिनका लक्ष्य इस आबादी को पूँजीपतियों की उजरती ग़ुलामी में अनुशासित रखना है। उन्हें दिखाने के लिए एक नक़ली दुश्मन चाहिए होता है। आम तौर पर भारत में उनके लिए यह दुश्मन मुसलमान होता है, लेकिन अलग-अलग इलाक़ों में वे किसी न किसी अल्पसंख्यक समुदाय को छाँट लेते हैं, जो भाषा, क्षेत्र, प्रवासी-मूलनिवासी के आधार पर अल्पसंख्यक होता है। लेकिन इस ऊपरी नक़ली दुश्मन के पीछे फ़ासीवाद का असली दुश्मन है मज़दूर वर्ग क्योंकि फ़ासीवाद वास्तव में बड़ी पूँजी की नग्न और बर्बर तानाशाही को टुटपुँजिया आबादी का एक प्रतिक्रियावादी, कट्टरपन्थी, फ़िरकापरस्त आन्दोलन खड़ा करके और उसे बड़ी पूँजी की सेवा में सन्नद्ध करके लागू करने के लिए खड़ा किया गया एक प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ (पूँजीवादी) आन्दोलन है। मोदी सरकार ने सारे धार्मिक उन्माद, दंगों, सीएए-एनआरसी, मन्दिर-मस्जिद की नौटंकी के पीछे जो असली काम किया है, क्या वह वास्तव में पूँजीपतियों की खुली और नंगी सेवा नहीं है? क्या देश के सबसे बड़े पूँजीपति यूँ ही भाजपा को अरबों-अरब रुपये का चन्दा दे रहे हैं? ज़रा सोचिए मज़दूर व मेहनतकश दोस्तो! इस फ़ासीवादी राजनीति की असलियत को पहचानिए।
अब देखते हैं कि पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतें बढ़ाने के पीछे मोदी सरकार के क्या तर्क हैं और वह किस प्रकार हमें बेवक़ूफ़ बना रही है।
लाख दंगे फैलाये जायें लेकिन पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों और नतीजतन अन्य सभी बुनियादी ज़रूरी चीज़ों की बढ़ती क़ीमतों से जनता बदहाल है और उसके भीतर ग़ुस्सा है। ऐसे में, उन राज्यों में भाजपा को चुनावों में उल्टी हवा का सामना करना पड़ सकता है जहाँ अभी चुनाव होने वाले हैं। इसलिए भाजपा सरकार लगातार पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी को सरकार की मजबूरी और रूस-यूक्रेन युद्ध के फलस्वरूप विश्व बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी का नतीजा बता रही है। आइए सच्चाई को समझ लेते हैं।
मोदी सरकार का दावा है कि अप्रैल 2021 से अप्रैल 2022 के बीच अमेरिका में 41 प्रतिशत, इंग्लैण्ड में 29 प्रतिशत, जर्मनी में 25 प्रतिशत, फ़्रांस में 31 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया में 6 प्रतिशत की दर से पेट्रोल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी हुई है जबकि भारत में केवल 14 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ है कि भारत इससे पहले ही पेट्रोल की क़ीमतों में पर्याप्त बढ़ोत्तरी कर चुका था और फ़रवरी 2020 में पेट्रोल की अन्तरराष्ट्रीय क़ीमतों में गिरावट के बावजूद भारत में पेट्रोल की क़ीमतों को बढ़ाया ही गया था, जबकि अन्य देशों में ऐसा नहीं हुआ था। इसलिए वास्तविक तुलना होगी जनवरी 2020 से आज यानी अप्रैल 2022 की क़ीमतों में। जब हम यह तुलना करते हैं तो हम क्या देखते हैं? भारत में इन दो वर्षों में पेट्रोल की क़ीमतों में 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इसी दौर में इंग्लैण्ड में 27 प्रतिशत, जर्मनी में 29 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया में 17 प्रतिशत वृद्धि हुई है। केवल अमेरिका में इस दौर में इससे ज़्यादा यानी 58 प्रतिशत वृद्धि हुई, जिसका कारण मध्य-पूर्व में अमेरिका की ढीली पड़ती पकड़ और आर्थिक नुक़सान में निहित हैं। लेकिन अन्य सभी देशों के मुक़ाबले भारत में पेट्रोल की क़ीमतों में वृद्धि कहीं ज़्यादा है।
साथ ही मोदी सरकार ने अलग-अलग देशों में क्रय क्षमता समानता सूचकांक (परचेज़िंग पावर पैरिटी इण्डेक्स) को ग़ायब करके पेट्रोल की क़ीमतों में तुलना की, जिसके ग़लत नतीजे भारत की जनता के सामने पेश किये गये। इस सूचकांक का अर्थ यह है कि यदि अमेरिका में कोई व्यक्ति एक डॉलर में कोई वस्तु ख़रीदता है, तो उसे अपने देश में उसके लिए कितना ख़र्च करना पड़ता है। अगर हम आज इस सूचकांक पर नज़र डालें तो जब कोई अमेरिका में 1 डॉलर में कोई वस्तु ख़रीदता है, तो उसे इंग्लैण्ड में उसके लिए 0.67 यूरो, जर्मनी में 0.73 यूरो, चीन में 4.18 सीएनवाई, ऑस्ट्रेलिया में 1.46 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर और भारत में 23 रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं। यह अन्तर अलग-अलग देशों के उत्पादक शक्तियों के विकास, व्यापार सन्तुलन, और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थिति पर निर्भर करता है। अगर हम अलग-अलग देशों में एक ही माल की क़ीमत की तुलना करना चाहते हैं, तो हम केवल मुद्राओं की विनिमय दर के आधार पर नहीं कर सकते हैं। इसके लिए हमें क्रय क्षमता समानता सूचकांक को देखना होगा। यदि हम इस सूचकांक को ध्यान में रखकर तुलना करें तो पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतें इन देशों में इस प्रकार हैं:
अमेरिका – रु. 28 प्रति लीटर
इंग्लैण्ड – रु. 57 प्रति लीटर
जर्मनी – रु. 64 प्रति लीटर
फ़्रांस – रु. 56 प्रति लीटर
ऑस्ट्रेलिया – रु. 31 प्रति लीटर
चीन – रु. 52 प्रति लीटर
भारत – रु. 112 प्रति लीटर
यानी अधिकांश देशों से भारत में पेट्रोल की क़ीमतें आज तिगुनी या दोगुनी हैं। इसी प्रकार डीज़ल की क़ीमतों की तुलना देखें:
अमेरिका – रु. 31 प्रति लीटर
इंग्लैण्ड – रु. 62 प्रति लीटर
जर्मनी – रु. 66 प्रति लीटर
फ़्रांस – रु. 59 प्रति लीटर
ऑस्ट्रेलिया – रु. 34 प्रति लीटर
चीन – रु. 47 प्रति लीटर
भारत – रु. 100 प्रति लीटर
यहाँ भी हम देख सकते हैं कि भारत में डीज़ल की क़ीमतें उपरोक्त देशों से डेढ़ से दो गुनी ज़्यादा हैं।
ऐसा क्यों है? क्योंकि भारत सरकार द्वारा जो भारी कर पेट्रोलियम उत्पादों पर डाले गये हैं, वे दुनिया में सबसे ज़्यादा कर दरों में से एक है। पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतों में आधे से ज़्यादा टैक्स हैं जिनके बूते नेताओं-नौकरशाहों की ऐय्याशी, उनके भारी वेतन-भत्ते, उनके महल-बंगले क़ायम रखे जाते हैं और मोदी सरकार का सेण्ट्रल विस्टा बनता है। सरकार कहती है कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल क़ीमतों में बढ़ोत्तरी के फलस्वरूप अगर देश के भीतर बढ़ोत्तरी नहीं की गयी तो फिर सरकार को रु. 19,000 करोड़ का नुक़सान होगा और फिर वह जनता के लिए कल्याणकारी काम कैसे करेगी!? वाह जी वाह! हर बजट में जनता के लिए लागू कल्याणकारी योजनाओं के ख़र्च में तो सरकार कटौती कर रही है, चाहे वे पेंशन हो, मनरेगा हो, या फिर रोज़गार सम्बन्धी व आवास सम्बन्धी योजनाएँ। साफ़ है कि करों में बढ़ोत्तरी जनता के कल्याण के लिए नहीं की जा रही है बल्कि पूँजीपतियों, नेताओं, नौकरशाहों की ऐय्याशी में बढ़ोत्तरी के लिए की जा रही है। ऐसे ही प्रधानमंत्री मोदी करोड़ों की कार और अरबों के हवाई जहाज़ में थोड़े ही चलते हैं! लेकिन हमें बताया जाता है कि सन्तोष करो और आधी रोटी खाकर “धर्म रक्षा” करो, ताकि इहलोक कैसा भी बीते, लेकिन परलोक सुधर जाये!
अगर सरकार जनता के कल्याण पर ही अधिक ख़र्च करना चाहती है, तो वह पेट्रेाल और डीज़ल पर दोगुने-तिगुने टैक्स लगाकर जनता की ही जेब ख़ाली करने की बजाय इस देश के उन सबसे अमीर पूँजीपतियों पर समृद्धि कर और उत्तराधिकार कर क्यों नहीं लगाती? कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर, ऐसे कर लगाने के लिए तो समाजवाद की भी आवश्यकता नहीं है! क्यों नहीं सरकार मज़दूरों-मेहनतकशों को लूटकर, उनका ख़ून निचोड़कर और उनकी हड्ड‍ियों का चूरा बनाकर अमीर बने अदानी-अम्बानी, टाटा-बिड़ला और लाखों अरब-खरबपतियों पर विशेष कर लगाकर कल्याणकारी योजनाओं के लिए धन जुटाती है? अगर जनता को लूटकर ही जनता का कल्याण करना है, तो यह तो एक हाथ से चवन्नी देना और दूसरे हाथ से अठन्नी ले लेना हुआ! जो ख़ैराती कल्याणवाद चल रहा है, वह इसी का नतीजा है। उत्तर प्रदेश में हमें ‘डबल इंजन’ की मोदी-योगी सरकार दो बार घटिया गुणवत्ता का राशन देती है (जिसे मोदी ख़ुद नहीं खायेंगे क्योंकि वह तो विदेशी मशरूम खाते हैं!) लेकिन बदले में उससे ज़्यादा क़ीमत बढ़ते करों के रूप में वसूल लेती है। लेकिन हमें लगता है कि बाबा जी ने हम पर उपकार कर दिया! लेकिन थोड़ा-सा सोचिए मेहनतकश-मज़दूर भाइयो और बहनो तो आप समझ जायेंगे कि बड़ी चालाकी से आपकी जेब पर डाका डाला जा रहा है और ख़ैराती राशन से उस डाके को छिपाया जा रहा है। वास्तव में यह ‘डबल इंजन’ सरकार डबल रेट से आपकी जेब ख़ाली कर रही है। अपने पिछले 2 साल के मासिक घरेलू ख़र्च को जोड़िए और देखिए कि उसमें कितनी बढ़ोत्तरी हुई है। आप समझ जायेंगे कि दो बार राशन की ख़ैरात ने आपको जितनी राहत दी है, उससे ज़्यादा राहत बढ़ते करों के बोझ ने आपसे लूट ली है।
यह है सच्चाई।
इसी दौर में मार्च 2022 में सीएमआईई के आँकड़ों के अनुसार बेरोज़गारी कोरोना की दूसरी लहर के समाप्त होने के बाद अपने चरम पर है। मार्च 2022 में रोज़गार में 14 लाख की कमी आयी और वह 39.6 करोड़ पर पहुँच गया। मार्च में ही लेबर फ़ोर्स में 38 लाख की कमी आयी और वह सिमटकर 42.8 करोड़ पर पहुँच गयी। आधिकारिक बेरोज़गारी दर में सरकार जो कमी दिखा रही है, उसका कारण लेबर फ़ोर्स में आयी यह कमी है। इस कमी का मूल कारण था शहरों में रोज़गार न मिल पाने के कारण एक अच्छी-ख़ासी आबादी का गाँवों की ओर पलायन जहाँ वे बेरोज़गार ही हैं, लेकिन खेती की प्रच्छन्न बेरोज़गारी में उनकी बेकारी छिप जा रही है। औद्योगिक नौकरियों में मार्च 2022 में 76 लाख की कमी आयी है। मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में 41 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। निर्माण क्षेत्र में 29 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। खानों-खदानों में 11 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। फ़रवरी 2022 के ही मुक़ाबले मार्च 2022 में नौकरियों में 12.5 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जबकि यदि मार्च 2021 से तुलना करें तो नौकरियों में 4.3 प्रतिशत की गिरावट आयी है।
सरकार द्वारा पूँजीपतियों के लिए ऋण सस्ते करने, श्रम क़ानूनों से छूट देने और हर प्रकार विनियमन से आज़ादी देने के बावजूद पूँजीपति वर्ग निवेश की दर को नहीं बढ़ा रहा है। वजह है मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का संकट। यह संकट विश्व अर्थव्यवस्था के समान भारतीय अर्थव्यवस्था में भी गम्भीर रूप में मौजूद है। यह पूँजीवाद की आन्तरिक गति के कारण नियमित अन्तरालों पर पैदा होता ही रहता है।
कारण यह है कि आपसी प्रतिस्पर्द्धा में और मज़दूर वर्ग से नये मूल्य में मुनाफ़े के हिस्से को मज़दूरी के हिस्से की तुलना में बढ़ाने की जद्दोजहद में पूँजीपति वर्ग उत्पादन में उत्पादन के साधनों व तकनोलॉजी पर निवेश बढ़ाते जाने और श्रमशक्ति पर निवेश घटाते जाने के लिए बाध्य होता है। वह चाहकर भी इसे रोक नहीं सकता। लेकिन नया मूल्य और मुनाफ़ा दोनों ही नये जीवित श्रम के ख़र्च होने से पैदा होता है। मशीनें और कच्चा माल अपने आप में नया मूल्य नहीं पैदा कर सकते, वे केवल अपने मूल्य को नये उत्पादित माल में स्थानान्तरित कर सकते हैं। इसलिए जैसे-जैसे समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के स्तर पर मशीनों, इमारतों, कच्चे माल व अन्य उत्पादन के साधनों पर निवेश श्रमशक्ति पर निवेश के सापेक्ष बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे दीर्घकालिक तौर पर मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की प्रवृत्ति सशक्त होती जाती है।
मज़दूरों के श्रम के शोषण की दर बढ़ने के कारण मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट को कुछ समय के लिए रोका ही जा सकता है, उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि मज़दूर द्वारा अतिरिक्त श्रम देने की एक सीमा है: पूरा श्रमकाल और आवश्यक श्रमकाल को घटाने की भौतिक सीमा। यदि मज़दूर हवा-पानी पर जिये और 24 घण्टे भी काम करे, तो एक सीमा के बाद उसके शोषण की दर को बढ़ा पाना असम्भव है। इसलिए बेशी मूल्य, यानी मज़दूर द्वारा पूँजीपति को फ़्री में दिये जाने वाले श्रमकाल को बढ़ाने की एक सीमा होती है और मज़दूर के आवश्यक श्रमकाल (यानी जिस समय वह अपने लिए ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमत के बराबर मूल्य पैदा करता है, यानी अपने लिए काम करता है) को घटाने की भी एक सीमा होती है। इन दोनों सीमाओं के पहुँचने के बाद भी पूँजीपति वर्ग आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण मशीनों व कच्चे माल पर निवेश को बढ़ाता है, ताकि उत्पादकता को बढ़ाकर अपने माल की क़ीमत को कम किया जा सके और अपने प्रतिस्पर्द्धी पूँजीपति को बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा में हराया जा सके। इस होड़ में सभी पूँजीपतियों के लिए यह करना अनिवार्य होता है और मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की दीर्घकालिक प्रवृत्ति को स्थायी तौर पर रोक पाना भी पूँजीवाद में असम्भव होता है। मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का यही संकट अपने लक्षण के तौर पर अल्पउपभोग की परिघटना को भी जन्म देता है और सामान्य अतिउत्पादन की परिघटना को भी जन्म देता है। आज मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का यह संकट ही पूँजीवाद को सता रहा है।
इसीलिए तमाम कल्याणवादियों द्वारा जनता की क्रय शक्ति को सामाजिक ख़र्च द्वारा बढ़ाने, आदि के नुस्ख़े काम नहीं आने वाले हैं। यह संकट अपनी क़ीमत वसूलेगा। तमाम छोटे और मँझोले पूँजीपतियों से भी जिन्हें बड़ी पूँजी निगलेगी और जिनके निगल लिये जाने पर टेसू बहाना मज़दूरों-मेहनतकशों का काम नहीं है क्योंकि वे भी उनके शोषण में कोई कसर नहीं छोड़ते; और मुख्य तौर पर मज़दूरों-मेहनतकशों को भी बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के रूप में इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, जैसी कि आज चुकानी पड़ रही है।
इन्हीं स्थितियों में, फ़ासीवादी मोदी सरकार की यह रणनीति है कि मज़दूरों-मेहनतकशों को बाँटकर रखो, धार्मिक उन्माद फैलाकर उन्हें आपस में लड़ाओ, उन्हें राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाकर पूँजीपति वर्ग की चाकरी में लगाओ, किसी नक़ली गौरवशाली अतीत और “रामराज्य” का सपना दिखाओ और इन हथकण्डों से बेवक़ूफ़ बनाकर उन्हें मौजूदा फ़ासीवादी शासन और पूँजीवाद की मुख़ालफ़त कर पाने में अक्षम बनाओ ताकि पूँजीपतियों-मालिकों-ठेकेदारों और तमाम धन्नासेठों का शासन जारी रहे।
हम मज़दूरों को यह समझ लेना चाहिए कि हमने अगर इस रणनीति को और कामयाब होने दिया, तो यह हमारे लिए अपनी क़ब्र खोदने के समान होगा। हमें किसी भी क़ीमत पर अपना वर्ग भाईचारा क़ायम करना होगा, उसे टूटने नहीं देना होगा, किसी भी प्रकार के धार्मिक उन्माद में नहीं बहना होगा, सभी धर्मों और जातियों के मज़दूरों-मेहनतकशों की एकता क़ायम करनी होगी। हम सारे मज़दूरों-मेहनतकशों के हित एकसमान हैं और पूँजीपतियों-मालिकों-ठेकेदारों के हितों से बिल्कुल अलग हैं। धर्म को हमें स्पष्ट तौर पर व्यक्तिगत मसला मानना चाहिए और किसी भी व्यक्ति के किसी धर्म को मानने या किसी भी धर्म को न मानने, अपनी पसन्द का खाना खाने, अपनी पसन्द के कपड़े पहनने की स्वतंत्रता की हिफ़ाज़त करनी चाहिए। यह मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म और जनवाद है, जिस पर अमल किये बिना हम अपने उन्नत वर्ग संघर्ष के लिए गोलबन्द और संगठित नहीं हो सकते।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022


 

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