यूक्रेन में जारी साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करो!
रूसी आक्रमण के ख़िलाफ़ यूक्रेन की संघर्षरत मेहनतकश अवाम का साथ दो!
– सार्थक
युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है।
इससे पहले भी युद्ध हुए थे।
पिछला युद्ध जब ख़त्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा
वह भूखा ही।
– बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
दो साम्राज्यवादी ख़ेमों की आपसी प्रतिस्पर्धा की क़ीमत विश्व की आम जनता एक बार फिर चुका रही है। एक ओर साम्राज्यवादी रूस और दूसरी ओर साम्राज्यवादी अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन)। इन दोनों साम्राज्यवादी ख़ेमों की आपसी प्रतिस्पर्धा में यूक्रेन की जनता युद्ध की भयंकर आग में झुलस रही है। 24 फ़रवरी को साम्राज्यवादी रूस ने यूक्रेन पर युद्ध की घोषणा कर दी। इस घोषणा ने रूस और अमेरिका के नेतृत्व में नाटो के बीच महीनों से चल रहे वाकयुद्ध को वास्तविक युद्ध में बदल दिया है, हालाँकि नाटो इस युद्ध से किनारे हो गया है और यूक्रेन की जनता पर रूसी साम्राज्यवाद को क़हर बरपा करने के लिए खुला हाथ दे दिया है। अत्याधुनिक सामरिक हथियारों और टैंकों से लैस रूसी सेना यूक्रेन के दक्षिण, पूर्व और उत्तर-पूर्व की ओर से यूक्रेन के प्रमुख शहरों को क़ब्ज़े में लेते हुए राजधानी कीव पर नियंत्रण के लिए घमासान युद्ध कर रही है। वहीं रूसी वायुसेना यूक्रेनी सामरिक अड्डों और प्रशासनिक इमारतों के साथ ही अस्पतालों, रिहायशी इलाक़ों, बाज़ार, दूरसंचार केन्द्रों और अन्य ग़ैर-सामरिक संरचनाओं पर भी भारी बमबारी कर रही है। यूक्रेन के नागरिकों पर हो रही इस बमबारी में जानमाल का भारी नुक़सान हो रहा है। हज़ारों मासूम और बेगुनाह मौत के घाट उतारे जा रहे हैं। ऐसी ही बमबारी में यूक्रेन में पढ़ रहे भारत के इक्कीस वर्षीय मेडिकल छात्र नवीन ज्ञानगोदार की ख़ारख़िव शहर के एक सुपर मार्केट के बाहर मौत हो गयी। अभी भी भारत के हज़ारों छात्र यूक्रेन के विभिन्न शहरों में बहुत ही असुरक्षित स्थिति में फँसे हुए हैं। यहाँ भारत में अपने सुरक्षित स्टूडियो में बैठी गोदी मीडिया मोदी सरकार की अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति के क़सीदे पढ़ रही है, लेकिन बुर्जुआ अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति के मानकों से भी देखा जाये तो मोदी सरकार की कूटनीति पूरी तरह अपंग दिख रही है। यूक्रेन में अभी भी हज़ारों भारतीय छात्र भारी बमबारी के बीच मौत से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में मिली चुनावी जीत का जश्न मना रही है। जब यूक्रेन पर हमला शुरू हो रहा था, उस समय भी छात्रों को वहाँ से सुरक्षित बाहर निकालने के बदले मोदी सरकार उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में चुनावी रैलियों में व्यस्त थी। इसी तरह की आपराधिक लापरवाही की क़ीमत कोरोना महामारी के दौरान देश के पचास लाख लोगों ने अपनी जान गँवा कर चुकायी थी। फ़ासीवादी मोदी सरकार के लिए आम इन्सान की ज़िन्दगी की कोई क़ीमत नहीं है।
हालाँकि यूक्रेन पर रूस के इस हमले से अब तक हुई कुल मौतों की सटीक जानकारी नहीं मिल पायी है, मगर संयुक्त राष्ट्र के आधिकारिक सूत्रों के अनुसार इस हमले में 24 फ़रवरी से 8 मार्च तक 516 नागरिकों की मौत हो चुकी है। निश्चित ही नागरिक मौतों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा ही होगी। मरियोपोल के मेयर का दावा है कि अकेले उनके शहर में ही 1200 लोग मारे जा चुके हैं। सैन्य मौतों की बात की जाये तो अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार 9 मार्च तक लगभग 3000 से 4500 के बीच रूसी सैनिक मारे जा चुके हैं। इस आँकड़े के बरक्स, जहाँ एक तरफ़ रूसी आधिकारिक सूत्रों ने बताया है कि इस युद्ध में अब तक सिर्फ़ 500 रूसी सैनिक मारे गये हैं, वहीं दूसरी ओर यूक्रेन के अनुसार 6 मार्च तक 11000 रूसी सैनिक मर चुके हैं। दोनों ही पक्ष अपने देश के जनता का समर्थन बनाये रखने के लिए अपने सैनिकों की मौतों को यथा सम्भव कम करके बता रहे हैं। ज़ाहिर है, रूस के ज़्यादा सैनिक नहीं मारे गये होंगे। आँकड़ें वास्तव में चाहे जो भी हों, इतना तो तय है कि इस युद्ध ने महज़ दो हफ़्तों में हज़ारों लोगों की जान ले ली है और यह हर गुज़रते दिन के साथ ज़्यादा भयानक रूप ले रहा है। ख़ेरसों, ख़ारख़िव, सुमी, मरियोपोल, कीव आदि शहरों में बमबारी से हो रही तबाही को हम दिल दहला देने वाली तस्वीरें में देख सकते हैं। ये तस्वीरें एक दशक पहले सीरिया, लिबिया, यमन आदि देशों में शुरू हुए नरसंहार की याद दिलाते हैं। 9 मार्च को रूसी लड़ाकू विमानों ने मरियोपोल में एक प्रसूति अस्पताल पर आक्रमण कर दर्जनों गर्भवती महिलाओं और बच्चों को मलवे के नीचे ही दफ़ना दिया। बमबारी में हो रही मौतों और तबाही के अलावा, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 8 मार्च तक बीस लाख से ज़्यादा लोग अपना देश छोड़ पोलैण्ड, रोमानिया, जर्मनी, हंगरी आदि पड़ोसी देशों में शरणार्थी की तरह पनाह ले रहे हैं। पिछले कुछ सालों में पूरे यूरोप में जो धुर दक्षिणपन्थी लहर उठी है और शरणार्थियों के साथ जो अमानवीय बर्ताव हो रहा है, उसे देखते हुए इतना कहा जा सकता है कि इन यूक्रेनी शरणार्थियों के लिए आने वाले दिन काफ़ी मुश्किल होने जा रहे हैं।
‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों में हम लगातार यूक्रेन में रूस और अमेरिका के बीच की साम्राज्यवादी रस्साकशी के बारे में लिखते हुए इस तनाव की ज़मीन की विस्तृत पड़ताल करते आये हैं। आज साम्राज्यवादी दुनिया दो गुटों में बँटी हुई है – एक ओर कमज़ोर होते साम्राज्यवादी अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ख़ेमा है और दूसरी ओर तेज़ी से उभरता हुआ रूसी-चीनी ख़ेमा। पिछले एक दशक से ही यूक्रेन इन दोनों ख़ेमों के बीच अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का एक हॉटस्पॉट बना हुआ था। आज यह एक फ़्लैशपॉइण्ट में बदल चुका है। एक ओर अफ़ग़ानिस्तान से शर्मसार होकर लौटने के बाद अमेरिका यूक्रेन को नाटो में शामिल कर अपनी कमज़ोर होती चौधराहट को दुबारा से हासिल करना चाहता है। वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवादी रूस यूक्रेन को अपने नियंत्रण में रखते हुए पूरे पूर्वी यूरोप को अपने प्रभाव क्षेत्र की तरह विकसित करने का प्रयास कर रहा है। एक बार फिर यह याद दिलाना चाहेंगे कि यूक्रेन में रूसी सैन्य हस्तक्षेप 2014 में शुरू हो गया था। 2014 के यूरो-मैदान के प्रदर्शनों और उससे पहले 2004 की तथाकथित नारंगी क्रान्ति में पश्चिमी देशों ने एक अहम भूमिका निभायी थी। इन दोनों ही विरोध प्रदर्शनों के बूते यूक्रेन में पश्चिमी देश समर्थित हुकूमत सत्ता पर क़ाबिज़ हुई और यूक्रेन की यूरोपीय संघ और नाटो से क़रीबी बढ़ी। 2014 के यूरो मैदान प्रदर्शनों में रूस समर्थित विक्टर यानुकोविच के पदच्युत होने के बाद रूस ने क्रीमिया में प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप किया। इसके बाद पूर्वी यूक्रेन के दोनबास इलाक़े के दो प्रान्तों – दोनेत्स्क और लुगांस्क – में भयंकर गृहयुद्ध को हवा दी। इस गृहयुद्ध की भीषणता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि रूस ने आज भी इसे ही हस्तक्षेप का मुद्दा बनाया है। अब तक इसमें लगभग पन्द्रह हज़ार लोग मारे जा चुके हैं। यह भी सच है कि रूस को इन सैन्य हस्तक्षेपों का मौक़ा इसलिए मिला क्योंकि पश्चिमी साम्राज्यवाद समर्थित अर्द्धफ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी व उग्रराष्ट्रवादी पूँजीवादी सरकारों ने लुगांस्क और दोनेत्स्क तथा अन्य क्षेत्रों में रहने वाली रूसी आबादी और अन्य जातिगत समूहों व अन्य भाषाभाषी समुदायों पर ज़बर्दस्त अत्याचार जारी रखा था। यह रूसी साम्राज्यवादी हमले को सही नहीं ठहराता क्योंकि किसी देश के भीतर पूँजीपति वर्ग की सत्ता से निपटने का काम उस देश की जनता का होता है, किसी अन्य साम्राज्यवादी शक्ति का नहीं।
अमेरिका और नाटो ने 2014 के बाद से यूक्रेन को विशालकाय ऋण देने के अलावा भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र मुहैया करवाया है। 2015 में अमेरिका और पश्चिमी पूँजीवादी देशों द्वारा नियंत्रित अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने यूक्रेन को 175 करोड़ डॉलर का ऋण दिया, जिसका एक बड़ा हिस्सा रक्षा क्षेत्र में लगाया गया। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने किसी गृहयुद्ध में फँसे देश को ऋण दिया हो। सोवियत यूनियन के विघटन के बाद से ही नाटो का पूर्वी यूरोप में विस्तार तेज़ी से बढ़ा। इसके साथ ही पश्चिमी साम्राज्यवाद का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ते-बढ़ते रूस की पश्चिमी सीमा तक पहुँच गया। हाल के वर्षों में अमेरिका और नाटो ने भारी तादाद में सैनिक और हथियार पोलैण्ड, लिथुआनिया, लातविया, इस्तोनिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों में तैनात किये हैं। अमेरिका और नाटो ने यूक्रेन की सेना को प्रत्यक्ष सामरिक प्रशिक्षण तो दिया ही है, साथ ही यूक्रेन की राजनीति में धुर दक्षिणपन्थी ताक़तों को समर्थन व प्रत्यक्ष सामरिक प्रशिक्षण भी दिया। रूस ने भी दोनबास इलाक़े में सक्रिय रूसी भाषाभाषी व अन्य जातिगत अलगावपन्थी समूहों को बड़े पैमाने में हथियार मुहैया किये, रूसी सेना ने इन समूहों को सामरिक प्रशिक्षण दिया और लगातार गुप्त तरीक़े से यूक्रेन की सेना के ख़िलाफ़ हथियारबन्द कार्रवाइयों में हिस्सा भी लिया। ये समुदाय स्वयं भी यूक्रेनी पूँजीवादी सत्ता के क़ौमी दमन के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे और रूस ने अपने साम्राज्यवादी हितों के मद्देनज़र इनकी मदद की।
आज रूस इस दोनबास इलाक़े में ही यूक्रेन की सेना के द्वारा रूसीभाषी जनता पर हो रहे अत्याचार का हवाला देकर यूक्रेन पर हमले को विश्व के सामने जायज़ ठहराने की कोशिश कर रहा है। यह और कुछ नहीं बस रूसीभाषी जनता के अधिकारों के नाम पर पुतिन के विस्तारवादी मंसूबों पर पर्दा डालने की कोशिश है। सच्चाई यह है कि दोनबास में चल रहे गृहयुद्ध के लिए दोनो ही साम्राज्यवादी शक्तियाँ बराबर की ज़िम्मेदार हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले एक दशक में यूक्रेन में धुर दक्षिणपन्थी और अर्द्ध फ़ासिस्ट ताक़तों का तेज़ी से उभार हुआ है और उसने रूसीभाषी समुदायों का लगातार दमन-उत्पीड़न भी किया है। लेकिन सोचने की बात यह है कि जो दक्षिणपन्थी पुतिन सरकार आये दिन अपने ही देश में जनवादी मानकों का गला घोंटती रहती है वह कैसे किसी दूसरे देश को अर्द्ध फ़ासिस्ट ताक़तों से सुरक्षित करने का दावा कर सकती है? ऐसा करने के लिए क्यों पुतिन को आम जनता पर भारी बमबारी करने की आवश्कता हो गयी? यूक्रेन की जनता को अन्धराष्ट्रवादी तानाशाही और दक्षिणपन्थी ताक़तों से मुक्त कराने की ज़िम्मेदारी रूसी साम्राज्यवाद की नहीं है। यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ और सिर्फ़ यूक्रेन के मज़दूर वर्ग की अगुवाई में वहाँ की आम मेहनतकश जनता की है।
दोनबास इलाक़े की रुसीभाषी जनता को न्याय दिलाने के अलावा एक और तर्क पुतिन यूक्रेन युद्ध को सही ठहराने के लिए दे रहा है। तर्क है कि किसी ज़माने में यूक्रेन समेत पूरा पूर्वी यूरोप ज़ारशाही रूस और सोवियत यूनियन का हिस्सा हुआ करता था और इसलिए इस भू-भाग को अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाये रखना रूस का हक़ है। पुतिन ने यहा तक कह दिया कि 1991 में सोवियत यूनियन का विघटन वास्तव में “ऐतिहासिक रूस” का विघटन था। यह भूभाग ऐतिहासिक तौर से रूस का हिस्सा था और इसका विघटन दुर्भाग्यपूर्ण है। पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया भी यही राग अलापती रहती है कि पुतिन यूक्रेन के साथ पूरे पूर्वी यूरोप पर आधिपत्य स्थापित कर एक बार फिर “अखण्ड सोवियत यूनियन” को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहा है। सोवियत संघ, जैसा कि हम जानते हैं मज़दूर वर्ग की पहली व्यवस्थित राज्यसत्ता थी जिसकी स्थापना के केन्द्र में जनवाद था। एक धुर दक्षिणपन्थी नेता अपने विस्तारवादी व साम्राज्यवादी मंसूबों को उचित ठहराने की कोशिश में यदि सोवियत यूनियन का नाम ले रहा है तो सर्वाहारा अधिनायकत्व का इससे बड़ा अपमान और कुछ हो ही नहीं सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग की यह ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है कि दो साम्राज्यवादी ख़ेमों के बीच हो रही रस्साकशी में सोवियत यूनियन का नाम घसीटे जाने का विरोध करे। सबसे अहम बात यह है कि न पुतिन कम्युनिस्ट है और न ही पुतिन की पार्टी कम्युनिस्ट है। इसकी योजना किसी भी तरह से मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित करने की नहीं है। इसकी एक मात्र योजना विश्व में अपनी साम्राज्यवादी चौधराहट स्थापित करने की है। इसके अलावा सबसे अहम बात यह है कि अपने क्रन्तिकारी दौर में (1917 से 1953 तक) सोवियत यूनियन की स्थापना राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार और अलग होने के अधिकार के साथ हुई थी। इस प्रकार यह जनवादी अधिकारों पर आधारित कई राष्ट्रीय गणराज्यों का यूनियन था। इस संघ में विभिन्न राष्ट्रीय गणराज्यों की स्वेच्छा से विलय हुआ था। इस विलय में ज़ोर-ज़बर्दस्ती या सैन्य दमन का अंश लेश मात्र भी नहीं था। स्विट्ज़रलैण्ड जैसे चन्देक अपवादों को छोड़कर, सोवियत यूनियन दुनिया का पहला बहुराष्ट्रीय राज्य बना जिसने सभी दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया था। क्या पुतिन ने रूस में चेचेन जैसी दमित क़ौमों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया है? क्या यूक्रेन पर क़ब्ज़ा करने के बाद उसे अलग होने के अधिकार के साथ आत्मनिर्णय का अधिकार मिलेगा? क्या यूक्रेन स्वेच्छा से रूस के साथ विलय करना चाहता है या रूस के प्रभाव क्षेत्र का हिस्सा बनना चाहता है? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है – नहीं! तस्वीर स्पष्ट है पुतिन का विस्तारवाद क्रन्तिकारी सोवियत उसूलों पर नहीं बल्कि साम्राज्यवाद पर आधारित है और इसीलिए वह ज़ारशाही रूस के इतिहास का हवाला दे रहा है। पुतिन “अखण्ड सोवियत संघ” को नहीं बल्कि “अखण्ड ज़ारशाही रूसी साम्राज्य” को पुनर्जीवित करना चाहता है। इसी ज़ारशाही रूसी साम्राज्य को “दमित राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं का क़ैदख़ाना” कहा जाता था।
लेख के आरम्भ में सुप्रसिद्ध जर्मन नाटककार और कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की उद्धृत कविता साम्राज्यवादी युद्ध की कठोर सच्चाई बयान करती है। जब कभी देशों के बीच अपने वर्चस्व और लूट को क़ायम रखने या उसका विस्तार करने के लिए युद्ध छेड़ा जाता है तो इस युद्ध की वेदी पर सबसे पहली बलि उन देशों के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की चढ़ती है। फिर जल्द ही पूरी दुनिया की मज़दूर-मेहनतकश अवाम को इसकी क़ीमत अपने ख़ून और पसीने से चुकानी पड़ती है। हर साम्राज्यवादी युद्ध की तरह इस युद्ध में होने वाले ख़र्च की भरपाई आम जनता के शोषण को बढ़ाकर की जायेगी। यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जर्मनी ने यह घोषणा कर दी है कि वह रक्षा के क्षेत्र में अपना व्यय बढ़ायेगा। सकल घरेलू उत्पाद का दो प्रतिशत अब रक्षा क्षेत्र पर ख़र्च किया जायेगा। ज़ाहिर है कि रक्षा के क्षेत्र में इस व्यय की बढ़ोत्तरी की भरपाई के लिए जर्मन सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर ख़र्च घटायेगी। सरकार जर्मन मेहनतकश जनता को अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से ज़्यादा लूटेगी। बढ़ी क़ीमतों और आर्थिक अनिश्चितता का असर भी आम मेहनतकश आबादी को ही भुगतना होगा। यूक्रेन में युद्ध के शुरू होने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की क़ीमतें भी तेज़ी से बढ़ रही हैं और आने वाले दिनों में इसमें बड़ा उछाल आने की सम्भावना है। कच्चे तेल की क़ीमतें बढ़ने से पेट्रोल, डीज़ल और कई उपभोक्ता वस्तुओं की क़ीमत भी बढ़ेगी। इसकी मार यूक्रेन और रूस की मेहनतकश जनता के अलावा दुनिया की मेहनतकश जनता पर पड़ेगी। आर्थिक बोझ लादने के साथ तमाम देशों की सरकारें युद्ध की परिस्थिति का लाभ उठाकर क्षीण होते जनवादी अधिकारों के हनन की मुहिम और तेज़ कर देंगी। उदाहरण के लिए लिथुआनिया की सरकार ने यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद अपने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी है। रूस की सड़कों पर न्यायप्रिय जनता यूक्रेन पर हमले का विरोध कर रही थी पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। युद्ध शुरू होने के एक हफ़्ते के अन्दर पुतिन सरकार ने युद्ध के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले 8000 से ज़्यादा रूसी नागरिकों को सलाख़ों के पीछे धकेल दिया है। 4 मार्च को रूस की संसद ने एक नया अधिनियम पारित किया है जिसके अनुसार रूसी सेना या यूक्रेन युद्ध पर “आपत्तिजनक” बोलने वालों पर पन्द्रह साल जेल और पन्द्रह हज़ार डॉलर जुर्माना हो सकता है। “राष्ट्रीय सुरक्षा” और “राष्ट्रीय हित” की आड़ में प्रतिरोध की हर आवाज़ को कुचलने के लिए सभी सरकारें तैयार बैठी हैं।
इस साम्राज्यवादी युद्ध में मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों की क्या ज़िम्मेदारी है?
चाहे साम्राज्यवादी युद्ध दुनिया के किसी भी हिस्से में चल रहा हो, दुनिया के मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे इसका पूर्ण विरोध करें। मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट दो साम्राज्यवादी ख़ेमों में एक पक्ष चुनने के लिए मजबूर नहीं है। मज़दूर वर्ग का अपना स्वतंत्र पक्ष है जो कि किसी भी साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करता है। मुनाफ़े के अवसर, बाज़ार पर क़ब्ज़ा, संसाधनों की लूट और पूँजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए छेड़े गये युद्ध में अगर कोई इस या उस साम्राज्यवादी ख़ेमे का समर्थन करता है तो वह सीधे दुनिया के मज़दूर वर्ग और ख़ास तौर पर युद्ध में लड़ रहे देशों के मज़दूर वर्ग के साथ ऐतिहासिक बेईमानी करता है, साम्राज्यवाद की बर्बरता का भी भागीदार बनता है।
किसी भी साम्राज्यवादी युद्ध की फ़ौरन समाप्ति के अलावा, आक्रमणकारी साम्राज्यवादी देश के मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों की विशेष ज़िम्मेदारी यह बनती है कि “विपक्षी” साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्ग का विरोध करने के साथ ही ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वे अपने देश के साम्राज्यवाद और उसके शासक वर्ग का कठोरतम तरीक़े से विरोध करें। स्पष्ट शब्दों में कहें तो रूस की कम्युनिस्ट ताक़तों और मज़दूर वर्ग की यह ज़िम्मेदारी है कि सबसे पहले वह पुतिन के साम्राज्यवाद और विस्तारवाद का सड़कों पर उतरकर विरोध करें। वहाँ की जनता ऐसा कर रही है लेकिन मज़दूर वर्ग के बीच ले जाकर इस प्रतिरोध को व्यापक और कारगर बनाने की आवश्यकता है। इसी तरह अमेरिकी, पश्चिमी यूरोपीय और नाटो देशों का मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें सबसे पहले अमेरिका और नाटो की साम्राज्यवादी नीतियों की भी स्पष्ट शब्दों में मुख़ालफ़त करें, आम मेहनतकश जनता के बीच अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रचार तंत्र के झूठों का भण्डाफोड़ करें। सबसे प्रमुख रूप से अपने शासक वर्ग के साम्राज्यवाद की मुख़ालफ़त करना सबसे क्रान्तिकारी नीति है और मज़दूर वर्ग को इसपर अमल करना चाहिए। उसका कोई देश नहीं होता और हर देश में रहने वाले मज़दूर वर्ग के साथ उसकी अन्तर्राष्ट्रीयतावादी एकता होती है। हर देश के पूँजीपति वर्ग से उसकी दुश्मनी होती है, लेकिन सबसे पहले और सबसे प्रमुख रूप से उसके सामने उसके अपने देश का पूँजीपति वर्ग होता है। इसलिए सबसे पहले वह उसे निशाने पर रखता है, हालाँकि वह आम तौर पर समूचे साम्राज्यवाद की ही मुख़ालफ़त करता है। केवल इसी नीति से मज़दूर वर्ग अपने अन्तर्राष्ट्रीयतावादी कर्तव्य का निर्वाह कर सकता है और समय आने पर साम्राज्यवादी युद्ध को क्रान्तिकारी गृहयुद्ध में तब्दील कर सकता है।
साम्राज्यवादी युद्ध का सक्रिय विरोध करने के अलावा सभी देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों और मज़दूर वर्ग की एक और ज़रूरी ज़िम्मेदारी यह बनती है कि वे अपने देशों के हुक्मरानों से यह माँग करें कि वे इस साम्राज्यवादी युद्ध का मुखर विरोध करें। इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इन देशों की इस युद्ध में सक्रिय भागीदारी नहीं भी हो। ऐसा करने से दोनों साम्राज्यवादी ख़ेमों पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनेगा। इसी आम कार्यादिशा के तहत हम भारत के मज़दूर वर्ग और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों का आह्वान करते हैं कि रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध करें। यूक्रेन से रूसी सेना की फ़ौरन वापसी की माँग करें और यूक्रेन की दक्षिणपन्थी ज़ेलेंस्की सत्ता का विरोध करते हुए संघर्षरत मेहनतकश जनता के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करें। सड़कों पर उतरकर इस साम्राज्वादी युद्ध का विरोध करें और साथ ही मोदी सरकार से माँग करें कि भारत सरकार दोनों साम्राज्यवादी ख़ेमों के युद्धोन्माद की निन्दा अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर करे। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन युद्ध के ख़िलाफ़ हुए मतदान में भारत ने अपना मत देने से परहेज़ किया है। भारत का यूक्रेन पर रूसी हमले के ख़िलाफ़ निन्दा प्रस्ताव में मतदान न करना व एक अवसरवादी चुप्पी साध लेना यह दिखाता है कि भारत की फ़ासिस्ट सरकार रूसी साम्राज्यवाद से अपने रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहती है और अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को क़ायम रखते हुए अपने देश के पूँजीपति वर्ग के हितों को प्रधानता देती है। भारत का पूँजीपति वर्ग अपने हितों के लिए नाटो देशों के पूँजीपति वर्ग और रूसी पूँजीपति वर्ग दोनों से ही अच्छे रिश्ते क़ायम रखना चाहता है। फ़ासिस्ट मोदी सरकार के साथ-साथ जो तमाम बुर्जुआ और संशोधनवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ यूक्रेन में चल रहे इस युद्ध पर चुप्पी साधे हुए हैं, वे सभी पार्टियाँ भी यूक्रेनी जनता के नरसंहार में बराबर की हिस्सेदार हैं। यह बुर्जुआ और संशोधनवादी राजनीति के मानवद्रोही चरित्र को बेनक़ाब करता है।
साम्राज्यवादी युद्ध अपने साथ दोहरी सम्भावना लेकर आता है। एक ओर यह युद्ध महँगाई, भुखमरी और मौत के अप्रत्याशित विनाश को जन्म देता है। वहीं दूसरी ओर यह युद्ध क्रान्तिकारी बदलाव की ज़मीन भी तैयार करता है। मज़दूर वर्ग, आम मेहनतकश जनता और सेना में फैले कष्ट, असन्तोष व परेशानियों को क्रान्तिकारी बदलाव की दिशा में मोड़ने के लिए अवसर भी देते हैं। यदि यूक्रेन और रूस में सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली क्रान्तिकारी शक्तियाँ मज़बूत होतीं तो इस युद्ध को क्रान्ति की ओर मोड़ सकती थीं। लेकिन यह आज के दौर का कड़वा यथार्थ है कि आज दुनिया के किसी भी देश में क्रान्ति की आत्मगत शक्तियाँ मज़बूत स्थिति में नहीं हैं। क्रन्तिकारी शक्तियों की अनुपस्थिति में धुर दक्षिणपन्थी शक्तियाँ इस आपदा को अवसर में बदलते हुए अन्ध राष्ट्रवाद को और तेज़ हवा दे रही हैं।
मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता लेनिन ने कहा था कि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध। आज हम अपनी आँखों के सामने लेनिन के इस कथन को हर रोज़ सत्यापित होते देख रहे हैं। यूक्रेन के अलावा दुनिया के कई हिस्सों में इस वक़्त साम्राज्यवादी युद्ध चल रहे हैं जिनमें लाखों लोगों की जानें जा रही हैं। जब यूक्रेन के पूर्वी और दक्षिणी शहरों में रूसी लड़ाकू विमान अपने पहले राउण्ड की बमबारी कर रहे थे ठीक उसी वक़्त सीरिया पर इज़रायली लड़ाकू विमान, सोमालिया पर अमेरिकी लड़ाकू विमान और यमन पर सऊदी लड़ाकू विमान बमबारी कर रहे थे। पचहत्तर सालों से फ़िलिस्तीनी और कश्मीरी जनता भी अपने आत्मनिर्णय के जनवादी अधिकार के लिए एक लम्बी जंग लड़ रही है। लेकिन उस पर पश्चिमी साम्राज्यवाद चुप्पी साधे रहता है क्योंकि फ़िलिस्तीन का इज़रायल द्वारा बर्बर क़ौमी दमन उसके फ़ायदे में है। हमें यह बात गाँठ बाँध लेनी होगी कि जब तक साम्राज्यवाद और यह पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है तब तक दुनिया में ऐसे ही युद्ध होते रहेंगे और उन युद्धों में हमारे ही मज़दूर साथी मरते रहेंगे। अगर हम हमेशा के लिए युद्ध का अन्त चाहते हैं, अगर हम एक दीर्घकालिक अमन और भाईचारा चाहते हैं तो हमें मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। हमें यह याद रखना होगा कि किसी भी देश के मज़दूर वर्ग का पहला शत्रु उसी देश का पूँजीपति वर्ग होता है। यह पूँजीपति वर्ग विदेशी पूँजी के साथ मिलकर शोषण करता है। अगर हम एक स्थायी शान्ति चाहते हैं तो एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी होगी जो मानव केन्द्रित हो मुनाफ़ा-केन्द्रित नहीं। दुनियाभर के मज़दूरों को अपनी वर्गीय एकजुटता के आधार पर और सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के रास्ते चलते हुए सर्वहारा क्रान्तियों के एक नये दौर की शुरुआत की ओर क़दम बढ़ाना होगा। रास्ता लम्बा है लेकिन यही अमन-चैन की स्थायी तौर पर स्थापना का रास्ता है। जर्मन और विश्व सर्वहारा की महान नेत्री रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने प्रथम साम्राज्यवादी विश्वयुद्ध के ख़िलाफ़ दुनिया के सर्वहारा का आह्वान करते हुए जो लिखा था वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि वह सौ साल पहले था। रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने अपने प्रसिद्ध जूनियस पैम्फ़लेट में लिखा था :
“यह उन्माद थम जायेगा और नर्क का ख़ूनी दानव ग़ायब हो जायेगा जब जर्मनी और फ़्रांस, इंग्लैण्ड और रूस के मज़दूर अपनी जड़ता पूरी तरह तोड़ते हुए एक-दूसरे की तरफ़ भाईचारे का हाथ बढ़ायेंगें और मज़दूरों के प्राचीन व शक्तिशाली युद्ध घोष में साम्राज्यवादी युद्धों को उकसावा देने वालों और पूँजीवादी लकड़बग्घों की कर्णभेदी चित्कार डूब जायेगी : दुनिया के सर्वहारा एक हों!”
मज़दूर बिगुल, मार्च 2022
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन