भाजपा के “रामराज्यों” में दलितों के ख़िलाफ़ बढ़ती बर्बर हिंसा!
– भारत
फ़ासीवादी भाजपा-शासित राज्यों में हो रहे दलित-विरोधी अपराध बर्बरता की सारी हदें पार करते जा रहे हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब दलितों के साथ सवर्ण जातिवादी गुण्डों द्वारा हिंसा की घटना सामने न आती हो। बीते दिन प्रयागराज के फाफामऊ में दलित परिवार के चार सदस्यों की जातिवादी गुण्डों द्वारा बर्बर हत्या कर दी गयी। देशभर में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के इतिहास में यह घटना एक स्याह पन्ने की तरह दर्ज हो गयी है। मृतकों में फूलचन्द (50), उनकी पत्नी मीनू (45), बेटा शिव (10) और 17 वर्षीय बेटी शामिल हैं। सभी की लाशें घर के अन्दर ख़ून से लथपथ मिलीं। सभी के शरीर पर धारदार हथियार के निशान थे। महिलाएँ नग्न हालत में थीं, जिसके चलते गैंगरेप की आशंका ज़ाहिर की जा रही है। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि मौक़े पर जो हालात थे, आशंका है कि हत्यारों ने पहले बरामदे में सो रहे दम्पति और उनके बेटे को मारा। फिर कमरे में सो रही किशोरी के साथ बलात्कार किया और बाद में उसका भी क़त्ल कर दिया। कपड़े भी अस्त-व्यस्त थे। चारपाई के नीचे बेटे का शव ज़मीन पर पड़ा था। वहीं बरामदे से सटा कमरा है। इसमें बेटी का शव चारपाई पर निर्वस्त्र पड़ा था। माँ-बेटी का शव निर्वस्त्र पाया गया था। मृतक फूलचन्द के एक दूसरे भाई लालचन्द ने 11 लोगों के ख़िलाफ़ नामज़द तहरीर दी है। लालचन्द कहते हैं, “हमारे भाई फूलचन्द ने साल 2019 और 2021 में गाँव के कई दबंगों के ख़िलाफ़ दलित एक्ट में मामला दर्ज कराया था, लेकिन उसमें कार्रवाई नहीं की गयी। हमारी तरफ़ से दो मुक़दमे दर्ज होने के बावजूद थाना पुलिस ने दबंगों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की, जिससे उनका दुस्साहस बढ़ता चला गया। हमारी शिकायतों को गम्भीरता से लिया होता तो शायद इतनी जघन्य वारदात नहीं होती।” इतना सब होने के बाद पुलिस-प्रशासन “हरकत” में आया और आरोपियों पर मामला दर्ज करके कुछ को गिरफ़्तार भी किया है। लेकिन योगी सरकार का ऐसे मसलों पर रवैया देखते हुए इन गिरफ़्तारियों से कोई उम्मीद पालना मूर्खता होगी। योगी सरकार अपनी सरकार और पार्टी के ही मंत्रियों और नेताओं को ऐसे अपराधों में मनमाने तरीक़े से प्राथमिकी वापस लेकर बचाने के कुकर्म नंगई के साथ करती रही है।
सिर्फ़ यही घटना नहीं भाजपा शाषित एक और “रामराज्य” मध्य प्रदेश में बीते 20 नवम्बर को रीवा ज़िले में मज़दूरी के रुपये माँगने पर एक दलित मज़दूर का हाथ धारदार हथियार से जातिवादी गुण्डों ने काट दिया। डोलमऊ गाँव में मज़दूरी के रुपये माँगने पर नियोक्ता गणेश मिश्रा ने अपने साथियों के साथ मिलकर मज़दूर अशोक साकेत (45) के एक हाथ को धारदार हथियार से काट दिया। साकेत ने डोलमऊ गाँव में मिश्रा के लिए एक निर्माणाधीन इमारत में मज़दूरी की थी और मिश्रा उसे मेहनताना देने में कथित रूप से आनाकानी कर रहा था। पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ़्तार किया है लेकिन ऐसे दलित-विरोधी अपराधों में भी सज़ा मिलने का रिकॉर्ड नगण्य है।
ये चन्द घटनाएँ ही भाजपा के रामराज्य की हक़ीक़त को बयान कर देती हैं। जहाँ एक तरफ़ अपराध ख़त्म करने के दावे किये जाते हैं, वहीं दूसरी ओर हर रोज़ दलितों के ख़िलाफ़ बर्बर अपराध अंजाम दिये जा रहे हैं। फ़ासीवादी भाजपा सरकार के राज में दलित-विरोधी आपराधिक मानसिकता को पूरी छूट मिली हुई है। हाथरस जैसी घटनाओं में जिस तरह से पुलिस प्रशासन और भाजपा सरकार की पूरी मशीनरी हत्यारों को बचाने के हर सम्भव प्रयास में लगी रही और जिस प्रकार उनके पक्ष में पंचायतें तक आयोजित की गयीं, उससे ही स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी घटनाओं में पीड़ितों को न्याय मिलने की उम्मीद नगण्य है। हाल ही में आयी एनसीआरबी की रिपोर्ट बता रही है कि 2019 की तुलना में 2020 में दलित-विरोधी अपराधों में वृद्धि हुई है और इन में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। दलितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये तमाम क़ानून केवल काग़ज़ी हैं। पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था की पूरी मशीनरी में ऐसी दलित-विरोधी मानसिकता को प्रश्रय देने वाले भरे पड़े हैं। इस घटना के होते ही तमाम अन्य चुनावबाज़ पार्टियाँ भी मैदान में कूदकर अपनी गोटियाँ लाल करने में लग गयी हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इन पार्टियों में भी तमाम दलित-विरोधी अपराधों के अपराधी बैठे हुए हैं। आज यह सबकुछ सामान्य बनता जा रहा है। मनुवाद और ब्राह्मणवाद की पैरोकार भाजपा के सत्ता में आने के बाद जातिवादी दलितों पर हमले तेज़ हुए हैं।
1989 में एससी/एसटी एक्ट के लागू होने के बावजूद देश में औसतन हर 15 मिनट पर एक दलित उत्पीड़न का शिकार होता है; हर घण्टे दलितों के ख़िलाफ़ 5 से ज़्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है। दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी भयानक है। प्रतिदिन औसतन 6 दलित स्त्रियाँ बलात्कार का शिकार होती हैं। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़, वर्ष 2020 के दौरान दलितों के ख़िलाफ़ हुए अपराध या अत्याचार में सबसे अधिक हिस्सा ‘मामूली रूप से चोट पहुँचाने’ का रहा और ऐसे 16,543 (कुल मामलों के 32.9 प्रतिशत) मामले दर्ज किये गये। इसके बाद अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत 4,273 मामले (8.5 प्रतिशत) जबकि ‘आपराधिक धमकी’ के 3,788 (7.5 प्रतिशत)) मामले सामने आये। आँकड़ों से पता चलता है कि अन्य 3,372 मामले बलात्कार के लिए, शील भंग करने के इरादे से महिलाओं पर हमले के 3,373, हत्या के 855 और हत्या के प्रयास के 1,119 मामले दर्ज किये गये। राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में साल 2020 में दलितों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों के सबसे अधिक 12,714 मामले (25.2 प्रतिशत) उत्तर प्रदेश से थे। पहली बात तो यह दलित-विरोधी उत्पीड़न के बहुत सारे मामले सामाजिक डर और आर्थिक असुरक्षा के चलते पुलिस-प्रशासन के सामने ही नहीं आ पाते। लेकिन पुलिस और कोर्ट की फ़ाइलों में दर्ज होने के बाद भी न जाने कितने मामलों में न्याय नहीं हो पाता। देशभर में हुए भयंकर दलित-विरोधी काण्ड और उन पर चली न्यायिक प्रक्रिया हमारी न्याय व्यवस्था पर भी बहुत से सवाल खड़े करती है। ख़ुद को दलितों का मसीहा कहने वाली पार्टियाँ भी मेहनतकश दलित आबादी के इन मुद्दों को नहीं उठायेंगी। ये पार्टियाँ सिर्फ़ मूर्ति बनवाने या तोड़े जाने और किसी के बारे में किसी के द्वारा कुछ कह देने जैसे मुद्दों को ही मुखरता से उठाती हैं और दलित-ग़रीब आबादी के असल मुद्दों पर चुप्पी साधे रहती हैं। दलितों की सबसे बड़ी पैरोकारों में से एक मायावती भी अब राम मन्दिर बनवाने की घोषणा कर “रामराज्य” लाने के प्रयत्न कर रही हैं। इन्हीं के पीछे-पीछे चन्द्रशेखर रावण भी अपनी आज़ाद समाज पार्टी बनाकर ख़ुद को दलितों के नायक के तौर पर पेश कर रहे हैं। पर ऐसे मुद्दों पर ये भी पर चुप्पी साधे रहते हैं या फिर सिर्फ़ प्रतीकात्मक कार्रवाई करते हैं।
हमें यह बात समझ लेनी होगी कि बिना समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के दलित मुक्ति की परियोजना आगे नहीं बढ़ सकती और बिना जाति-व्यवस्था विरोधी व्यापक जनान्दोलनों के क्रान्ति का विचार भी एक ख़याली पुलावभर है। जातिवाद और ब्राह्मणवाद आज विचारधारात्मक और सांस्कृतिक तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रहा है और इसी के ज़रिए दलित मेहनतकश आबादी के आर्थिक अतिशोषण को भी सम्भव बना रहा है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता और तमाम तरह की अस्मितावादी राजनीति आज पूँजीवाद के लिए ‘संजीवनी बूटी’ के समान है। व्यवस्था के ठेकेदार पूँजीवाद द्वारा परिष्कृत करके अपना ली गयी जाति-व्यवस्था का अपने हितों के लिए ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं। यही कारण है कि आज़ादी के 74 साल बाद भी जातिवादी दमन-उत्पीड़न घटने के बजाय बढ़ ही रहे हैं। यदि देशव्यापी आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ तो दलितों का क़रीब 95 प्रतिशत हिस्सा खेतिहर मज़दूर, निर्माण मज़दूर औद्योगिक मज़दूर के तौर पर खट रहा है या फिर सफ़ाई कामगार आदि के तौर पर काम कर रहा है। पहचान और प्रतीकों की राजनीति करने वाले लोग बिरले ही इस मेहनतकश दलित आबादी के मुद्दों को उठाते हैं। इस मज़दूर आबादी के मुद्दे सीधे तौर पर देश की अन्य मेहनतकश आबादी के साथ जुड़ते हैं। शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा-आवास-महँगाई जैसे मुद्दों पर होने वाले संघर्षों में हर जाति की मेहनतकश जनता की साझा भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। दलित-विरोधी उत्पीड़न के मुद्दों के ख़िलाफ़ लड़े जाने वाले संघर्षों को मज़बूती के साथ तभी लड़ा जा सकता है जब हर जाति की व्यापक मेहनतकश जनता को जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लामबद्ध किया जायेगा, तभी जाति की समाप्ति की लड़ाई को आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि ग़ैर-दलित मज़दूर आबादी के बीच व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह और श्रेष्ठताबोध के विरुद्ध भी लम्बा और दृढ़ संघर्ष चलाया जाये और यह स्पष्ट किया जाये कि इन विचारों को मान्यता देकर वे अपने दुश्मन, यानी पूँजीपति वर्ग को ही मज़बूत कर रहे हैं।
आज ऐसी हर घटना के ख़िलाफ़ एक तरफ़ तो हमें सड़कों पर उतरकर प्रतिरोध दर्ज कराना ही होगा, साथ ही इस भ्रम से भी मुक्त होना होगा कि इस व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित-मुक्ति का कोई रास्ता निकाला जा सकता है। आज वर्गीय एकता क़ायम करके हमें जाति-उन्मूलन के ख़िलाफ़ संघर्ष को तेज़ करने के लिए आगे आना होगा। अखिल भारतीय जाति-विरोधी मंच की ओर से माँग की गयी है कि –
– फाफामऊ व डलमऊ में दलित-विरोधी अपराधों को अंजाम देने वाले हत्यारों को तुरन्त सख़्त सज़ा दी जाये।
– पीड़ित परिवार के आश्रितों को उचित मुआवज़ा दिया जाये।
– दलित उत्पीड़न के लम्बित मामलों को फ़ास्ट ट्रैक अदालतों से हल करो!
– जातिवादी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कड़े क़ानून बनाओ और इन्हें सख़्ती से लागू करने का इन्तज़ाम करो!
– तमाम जातिवादी संस्थाओं, सभाओं और पंचायतों पर रोक लगाओ!
– राजकीय संस्थाओं की ओर से जातिवादी कार्यक्रमों में भागीदारी और सरकारी अनुदान पर तत्काल रोक लगाओ!
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन