महाराष्ट्र में परिवहन निगम कर्मचारियों का आन्दोलन : एक रिपोर्ट

– अविनाश

महाराष्ट्र में चल रहा राजकीय परिवहन निगम (स्टेट ट्रांसपोर्ट – एसटी) कर्मचारियों का संघर्ष हाल के आन्दोलनों में उल्लेखनीय स्थान रखता है जिसने दलाल ट्रेड यूनियनों, एसटी महामण्डल, राज्य सरकार और कोर्ट के दबाव को पीछे छोड़कर आन्दोलन को अभी भी जारी रखा हुआ है। सरकार द्वारा दिये जा रहे आर्थिक वेतन वृद्धि के लालच को भी मज़दूरों ने ठेंगा दिखा दिया है और अभी भी राज्य सरकार से विलय की माँग पर डटे हुए हैं। अगर विलय की माँग पूरी हो जाये, तो मज़दूरों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलेगा और उसके तहत सातवाँ वेतन आयोग भी उसी शर्त के अनुसार लागू होगा।

परिवहन कर्मचारियों के काम के बुरे हालात

एसटी कर्मचारी महाराष्ट्र के सबसे दुर्गम स्थानों में और बेहद कठिन हालात में सामान और व्यक्तियों को पहुँचाने का काम करते हैं। महाराष्ट्र परिवहन निगम में 93,000 कर्मचारी काम करते हैं और 16,000 से ज़्यादा बसें मौजूद हैं। राजकीय परिवहन के मामले में देश में महाराष्ट्र एसटी का नेटवर्क बहुत व्यापक है जिसमें 65 लाख से ज़्यादा जनता रोज़ आना-जाना करती है। यहाँ पर 20-20 साल से काम करने के बावजूद कर्मचारियों को 20 से 25,000 भी वेतन नहीं मिलता है, जबकि उसी बस डिपो के वरिष्ठ अधिकारियों को तमाम तरह की सरकारी सुविधाएँ मिलती हैं। ऐसे में एसटी कर्मचारी दो दशक से भी ज़्यादा समय से अपने हक़ और अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते रहे हैं। चाहे वह भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस या पूँजीपति वर्ग की कोई दूसरी पार्टी हो, सबने उनको अनसुना ही किया है। एसटी कर्मचारियों ने 56,000 हस्ताक्षरों के साथ भाजपा सरकार से विलय के लिए आवेदन भी दिया था। उन्हें निराशा ही हाथ लगी और मौजूदा शिवसेना की सरकार ने भी फिर से इन्हें धोखा ही दिया। राष्ट्रवादी कांग्रेस से जुड़ी एसटी कर्मचारियों की मान्यता प्राप्त यूनियन ने भी पीठ में छुरा घोंपने का ही काम किया है। कई सालों से जारी अन्याय और अत्याचार की प्रतिक्रिया के तौर पर यह आन्दोलन उभरकर सामने आया है।

एसटी आन्दोलन में आये उतार-चढ़ाव

एसटी आन्दोलन को एक महीने से ज़्यादा होने जा रहा है। शुरुआत में ख़ुद को कभी ‘मराठी’ तो कभी ‘हिन्दू’ का नेता बताने वाला राज ठाकरे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा था। पर उसकी कोरी बकवास और आश्वासनों से एसटी कर्मचारियों को कुछ नहीं मिला जिसके बाद अवसरवादी राजनीति करते हुए भाजपा एसटी कर्मचारियों के हितचिन्तक के तौर पर सामने आयी और बहुत-से मज़दूरों को गुमराह करने में कामयाब भी हुई। सदाभाऊ खोत और गोपीचन्द पडळकर आन्दोलन में नेता बनकर उभरे। मगर मज़दूर वर्गीय राजनीति की समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि पूँजीपतियों के हितों की रक्षा करने वाले और निजीकरण, उदारीकरण को तेज़ी से आगे बढ़ाने वाले कभी मज़दूर के पक्ष का सही नेतृत्व नहीं कर सकते हैं। भाजपा की सरकार में भी अर्थ मंत्री सुधीर मुंडन दीवार ने 56,000 एसटी कर्मचारियों के हस्ताक्षरों से की गयी विलय की माँग को नकार दिया था।
अभी पिछले दरवाज़े से सदाभाऊ खोत और गोपीचन्द पडळकर ने सरकार से हाथ मिला लिया है और आन्दोलन को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिशें जारी हैं। महा विकास अगाडी की सरकार ने एसटी कर्मचारियों की विलय की माँग तो नहीं मानी है, मगर एसटी कर्मचारियों को वेतन वृद्धि का लालच देकर आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके तहत 10 साल काम करने वाले मज़दूरों को 5000, 10-20 साल से काम करने वाले मज़दूरों को 4000 और 20 साल से ऊपर से काम करने वाले मज़दूरों को 2,500 रुपये वृद्धि की घोषणा की है। यह मज़दूरों को भी पता है कि इन पैसों की वृद्धि से उनके जीवन के हालात में कोई बदलाव नहीं आने वाला है । सरकार ने भी बिना देरी किये एक समिति का गठन करने की घोषणा कर दी है। सरकारी समितियाँ कैसे काम करती हैं, यह तो सबको पता है।
एसटी कर्मचारी आन्दोलन के दमन के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। 3 दिसम्बर को परिवहन मंत्री अनिल परब ने मज़दूरों को ‘मेस्मा’ क़ायदा लागू करने की धमकी दी है। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने अधिकारियों को गिरनी कामगार जैसी हालत करने की धमकी दी है। यह भूलना नहीं चाहिए कि मुम्बई में गिरनी मज़दूरों के आन्दोलन को तोड़ने में शिवसेना ने अहम भूमिका अदा की थी। अभी भी सरकार ने 2,500 मज़दूरों पर कार्रवाई की है और कई मज़दूरों को निलम्बित भी किया गया है। मुम्बई के आज़ाद मैदान में महाराष्ट्र के 250 डिपो से आये एसटी कर्मचारी ठण्ड-बरसात, भूख-प्यास और तमाम तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए डटे हुए हैं।

पूँजीवादी पार्टियों के चरित्र को पहचानो

1947 के बाद देश की सत्ता पूँजीपति वर्ग के हाथ में चली गयी थी और पूँजीवादी विकास को गति देने के लिए उसके बाद के पहले 3 दशकों में एसटी जैसी कई सार्वजनिक सेवाओं और उद्योगों को खड़ा किया गया था। 1991 से अपनायी गयी निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के तहत पूँजीपतियों को खुले तौर पर श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की छूट दी गयी। सत्ता में आने वाले सभी पूँजीवादी दलों ने इन नीतियों को ही आगे बढ़ाया है। सार्वजनिक व्यापार-उद्योग-सम्पत्ति का निजीकरण जमकर किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के श्रमिकों पर लगातार छँटनी, ठेकाकरण और अन्य समस्याएँ थोप दी गयी हैं। पिछले दो दशकों में महाराष्ट्र सरकार द्वारा राज्य परिवहन निगम में घाटा दिखाकर चरणबद्ध तरीक़े से निजीकरण किया गया है। नतीजतन, एसटी का ग़बन और श्रमिकों का उत्पीड़न बढ़ गया। इसके ख़िलाफ़ कर्मचारियों ने कई आन्दोलन किये लेकिन उचित नेतृत्व और सही रास्ते के अभाव में वे आगे नहीं बढ़े।
एसटी कर्मचारियों के बीच पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रवादी, मनसे, वंचित बहुजन अगाडी और अन्य के चरित्र को उजागर करना भी ज़रूरी है। ये सभी पार्टियाँ पूँजीपतियों के ही अलग-अलग धड़ों की नुमाइन्दगी करती हैं। अक्सर ये विरोधी पक्ष के तौर पर मज़दूरों के सामने सिर्फ़ ढोंग करती हैं और सत्ता में आने के बाद निजीकरण-उदारीकरण की ही नीतियाँ लागू करती हैं। सत्ता में आने के बाद आन्दोलन का दमन करने में ये भी कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। जो भाजपा एसटी कर्मचारी आन्दोलन का नेतृत्व कर रही थी, उसी भाजपा की मोदी सरकार ने 2022 से 2025 के 4 वर्षों में 6 लाख करोड़ रुपये की सरकारी सम्पत्ति का निजीकरण किया है। महा विकास अगाडी के मुख्य नेता शरद पवार ने महाबलेश्वर में कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि एसटी महामण्डल का राज्य सरकार में विलय स्वीकार किया गया तो अलग-अलग विभाग के कर्मचारी भी इसी तरह अपने हक़ों के लिए आगे आयेंगे। महाराष्ट्र में इसके अलावा 56 महामण्डल हैं जिसमें आशा, आँगनवाड़ी कर्मचारी, स्वच्छता कर्मचारी जैसे लाखों कर्मचारी मौजूद हैं।

एसटी कर्मचारियों को पूँजीवादी मीडिया और न्यायालय के चरित्र को पहचानना होगा

विभिन्न प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा लगातार श्रमिक आन्दोलन के बारे में बेहद भ्रामक ख़बरें दी गयी हैं। जब भाजपा आन्दोलन में नेतृत्व कर रही थी, तब भाजपा समर्थक मीडिया ने कुछ समय के लिए सकारात्मक समाचार दिया; लेकिन अब उन्होंने कर्मचारियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। यह मीडिया भी देश के बड़े पूँजीपतियों के हाथ में है तो इसकी भूमिका श्रमिकों के ख़िलाफ़ होगी। मज़दूर वर्ग को एक स्वतंत्र मज़दूर वर्गीय मीडिया की आवश्यकता है।
एसटी कर्मचारियों के नेतृत्व में और कुछ श्रमिकों के एक वर्ग में संवैधानिक अधिकारों, श्रम क़ानूनों और अदालतों के बारे में भी कई ग़लत धारणाएँ हैं। जिस तत्परता के साथ औद्योगिक न्यायालय और बाद में उच्च न्यायालय ने हड़ताल के ख़िलाफ़ आदेश जारी किया और फिर सरकार की सरकारी समिति की रिपोर्ट पर भरोसा करने के लिए कहा, उससे क़ानूनी प्रक्रिया की सीमाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इस समिति की अध्यक्षता वरिष्ठ सरकारी अधिकारी करेंगे। यह सबको पता है कि कमेटियों का काम हमेशा सवालों को लम्बे समय तक लटकाये रखने और जनता को भ्रमित करने का रहा है। हमें न्यायालय की सीमाओं को समझना भी बेहद आवश्यक है। न्यायालयों ने सरकार की कार्यकारी शाखा में हस्तक्षेप करने से बार-बार इन्कार किया है। इस बीच, सरकार अब तक विभिन्न क़ानूनी अधिकारों का उपयोग कर एक हज़ार से अधिक श्रमिकों को निलम्बित कर चुकी है। क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि अदालतें किसकी सेवा कर रही हैं?

एसटी कर्मचारी आन्दोलन में मज़दूर वर्गीय राजनीति की समझ की ज़रूरत

एसटी कर्मचारी आन्दोलन स्वतःस्फूर्त तरीक़े से और भावनात्मक आवेग से लम्बे समय तक नहीं चल सकता है। इसे आगे बढाने के लिए एक सुस्पष्ट मज़दूर वर्गीय राजनीतिक समझदारी की बेहद ज़रूरत है, तभी इसके दम पर आन्दोलन को सही कार्यदिशा दी जा सकती है। एसटी कर्मचारी आन्दोलन को जनवादी तरीक़े से अपना प्रतिनिधिमण्डल चुनने की ज़रूरत है जो बिचौलियों पर निर्भर रहने के बजाय सरकार से ख़ुद बात करे। दूसरी ओर, पिछली यूनियन ने भले ही धोखा दिया हो, मगर संगठित हुए बिना एसटी कर्मचारियों के पास लड़ने का कोई रास्ता नहीं है। उन्हें जनवादी आधार पर संगठित नयी जुझारू यूनियन बनाकर आन्दोलन को धार देने की ज़रूरत है। इस आन्दोलन का भविष्य निश्चित तौर पर आन्दोलन की सही वैचारिक समझदारी और कार्य दिशा से तय होगा। आज राज्यभर में क़रीब लाख कर्मचारी बहुत बड़ी शक्ति बन सकते हैं। सरकार द्वारा आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है, जिसमें मीडिया भी सरकार के साथ है। ऐसे में जनता का समर्थन हासिल करने के लिए एसटी कर्मचारियों को अपनी माँगों को लेकर के जनता के बीच भी जाना होगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021


 

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