एकजुट संघर्ष ही रास्ता है

– रौशन कुमार

मेरा नाम रौशन कुमार है। मैं एक बैंक में कार्यरत हूँ। मैं पिछले कई महीनों से मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ता आ रहा हूँ। हालाँकि अब तो मुझे बिगुल अख़बार का बड़ी ही बेसब्री के साथ इन्तज़ार रहता है। इसमें मौजूदा हालात और विभिन्न मसलों पर आने वाला दृष्टिकोण काफ़ी विचारोत्तेजक और आँखें खोलने वाला होता है। सच कहूँ तो मैं शहीद भगतसिंह का दीवाना था और इसी कारण से मैंने उनके विचारों के बारे में और फिर उनके सपने ‘समाजवाद’ के बारे में जानना-पढ़ना शुरू किया था। समाजवाद के बारे में सही जानकारी और अच्छी किताबों की खोजबीन की प्रक्रिया में ही मैं पहले ‘जनचेतना’ के वैकल्पिक मीडिया अभियान और फिर मज़दूर बिगुल अख़बार तक पहुँचा। इसी दौरान मेरा सम्पर्क बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों के साथ भी हुआ। वैसे तो मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखता हूँ पर ख़ुशक़िस्मती कहिए या कुछ और मैं भारतीय मध्यमवर्ग के जैसा कूपमण्डूक क़त्तई नहीं बन पाया हूँ। मैं तहेदिल से प्रगतिशील विचारों और बेहतर सामाजिक बदलाव का हामी हूँ और इसके लिए जितना बन पड़ता है उतना प्रयास भी करता हूँ। मैं मज़दूर बिगुल अख़बार की राजनीतिक लाइन और इसमें पेश मज़दूर वर्गीय दृष्टिकोण का तहेदिल से समर्थन करता हूँ। अभी तक पढ़े गये इसके सभी अंकों से मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका हूँ।
मज़दूर बिगुल मेहनतकश वर्गों के लिए वाक़ई में एक बेहद महत्त्वपूर्ण अख़बार है। हमारे देश में पूँजीवाद मज़दूरों-मेहनतकशों और ग़रीब जनता पर बुरी तरह से क़हर बरपा कर रहा है। धार्मिक कट्टरपन और फ़ासीवाद का दानव भी हमारे सामने अपने विकराल रूप में उपस्थित है। इन प्रतिगामी ताक़तों का एकजुटता और बहादुरी के साथ हमें सामना करना ही होगा। आज गोदी मीडिया के दौर में मज़दूर बिगुल जैसा अख़बार ही मेहनतकश जनता का अपना अख़बार हो सकता है। कॉर्पोरेट मीडिया के झूठ, इसके द्वारा फैलाये जा रहे अन्ध-राष्ट्रवाद और पूँजीवादी लूट का पर्दाफ़ाश किया जाना बेहद ज़रूरी है। साथ ही समाजवाद का प्रचार भी अत्यावश्यक है। अतीत के समाजवादी प्रयोगों या मेहनतकशों द्वारा क़ायम राज-व्यवस्थाओं की सच्चाई भी जनता को बहुत कम पता है। ज़्यादातर लोग तो बस पूँजीवादी प्रोपगैण्डा का ही शिकार हैं। समाजवाद-साम्यवाद की आवश्यकता का प्रचार-प्रसार भी हमारा ज़रूरी कार्यभार बनता है। मुझे लगता है मज़दूर बिगुल ये सभी ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभा रहा है। इसलिए कहना नहीं होगा कि जनता के बीच इसका नियमित पहुँचना बहुत ज़रूरी है।
अब कुछ बातें मैं अपने काम के हालात और उपस्थित चुनौतियों पर भी करना चाहूँगा। मेरे जैसे तमाम बैंक कर्मचारी काफ़ी अमानवीय हालात में काम कर रहे हैं। हालाँकि इसका भी अहसास इनमें से बहुतों को नहीं है। काफ़ी सारे ऑफ़िसर रैंक के अधिकारी वैसे तो मोटी तनख़्वाहें उठाते हैं लेकिन उनकी ज़िन्दगी में और ज्ञान-विवेक हीन खाये-पीये-अघाये पशु की ज़िन्दगी में ज़्यादा कुछ फ़र्क़ नहीं रह जाता है। पैसे-पूँजी और आने-पाई का हिसाब-किताब उनके अन्दर के मानवीय पक्ष को समाप्त कर डालता है। बैंकों में काम करने वाले पक्के अधिकारियों और पक्के कर्मचारियों की वैसे तो कई यूनियनें हैं परन्तु ये सब यूनियनवाद से अधिक कुछ नहीं करती हैं। मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ राजनीतिक चेतना के प्रचार-प्रसार का तो सवाल ही नहीं है! सही राजनीतिक दिशा के अभाव में ये यूनियनें आर्थिक संघर्षों को लेकर भी असरदार आन्दोलन खड़ा करने में नाकाम साबित हो रही हैं। निजीकरण या प्राइवेटाइज़ेशन के ख़िलाफ़ भी तमाम बैंक यूनियनें सही ढंग से नहीं लड़ पायी हैं। निजी या प्राइवेट बैंक कर्मियों को तो और भी ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। सरकारी बैंक कर्मियों की तुलना में इनके हालात काफ़ी ख़राब और स्थिति अरक्षित होती है। आज के समय में सरकारी और सहकारी बैंकों में सबसे ज़्यादा संख्या ठेका या कॉण्ट्रैक्ट कर्मियों की है। सिक्योरिटी गार्ड, सफ़ाई कर्मी, चपरासी से लेकर प्रचार-प्रसार टीमों के बहुत सारे सदस्य कच्चे कर्मी ही होते हैं। लेकिन बैंक यूनियनें कभी भी इनके मुद्दों को नहीं उठाती हैं। मैनेजमेण्ट के द्वारा तबादले या ट्रांसफ़र का भय दिखाकर बैंक कर्मियों का शोषण किया जाता है और उनकी एकता पर चोट की जाती है पर बैंक यूनियनें यहाँ भी कुछ नहीं बोलती हैं। बैंक कर्मियों के ऊपर सरकारी योजनाओं का लक्ष्य या टारगेट पूरा करने का बोझ भी लगातार लदा ही रहता है। बैंक कर्मियों और यूनियनों का रिश्ता अब मात्र मेम्बरशिप का ही रह गया है। चन्दे की पर्ची कटाते रहो और फिर एक-दो दिन की नाम भर की हड़ताल की छुट्टी मनाते रहो, बस हो गया काम! बैंक यूनियनों के नेतृत्व में राजनीतिक सचेतनता और जुझारूपन का घोर अभाव है। यही कारण है कि इनका रवैया समझौतापरस्ती का ही रहता है। कर्मचारियों के ख़ाली पदों को भरने, दबाव में काम के अमानवीय हालात, पेंशन, वेतन सहित बैंक कर्मचारियों के बहुत सारे मसले अटके और लम्बित पड़े रहते हैं लेकिन यूनियनें कामयाबी का ढिंढोरा पीटती रहती हैं। मुझे लगता है बैंक कर्मचारियों को तमाम कच्चे कर्मियों को साथ लेकर नये सिरे से अपनी जुझारू यूनियनें खड़ी करनी होंगी। इसके अलावा बैंक कर्मियों को वर्ग सचेत होना होगा तथा अपनी आकांक्षाओं को देश की व्यापक जनता के हितों के साथ जोड़कर चलना होगा।
अन्त में मज़दूर बिगुल अख़बार के माध्यम से मैं आपको यही कहना चाहूँगा कि साथियो एकजुट होकर ही हम पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का मुक़ाबला कर सकते हैं। संघर्ष और क़ुर्बानियों के द्वारा ही हम अपना, अपनी आने वाली पीढ़ी और अपने प्यारे देश का भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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