पूँजीवाद का हित साधने के लिए देश में बढ़ती फ़ासिस्टों की गुण्डागर्दी
– लता
देश की अर्थव्यवस्था में छायी मन्दी, आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी के गहराते काले बादल सड़कों पर जनाक्रोश के रूप में फूट पड़ने के संकेत दे रहे हैं। जगह-जगह पर शिक्षा, रोज़गार और वेतन बढ़ाने के लिए मज़दूर-नौजवान-छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं। हालाँकि गोदी मीडिया इन प्रदर्शनों को दिखायेगी नहीं लेकिन मोदी सरकार सतह के नीचे बढ़ते इन असन्तोषों को भली-भाँति समझ रही है। इसलिए हर प्रकार के प्रतिरोध का बर्बर दमन कर रही है। साथ ही पेगासस जैसे ख़ुफ़िया तंत्रों का सहारा लेकर भविष्य में प्रतिरोधों के दमन की पूरी तैयारी भी कर रही है। आम मेहनतकश जनता की एकजुटता तोड़ने, मज़दूरों की वर्ग चेतना कुन्द करने और नौजवानों को दिग्भ्रमित करने के लिए संघ परिवार और मोदी सरकार साम्प्रदायिक तनाव को तीव्र गति से बढ़ा रहे हैं, धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण को तेज़ कर रहे हैं तमाम क़िस्म की रूढ़िवादी परम्पराओं को हवा दे रहे हैं। यही वजह है कि भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं और संघ परिवार के लम्पटों को सड़क पर पूरी छूट मिली हुई है। नफ़रत की आँधी फैलाकर जुनूनी भीड़ को उकसाया जा रहा है और निर्दोषों की हत्या करवायी जा रही है। ऐसी वारदातें जो पहले कुछ-एक घटनाओं के रूप में हुआ करती थीं, 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद एक अभियान की शक्ल इख़्तियार कर चुकी हैं। हालाँकि मोदी ‘सबका साथ सबका विकास’ का जाप करता रहता है, कभी-कभार दबी ज़ुबान से ऐसी घटनाओं की निन्दा करता है लेकिन इनके ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। आज जगह-जगह ऐसी उन्मादी भीड़ अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और राजनीतिक विरोधियों को अपना शिकार बना रही है। अकेले और कमज़ोर व्यक्तियों पर दरिन्दों की तरह यह भीड़ टूट पड़ती है और झुण्ड में अपना पौरुष दिखाती हुई देश और धर्म की रक्षा के नाम पर सड़कों पर मासूमों को पीटती है, अपमानित करती है और मौत के घाट उतारती है।
हाल ही में 2 सितम्बर को कानपुर में बजरंग दल के दरिन्दों और कायरों की एक ऐसी ही भीड़ शहर में एक निरीह मुसलमान रिक्शेवाले को मारती-पीटती, उसे अपमानित करती गलियों में घुमाती नज़र आयी। उस रिक्शेवाले की छोटी बेटी अपने पिता से चिपकी भीड़ से पिता को न मारने की विनती कर रही थी। लेकिन वहशियों की यह भीड़ उस साधारण भारतीय नागरिक से ‘जय श्री राम’और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगवाती हुई उसे लगातार पीट रही थी। दो ग़रीब पड़ोसियों के बीच हुई मामूली लड़ाई को स्थानीय बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने साम्प्रदायिक रंग दे दिया। वहीं पुलिस प्रशासन एक बार फिर वहशियों के समर्थन में खड़ा दिखायी दिया। बजरंग दल के आतंकियों ने रिक्शेवाले को मारते, अपमानित करते शहर में घुमाया लेकिन पुलिस को इसकी कोई ख़बर नहीं हुई। इन्हीं गुण्डों ने रिक्शेवाले को मारते-पीटते पुलिस को सौंप दिया और सौंपते समय भी पुलिस की मौजूदगी में रिक्शेवाले को मारते रहे। पुलिस को भी इस वहशी भीड़ के सामने अकेला पिटता यह इन्सान ही आरोपी दिखा। दरिन्दों की भीड़ को छोड़ उस अकेले इन्सान को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। इतना ही नहीं उसे गिरफ़्तार करने के बाद हिरासत में भी बुरी तरह पीटा। फ़ासीवादियों के प्रचारतंत्र को देखते हुए गली-मोहल्लों और पड़ोसियों के आपसी झगड़ों को साम्प्रदायिक रंग देना आश्चर्यजनक नहीं लगता है। गली-गली में बैठे संघी ऐसे मौक़ों की तलाश में रहते हैं। इसके अलावा गोदी मीडिया के भाड़े के पत्रकार लोगों के दिलो-दिमाग़ में ज़हर भरते रहते हैं। गली-मुहल्लों में आरएसएस की शाखाएँ, शिशु मन्दिर, अध्ययन संस्थान लोगों के ज़ेहन में भयंकर अन्धी प्रतिक्रिया का ज़हर घोलते हैं जिसके परिणाम के तौर पर सड़कों पर साम्प्रदायिक हिंसा और लिंचिंग की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
इस घटना के कुछ दिनों बाद जन्तर-मन्तर पर 8 अगस्त को भाजपा के पूर्व प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने अंग्रेज़ों के ज़माने के काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन आयोजित किया जिसमें मुसलमान-विरोधी नारे लगाये गये या कहें सीधे-सीधे मुसलमानों के नरसंहार के नारे लगाये गये। कहा गया कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और उनकी आबादी 35 करोड़ की है। 35 करोड़ आबादी यानी 35 करोड़ वोट और जिस रफ़्तार से यह बच्चे पैदा कर रहे हैं आने वाले समय में भारत मुसलमान देश हो जायेगा। हम देख सकते हैं कि किस तरह खुलेआम देश की राजधानी में एक सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा रहा है और झूठा प्रचार कर उन्माद फैलाया जा रहा है और किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होती। कुछ नाम मात्र एफ़आईआर या एक दो दिन की गिरफ़्तारी हुई और सब सामान्य। इसे गुण्डों, आतंकियों और दरिन्दों को खुली शह देना ही कहा जायेगा।
इस तरह ही कुछ महीने पहले 16 मई को 27 वर्ष के युवक आसिफ़ ख़ान की तक़रीबन 20 लोगों के समूह ने पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। लिंचिंग की घटना के बाद पूरे इलाक़े में बड़ी-बड़ी सभाएँ कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाया गया। मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य तैयारी जैसा माहौल बनाया गया। इन सभाओं में भी बार-बार उन्हीं मिथकों को दुहराया गया जिसे संघ परिवार देश में सामान्य बोध की तरह स्थापित करने पर उतारू है। इन मिथकों को बार-बार दुहराने की वजह से निम्न-मध्यवर्गीय इलाक़ों से लेकर खाते-पीते मध्यवर्ग के बीच भी इन घटनाओं को उचित ठहराने की एक प्रवृत्ति पैदा हुई है।
अगर देखें तो भारत की कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 14.2 प्रतिशत का है। जनसंख्या विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि 1971 से लेकर 2011 तक मुसलमान आबादी लगातार कम हुई है या स्थिर रही है। आज़ादी से लेकर अब तक देश की आबादी में विभिन्न धर्मों की आबादी का जो संघटन है वह लगभग समान रहा है। वहीं प्यू शोध संस्थान का हालिया अध्ययन यह बताता है कि हिन्दुस्तान में लगभग सभी धर्मों के लोगों की प्रजनन दर में गिरावट आयी है और यह गिरावट सबसे अधिक मुसलमानों में देखी गयी है। यदि प्रजनन दर में भारी गिरावट आयी है तो निश्चित ही आबादी की बढ़ती दर में भी गिरावट आयी है। इस प्रकार बढ़ती मुसलमान आबादी का मिथक, कोरा झूठ है जिसका प्रचार हिन्दू आबादी में असुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए किया जाता है। इतना ही नहीं इस असुरक्षा की भावना को बढ़ाने के लिए संघी प्रचार मुसलमानों की मनमानी संख्या बताता है जैसे 34 करोड़, 40 करोड़ आदि जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता। बेरोज़गारी, छँटनी और तालाबन्दी की मार झेल रही आबादी को संघ का यह दावा सीधे-सीधे अपील करता है कि 17 करोड़ मुसलमान यानी 17 करोड़ नौकरियाँ!
हम सभी को यह समझना बेहद ज़रूरी है कि कि हिन्दुस्तान में सदियों से हिन्दुओं और मुसलमानों की आबादी साथ रहती आयी है, उनकी मिली-जुली संस्कृति और भाषा का इस देश के समाज और सभ्यता के विकास में शानदार योगदान रहा है। ऐसे में, आज मुसलमानों, और गौण रूप में ईसाइयों, दलितों व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को दुश्मन के रूप में पेश करके फ़ासीवादी संघ परिवार क्या करना चाहता है? सच्चाई यह है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारत के इतिहास में दंगों का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। अंग्रेज़ों ने बेहद कुशलता से हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल कर जनता की एकता को तोड़ने का प्रयास किया ताकि उन पर शासन और उनका शोषण-उत्पीड़न जारी रखा जा सके।
अंग्रेज़ों की चाकरी करने वाले, उन्हें माफ़ीनामा लिखने वाले और उनके प्रति वफ़ादारी की क़समें खाने वाले संघ परिवार के नेताओं ने अंग्रेज़ों से बहुत कुछ उधार लिया है। उसमें से एक है अपनी राजनीति के लिए साम्प्रदायिक कट्टरता का इस्तेमाल। संघी फ़ासीवादी आज़ादी से पहले के दौर में भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि मुसलमानों पर आग उगला करते थे और आज भी वे अपनी सत्तापरस्ती को क़ायम रखते हुए पूँजीपतियों के हितों को साधने के लिए भी हिन्दू आबादी को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काते हैं। मुसलमानों के अलावा इनकी नफ़रत के दायरे में तमाम धार्मिक अल्पसंख्यक, दलित, स्त्री आदि भी आते हैं। जर्मनी में जैसे यहूदियों को देश की सभी समस्याओं का कारण बताया गया था और प्रचारतंत्र के माध्यम से यह स्थापित किया गया था कि इनका अन्तिम समाधान (फ़ाइनल सोल्युशन) सभी समस्याओं का समाधान होगा, वैसे ही आरएसएस मुसलमानों, इसाइयों, दलितों व सभी अल्पसंख्यकों को देश की समस्याओं का कारण बताता है और जर्मनी व इटली की तर्ज़ पर ही इनका फ़ाइनल सोल्युशन या अन्तिम समाधान सुझाता है। मतलब पूँजीवाद जो कि सभी समस्याओं की जड़ है उसे कभी भी कठघरे में नहीं खड़ा करना और एक नक़ली दुश्मन पैदा कर बहुसंख्यक जनसमुदायों के समक्ष उसे खड़ा कर देना।
समाज की समस्याओं के असली दोषी पूँजीवाद को दृष्टि पटल से ओझल रखने के लिए संघी फ़ासीवाद अल्पसंख्यक, स्त्री, मज़दूर, दलित, दमित राष्ट्र और अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता-विरोधी विचारधाराओं को समाज में स्थापित करता है। ऐसा करने के लिए संघ परिवार के कुछ निश्चित हथकण्डे होते हैं जैसे गो हत्या, लव जिहाद, छेड़खानी, धर्म-परिवर्तन आदि जिसके नाम पर ये दंगे भड़काते हैं, राह चलते गुण्डागर्दी करते हैं, सड़क पर हत्या तक कर देते हैं और यह सब ‘राष्ट्र’ और धर्म के नाम पर। जनसंख्या पर हम पहले ही बात कर चुके हैं। इन्दौर में चूड़ी बेचने वाले एक फेरीवाले पर फ़ासीवादी मानसिकता वाले गुण्डे यही आरोप लगा रहे थे। इस उन्मादी भीड़ ने बेचारे उस फेरीवाले को पहले बुरी तरह मारा-पीटा फिर उसके 10,000 रुपये, मोबाइल फ़ोन और 25,000 की चूड़ियाँ छीन लीं। ग़रीब मेहनतकश आबादी समझ सकती है कि कोई फेरीवाला, रेहड़ी-खोमचेवाला धूप-गर्मी-बरसात और जाड़े में गली-गली अपनी रोज़ी-रोटी के लिए और परिवार का पेट पालने के लिए भटकता है। उसके लिए ऐसी घटना का क्या अर्थ होगा, यह समझा जा सकता है। किसी ग़रीब का पैसा, मोबाइल और पूँजी छीनकर कौन-से धर्म की रक्षा हो गयी। और यह बेचारा आदमी किस धर्म का अपमान कर रहा था। क्या मेहनत-मज़दूरी करना धर्म-विरोधी काम है? मेहनत-मज़दूरी कर रहे व्यक्ति के पेट पर लात मारना क्या उचित है? इन सबके पीछे संघ का मक़सद लोगों को असल मुद्दों से भटकाना होता है।
एक बात पर आप और ग़ौर करेंगे; इस तरह की ज़्यादातर घटनाएँ आम-मेहनकश ग़रीब आबादी के ख़िलाफ़ होती हैं और ऐसी घटनाओं को अंजाम अधिकतर टुटपुँजिया वर्गों की भीड़ देती है, लेकिन कई बार इसमें आम मेहनतकश वर्गों के लोग भी शामिल होते हैं। बड़ी पूँजी की मार से उजड़ने वाली निम्न-मध्यम वर्गीय आबादी जो टटपुँजिया वर्गों का सबसे असुरक्षित हिस्सा यानी छोटे रोज़गार धन्धों में लगा वर्ग होता है उसे हम इन घटनाओं में सबसे आगे खड़ा देखते हैं। यह उजड़ता टुटपुँजिया वर्ग फ़ासीवादी राजनीति का सबसे व्यापक सामाजिक आधार होता है। हालाँकि फ़ासीवाद के सामाजिक आधार की बात करें तो इसमें सामाजिक रूप से ऊपर की ओर गतिमान और पूँजीवादी लूट का लाभ प्राप्तकर्ता टुटपुँजिया वर्ग भी आता है जो इस उभार का ज़बर्दस्त सामाजिक आधार बनता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि फ़ासीवाद केवल उजड़ते टटपुँजिया वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन नहीं होता है, बल्कि आर्थिक तौर पर उभरते टटपुँजिया वर्ग का भी प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। लेकिन उजड़ते टुटपुँजिया वर्ग और उभरते टुटपुँजिया वर्ग की भागीदारी में एक विशेष अन्तर होता है। उभरता टुटपुँजिया वर्ग किसी झूठी वर्ग भावना से नहीं बल्कि अपने वर्ग हितों से इस प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का हिस्सा बनता है और उसको नेतृत्व भी देता है। जबकि उजड़ता टुटपुँजिया वर्ग अपने आप को इस खाते-पीते टटपुँजिया वर्ग का हिस्सा समझते हुए या उस जैसा बन जाने का सपना लिये उसके साथ खड़ा होता है।
त्रिशंकु के समान अपनी वर्ग स्थिति की वजह से उजड़ता हुआ यह वर्ग अपनी तबाही या असुरक्षा के असली कारणों की पहचान नहीं कर पाता, अपने वर्ग हितों को नहीं समझ पाता। इस स्थिति का फ़ायदा उठाकर फ़ासीवादी राजनीति इनके बीच अपने पैर पसारती है। अपने तमाम सफ़ेद झूठों, किंवदन्तियों और अफ़वाहों के माध्यम से टुटपुँजिया वर्गों को एक रूमानी सपना और एक काल्पनिक शत्रु देती है। इस सपने में कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। किसी ‘रामराज्य’ या ‘सोने की चिड़िया’ वाले भारत की स्थापना की बात की जाती है। इस अतीत को दुबारा कोई “मज़बूत नेता” लेकर आने वाला होता है। उजड़ते हुए टटपुँजिया वर्ग को मसीहा मिल जाता है जो उसके सभी कष्टों का समाधान करेगा। स्वयं अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन और पितृसत्तात्मक संरचना में गहरे धँसे होने की वजह से वह यक़ीन करता है ऐसे किसी मज़बूत नेता की ‘राष्ट्र’ को आवश्यकता है जो मज़दूरों, अल्पसंख्यकों, औरतों, दलितों आदि को अनुशासित कर ‘राष्ट्र’ को विकसित करेगा। इस विश्वास के साथ यह वर्ग फ़ासीवादी उन्माद का औज़ार बनता है।
मूलत: मज़दूर वर्ग और उसके आन्दोलन और साथ ही धार्मिक, नस्लीय, जातीय या किसी भी क़िस्म की अल्पसंख्यक आबादी इस काल्पनिक शत्रु के दायरे में आते हैं। इन्हें ‘बाहरी’, ‘अन्य’, ‘भिन्न’ आदि रूपों में प्रस्तुत किया जाता है जो भयंकर घृणा और क्रोध के पात्र बनते हैं। अपने प्रचारतंत्र के माध्यम से फ़ासीवाद इस घृणा और क्रोध को इतना फैलाता है कि जानवर के नाम पर इन्सानों की सरेआम हत्या मान्य हो जाती है; गौ रक्षा के नाम पर 12 साल के मासूम इनायतुल्ला को पेड़ से लटका दिया जाना स्वीकार्य हो जाता है। यह घृणा किस क़दर विकराल रूप लेती जा रही है इसका उदाहरण हम असम की घटना में देख सकते है। मज़दूर मेहनतकश मुस्लिम आबादी की 800 परिवार वाली एक बस्ती को पुलिस ने उजाड़ दिया। वहाँ रहने वालों ने जब प्रतिरोध किया तो उनपर गोलियों और लाठियों से हमला किया गया। इस हमले में मोइनुल मारा गया। उसकी मृत्यु के बाद वहाँ उपस्थित एक पत्रकार उसके शव के साथ बदसलूकी करता है, बेरहमी से उसपर जूतों से कूदता है। मुस्लिम समुदाय के प्रति इतनी घृणा दर्शाती है कि किस प्रकार असम की फि़रकापरस्त अस्मितावादी ताक़तें हिन्दुत्वादी फ़ासिस्टों के साथ मिलकर उनसे इन्सान होने तक का हक़ भी छीनने पर आमादा हैं। यहाँ रह रही आबादी का कहना है कि वे पूर्वी बंगाल से नहीं आये हैं बल्कि यहाँ के ही निवासी हैं और साथ ही यह भी जोड़ देते हैं कि इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, उनके लिए हम बस मियाँ हैं। असम की फ़ासीवादी सरकार भी अपने केन्द्र सरकार के नक़्शे क़दम पर चलते हुए ‘स्थानीय’ और ‘बाहरी’ का मुद्दा खड़ा कर लोगों को बाँटने का काम पूरे ज़ोरो-शोर से कर रही है जिसमें उनका साथ ये अस्मितावादी ताक़तें दे रही हैं।
उस आम मज़दूर मेहनतकश आबादी के मन में यह सवाल उठ सकता है जो अल्पसंख्यक, दलित या दमित राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं से नहीं आती है कि इस राजनीति से उन्हें क्या लेना? लेकिन मज़दूर वर्ग को यह समझना होगा कि फ़ासीवाद काल्पनिक शत्रु के आवरण में टुटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करता है जिसका लक्ष्य संकटग्रस्त बड़ी पूँजी की सेवा करना होता है। और इसके निशाने पर मज़दूर वर्ग और अल्पसंख्यक जनसमुदायों को रख दिया जाता है। यही फ़ासीवादी राजनीति की मूल पहचान होती है। हमारे बीच का भी एक हिस्सा जिसे लम्पट सर्वहारा कहा जाता है वह इस राजनीति के प्रभाव में आकर फ़ासीवाद का सामाजिक आधार बनाता है। यह फ़ासीवादी राजनीति हमारी एकता को तोड़ती है और हमारी वर्ग चेतना को कुन्द करती है। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र व नस्ली भिन्नता पर बाँटने की राजनीति मज़दूर आबादी की एकता को छिन्न-भिन्न करती है। हम जितने ही टूटे, बिखरे और अलग-अलग रहेंगे पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई उतनी ही कमज़ोर होती जायेगी। बिखरा हुआ मज़दूर वर्ग अपने ऐतिहासिक मिशन यानी मज़दूर राज्य की स्थापना के अपने लक्ष्य से उतना ही दूर होता चला जायेगा। यदि मज़दूर वर्ग ख़ुद जाति, धर्म, भाषा, नस्ल और क्षेत्र के नाम पर बँटा रहेगा तो आम मेहनतकश आबादी को राजनीतिक नेतृत्व कैसे दे पायेगा? ऐसी सोच हमारे लिए बेहद घातक साबित होगी। इसलिए हमें सचेतन तौर पर फ़ासीवादी राजनीति से लड़ना होगा उसके झूठे प्रचार, जुमलों और आडम्बरों को समझना होगा। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और नस्ल के नाम पर फैलाये जा रहे पूर्वाग्रहों व मिथकों से लड़ना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर पायेंगे तो यह फ़ासीवादी ताक़तें मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हितों की सेवा में पूरे देश को होम कर देंगी और अल्पसंख्यकों, दलितों, औरतों, दमित राष्ट्र और राष्ट्रीयताओं के साथ-साथ मज़दूर और मेहनतकश आबादी की बर्बादी भी निश्चित है। हमारी ही गलियों में हमारे ही अपनों का लहू बहेगा, जिनके साथ मिल बैठकर पर्व-त्योहार मनाये थे, चाय की चुस्कियाँ ली थीं, उन्हीं का ख़ून सड़कों पर बहेगा और हमारी चिताओं पर ही पूँजीपति वर्ग और फ़ासीवाद अपनी रोटियाँ सेंकेगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी के बीच फ़ासीवाद-विरोधी सघन राजनीतिक प्रचार-प्रसार करना होगा। आज की ज़रूरत एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण है। एक ऐसी पार्टी की अगुवाई में ही मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता प्रभावी तरीक़े से फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ सकती है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021
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