बाढ़, बेशर्म सरकार और संवेदनहीन प्रशासन का क़हर झेलती जनता
– अविनाश
जैसे-जैसे मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ‘विकास’ की नयी ऊँचाइयों पर पहुँच रही है, उसी अनुपात में जनता के जीवन में चलने वाली ‘विनाशलीला’ और ज़्यादा भयंकर रूप लेती जा रही है। इस विनाशलीला का एक दृश्य अगस्त के महीने में इलाहाबाद शहर में गंगा-यमुना के इलाक़े में आयी बाढ़ के रूप में सामने आया। गंगा और यमुना जैसी दो बड़ी नदियों और कई छोटी नदियों का शहर होने के चलते इस बाढ़ का क़हर जब टूटता है, तो इलाहाबाद की बहुत बड़ी आबादी उसका शिकार होती है। इस बार भी गंगा और यमुना के तटवर्ती इलाक़े, ससुर खदेरी और टौंस नदी के किनारे रहने वाली आबादी इस क़हर का शिकार बनी। बड़े पैमाने पर लोगों के काम-धन्धे का नुक़सान हुआ और बहुत से लोग विस्थापित हुए।
पूरा प्रशासन इस दौरान मूकदर्शक बना हुआ बाढ़ के गुज़र जाने का इन्तज़ार करता रहा। नेता-मंत्री हेलीकॉप्टर से गश्त लगाते रहे और अधिकारी नाव से गश्त लगाते रहे। प्रशासन की संवेदनहीनता इसी से समझी जा सकती है कि कई दिन पहले से ही बाँध का पानी छोड़े जाने की सूचना मिल जाने के बावजूद प्रशासन ने यह घोषणा तक नहीं करवायी कि नदी का जलस्तर कितना बढ़ सकता है और लोगों को सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिए। बहुत से लोग पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आधार पर इन्तज़ार करते रहे और जब पानी तेज़ी से बढ़ना शुरू हुआ तो उसी समय तेज़ बरसात की वजह से बहुत से लोग अपने घर का सामान तक ठीक से नहीं निकाल पाये। पानी घुसने के दो-तीन दिन बाद तक कई इलाक़ों में नाव नहीं पहुँची थी। जो बाढ़ राहत शिविर बनाये गये, वे अपने-आप में कुव्यवस्था की मिसाल बने हुए थे।
बाँधों से अचानक पानी छोड़े जाने की वजह से इलाहाबाद शहर के तटवर्ती इलाक़ों जैसे छोटा बघाड़ा, सलोरी, दारागंज, राजापुर, अशोक नगर आदि तथा गंगा के किनारे बसे इलाक़ों और करेली की गड्ढा कॉलोनी, करामत की चौकी, जेके आशियाना, करेला बाग़ जैसे यमुना के किनारे बसे इलाक़े जलमग्न हो गये थे। जहाँ से हज़ारों लोगों को अपने घर से विस्थापित होकर राहत शिविरों में गुज़र-बसर करना पड़ा। बहुत से लोगों को राहत शिविरों में इसलिए जगह नहीं मिली क्योंकि वे अपना सामान राहत शिविर में नहीं ले जा पाये थे। हर साल राहत शिविर के नाम पर इलाहाबाद प्रशासन और नगर निगम द्वारा लाखों का वारा-न्यारा कर दिया जाता है लेकिन ज़िले में बाढ़ प्रभावित आबादी की तुलना में राहत शिविरों की संख्या ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर भी नहीं थी। जो राहत शिविर थे भी उनमें भी न टॉयलेट था, न नहाने की व्यवस्था, न ही सफ़ाई का कोई इन्तज़ाम और ठीक से खाने की व्यवस्था। राहत शिविरों में भयंकर गन्दगी फैली हुई थी, जो बड़े पैमाने पर इन शिविरों में बीमारी फैलाने का कारण बन रही थी।
कई दिन बीतने और पानी उतरने के बाद अब बड़े पैमाने पर बीमारियाँ फैलनी शुरू हो गयी हैं। इलाक़े में शायद ही कोई ऐसा घर हो जहाँ कोई न कोई सर्दी, बुखार, खाँसी से पीड़ित न हो। लेकिन प्रशासन की इससे निपटने की कोई तैयारी नहीं है। कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद शहर के अस्पतालों में ओपीडी का संचालन अभी सुचारु ढंग से नहीं हो रहा है, जिसकी वजह से बड़ी आबादी जो प्राइवेट अस्पतालों की फ़ीस नहीं दे सकती है, झोलाछाप डॉक्टरों, फ़ार्मासिस्टों से इलाज कराने को मजबूर है।
हर साल आने वाली बाढ़ के भयंकर विभीषिका में तब्दील हो जाने की वजह प्राकृतिक नहीं बल्कि पूँजीपतियों के मुनाफे़ की हवस है। असमान विकास पूँजीवादी व्यवस्था का आम नियम है। जिसकी वजह से देश के बहुत बड़े हिस्से में तबाही का साम्राज्य होता है और कुछ इलाक़े ऐश्वर्य के टापू बन जाते हैं। इस असमान विकास की वजह से बहुत बड़ी आबादी गाँवों से शहरों की तरफ़ विस्थापित होती है। यह विस्थापन आम मेहनतकश आबादी के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं होता है लेकिन यही असमान विकास दूसरी ओर कुछ धनपशुओं के लिए मुनाफ़ा बटोरने का अवसर मुहैया कराता है।
इलाहाबाद शहर की बात करें तो गंगा और यमुना के किनारे बसे इस शहर में प्रशासन की गठजोड़ से भूमाफ़िया कछार की ज़मीन पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं। एक तरफ़ ये इस ज़मीन पर धड़ल्ले से अवैध निर्माण कराते हैं तो दूसरी ओर प्रशासनिक तंत्र में अपनी पकड़ का इस्तेमाल कर ये लोग कछार की ज़मीन को, गाँवों से शहरों की तरफ़ आने वाली आबादी को अपेक्षाकृत कम क़ीमत पर बेच देते हैं। इलाहाबाद शहर प्रतियोगी छात्रों का गढ़ है आस-पास के इलाक़ों से लाखों छात्र पढ़ाई करने और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए इलाहाबाद आते हैं। कछार के इन इलाक़ों में शहर की तुलना में कमरे का किराया कम होने की वजह से बहुत से छात्र यहीं कमरा लेते हैं। यह भी एक बड़ी वजह है कि शहर के अमीरों के लिए ये इलाक़े निवेश का एक केन्द्र बन गये हैं। गंगा और यमुना नदियों के किनारे सैकड़ों लॉज बने हुए हैं। इन लॉजों में हज़ारों छात्र रहते हैं। हर साल बाढ़ आने पर ये छात्र पढ़ाई-लिखाई छोड़कर घर चले जाते हैं लेकिन इनका किराया साल-दर-साल बढ़ता जाता है। प्रशासन को भी ये सारे गड़बड़ घोटाले अच्छी तरह से मालूम हैं लेकिन सत्ता प्रशासन और भूमाफ़ियाओं के गठजोड़ से ये काम धड़ल्ले से चल रहा है। इसलिए इलाहाबाद में बाढ़ की सबसे ज़्यादा मार आम मेहनतकश आबादी और छात्रों पर पड़ती है।
वास्तव में उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, केरल समेत पूरे देश में बाढ़ की समस्या के इतनी बड़ी विभीषिका बन जाने की असली वजह यह मौजूदा मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था है। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से मिट्टी बहकर नदियों की तलहटी में जमा होने, नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण-कार्यों, गाद इकट्ठा होने से नदियों के उथला होते जाने, बरसाती पानी की निकासी के कुदरती रास्तों के बन्द होने, शहरी नालों आदि को पाट देने जैसे अनेक कारणों ने न केवल बाढ़ की बारम्बारता बढ़ा दी है, बल्कि होने वाली तबाही को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है। आज़ादी के इन 74 वर्षों में आपदा प्रबन्धन के नाम पर अरबों-खरबों का वारा-न्यारा किया जा चुका है लेकिन स्थिति सुधरने की जगह साल-दर-साल बद से बदतर होती जा रही है। सुपर कम्प्यूटर, रडार, उपग्रहों आदि से लैस तकनीक के ज़माने में बाढ़ आने से काफ़ी पहले ही इसका सही-सही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और साथ ही साथ ‘फ़्लड रूटिंग’ का पूरा विज्ञान विकसित हो चुका है जिसके ज़रिए बाढ़ के फैलाव को काफ़ी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था में विज्ञान भी मुनाफ़े की भेंट चढ़ जाता है और कुछ मुठ्ठीभर धनपशुओं के लिए मुनाफ़ा पैदा करने का औज़ार मात्र रह जाता है। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल अगर मानवता के हित में किया जाये तो इन आपदाओं में होने वाले जान-माल के नुक़सान को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन होता इसका उल्टा है। हर बार बाढ़ आने का इन्तज़ार किया जाता है। हर बार लोग मारे जाते है, लाखों परिवार बेघर होते हैं, हज़ारों एकड़ फ़सल की बर्बादी होती है और हर बार आपदा प्रबन्धन के नाम पर अरबों की राशि का बन्दरबाँट होता है। चुनावी घड़ियाल इस आपदा पर सवार होकर अपनी चुनाव की वैतरणी पार करने की जुगत में लग जाते हैं, साम्राज्यवादी संस्थाओं के टुकड़ों पर पलने वाले स्वयंसेवी संगठनों को “जनसेवा” के बहाने सच्चाई पर पर्दा डालने का और इसी बहाने अपनी सेवा भी कर लेने का मौक़ा मिल जाता है। और फिर अगली बार का इन्तज़ार किया जाता है। इस तरह आज़ादी के इन सात दशकों में आपदाओं का भी अपना अर्थशास्त्र और अपनी राजनीति विकसित हुई है।
बाढ़ रोकने के मक़सद से 1954 में गठित गंगा आयोग ने जलकुण्डी परियोजना का सुझाव दिया था जिसके तहत नेपाल की नदियों से आने वाली सिल्ट को रोकने के लिए पानी की भारी मात्रा को नेपाल में रोककर बाँधों पर जल विद्युत परियोजना लगाने की योजना थी। इन परियोजनाओं का आधा लाभ नेपाल और आधा लाभ भारत को मिलना था। लेकिन सरकार की उदासीनता की वजह से यह योजना धरी की धरी रह गयी। 1976 में गठित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने नदियों के तल से गाद हटाने का सुझाव दिया था और साथ ही जलकुण्डी योजना को लागू करने का भी सुझाव दिया था। इसमें से कुछ भी नहीं किया गया। आगे भी इस तरह के आयोग बनते रहेंगे। लेकिन कुछ नहीं होगा। क्योंकि यह पूरी व्यवस्था मानवीय ज़रूरतों नहीं बल्कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए काम करती है। ऐसी आपदाओं को रोकना तो दूर, ऐसी आपदाओं के बाद इन्सानों की लाशों पर अपने मुनाफ़े की रोटियाँ सेंकना इस व्यवस्था का काम है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के रहते इस प्रकार की आपदाओं से निजात मिलना असम्भव है। बल्कि हर गुज़रते दिन के साथ अपनी स्वाभाविक गति से यह व्यवस्था बहुत-सी आपदाओं को पैदा करती रहेगी। वर्ग विभाजित समाज में हर आपदा मेहनतकशों की बर्बादी का कारण बनती है और पूँजीपति इन आपदाओं से भी अपने मुनाफ़े की हवस को पूरा करते हैं। जब तक मानवता इस लूट पर टिकी व्यवस्था से निजात नहीं पायेगी, तब तक बाढ़ की विभीषिका से भी निजात नहीं मिलने वाली।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021
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