असम-मिज़ोरम विवाद के मूल कारण क्या हैं?
मज़दूर वर्ग को भी इसे क्यों जानना और समझना चाहिए?
– शिवानी
हाल में भारत के दो उत्तर-पूर्वी राज्य असम-मिज़ोरम के बीच सीमा-विवाद से जुड़ा हुआ घटनाक्रम काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। उत्तर-पूर्व का नाम सुनकर हममें से कुछ को लग सकता है कि इतनी दूर-दराज़ की घटना से हम मज़दूरों-मेहनतकशों का सरोकार भला क्यों होना चाहिए! इसलिए होना चाहिए क्योंकि यह भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति को समझने और जानने के लिए आवश्यक है। किसी भी रूप में दबायी जा रही या उत्पीड़ित हो रही जनता और उसकी समस्याओं और संघर्षों से सरोकार रखे बिना मज़दूर वर्ग व्यापक मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी एकता क़ायम नहीं कर सकता है। शासक वर्ग दमित क़ौमों के बीच भी मौजूद अन्तरविरोधों और विवादों को हवा देता है, ताकि उन्हें आपस में लड़वाकर कमज़ोर किया जा सके। हुआ यह है कि हाल ही में असम और मिज़ोरम के बीच राज्य की सीमाओं को लेकर एक विवाद पैदा हो गया।
यह कोई पहली बार नहीं है जब असम और मिज़ोरम के बीच अन्तरराज्यीय सीमा को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ हो। इससे पहले भी दोनों राज्यों के बीच सीमा-निर्धारण को लेकर झगड़े और विवाद पैदा हुए हैं जिन्होंने कई बार काफ़ी उग्र रूप भी अख़्तियार किये हैं।
हालाँकि इस बार इस विवाद के साथ जो हिंसा की वारदातें हुईं उसमें स्वयं असम पुलिस और मिज़ोरम पुलिस शामिल भी थी। यही कारण है कि आम तौर पर हाशिए पर रहने वाले उत्तर-पूर्व के राज्यों के मामलों ने ‘मुख्यधारा’ में भी इस मुद्दे को लेकर चर्चा छेड़ दी। लेकिन यह पूरी चर्चा ही सतही थी और इस विवाद के हर प्रकार के विश्लेषण में आम तौर पर ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था और मुख्य राजनीतिक प्रश्नों की अनुपस्थिति थी। सच्चाई यह है कि राज्यों की सीमा से जुड़े ये विवाद केवल असम और मिज़ोरम के बीच ही मौजूद नहीं हैं, बल्कि उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों के बीच भी इनको लेकर खासा इख़्तिलाफ़ हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में इन तमाम सीमा-विवादों की जड़ें वास्तव में इतिहास में मौजूद है जिसमें पहले औपनिवेशिक सत्ता और बाद में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राज्यसत्ता की दमनकारी व ग़ैर-जनवादी नीतियों और क़ौमी दमन की भूमिका केन्द्रीय है।
इस बार असम-मिज़ोरम के बीच लम्बे समय से व्याप्त सीमा-विवाद ने तूल तब पकड़ा जब 26 जुलाई को मिज़ोरम पुलिस द्वारा राज्य सीमा पर गोलीबारी में 6 असम पुलिसकर्मियों की मौत हो गयी और 50 के क़रीब पुलिस अधिकारी व पुलिसकर्मी घायल हुए। इस हिंसा में एक नागरिक की मृत्यु भी हुई। हालाँकि मिज़ोरम का दावा था कि हमला पहले असम पुलिस की तरफ़ से हुआ था और उसने महज जवाबी कार्रवाई की थी। ग़ौरतलब है कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की 25 जुलाई को शिलांग में उत्तर-पूर्वी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक हुई थी जिसमें तमाम मसलों के साथ असम के मिज़ोरम, नगालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के साथ सीमा-विवाद पर बातचीत भी शामिल थी। 26 जुलाई की घटना इस बैठक के बाद ही घटित हुई।
इस घटना के बाद असम के मुख्यमंत्री हेमन्त बिस्व सरमा और मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरामथंगा के बीच इन हिंसा की घटनाओं की ज़िम्मेदारी को लेकर काफ़ी बहस चली और आरोपों-प्रत्यारोपों का भी एक लम्बा सिलसिला चला। मोदी सरकार के लिए यह शर्मिन्दगी पैदा करने वाली स्थिति थी। वजह यह है कि असम में भाजपा की सरकार है और मिज़ोरम में सत्तासीन मिज़ो नेशनल फ़्रण्ट उत्तर-पूर्व लोकतांत्रिक गठबन्धन (एनईडीए) का हिस्सा है, जिसका गठन भाजपा के नेतृत्व में 2016 में हुआ था और जिसके संयोजक उस समय से ही असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमन्त बिस्व सरमा हैं।
बहरहाल, 26 जुलाई के इस घटनाक्रम के बाद दोनों राज्यों में स्थिति को “सामान्य” किये जाने के लिए 28 जुलाई को केन्द्रीय गृह सचिव के साथ असम और मिज़ोरम के राज्य गृह सचिवों की लम्बी वार्ता हुई जिसमें “आपसी बातचीत” से सीमा-विवाद का निपटारा करने पर सहमति बनायी गयी और राष्ट्रीय राजमार्ग 306 पर केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के निर्देश दिये गये। बावजूद इसके स्थिति गम्भीर ही बनी रही। असम सरकार ने अपने राज्य के लोगों के लिए यात्रा-सम्बन्धी निर्देश जारी करके उन्हें मिज़ोरम न जाने की हिदायत दी। असम पुलिस को निर्देश जारी किये गये कि मिज़ोरम से आने वाली हरेक गाड़ी की अन्तरराज्यीय चेक पोस्ट पर ग़ैर-क़ानूनी नशीले पदार्थों इत्यादि के लिए ठीक से जाँच की जाये और इसके बाद ही राज्य में आने की अनुमति दी जाये। असम ने मिज़ोरम को जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ समय के लिए बन्द भी कर दिया था जिससे आवश्यक वस्तुओं, दवाओं आदि को मिज़ोरम पहुँचाने में दिक़्क़तें भी पेश आयीं। यही नहीं, असम पुलिस द्वारा मिज़ोरम पुलिस और मिज़ोरम से राज्य सभा सदस्य के. वनलाल्वेना के ख़िलाफ़ प्राथमिकी भी दर्ज की गयी, तो वहीं मिज़ोरम पुलिस ने भी असम के मुख्यमंत्री हेमन्त बिस्व सरमा और असम पुलिस के अन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की। हालाँकि दोनों तरफ़ की इन शिकायतों को बाद में वापस ले लिया गया। इसके बाद गृहमंत्री अमित शाह के “हस्तक्षेप” के बाद दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एक साझा बयान जारी करके स्थिति को “सामान्य बनाने और तनाव को ख़त्म करने” की बात कही। लेकिन भाजपा के लिए तो स्थिति वाक़ई में क्लेशपूर्ण हो गयी थी। इस पूरे घटनाक्रम के पीछे काम कर रहे कारकों को थोड़ा गहराई से समझना होगा।
उत्तर-पूर्व में फ़ासीवादी-अन्धराष्ट्रवादी भाजपा का बढ़ता राजनीतिक दख़ल
वास्तव में, 2016 में उत्तर-पूर्व लोकतांत्रिक गठबन्धन (एनईडीए) के गठन के पीछे भाजपा की असली मंशा उत्तर-पूर्व में अपना राजनीतिक दख़ल बढ़ाना था और साथ ही उत्तर-पूर्व के “तनावग्रस्त” इलाक़ों के मुख्यभूमि भारत के साथ एकीकरण के प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाना भी था जो वास्तव में और कुछ नहीं बल्कि उत्तर-पूर्व में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा राष्ट्रीय दमन की नीति का ही हिस्सा है। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व में बस रही तमाम राष्ट्रों और अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के साथ किये गये ऐतिहासिक छल-कपट और वायदा-ख़िलाफ़ी की चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन जहाँ तक पूरे उत्तर-पूर्व में अपनी पकड़ बनाने का प्रश्न है तो भाजपा के लिए ऐसा करना इतना सुगम भी नहीं है। कुछ समझौतापरस्त घुटनाटेकू ताक़तों को छोड़ दिया जाए, जोकि अक्सर हर दमित क़ौम में पायी ही जाती हैं तो व्यापक आबादी में भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ गहरी ऐतिहासिक नफ़रत मौजूद है और भारत से आज़ादी की चाहत प्रबल है। इस पूरे क्षेत्र में ही भारतीय हुक्मरानों की क़ौमी दमन की नीतियों की मुख़ालफ़त का एक लम्बा इतिहास भी मौजूद रहा है और वर्तमान में भाजपा के तमाम फ़ासीवादी व अन्धराष्ट्रवादी नीतियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की भी मिसालें हैं।
यह तथ्य भी यहाँ रेखांकित करना आवश्यक है कि भाजपा और संघ परिवार उत्तर-पूर्व में विशेष तौर पर असम को हिन्दुत्व फ़ासीवाद की नयी प्रयोगशाला बनाने के लिए काफ़ी ज़ोर लगा रहे हैं। असम में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को इसी उद्देश्य से भाजपा कभी एक तो कभी दूसरे रास्ते से लगातार अमल में ला रही है। जहाँ तक असम का प्रश्न है तो पिछले साल सीएए-एनआरसी का शिगूफ़ा भी इसी मक़सद से उछाला गया था, हालाँकि असम में उसका विरोध अन्य कारणों से हुआ था और विरोध पहले से मौजूद “स्थानीय बनाम प्रवासी” की अस्मितावादी राजनीति के कारण ज़्यादा हो रहा था।
हाल में ही असम की भाजपा सरकार द्वारा भी “जनसंख्या नियंत्रण” के नाम पर अन्य भाजपा-शासित प्रदेशों की तर्ज़ पर ही मुसलमान-विरोधी फ़ासीवादी फ़रमान जारी करने की शुरुआत कर दी गयी है। इसके अलावा, कुछ समय पहले ही असम पशु संरक्षण विधेयक, 2021 पारित किया गया जिसके चलते गोमांस की बिक्री पर आंशिक रोक लगना तय है। नये क़ानून के तहत राज्य में मवेशियों के वध, उपभोग और परिवहन को विनियमित करने के प्रावधान शामिल हैं। वास्तव में वर्तमान विधेयक और कुछ नहीं बल्कि 1951 के असम पशु संरक्षण क़ानून का ‘अपग्रेडेड वर्ज़न’ है। ग़ौरतलब है कि उस वक़्त कांग्रेस ने यह क़ानून बनाया था। क्या इसी तथ्य से ही कांग्रेस की धर्म-निरपेक्षता और फ़ासीवाद-विरोध के ढोल की पोल नहीं खुल जाती है? असम के मुख्यमंत्री हेमन्त बिस्व सरमा ने दावा किया कि इस विधेयक के पीछे कोई ग़लत मंशा नहीं है और इससे तो असल में साम्प्रदायिक सद्भाव मज़बूत होगा! यही नहीं, इन महोदय के अनुसार साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए केवल हिन्दू ही ज़िम्मेदार क्यों हों, मुसलमानों को भी इसमें सहयोग करना चाहिए! नया क़ानून बन जाने पर किसी व्यक्ति को मवेशियों का वध करने पर तब तक रोक होगी, जब तक कि उसने किसी विशेष क्षेत्र के पंजीकृत पशु चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी आवश्यक प्रमाण पत्र प्राप्त नहीं किया हो। उचित दस्तावेज़ के अभाव में मवेशियों को एक ज़िले से दूसरे ज़िले और असम के बाहर परिवहन को भी अवैध बनाने के प्रावधान हैं। इस क़ानून के तहत सभी अपराध संज्ञेय और ग़ैर-ज़मानती होंगे। इस क़ानून को लेकर उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में काफ़ी असन्तोष है क्योंकि यह वहाँ के स्थानीय निवासियों के खान-पान की स्वतंत्रता और संस्कृति पर सीधे-सीधे फ़ासीवादी हमला है।
हम देख सकते हैं कि उत्तर-पूर्व में फ़ासीवादी गिरोह न सिर्फ़ भारतीय राज्य की पुरानी राष्ट्रीय दमन की नीति को ही आगे बढ़ा रहा है बल्कि असम के उदहारण से यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भाजपा और संघ परिवार अपने राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिए पूरे सामाजिक ताने-बाने में साम्प्रदायिक नफ़रत, हिदुत्ववादी कट्टरता और धर्मान्धता को भी फैलाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं और फ़िलहाल उन्हें असम में तो एक हद तक इसमें सफलता भी हासिल होती हुई नजर आ रही है।
असम-मिज़ोरम सीमा विवाद: उपनिवेशवाद की एक विरासत
दरअसल मिज़ोरम और असम के बीच 164.6 किलोमीटर लम्बी साझा सीमा है जिसमें मिज़ोरम के आइज़ोल, कोलासिब और मामित ज़िले और असम के कछार, हैलाकाण्डी और करीमगंज ज़िले आते हैं। दोनों ही राज्य ‘इनर लाइन रिज़र्व फ़ॉरेस्ट’ के लगभग 1,318.31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना दावा पेश करते हैं जिसके कारण किसी भी तात्कालिक टकराहट की घटना के पैदा होने से सीमा को लेकर विवाद पुनः उत्पन्न हो जाता है। इस बार भी यही हुआ था।
सतही तौर पर देखने पर असम-मिज़ोरम सीमा-विवाद के केन्द्र में मुख्य तौर पर औपिवेशिक काल की दो अधिसूचनाएँ दिखलायी पड़ती हैं। जहाँ मिज़ोरम ऐतिहासिक सीमा की बहाली के लिए 1875 की अधिसूचना का हिमायती है, वहीं असम ऐतिहासिक सीमा-निर्धारण के लिए 1933 की अधिसूचना का पक्षधर है। 1933 की अधिसूचना मणिपुर और लुशाई पहाड़ियों (जोकि मिज़ो पहाड़ियाँ भी कहलाती हैं) के बीच सीमा-निर्धारण के सम्बन्ध में है, जबकि 1875 की अधिसूचना भूतपूर्व लुशाई पहाड़ियों और कछार के मैदान के बीच सीमा-निर्धारण को तय करती है। मिज़ोरम का मानना है कि 1933 की अधिसूचना के समय उसकी रज़ामन्दी नहीं ली गयी थी। 1933 के बदले हुए सीमा-निर्धारण के पीछे एक कारण ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के असम के चाय-बागानों से जुड़े आर्थिक-व्यावसायिक हित भी थे।
इसके अलावा, 1898 में औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता ने 6 सितम्बर, 1895 की दो अलग उद्घोषणाओं के ज़रिए उत्तरी लुशाई पहाड़ियों को असम प्रान्त के अधीन कर दिया और दक्षिण लुशाई पहाड़ियों को बंगाल प्रान्त के अन्तर्गत कर दिया। इसके बाद 1 अप्रैल, 1898 को ब्रिटिश सत्ता द्वारा एक अन्य उद्घोषणा के ज़रिए दक्षिणी लुशाई पहाड़ियों को असम को स्थानान्तरित कर दिया गया। लुब्बेलुबाब यह कि लुशाई पहाड़ियों या नगा पहाड़ियों जैसे पहाड़ी इलाक़ों को, जिनमें विशिष्ट नृजातीय समूह रहते थे जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति और जीवन-शैली थी, उन्हें स्थानीय लोगों की रज़ामन्दी के बग़ैर ज़बरन कभी एक प्रशासनिक इकाई तो कभी दूसरी प्रशासनिक इकाई में पटक दिया जाता रहा है, जिसके कारण एक असन्तोष औपनिवेशिक दौर से ही इन इलाक़ों में मौजूद है।
आज़ादी के बाद संविधान के छठे शेड्यूल के अन्तर्गत भारत में तमाम “जनजातीय” इलाक़ों के प्रशासन के लिए उन्हें दो भागों में बाँटा गया था– भाग ए और भाग बी। 1952 में लुशाई पहाड़ियों के आइज़ोल और लुङलेह उपभागों, जिनमें कि मुख्यतः मिज़ो लोग बसे हुए थे, का गठन इसी छठे शेड्यूल के अन्तर्गत भूतपूर्व असम की ‘लुशाई पहाड़ी स्वायत्त ज़िला काउंसिल’ के तौर पर किया गया और 1953 में बाक़ी बचे हुए क्षेत्र में पावी, लखेर, चकमा आदि अन्य स्थानीय बाशिंदों को मिलाकर एक क्षेत्रीय काउंसिल बनायी गयी। 1954 में लुशाई पहाड़ी ज़िले का नाम बदलकर मिज़ो ज़िला कर दिया गया। 1972 में उत्तर-पूर्वी राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1971 के तहत असम में से ही पहले मिज़ो ज़िले को केन्द्र शासित प्रदेश (‘यूनियन टेरिटरी’) के रूप में गठित किया गया। 1986 में मिज़ो राष्ट्रीय फ़्रण्ट, जो कि पहले भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष में शामिल थी, और भारत सरकार के बीच मिज़ो समझौता क़ायम होने के फलस्वरूप मिज़ोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा 20 फ़रवरी, 1987 को प्राप्त हुआ।
हालाँकि अलग राज्य गठन से राष्ट्रीय समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ और दमित क़ौमों के सम्बन्ध में ऐसा हो भी नहीं सकता है जिनके लिए एकमात्र क्रान्तिकारी कार्यक्रम अलग होने के अधिकार समेत आत्मनिर्णय के अधिकार का ही होता है। यहाँ यह भी स्पष्ट करते चलें कि संघवाद या किसी भी प्रकार की क्षेत्रीय स्वायत्तता की हिफ़ाज़त या माँग राष्ट्रीय दमन के ख़ात्मे का कार्यक्रम हो ही नहीं सकते हैं, जैसा कि पंजाब के कुछ “मार्क्सवादी” क़ौमवादी आजकल दावा करते फिर रहे हैं। ऐसा कोई भी कार्यक्रम एक शुद्धतः सुधारवादी कार्यक्रम है और लेनिनवादी कार्यदिशा से इसका कोई लेना-देना नहीं है। क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग साझी सहमति से बने बड़े से बड़े राज्य का पक्षधर होता है और विखण्डन की प्रक्रिया को चाहता नहीं है, लेकिन क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग क्रान्तिकारी जनवाद का भी सबसे मज़बूत झण्डाबरदार होता है और इसलिए वह जनवादी तरीक़े से और सभी क़ौमों की साझा सहमति से ही बड़े राज्य का पक्षधर होता है।
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद यह कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा कि असम-मिज़ोरम के बीच यह आधुनिक सीमा-विवाद वास्तव में औपनिवेशिक दौर की ही एक विरासत है। जिसे भारत का उत्तर-पूर्व कहा जाता है, वह ऐतिहासिक तौर पर कभी भारत का हिस्सा था ही नहीं, हालाँकि प्राचीन काल से ही मुख्यभूमि भारत के साम्राज्यों के इस इलाक़े से सम्पर्क के प्रमाण मौजूद हैं। उत्तर-पूर्व के जनजातीय इलाक़े प्राक्-औपनिवेशिक भारत में शामिल नहीं थे। यदि हम इतिहास में थोड़ा पीछे जायें तो हम पाते हैं कि1818 में उस वक्त ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का हस्तक्षेप उत्तर-पूर्व में शुरू हो गया जब अहोम साम्राज्य के राजा ने बर्मा से बारम्बार होने वाले हमलों से निपटने के लिए उससे मदद माँगी। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रथम एंग्लो-बर्मी युद्ध में बर्मी सेना को परास्त किया जिसके चलते याण्डाबु की सन्धि अमल में आयी। इस सन्धि के अन्तर्गत अहोम राजा ने अपने राज्य क्षेत्र का एक हिस्सा ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तोहफ़े में भेंट किया जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश उपनिवेशवाद उत्तर-पूर्व में अपने अधिकार और हित क़ायम करने में सफल हो गया।
इसके पश्चात् ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने अपने प्रशासनिक हितों के मद्देनज़र इस पूरे भौगोलिक भू-भाग को औपनिवेशिक भारत में शामिल किया था। ब्रिटिश उपनिवेशवादी इस क्षेत्र के भूराजनीतिक और सामरिक महत्व को देखते हुए इसे भारत और चीन के बीच एक ‘बफ़र क्षेत्र’ भी बनाना चाहते थे जिसे वे अपने आर्थिक-व्यापारिक हितों के मातहत रखते। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने पहले इस भू-भाग को बंगाल प्रान्त के अधीन रखा और 1874 में अलग असम प्रान्त का गठन करके भारत से इस पूरे क्षेत्र का राजनीतिक-प्रशासनिक एकीकरण किया। बावजूद इसके, मूलतः और मुख्यतः औपनिवेशिक नीति उत्तर-पूर्व के सम्बन्ध में शेष भारत से विलगाव और विलगन की ही थी जिसके फलस्वरूप यहाँ बसने वाली तमाम नृजातीय-जनजातीय समूहों के बीच भी अलगाव और पृथकत्व पैदा हुआ, जोकि स्वाभाविक ही था।
ज़ाहिरा तौर पर उत्तर-पूर्व में ब्रिटिश हुकूमत की नीतियाँ अपने व्यावसायिक-आर्थिक हितों और राजकीय-प्रशासनिक सहूलियतों से संचालित थीं। उस दौर में मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़कर, जो कि रियासतें थीं, बाक़ी पूरा उत्तर-पूर्व अविभाजित असम ही कहलाता था। असम के ही इन तमाम जनजातीय इलाक़ों की आगे चलकर ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा एक के बाद एक सीमा निर्धारित की जाने लगी जिसमें स्थानीय जनजातीय समूहों की सहमति नदारद थी और जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। स्पष्ट है कि ये क्षेत्रीय प्रशासनिक विभाजन न तो ऐतिहासिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किये गये थे और न ही जनवादी तरीक़े से जन-आकांक्षाओं के आधार पर ही किये गये थे। यही कारण है कि आज भी असम से निकले अन्य राज्यों में भारतीय राष्ट्रवाद और भारतीय राज्यसत्ता के विरुद्ध नफ़रत और ग़ुस्सा तो है ही, लेकिन इसके साथ ही असमिया अन्धराष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ भी एक नाराज़गी है, जिसे उत्तर-पूर्व की अन्य क़ौमें क्षेत्रीय पैमाने पर ‘बिग ब्रदरली’ (बड़े भाई-जैसा) बर्ताव के रूप में देखती हैं।
संक्षेप में कहें तो, ब्रह्मपुत्र नदी के पूरब का हिस्सा भू-राजनीतिक रूप से पहली बार भारत के उपनिवेशीकरण के बाद ही शेष भारत से जुड़ा। बावजूद इसके, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने उत्तर-पूर्व की जनता की शेष भारत की आबादी से पारस्परिक अन्तरक्रिया नहीं होने दी, बल्कि आम तौर पर उसे अवरुद्ध भी किया। इसकी वजह से भू-राजनीतिक दृष्टि से शेष भारत से जुड़ने के बावजूद इस क्षेत्र की जनता का सांस्कृतिक अलगाव बना रहा। आज़ादी के बाद भारतीय राज्यसत्ता की क़ौमी दमन की नीतियों के तहत ही इस क्षेत्र की प्राकृतिक व खनिज सम्पदा का दोहन करने के कारण इसमें आर्थिक शोषण का भी पहलू जुड़ गया जिसने इस अलगाव को और बढ़ाया और इसे राजनीतिक रूप प्रदान किया।
उत्तर-पूर्व की क़ौमों के साथ भारतीय राज्यसत्ता के विश्वासघात का काला इतिहास
उत्तर-पूर्व में दमन की यह औपनिवेशिक विरासत भारतीय राज्यसत्ता को आज़ादी के बाद उत्तराधिकार में प्राप्त हुई जिसे यहाँ के शासक वर्गों ने हाथों-हाथ लिया। आज़ादी के बाद से ही उत्तर-पूर्व को भारत में शामिल करने पर काफ़ी विवाद उत्पन्न हुए। भारत के साथ एकीकरण कोई पूर्वविदित परिणाम नहीं था जैसा कि अक्सर इतिहास की आधिकारिक-सरकारी पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। आज़ादी से पहले भी, विशेषकर नगा और मिज़ो नृजातीय समूहों में, भारत से अलग स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व की इच्छा प्रबल थी, हालाँकि जून 1947 में असम और उत्तर-पूर्व को भारत में शामिल करने का फ़ैसला ले लिया गया।
आज़ादी के बाद जो उत्तर-औपनिवेशिक शासक वर्ग अस्तित्व में आया वह एक बहुराष्ट्रीय और मिश्रित शासक वर्ग था जिसमें कश्मीर और उत्तर-पूर्व की दमित क़ौमों को छोड़कर बाक़ी सभी क़ौमों के बुर्जुआ वर्ग की अपने आकार और शक्तिमत्ता के हिसाब से नुमाइन्दगी थी और केन्द्रीय सत्ता में हिस्सेदारी थी। कश्मीर और उत्तर-पूर्व की क़ौमों को सच्चे और सही अर्थों में आत्मनिर्णय का अधिकार देने की बजाय भारतीय शासक वर्गों ने उनका ज़बरन भारत के साथ एकीकरण किया। कश्मीर के साथ ही उत्तर-पूर्व में भी भारतीय राज्यसत्ता के आज़ादी के पिछले कई दशकों की नीतियों ने राजकीय हिंसा और क़ौमी दमन का बर्बर रूप अख़्तियार किया है।
आज़ादी के बाद से ही उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीय विविधताओं के साथ बस रही तमाम क़ौमों व नृजातीय समूहों की आज़ादी की चाहत को फ़ौजी बूटों और बन्दूक़ के ज़ोर के दम पर भारतीय हुक्मरानों ने कुचलने की सैंकड़ों कोशिशें की हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद तो भारतीय राज्य के लिए उत्तर-पूर्व और भी अधिक सामरिक महत्व का क्षेत्र बन गया और भारतीय राज्यसत्ता को यहाँ तमाम राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर कुचलने का एक प्रकार से ‘लाइसेंस’ भी प्राप्त हो गया। इस पूरे क्षेत्र में 1958 से ही कुख्यात काला क़ानून ‘सुरक्षा बल विशेष अधिकार अधिनियम’ (अफ़्स्पा) लागू है जिसकी वजह से चुनावों की रस्मअदायगी होने के बावजूद वहाँ व्यवहारतः सैन्य शासन की स्थिति है क्योंकि सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार प्राप्त हैं। इसी काले क़ानून का लाभ उठाकर भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों ने उत्तर-पूर्व में पिछले पाँच दशकों से आतंक का राज क़ायम किया हुआ है और राजकीय दमन और हिंसा का नंगा नाच किया है और इन राज्यों की आम जनता के मानवाधिकारों का बेशर्मी और दण्ड-मुक्ति के साथ हनन किया है। ग़ौरतलब है कि मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाने वाला यह क़ानून पूरी तरह से संविधान सम्मत है!
मुख्यभूमि भारत में उत्तर-पूर्व को लेकर काफ़ी हद तक ग़ैर-जानकारी और अज्ञानता भी व्याप्त है। जिसे आज भारत का उत्तर-पूर्व कहा जाता है, आज़ादी के वक़्त उस पूरे भू-भाग में भूतपूर्व असम प्रान्त के असम के मैदान आते थे। इसके अलावा पहाड़ी ज़िले, उत्तर-पूर्वी सीमावर्ती प्रदेश के नार्थ-ईस्टर्न फ्रंटियर ट्रैक्ट्स (एनईएफ़टी) और मणिपुर और त्रिपुरा की रियासतें शामिल थीं। इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की संस्कृति और इतिहास में समानता और समरूपता के कुछ तत्व जरूर हैं, लेकिन उनमें कई विविधताएँ भी हैं। कुल आठ राज्यों, यानी कि असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैण्ड, सिक्किम में विभाजित उत्तर-पूर्व का क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 7.98 फ़ीसदी और इसकी आबादी देश की कुल आबादी का 3.7 फ़ीसदी है। इस पूरे क्षेत्र में लगभग 220 नृजातीय समूह और उपसमूह रहते हैं और लगभग इतनी ही बोलियाँ बोली जाती हैं।
औपनिवेशिक शासन के अन्तिम दौर में और आज़ादी के बाद राजकीय व क़ौमी दमन से पैदा हुए राजनीतिक-सांस्कृतिक अलगाव और आर्थिक शोषण से उत्तर-पूर्व की विभिन्न जनजातियों में प्रतिरोध की चेतना पैदा हुई जो एक खास किस्म के नृजातीय राष्ट्रवाद (ethnic nationalism) के रूप में विकसित हुई। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये गये बर्बर दमन ने इस प्रतिरोध की चेतना को और भी प्रबल बनाया। नगा जैसी कुछ जनजातियाँ अपने कई उपसमूहों को मिलाकर एक राष्ट्र के रूप में विकसित हुईं, तो कुछ राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं के रूप में अस्तित्व में आयीं, जिनकी कोई क्षेत्रीयता तो नहीं थी लेकिन फिर भी अन्य राष्ट्रीय समूहों से भिन्नताएँ थीं। इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के प्रतिरोध का साझा बिन्दु भारतीय राज्यसत्ता के दमन का विरोध था जो इनका साझा शत्रु थी और आज भी है। हालाँकि इनमें आपसी अन्तरविरोधों का भी एक लम्बा इतिहास रहा है। मसलन नगा-कुकी विवाद, नगा-मेइती विवाद, नगा-जोमी विवाद, असमी-मिज़ो विवाद, असमी-बोडो विवाद आदि।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ादी के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने दमन की नीतियों को खत्म करने की बजाय और वहाँ बस रही क़ौमों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की बजाय इन दमनात्मक कारगुज़ारियों को ज्यों-का-त्यों बरकरार रखा बल्कि कई मामलों में उसमें इज़ाफ़ा भी किया। आज़ादी के बाद उत्तर-पूर्व के राज्यों का जो पुनर्गठन किया गया उसका आधार महज प्रशासकीय सहूलियतें थीं जिसकी वजह से कई मामलों में एक ही जनजाति कई राज्यों में बँट गयी और जनजातियों की राष्ट्रीय आकांक्षाएँ कुचल दी गयीं। इस क़िस्म के पुनर्गठन से नये विवाद भी उभरे, मसलन ग्रेटर नगालैण्ड विवाद, नगा-मणिपुर विवाद, असमी-बोडो विवाद आदि। मौजूदा असम-मिज़ोरम सीमा विवाद भी इसी की एक बानगी है।
राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में नगालैण्ड को राज्य का दर्जा 1963 में मिला। लेकिन इसके बावजूद नगा ग्रुपों के कई राजनीतिक-प्रशासकीय इकाइयों में बँटे होने के कारण उनका असन्तोष बना रहा। 1972 में असम से खासी, गारो और जयन्तिया पहाड़ी ज़िलों को मिलाकर अलग मेघालय राज्य बना। त्रिपुरा और मणिपुर को, जो कि औपनिवेशिक काल के दौरान रियासतें थीं, पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। मिज़ो पहाड़ियों (मिज़ोरम) और ‘नार्थ-ईस्टर्न फ़्रण्टियर एजेन्सी’ (अरुणाचल प्रदेश) को असम से अलग कर पहले केन्द्र शासित राज्य का दर्जा दिया गया फिर 1987 में इन्हें पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। हालाँकि राज्यों के इस पुनर्गठन की प्रक्रिया ने अलगाव और स्वतंत्रता की आकांक्षा को तो समाप्त नहीं किया, उल्टे अन्य स्थानीय नृजातीय समूहों में भी स्वशासन या स्वतंत्रता की आकांक्षा पैदा हुई और भूभागों पर दावों को लेकर आपस में उग्र टकरावों की शुरुआत हो गयी। इसकी एक मिसाल असम-मिज़ोरम सीमा विवाद भी है।
राजनीतिक-सांस्कृतिक अलगाव और आर्थिक शोषण के अतिरिक्त देश के भीतर से होने वाले प्रवासन और बांग्लादेश समेत अनेक पड़ोसी देशों से होने वाले आप्रवासन से भी ‘स्थानीय बनाम प्रवासी’ का अन्तर्विरोध पैदा हुआ। दरअसल, औपनिवेशिक काल से ही अविभाजित असम में उपनिवेशवादियों द्वारा चाय बाग़ानों की मौजूदगी के कारण एक हद तक आर्थिक विकास किया गया। यही कारण था कि उस दौर में भी पड़ोसी बंगाल प्रान्त और भारत के अन्य इलाक़ों से लोग रोज़गार और ज़मीन की तलाश में असम प्रवासन करते थे। और चूँकि उपनिवेशवादियों को भी चाय-बागानों में काम करने के लिए मज़दूरों की ज़रूरत थी, तो वह स्वयं भी बाहर से लोगों को काम के लिए बुलाते थे। साथ ही तेल और कोयला खदानों में भी कार्यशक्ति की आवश्यकता होती थी। इसके अलावा सड़क और रेल निर्माण कार्य में भी बाहर से मज़दूरों को काम पर लगाया जाता रहा। बंगाल से आने वाली एक बड़ी आबादी मुसलामानों की भी थी। इन प्रवासियों में कई, जो मुख्यतः चाय-बाग़ानों में काम करते थे, वे वहीं बस भी गये। इस पूरे विवरण के लिए पाठक मार्क्सवादी इतिहासकार अमलेन्दु गुहा को पढ़ सकते हैं जिनका काम असम और वहाँ के राष्ट्रवादी आन्दोलनों पर केन्द्रित है। यह प्रवासन आज भी हो रहा है। इन प्रवासियों में अक्सर मज़दूर आबादी ही शामिल होती है। “स्थानीय बनाम प्रवासी” के अन्तरविरोध का फ़ायदा इन क़ौमों में मौजूद फ़िरकापरस्त ताक़तें भी अपने निहित स्वार्थों के लिए उठा रही हैं। सीमित संसाधनों और जनसांख्यिकीय असन्तुलन का हवाला देकर आम जनता में भय और असुरक्षाबोध पैदा किया गया है जो प्रवासियों के ख़िलाफ़ हिंसात्मक घटनाओं में सामने आया है। ये इन राष्ट्रीय आन्दोलनों में पूँजीवादी राजनीति और विचारधाराओं की मौजूदगी यानी अस्मितावादी व अन्धराष्ट्रवादी रुझान की ओर भी इशारा करता है और अन्ततोगत्वा हर प्रकार के राष्ट्रवाद की सीमा और प्रतिक्रियावादी चरित्र को भी उजागर करता है, भले ही वह दमित राष्ट्र का ही क्यों न हो। दमित राष्ट्रों की राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई में इन पूँजीवादी विचारों व राजनीति के ख़िलाफ़ संघर्ष करना क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग का एक कार्यभार है क्योंकि तभी सही मायने में जनता की जनवादी राष्ट्रीय क्रान्ति के ज़रिए सच्ची राष्ट्रीय मुक्ति भी सम्भव है। बहरहाल, इन अन्तरविरोधों का फ़ायदा भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी इसे मज़हबी रंग दे कर भी उठा रही है।
बहरहाल, मूल चर्चा पर वापस लौटते हुए बात करें तो उत्तर-पूर्व के विभिन्न राज्यों के इतिहास पर निग़ाह डालने से भारतीय राज्यसत्ता का ऐतिहासिक विश्वासघात स्पष्ट रूप से सामने आता है। इसकी विस्तृत चर्चा में हम यहाँ नहीं जा सकते हैं। फ़िलहाल इतना कहना काफ़ी होगा कि उत्तर-पूर्व के तमाम राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं की आकांक्षाओं को कुचलकर ही भारतीय राज्यसत्ता ने जोर-ज़बर्दस्ती करके इन्हें “भारतीय राष्ट्र” में शामिल किया है।
मणिपुर की बात करें तो आज़ादी के तत्काल बाद ही भारत सरकार के प्रतिनिधि वी.पी. मेनन ने राज्य में बिगड़ती क़ानून-व्यवस्था का हवाला देकर मणिपुर के राजाबोधचन्द्र सिंह को शिलाँग बुलाया और 21 सितम्बर, 1949 को कपटपूर्ण तरीक़े से उससे भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करा लिया। भारत सरकार ने यह भी ज़रूरी नहीं समझा कि इस समझौते की अभिपुष्टि नवनिर्वाचित मणिपुर विधानसभा द्वारा करा ली जाये। उल्टे विधानसभा को भंग कर दिया गया। इसके बाद से ही मणिपुर में भारतीय राज्य द्वारा प्रत्यक्ष दमन की नीति अपनाकर प्रतिरोध को दबाने का सिलसिला शुरू हो गया और इसी के समान्तर सशस्त्र संघर्षों का भी सिलसिला शुरू हो गया। आफ्सपा जैसे काले क़ानून की आड़ में भारतीय सेना द्वारा की गयी बर्बरता ने जन-प्रतिरोध को और बल प्रदान किया। 2004 में भारतीय सैनिकों द्वारा एक मणिपुरी महिला मनोरमा के बलात्कार और हत्या के विरोध में वहाँ की महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना मुख्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया था। यह घटना किसी भी जनवादी होने का दावा करने वाले राज्य के लिए एक शर्मनाक घटना होती। लेकिन भारतीय राज्य की बेशर्मी और बर्बरता बदस्तूर जारी रही और उत्तर-पूर्व में यह दमनकारी जनद्रोही क़ानून आज तक लागू है।
नगालैण्ड की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। औपिवेशिक शासन के दौरान और बीसवीं सदी की शुरुआत में नगा पहाड़ियों के स्थानीय निवासी नगा नेशनल काउंसिल (एन.एन.सी.) के बैनर तले एकजुट होकर एक साझा मातृभूमि और स्वशासन की आकांक्षा प्रकट करने लगे थे। भारत की आज़ादी के बाद नगा नेशनल काउंसिल ने आत्मनिर्णय के अधिकार की वक़ालत की और भारत से आज़ादी के लिए जनमत संग्रह की माँग भी रखी। लेकिन भारतीय राज्य ने एकतरफ़ा तरीक़े से नगा भूभाग को भारतीय गणराज्य का हिस्सा घोषित कर दिया। बदले में एन.एन.सी. ने नगालैण्ड की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और 1952 में सम्पन्न पहले आम चुनावों का बहिष्कार भी किया। इसके बाद ही भारत सरकार द्वारा कई नगा नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और तब से ही नगालैण्ड में एक लम्बे सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत हुई। 1955 में भारतीय राज्य ने पुलिस और सशस्त्र बलों के ज़रिए नगा राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को कुचलने की कोशिश भी की। इसी संघर्ष का सामना करने के लिए 1958 में ‘आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’ बना जो आज तक समूचे उत्तर-पूर्व में लागू है। 1975 में एन.एन.सी. के शीर्ष नेतृत्व ने भारत सरकार के साथ वार्ता करके शिलाँग समझौता किया और भारतीय गणराज्य में शामिल होना स्वीकार किया। जिन नगा नेताओं ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया उन्होंने ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नगालैण्ड’ (एन.एस.सी.एन.) का गठन करके संघर्ष जारी रखा। अब यह संगठन मुइवा और खापलांग के दो गुटों में विभाजित है, जिनका आधार नगा जनजातीय समूह की अलग-अलग उपजातियों में है।
अब मिज़ोरम पर आते हैं। जैसा कि ऊपर चर्चा में आया था कि मिज़ो पहाड़ी क्षेत्र आज़ादी के वक़्त लुशाई पहाड़ी ज़िले के नाम से असम में गठित हुआ, जिसका नाम 1954 में बदलकर असम का मिज़ो पहाड़ी ज़िला कर दिया गया। असम से अलग होने का एक अलगाववादी आन्दोलन आज़ादी से पहले भी मिज़ो जनजातीय समूहों में मौजूद था। लेकिन 1959 से 1961 तक आये अकाल के राहत कार्य में भारतीय राज्य की उदासीनता और अनदेखी के कारण पहले से ही मौजूद असन्तोष और आक्रोश को नयी ज़मीन प्राप्त हुई। इसके बाद ही साठ के दशक से मिज़ो सशस्त्र विद्रोह की दास्तान शुरू होती है। इसी दौर में मिज़ो नेशनल फ़्रण्ट (एम.एन.एफ़.) का गठन हुआ जिसने‘भारतीय उपनिवेशवाद से मिज़ोरम की मुक्ति’ के लिए सशस्त्र संघर्ष का आह्वान किया। फ़रवरी 1966 में सशस्त्र दस्तों ने आइज़ोल शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। नगालैंड की ही तरह भारतीय राज्य द्वारा यहाँ भी दमन की नीति को तत्काल अमल में लाया गया। शहर को फिर से क़ब्ज़ा करने में भारतीय सेना ने नागरिक आबादी पर धुआँधार बमबारी की। हज़ारों परिवारों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। 1986 में एम.एन.एफ़. और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ जिसके बाद एम.एन.एफ़. हिंसा छोड़कर “मुख्यधारा” में शामिल हो गया और भारतीय संविधान के अन्तर्गत काम करने पर सहमत हो गया। लेकिन इससे भारत के प्रति मिज़ोरम के नृजातीय समूहों का अलगाव और रोष जरा भी कम नहीं हुआ। आज भी वहाँ अलग-अलग नृजातीय समूहों के अपने-अपने सशस्त्र विद्रोही दस्ते हैं।
सिक्किम के इतिहास पर भी निगाह डालने पर स्पष्ट होता है कि आज़ादी के समय यानी 1947 से ही सिक्किम का दर्जा भारत के संरक्षित राज्य (‘प्रोटेक्टोरेट’) का था। वह भारतीय यूनियन का हिस्सा नहीं था। 1975 में बिना सिक्किम की जनता से रायशुमारी किये भारतीय संविधान में मौजूद प्रावधान के तहत उसे भारत में मिला लिया गया और पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। जबकि उस वक़्त भी सिक्किम का शासक आत्मनिर्णय का अधिकार माँग रहा था, जिसे भारतीय राज्य द्वारा ख़ारिज कर दिया गया।
इस संक्षिप्त चर्चा से स्पष्ट है कि आजादी के बाद से ही भारतीय हुक्मरानों ने उत्तर-पूर्व के तमाम राष्ट्रों एवं राष्ट्रीयताओं के साथ छल-कपट करके, वायदाख़िलाफ़ी करके, दमन, राजकीय हिंसा और आतंक का अन्तहीन चक्र क़ायम करके उनकी आकांक्षाओं और हक़ों का गला घोंटने का घृणित कुकर्म किया है जिसे भारतीय राष्ट्रवाद के सड़े-गले मुलम्मे के ज़रिए छिपाना भी नामुमकिन जान पड़ता है। यह इतिहास भारत के मज़दूर वर्ग को भी जानने की ज़रूरत है क्योंकि शोषण, दमन और उत्पीड़न का हर रूप में विरोध किये बिना क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग न तो समाजवादी क्रान्ति कर मज़दूर सत्ता को स्थापित कर सकता है और न ही क्रान्तिकारी सर्वहारा जनवाद को स्थापित कर सकता है। किसी भी रूप में दमन, शोषण और उत्पीड़न का साथ देने वाला मज़दूर वर्ग स्वयं भी पूँजीपति वर्ग के हाथों शोषित व दमित होते रहने के लिए अभिशप्त होता है।
असम-मिज़ोरम सीमा-विवाद का हल उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान से जुड़ा है!
उत्तर-पूर्व के तमाम राज्यों में मौजूद आपसी सीमा-विवाद का निपटारा भी वहाँ के राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान से नाभिनालबद्ध है। वैसे तो किसी यूनियन में स्वेच्छा से शामिल हुई इकाइयों के बीच भी सीमा-निर्धारण को लेकर झगड़े-फ़साद हो सकते हैं। एक पूँजीवादी राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत आप और किसी बात की उम्मीद कर भी नहीं सकते हैं। राष्ट्रीय शान्ति या क़ौमी अमन जैसी कोई भी चीज़ पूँजीवाद के मातहत स्थायी तौर पर सम्भव ही नहीं है। लेकिन यह तमाम विवाद अपने आप में क़ौमी दमन नहीं होते हैं। जबकि उत्तर-पूर्व की बात करें तो ये तमाम सीमा-विवाद सीधे-सीधे भारतीय राज्य के क़ौमी दमन की नीति से ही पैदा हुए हैं और उसके अविभाज्य अंग हैं।
क़ौमी दमन का मतलब यह है कि भारतीय शासक वर्ग द्वारा उत्तर-पूर्व में मौजूद तमाम क़ौमों के पूँजीपति वर्ग समेत समूची क़ौम का ही दमन किया जा रहा है। यानी क़ौमी दमन के निशाने पर मूलतः दमित क़ौम का पूँजीपति वर्ग होता है, जो दमन बाद में वृहद् रूप अख़्तियार कर जनता के अलग-अलग हिस्सों और जन-जीवन को भी अपनी ज़द में ले लेता है। किसी क़ौम के बुर्जुआ वर्ग के दमन के बगैर क़ौमी दमन अस्तित्व में आ ही नहीं सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी क़ौम दमित ही तब मानी जायेगी जबकि उसका पूँजीपति वर्ग दमित हो। आज भारत की बात करें तो, कश्मीर और उत्तर-पूर्व को छोड़कर यह स्थिति और कहीं मौजूद नहीं हैं। क़ौम या राष्ट्र बनता ही बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व में आने के साथ है। यदि किसी क़ौम से पूँजीपति वर्ग को अलग कर दिया जाये तो उसके बाद जो रह जाता है वह बस जनता ही है। आज उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों में यह पूँजीपति वर्ग कितना विकसित या अविकसित है, इस तथ्य से वहाँ मौजूद राष्ट्रीय दमन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।
इसलिए, उत्तर-पूर्व में तमाम राज्यों के बीच मौजूद सीमा-विवाद क़ौमी दमन का कारण नहीं बल्कि इसी क़ौमी दमन की नीति का एक परिणाम है। अलग से किसी देश के किन्हीं दो राज्यों, जिनमें कि दमित क़ौमें हैं और ज़बरन किसी यूनियन में शामिल की गयी हैं, के बीच सीमा-विवाद के हल की उम्मीद शासक वर्गों से, बिना वृहद् राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान के करना ही बेमानी है। आज़ादी के बाद शुरुआती दशकों में तो भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व के महत्व को केवल रणनीतिक दृष्टि से ही देखा था। लेकिन पूँजीवादी विकास के साथ ही प्राकृतिक सम्पदा और सस्ती श्रमशक्ति के दोहन की भी शुरुआत हुई। हालाँकि यहाँ बसने वाली क़ौमों में भारतीय राज्यसत्ता के प्रति नफ़रत और अलगाव में कोई कमी नहीं आयी है। किसी काल्पनिक एकाश्मी “भारत राष्ट्र” और भारतीय राष्ट्रवाद में इन क़ौमों का विलयन ज़ोर-ज़बर्दस्ती के बूते ही सम्भव है। इसलिए आज भी इस पूरे भू-भाग में कई सशस्त्र संघर्ष चल रहे हैं। जब तक भारतीय राज्यसत्ता का राष्ट्रीय दमन और ज़बर जारी रहेगा, ये राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष भी विसर्जित नहीं होंगे। नेतृत्व की कोई एक धारा जब समर्पण करेगी तो दूसरी धारा उभरकर सामने आयेगी और संघर्ष को जारी रखेगी। ऐतिहासिक तौर पर कहें तो राष्ट्रीय प्रश्न का अन्तिम और मुकम्मल समाधान तो केवल और केवल एक समाजवादी राज्य के तहत ही सम्भव है जो सही मायने में विभिन्न राष्ट्रों को अलग होने के अधिकार के समेत आत्मनिर्णय का अधिकार और अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं को सुसंगत जनवाद का अधिकार देता है। लेकिन हर दमित क़ौम के लिए पहला कार्यभार राष्ट्रीय मुक्ति का जनवादी कार्यभार ही होता है और उसके लिए क्रान्ति की मंज़िल भी राष्ट्रीय जनवादी ही होती है।
इतिहास ने यह भी साबित किया है कि साम्राज्यवाद के दौर में दमनकारी राष्ट्र या राष्ट्रों के पूँजीपति वर्ग आम तौर पर दमित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार और राष्ट्रीयताओं को सुसंगत जनवाद नहीं दे सकते। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि राष्ट्र केवल दमनकारी राष्ट्रों के अधिकार देने की वजह से मुक्त नहीं होते, वे अपने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के ज़रिए भी मुक्त होते हैं। यह एक अलग चर्चा का विषय है कि उत्तर-पूर्व के विभिन्न राष्ट्रों का राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष यह राष्ट्रीय मुक्ति हासिल कर सकता है या नहीं, लेकिन इतना तय है कि जब तक इन दमित क़ौमों को राष्ट्रीय मुक्ति हासिल नहीं होती, तब तक शान्ति या स्थिरता की कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। किसी भी क़ौम को हमेशा ग़ुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है। यह बात भारत के उत्तर-पूर्व पर भी उतनी ही लागू होती है।
आज भारत में दमित क़ौमों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को भारतीय राज्यसत्ता के विरुद्ध मज़दूर वर्ग के समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष से जुड़ना होगा और भारत के मज़दूर वर्ग, आम मेहनतकश जनता और छात्रों-नौजवानों को भारत की दमित क़ौमों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष से ख़ुद को जोड़ते हुए उनके राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करना होगा। जहाँ एक तरफ़ भारत की मेहनतकश अवाम को हर प्रकार के राष्ट्रीय कट्टरपन्थ और अन्धराष्ट्रवाद से अपना नाता तोड़ना होगा और भारतीय बुर्जुआ वर्ग के मण्डी में पैदा हुए राष्ट्रवाद की असलियत समझनी होगी, वहीं दूसरी तरफ़ दमित क़ौमों में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लड़ रही ताक़तों को भी यह समझना होगा कि हर प्रकार का बुर्जुआ राष्ट्रवाद और संकीर्ण अस्मितावाद या कट्टरतावाद किसी भी व्यापक और टिकाऊ जन-एकजुटता में बाधा है। भारत की मेहनतकश जनता इस संघर्ष में उनकी शत्रु नहीं, बल्कि दोस्त है। वास्तव में, भारतीय राज्यसत्ता और भारतीय पूँजीपति वर्ग ही हमारा मुश्तरका दुश्मन है, यह बात समझना बेहद जरूरी है। सच्चे और सही अर्थों में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन भी सार्थक और कारगर तरीक़े से तभी आगे भी बढ़ सकते हैं।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021
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