उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव : एक रिपोर्ट

– प्रसेन

उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत, जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायतों का चुनाव योगी सरकार द्वारा ऐसे समय में करवाया गया जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर अपने उफान पर थी। इस चुनाव की क़ीमत हज़ारों सरकारी कर्मचारियों और लाखों लोगों ने अपनी ज़िन्दगी गँवाकर चुकायी। कोरोना महामारी के दौरान सरकार के आपराधिक रवैये और पूरी ताक़त झोंक देने के बावजूद भाजपा समर्थित उम्मीदवार पंचायत सदस्यों के चुनाव में सपा समर्थित उम्मीदवारों की तुलना में मामूली अन्तर से दूसरे स्थान पर रहे। ज़िला पंचायत के 3052 सदस्यों में सपा समर्थित उम्मीदवारों ने 747, भाजपा समर्थित उम्मीदवारों ने 690 सीटें जीती हैं। बसपा, कांग्रेस, रालोद समर्थित उम्मीदवारों के हिस्से में क्रमशः 381, 76 और 60 सीटें आयीं। आम आदमी पार्टी को भी लगभग दो दर्जन सीटें मिली हैं। निर्दलीय प्रत्याशियों ने सबसे ज़्यादा 1,071 सीटों पर जीत हासिल की है।
इस बार के पंचायत चुनावों में भाजपा बहुत योजना और सुव्यवस्थित प्रचार के साथ मैदान में उतरी थी। इससे यह बात सहज ही समझी जा सकती है कि संघ परिवार ग्रामीण इलाकों में अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने में कितना सक्रिय है। चुनाव नतीजों में सपा मामूली अन्तर के साथ ही भाजपा से आगे थी। ग़ौरतलब है कि यह स्थिति तब है जबकि कोरोना के उफान के समय में दो चरणों के मतदान होने से भाजपा को थोड़ा नुक़सान उठाना पड़ा और टिकट के बँटवारे को लेकर बहुत सारी सीटों पर असन्तुष्ट भाजपाई बागी प्रत्याशी बन गये थे। अगर पिछले चुनाव के नतीजों के आधार पर देखा जाये तो इस बार 747 सीटों पर सपा समर्थित प्रत्याशी जीते हैं जबकि पिछली बार (2015-16) सपा ने 2000 से ज़्यादा सीटों पर अपने समर्थित प्रत्याशियों के जीतने का दावा किया था। ऐसे में केवल चुनाव में थोड़े-बहुत अन्तर के नतीजों के आधार पर फ़ासिस्टों की जनता में पकड़ ढीली होने का आकलन बहुत ग़लतफ़हमी पैदा करता है। दूसरी बात यह कि ज़िला पंचायत स्तर के चुनाव में आम तौर पर स्थानीय ठेकेदार, प्रॉपर्टी डीलर, स्थानीय छुटभैये नेता चुनाव लड़ते हैं और पूरी राजनीति स्थानीय स्तर पर जातिगत-धार्मिक समीकरण, धनबल-बाहुबल जैसे कारकों के आधार पर तय होती है। जातिगत समीकरण का इस्तेमाल करने में भी फ़ासिस्ट अन्य बुर्जुआ चुनावबाज़ पार्टियों से कहीं आगे हैं। ओबीसी और एससी/एसटी में आने वाली बहुत सारी जातियों में फ़ासिस्टों ने अपनी गहरी पैठ बना कर रखी है। यह पूरी स्थिति उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में फ़ासीवादी संघ परिवार की बढ़ती पैठ को दर्शा रही है।
ग्राम प्रधान के चुनाव में ग्रामीण रसूखदारों, सूदख़ोरों, बड़े किसानों, प्रॉपर्टी डीलरों, भट्ठा मालिकों आदि का ख़ूब बोल-बाला रहा क्योंकि यही वह ग्रामीण वर्ग है जिसके पास पर्याप्त पूँजी है, जो चुनाव में निवेश कर सकते हैं। बर्बर शोषण करने वाले और बात-बात पर हैसियत और जातिगत ऐंठ दिखाने वाले ये ग्रामीण शोषक चुनाव से पहले अपने को सबसे बड़ा समाजसेवी और ईमानदार दिखाने की कोशिश में दिन रात एक कर रहे थे। लेकिन चुनाव जीतने के लिए यह ग्रामीण अमीर वर्ग गाँव में पैसा, शराब, साड़ी, मुर्गा आदि बाँटने, चूल्हे-चूल्हे की राजनीति करने, जातिगत समीकरण का इस्तेमाल करने और ज़रूरत के मुताबिक मेहनतकश आबादी पर अपनी हैसियत और ताक़त का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आया। जहाँ पर आरक्षण की वजह से ये ख़ुद प्रत्याशी के रूप में नहीं थे वहाँ इन्होंने हमेशा की तरह अपने पिट्ठुओं को चुनाव लड़वाकर और लाखों रुपये ख़र्च कर अपना उल्लू सीधा किया। यही स्थिति अलग तरीक़े से महिलाओं की थी। ज़्यादातर महिला सीटों पर चुनाव असल में पुरुष ही लड़ रहे थे।
इस बार के चुनाव में एक नयी बात यह देखने को आयी कि ग्राम प्रधान के चुनाव में बड़ी संख्या में नौजवान क़िस्मत आज़माने उतरे। इसकी एक वज़ह रोज़गार का संकट भी है जो बहुत से युवाओं को नौकरी के अलावा अन्य विकल्पों के बारे में सोचने को मजबूर कर रहा है। दूसरे चुनाव से ऐन पहले यह ख़बर भी चर्चा में रही कि ग्राम प्रधानों को राजपत्रित (गज़टेड) अधिकारी के बराबर वेतन दिया जायेगा; हालाँकि यह ख़बर महज़ अफ़वाह थी। कई जगहों पर युवाओं ने कुछ अलग और रचनात्मक तरीकों से कोशिश की लेकिन ज़्यादातर जगह हास्यास्पद स्थिति ही थी क्योंकि इनकी सोच लोभ-लाभ के पूँजीवादी दायरे में ही थी। कुल मिलाकर ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत  की पूरी संस्था पूँजीवादी व्यवस्था का ग्रामीण स्तम्भ है और इसके ज़रिए फ़ासीवादी ताक़तें ग्रामीण भारत में अपनी जड़ें मज़बूत करने के साथ ही साथ अपने प्रभाव को दृढ़ करने में भी काफ़ी हद तक सफल रही हैं।
ज़िला पंचायत सदस्य के चुनाव में तमाम संसदमार्गी वामपन्थी पार्टियाँ भी अपने उम्मीदवार खड़ी करती हैं लेकिन चुनाव में जनता के मुद्दों, अस्मितावाद और कहीं-कहीं धार्मिक मूल्य-मान्यताओं को भी तुष्ट करने की राजनीति की खिचड़ी बना देने के चलते किसी भी तरह का वास्तविक विकल्प देने में अक्षम हैं।
फ़ासिस्टों ने लम्बे अरसे में नौकरशाही, न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में घुसपैठ की है और इन्हें अपनी ज़रूरतों के अनुकूल ढाल लिया है। प्रदेश के अम्बेडकरनगर जिले में 41 ज़िला पंचायत सदस्यों के नामांकन के समय ही भाजपा और ज़िला प्रशासन की मिलीभगत सामने आने लगी जब अन्य सभी उम्मीदवार लाइन में खड़े होकर अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे थे, उसी समय भाजपा उम्मीदवारों को बिना किसी लाइन में लगाये एक साथ नामांकन कर दिया गया। जहाँ चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों और कम पैसे वाले लोगों के लिए कोविड की दुहाई देकर प्रचार में केवल एक वाहन ले जाने की अनुमति दी गयी थी वहीं तमाम पार्टियों के रसूखदार उम्मीदवारों पर प्रशासन द्वारा ऐसी कोई रोक नहीं लगायी गयी। इन पार्टियों का चुनाव प्रचार और रैलियाँ धड़ल्ले से चलती रहीं।

पंचायत चुनावों में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की भागीदारी

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (आरडब्ल्यूपीआई) की ओर से अम्बेडकरनगर की आलापुर तहसील के रामनगर द्वितीय ज़िला पंचायत क्षेत्र से ज़िला पंचायत सदस्य के चुनाव में भागीदारी की गयी और साथी मित्रसेन को उम्मीदवार बनाया गया। मज़दूर पार्टी का आलापुर तहसील के जिस क्षेत्र में लम्बा काम और जनाधार था, वहाँ की सीट सुरक्षित हो जाने के कारण भागीदारी सम्भव नहीं हो सकी। ऐसे में रामनगर द्वितीय क्षेत्र मज़दूर पार्टी के लिए नया था। दूसरे, पंचायत चुनाव में भागीदारी करने का फ़ैसला नामांकन से कुछ ही दिनों पहले किया गया। इस देरी की वजह से और बाद में कोरोना महामारी के कारण पार्टी को इस नए इलाक़े में प्रचार करने और अपनी बातों को लोगों तक ठीक से पहुँचाने का समय नहीं मिल सका। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी इस चुनाव में शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और मज़दूरी जैसे सवालों को लेकर उतरी थी। प्रचार का मौक़ा न मिलने और नया इलाक़ा होने के बावजूद चुनाव में साथी मित्रसेन को 228 वोट प्राप्त हुए। यह चुनाव के नतीजे हमारे लिए सबक़ भी हैं कि अगर मेहनतकश जनता के ज़िन्दगी से जुड़े असली सवालों को लोगों के बीच में लेकर जाया जाये, तो आने वाले समय में विकल्पहीनता की स्थिति में पैसे, शराब, जाति-धर्म के नाम पर वोट देने वाली जनता को एक सही क्रान्तिकारी राजनीति के इर्द-गिर्द लामबन्द किया जा सकता है। फ़ासीवाद को चुनौती भी आम मेहनतकश जनता की उसके वास्तविक मुद्दों पर वर्गीय लामबन्दी के आधार पर ही दी जा सकती है।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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