जो सच-सच बोलेंगे, मारे जायेंगे!
– सार्थक
भारत में अप्रैल और मई के महीनों में कोरोना महामारी का जो ताण्डव चला वह देश के इतिहास में सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक के रूप में दर्ज किया जायेगा। इस महामारी को एक त्रासदी बनाने में देश की फ़ासीवादी भाजपा सरकार, उसके मंत्रियों और चेले-चपाटों की घोर मानवद्रोही भूमिका भी इतिहास के पन्नों पर ख़ूनी अक्षरों में लिखी जायेगी। इनकी एक-एक करतूत और अपराध का समय आने पर गिन-गिन कर हिसाब लिया जायेगा, सब याद रखा जायेगा। मौत की इस विभीषिका ने हमसे हमारे प्रियजन हमारे दोस्त छीन लिये और पूरा देश शोक में डूब गया।
लेकिन इस भीषण संकट काल में लोगों ने जब सरकार के सामने अपने प्रियजनों की हिफाज़त की गुहार लगायी और सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही की याद दिलायी तो उनकी मदद करने की जगह सरकार ने क्या किया, वह जग ज़ाहिर है। सरकार ने कहा कि ऐसी कोई भी माँग सरकार-विरोधी गतिविधि मानी जायेगी और ऐसी बात करने वालों पर कार्रवाई की जायेगी। जब हर रोज़ सरकारी आँकड़ों के हिसाब से चार हज़ार से ज्य़ादा और ग़ैरसरकारी स्रोतों के हिसाब से बीस से चालीस हज़ार लोग मौत के घाट उतर रहे थे, उस वक़्त सरकार स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करके, ऑक्सीजन, वेण्टिलेटर, वैक्सीन और अन्य जीवनरक्षक दवाओं का इन्तज़ाम करने की जगह इनकी माँग करने वालों और सरकार की आलोचना करने वालों को डराने, धमकाने और गिरफ़्तारियों से उनका मुँह बन्द करने में व्यस्त थी।
अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने यह फ़रमान जारी किया कि अगर कोई भी व्यक्ति, संस्थान या अस्पताल ऑक्सीजन की कमी के बारे में शिकायत करता है तो उस पर क़ानूनी कार्रवाई होगी। इतना ही नहीं उनपर एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम) जैसे काले क़ानून लगाये जायेंगे और उनकी सम्पत्ति भी ज़ब्त कर ली जायेगी। काले क़ानून लगाकर सम्पत्ति हड़पने में तो यूपी सरकार को महारत हासिल है। वर्दी वाले लठैत की तरह यूपी सरकार आम लोगों और अस्पतालों पर मुक़दमा ठोंक रही है, गिरफ़्तारियाँ कर रही है।
यूपी सरकार की इस ज़्यादती का पहला शिकार बने अमेठी के शशांक यादव जिनका अपराध बस इतना था कि उन्होंने ट्विटर पर अपने दादाजी के लिए ऑक्सीजन सिलेण्डर की ज़रूरत के बारे में लिखा। यूपी के कई शहरों में घण्टों इन्तज़ार करने के बाद अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होने पर मरीज़ों के परिजन कहीं से ऑक्सीजन सिलेण्डर का बन्दोबस्त कर लेते तो रास्ते में उन्हें पुलिस रोककर उनसे सिलेण्डर ज़ब्त कर लेती और उन पर कालाबाज़ारी का आरोप लगा देती। जहाँ ऑक्सीजन, वैक्सीन और दवाइयों पर असली जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी करने वाले बड़े बड़े खिलाड़ी खुले घूम रहे हैं वहीं फ़ासीवादी सरकार आम मेहनतकश जनता को मात्र एक सिलेण्डर लाने पर जमाख़ोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर रही थी। दूसरी ओर, दिल्ली, पटना, बेंगलोर से लेकर मुम्बई तक भाजपा सांसद, विधायक और छुटभैये संघी नेता दवाइयों की कालाबाज़ारी, एम्बुलेन्स की जमाख़ोरी में लगे थे। आपदा को इन संघियों ने ही अवसर में बदला है। पूर्वी दिल्ली के भाजपा सांसद गौतम गम्भीर कोरोना के इलाज में इस्तेमाल होने वाली एक ज़रूरी दवाई की जमाख़ोरी करते हुए पाये गये। इन कफ़नखसोटों, नर पिशाचों की गिरफ़्तारी तो दूर कोई नोटिस तक जारी नहीं हुआ। लेकिन आँकड़ों को ढँकने और सच्चाई को छुपाने के लिए योगी सरकार ने पूरी बाज़ीगरी कर डाली। योगी ने अपने ज़हरीले दिमाग़ का पूरा इस्तेमाल करते हुए लखनऊ के श्मशान पर जलती दर्जनों लाशों को जनसाधारण की निगाह से छुपाने के लिए रातों रात ऊँची-ऊँची टिन की दीवारें खड़ी कर दीं।
करोड़ों का सूट पहनने वाले फ़क़ीर साहब को सवाल उठाना, आईना दिखाना और कमियाँ इंगित करना बिल्कुल नापसन्द है। इसलिए पूरे विश्व में एक मात्र भारत सरकार है जिसने पूरे कोरोना काल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेन्स नहीं की है। सच बात तो यह है कि मोदी ने 2014 से अब तक सत्ता में रहते हुए एक भी प्रेस कॉन्फ्रेन्स नहीं की है। पूरे देश की जनता गुहार लगाती रही, ऑक्सीजन, दवाइयों और अस्पतालों के लिए, मगर मोदी-शाह व्यस्त थे बंगाल की चुनावी रैलियों में।
मई महीने में ही दिल्ली पुलिस ने सुल्तानपुरी और मंगोलपुरी इलाक़े में रहने वाले 25 युवा मेहनतकशों को दीवारों पर पोस्टर लगाने के आरोप में गिरफ़्तार किया। आश्चर्य मत कीजिए! गिरफ़्तारी सिर्फ पोस्टर चिपकाने के लिए भी हो सकती है क्योंकि जब से मोदी सरकार आयी है गिरफ़्तारियों की क़ानूनी व्याख्या बदल गयी है। बस इतना काफ़ी है कि सरकार की आप आलोचना कीजिये और तैयार रहिये गिरफ़्तारी के लिए। इन नौजवानों का गुनाह बस इतना था कि वे ऐसे पोस्टर लगा रहे थे जिन पर लिखा था कि “मोदी जी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी?” इनमें से ज्य़ादातर नौजवान दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं, ऑटो चालक हैं या रेहड़ी-खोमचे लगाते हैं और इसी तरह मेहनत करके किसी तरह से अपने परिवार का पेट पालते हैं। जैसा अक्सर होता है जब आम मेहनतकश आबादी बिना किसी राजनीतिक पहचान के काम करती है तो उनके नाम पर सारी चुनावबाज़ पार्टियाँ नाम कमाने के लिए मक्खी की तरह भिनभिनाती हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। इनकी गिरफ़्तारी के बाद आम आदमी पार्टी ने बयान दिया कि आम आदमी पार्टी के कहने पर पोस्टर लगवाये गये थे। सोशल मीडिया और टीवी पर यह बात ज़ोर-शोर से एक-दो दिनों तक लाइक-शेयर-रिट्वीट होती रही। इसके बाद पैसा हज़म तमाशा ख़त्म। न ही इन नौजवानों से पार्टी ने कोई सम्पर्क किया और न ही उन्हें कोई आर्थिक या क़ानूनी मदद दी। मतलब इन नौजवानों को बड़े साहेब और उनकी पूरी आदमख़ोर पुलिस और नरभक्षी न्यायपालिका के सामने अकेला छोड़ दिया गया।
कोरोना की इस दूसरी लहर के दौरान देश भर से इस क़िस्म के पुलिसिया दमन की ख़बरें आम बात बन गयी है। एक तो गोदी मीडिया है ही भाड़े की टट्टू, दूसरे भाजपा के आईटी सेल के दो-दो रुपये वाले ट्रोल सोशल मीडिया पर झूठ फैलाते रहते हैं। महामारी के दौरान सरकार की भयंकर लापरवाही के बारे में बात करने वाले अनेक पत्रकारों, कार्टूनिस्टों, कलाकारों, कवियों और बुद्धिजीवियों के सोशल मीडिया अकाउण्ट बन्द कर दिये गये और उन पर कई मुक़दमे दर्ज किये गये। हाल ही में मणिपुर के दो जनपक्षधर पत्रकारों, किशोरचन्द्र वांगखेम और इरेन्द्र लेईचोम्बम को राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के अन्तर्गत गिरफ़्तार कर लिया गया। इनका कसूर बहुत बड़ा था, इन्होंने फ़ेसबुक पर गोबर और गौमूत्र को कोरोना का इलाज़ बताये जाने पर कुछ व्यंग्य किया था।
साथ ही हम नहीं भूल सकते इस बात को कि पिछले साथ भारत में कोरोना की वजह से पूर्ण लॉकडाउन के दौरान भी किस प्रकार यह सरकार चुन-चुन कर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर रही थी। इस वर्ष तो इन्होंने जो किया है उसके बारे में कहा जा सकता है कि यदि नरभक्षियों और प्रेतों का कोई पदसोपानक्रम होता होगा तो उसमें भाजपा सरकार सबसे ऊपर रहेगी। राजनीतिक क़ैदी कोई अपराधी नहीं होते हैं, वे या तो सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं या तो बुद्धिजीवी, छात्र या पत्रकार हैं। इनका भी कसूर बस इतना ही है कि इन्होंने जनता के साथ उनके संघर्षों में डटकर साथ दिया और सरकार की जनविरोधी नीतियों का मुखर विरोध किया। जेलों में कोरोना के तेज़ी से फैलने की आशंका को ध्यान में रखते हुए पिछले साल से ही देशभर के तमाम न्यायपसन्द नागरिक और संगठन इन राजनीतिक क़ैदियों की तत्काल रिहाई की माँग कर रहे थे, मगर सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। या यूँ कहें कि सरकार इन्तज़ार ही कर रही थी कि ये सारे राजनीतिक क़ैदी कोरोना की चपेट में आ जायें। यही हुआ। एक के बाद एक कई राजनीतिक क़ैदी दूसरी लहर के दौरान कोरोना की चपेट में आ गये। भीमा-कोरेगाँव के झूठे मुक़दमे में यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किये गये स्टैन स्वामी, हैनी बाबू, महेश राउत, सागर गोरखे, रमेश गायचोर, ज्योति जगताप कोरोना के चपेट में आ गये। पिछले साल के दिल्ली दंगों के झूठे आरोप में गिरफ़्तार किये गये उमर खालिद, हाथरस बलात्कार घटना की रिपोर्टिंग करने वाले सिद्दीक कप्पन भी कोरोना की चपेट में आ गये हैं।
भारत की जेलों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। स्वच्छता, पौष्टिक आहार और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में और ठसा-ठस भरे होने की वजह से जेलों में बीमार काफ़ी जल्दी बढ़ती है। बेहतर इलाज पाने के लिए जब इन लोगों ने जमानत की याचिका दाखिल की तो सभी अदालतों ने इसे ठुकरा दिया और जेल के अन्दर ही एक अलग कमरे में इलाज करने के लिए कहा। कोरोना और ब्लैक फ़ंगस से संक्रमित होने के बाद हैनी बाबू के आँखों में काफ़ी सूजन आ गयी। एक हफ़्ते तक मिन्नतें करने के बाद अदालत ने उन्हें अस्पताल भेजने की आज्ञा दी। इस दौरान उनकी सूजन इतनी बढ़ गयी कि उनकी एक आँख की रोशनी लगभग चली गयी। जेल में कोई दवाई तो दूर, उन्हें साफ़ पानी या तौलिया भी नहीं नसीब हुआ। सबसे दयनीय अवस्था 84 साल के स्टैन स्वामी की है जो लम्बे समय से पार्किन्सन बीमारी से पीड़ित हैं जिसकी वजह से वे अब चलने फिरने, खाना खाने और नहाने जैसे रोज़मर्रा के काम भी ख़ुद नहीं कर सकते। जेल में अपने साथियों के सहारे ही वे अपने रोज़मर्रा के काम करते हैं। कोरोना से पीड़ित होकर अलग रहते हुए उनकी क्या हालत हो रही होगी, यह सोचना भी कठिन है। महाराष्ट्र सरकार के इस रवैये से यह साफ़ हो जाता है कि फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई में शिवसेना, कांग्रेस आदि कोई भी पूँजीवादी पार्टियाँ जनता के पक्ष में खड़ी नहीं हैं और कभी खड़ी हो भी नहीं सकतीं। इसके अलावा सिद्दीक कप्पन को अस्पताल में जानवरों की तरह खाट से बाँधकर रखने की भी ख़बर भी सामने आयी है।
पिछले साल सीएए और एनआरसी आन्दोलन में दिल्ली की महिलाओं के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर संघर्ष करने वाली जेएनयू की छात्रा नताशा नरवाल को भी दिल्ली दंगों के झूठे आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था। पिछले महीने नताशा के पिता महावीर नरवाल कोरोना से संक्रमित होने के बाद कई दिनों तक अस्पताल में पड़े रहे जिस दौरान नताशा अदालत के सामने ज़मानत की अर्जी देती रही। आखिरकार जब नताशा के पिता की मृत्यु हो जाने के बाद ही उसे ज़मानत दी गयी। इस मानवद्रोही न्याय व्यवस्था को यह मंज़ूर नहीं था कि एक बेटी अपने पिता की ज़िन्दगी के आख़िरी वक़्त को उनकी सेवा करते हुए उनके साथ बिता सके। दूसरी ओर हत्या, बलात्कार और दंगों के आरोपी, छँटे हुए अपराधी गुरमीत राम रहीम को पिछले महीने तीन बार जेल से बाहर जाने की अनुमति मिली और जब वह कोरोना से संक्रमित हुआ तो उसे हरियाणा के सबसे बड़े निजी अस्पताल में भर्ती किया गया। इतना ही नहीं उसके सम्बन्धियों को उससे मिलने की अनुमति दे दी गयी। इससे साफ़ दिखता है की सरकार के इशारों पर नाचने वाली पुलिस और न्याय व्यवस्था जनता और जनता के न्यायपूर्ण अधिकारों की आवाज़ बुलन्द करने वालों की दुश्मन है। सरकार के तलवे चाटने वाले ये लोग सरकार की जी हुज़ूरी करते हैं।
कोरोना काल में सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों के साथ सरकार क्या कर रही है यह जगज़ाहिर है लेकिन सरकारी दमन और आतंक लोगों की ज़ुबान बन्द नहीं कर सकते। हज़ारों और लाखों की संख्या में जब लोग सड़कों पर उतरेंगे तो जेलों में सबको बन्द करने की जगह नहीं होगी।
मज़दूर बिगुल, जून 2021
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