योगीराज में उत्तर प्रदेश पुलिस की बेलगाम गुण्डागर्दी
– अनुपम
अराजकता, असामाजिक तत्त्व, आतंकवादी गतिविधि…इन शब्दों का सहारा लेकर जनता पर काले क़ानूनों का शिकंजा कसना, सत्ता में आने के बाद से ही योगी सरकार का पुराना रवैया रहा है। अभी पिछले साल इन्होंने बिकरू काण्ड के बाद से जनवरी में पहली बार राज्य की राजधानी लखनऊ में पुलिस कमिश्नरेट लागू किया। और उसके बाद अभी फिर से दोबारा पिछले हफ़्ते योगी सरकार ने दावा किया कि वह राज्य के अन्य दो शहरों वाराणसी और कानपुर में भी यही व्यवस्था लागू करेगी। और हुआ भी यही।
अभी राज्य के चार बड़े शहर गौतमबुद्धनगर, लखनऊ, कानपुर और वाराणसी में कमिश्नरेट लागू है, और कहा जा रहा है कि यह सब कुछ गुण्डाराज को ख़त्म करने के लिए है। जबकि सच यह है कि जनता के असन्तोष से योगी सरकार इतनी ज़्यादा डरी हुई है कि उसे पुलिस प्रशासन का भयंकर साम्प्रदायिकीकरण करने के बाद भी सन्तोष नहीं है। पुलिस महकमे के हर महत्वपूर्ण पद पर अपने लोगों को बैठा देने के बाद भी उसे चैन नहीं है और वह एक के बाद एक कमिश्नरेट लागू करके चप्पे-चप्पे को अपने क़ाबू में करना चाहती है। यह दावा कि कमिश्नरेट लागू करना यूपी को अपराधमुक्त बनाने की दिशा में क़दम है, और यूपी पुलिस का यह नारा कि “अब डरने की क्या है बात, यूपी पुलिस है आपके साथ” हर दिन डर के साये में जी रही आम जनता के लिए क्या मायने रखता है? आइए, एक ख़बर से समझते हैं।
अभी पिछले महीने, ढाबे वाले और पुलिसकर्मियों के बीच झड़प की एक ख़बर सामने आयी। पत्रकार कमाल ख़ान ने इस ख़बर से जुड़ी एक रिपोर्ट में बताया – एटा में एक दिव्यांग ढाबे वाले के ढाबे पर, पुलिस वाले ने खाकर खाने का पैसा नहीं दिया। जो ग्राहक थे, वो सिफ़ारिश कर रहे थे कि उन्हें खाने का पैसा दे दिया जाये। उनके साथ भी बदसुलूक़ी की और पुलिस बुलाकर ढाबे वाले और जितने कस्टमर उनकी हिमायत कर रहे थे, सबको लूट के आरोप में जेल भिजवा दिया। एसपी की तरफ़ से एक बयान जारी हुआ कि शातिर लुटेरे पकड़े गये। उनके पास से ढेरों असलहा बरामद दिखाया गया। एक शराब माफ़िया से शराब, गाँजा और नशे की चीज़ें माँगकरके, वो रख करके वो उनके साथ बरामद दिखायी गयीं और सबको जेल भेज दिया गया। इस मामले की दिव्याँग ढाबे वाले ने जब जाँच की माँग की तब आगरा डिवीज़न के एडीजी ने जब जाँच की, तब पता चला कि इनमें से कोई भी शख़्स लुटेरा नहीं है, उस ढाबे पर दो लोग बिहार के खाना खा रहे थे, कुछ एटा के खाना खा रहे थे। पुलिस वालों ने जब खाना खाके पैसा नहीं दिया और ढाबे वाले से मारपीट करने लगे तो जो वहाँ ग्राहक थे वो ढाबे वाले की पैरवी कर रहे थे कि ग़रीब आदमी है, विकलांग है, ढाबा चला रहा है, पैसा ख़र्च कर रहा है, आपको खाना खाकर पैसा देना चाहिए, तो जो लोग पैसा देने के लिए कह रहे थे, वहाँ पर खाना खाने वाले ग्राहक, उन सबको लुटेरा बनाकर के पुलिस ने जेल भेज दिया। अब एडीजी के ऑर्डर पर ये पुलिस वाले सस्पेण्ड किये गये हैं, उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चल रहा है। जो पुलिसवाले वहाँ पर पकड़ने आये थे, उनमें से एक देहात कोतवाली के थाना इंचार्ज थे, किसी और सिलसिले में उनके थाने पर रेड पड़ी तो पता चला कि जो शराब बरामद की जाती है, ज़ब्त की जाती है, उनमें से 1500 पेटी शराब थाने से ग़ायब है, पुलिस वालों ने कहा कि ये शराब चूहे पी गये होंगे शायद। उसके बाद थानेदार फ़रार हो चुके हैं, उनके ख़िलाफ़ भी मुक़दमा है, लेकिन अभी वो फ़रार चल रहे हैं। इसके पहले बस्ती का एक पुलिसवाला गोरखपुर में सराफ़ा व्यापारियों से सोना-चाँदी लूटने में पकड़ा गया, वो तीस-पैंतीस लाख का सोना लूट चुका था। उससे पहले कानपुर के बिकरू काण्ड में पूरा थाना सस्पेण्ड कर दिया गया। पता चला कि पूरा थाना माफ़िया विकास दुबे के जासूस के लिए जासूसी करता था, और पुलिस वालों की मुख़बिरी करके माफ़िया तक पहुँचाता था। अभी बस्ती का एक पुलिसवाला गिरफ़्तार हुआ है, दो दिन पहले, उसके ऊपर आरोप है कि एक लड़की का मास्क चेक करने के बहाने उसने मोबाइल नम्बर ले लिया और उससे अश्लील चैटिंग करना चाहता था, लड़की ने जब उसका नम्बर ब्लॉक कर दिया तो लड़की और उसके पूरे परिवार को आठ मुक़दमों में उसने फँसा दिया…
और यही पुलिस दावा करती है कि वह आम जनता की सेवा करने के लिए है। यह सेवा भी ऐसी है कि वह न केवल एफ़आईआर तक दर्ज करने से मना कर देती है बल्कि उल्टे रिपोर्ट दर्ज कराने वाले आदमी को डरा-धमकाकर वापस भेज देती है। वहीं, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव और एसोसिएशन फ़ॉर एडवोकेसी एण्ड लीगल इनिशिएटिव ने मिलकर उत्तर प्रदेश में स्त्री-अपराधों और उनसे जुड़ी एफ़आईआर पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की। रिपोर्ट में पिछले चार सालों 2016 से 2020 के बीच हुए यौन हिंसा से जुड़े 14 बड़े केसों की पड़ताल करके यह बताया गया कि इनमें से किसी भी मामले में पहली शिकायत के तुरन्त बाद एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई थी। पहले तो यह कि एफ़आईआर दर्ज करने में की गयी देरी 2 दिन से लेकर 228 दिन तक की है, और दूसरी यह कि इनमें से केवल छह केसों में ऐसा हुआ है कि ऊपरी वरिष्ठ अधिकारी के दबाव में एफ़आईआर दर्ज हुई है, बाक़ी मामलों में लोगों की पहलक़दमी के चलते ही पुलिस ने मामले की एफ़आईआर दर्ज की है।
आपको याद होगा कि अभी पिछले साल सितम्बर के आख़िर में, हाथरस की रेप पीड़िता को इन्साफ़ दिलाने के बजाय मामले को रफ़ा-दफ़ा करने के लिए पुलिसवालों द्वारा क़ानूनों की खुल्लम-खुल्ला धज्जियाँ उड़ायी गयीं थीं। बढ़ते हुए स्त्री-अपराधों को कम दिखाने के लिए रिपोर्ट ही नहीं लिखने वाली पुलिस ने पीड़िता के शव को उनके घरवालों की रज़ामन्दी के बग़ैर गाँव के एक खेत में रातों रात जला दिया। वहाँ पर विरोध कर रही महिलाओं में से कुछ को पीटा गया और कुछ को चारों ओर लगे कंटीले तारों पर धकेल दिया गया। मीडियाकर्मियों को घटनास्थल के क़रीब नहीं आने दिया गया। गाँववालों से कहीं ज़्यादा की तादाद में वहाँ पर पुलिसवाले थे। आज मामले को सुलझाने, रिपोर्ट दर्ज करने की तो छोड़िए, बल्कि उसे दबाने के लिए पुलिस प्रशासन इस हद तक भी नीचे गिर सकता है। कोई शक नहीं कि पहले से ही, यूपी पुलिस अपने भ्रष्टता और मनमानी के लिए कुख्यात रही है। लेकिन सरकार के आदेशों से संचालित होना पहली बार हुआ है। सरकार नहीं चाहती कि प्रदेश की अपराधमुक्त छवि ख़राब हो, और इस कोशिश में वह अपनी छीछालेदर करवाने के लिए भी तैयार बैठी है।
और ज़ाहिरा तौर पर, पुलिस प्रशासन के ढाँचे को सुधारने के नाम पर कई ज़िलों में कमिश्नरेट बनाना और कई पुलिसचौकियों को थाने में बदल देना भी सरकार की एक ख़ास राजनीतिक मंशा का हिस्सा है। पहले से ही जनता पर डण्डे बरसाने और शान्तिपूर्वक प्रदर्शनों को हिंसात्मक बताकर लोगों पर धाराएँ लगाने और उन्हें पीटने में वैसे तो पहले भी यूपी पुलिस तो क्या, किसी भी राज्य की पुलिस पीछे नहीं थी। अपने ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप यह ज़िम्मेदारी वह बख़ूबी निभा रही थी। लेकिन फिर भी जैसा कि कहा जाता हैं कि “जहाँ दमन होता है, वहाँ प्रतिरोध भी होता है”।
दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ आम जनता के बीच से दबे हुए कुछ स्वर आन्दोलनों के रूप में सामने आने लगे थे। ऐसे में एकजुट होती जनता के ख़िलाफ़ कुछ किया जाये, इस बेचैनी में अब यह फ़ैसला लिया गया है कि ऐसा सिस्टम बनाओ कि बिना मर्ज़ी के पत्ता भी न हिल सके।
डराओ और बाँटो और बाँटो और डराओं की इनकी इस नीति की मुक़ाबला भी क्रान्तिकारी रणनीतियों और गतिविधियों के ज़रिए ही किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021
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