पाँच राज्यों में सम्पन्न चुनावों के नतीजे और सर्वहारा वर्गीय नज़रिया
फ़ासीवाद को महज़ चुनावों के रास्ते शिकस्त नहीं दी जा सकती है!
ऐसा सोचना बुर्जुआ उदारतावादी विभ्रम है!

– शिवानी

फ़ासीवाद का जवाब संघवाद (फ़ेडरलिज़्म) की ज़मीन से नहीं दिया जा सकता है!
संघीय अधिकारों की हिफ़ाज़त का नारा क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग का नारा है!
यह मज़दूर वर्ग की लड़ाई नहीं है, बल्कि वर्ग समर्पणवाद है!
लुटेरों के इस या उस दल को चुनने के बजाय आज मेहनतकश वर्गों को चुनावों में भी
अपना स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष खड़ा करने की ज़रूरत है!

मार्च-अप्रैल 2021 में बंगाल सहित चार राज्यों असम, तमिलनाडु, केरल और पुद्दुचेरी केन्द्रशासित प्रदेश में सम्पन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम हाल में सामने आये हैं। पश्चिम बंगाल में सत्ता फिर से तृणमूल कांग्रेस के हाथ में आयी है, जबकि यहाँ भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। असम में भी एक बार फिर से भाजपा गठबन्धन की सरकार बनने जा रही है। तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ मिलकर द्रमुक गठबन्धन चुनाव में विजयी हुआ है और भाजपा के सहयोगी अन्नाद्रमुक गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा है। केरल विधानसभा चुनाव में सीपीएम की अगुवाई में ‘लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रण्ट’ (एलडीएफ़) ने फिर से चुनाव जीता है और कांग्रेस गठबन्धन ‘यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रण्ट’ (यूडीएफ़) के हाथ हार ही लगी है। पुद्दुचेरी में एन आर कांग्रेस और भाजपा गठबन्धन ने राज्य विधानसभा में बहुमत हासिल किया है और पुद्दुचेरी में भाजपा गठबन्धन की ही सरकार बनने जा रही है। कुल मिलाकर चुनाव परिणाम काफ़ी विविधतापूर्ण रहे हैं, हालाँकि इनसे तमाम विश्लेषक-प्रेक्षक और राजनीतिक धड़े मनमुआफ़िक़ निष्कर्ष निकालने में व्यस्त हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि देश स्तर पर मोदी सरकार द्वारा कोरोना महामारी के कुप्रबन्धन और आपराधिक लापरवाही का ख़ामियाज़ा एक हद तक भाजपा को चुनावी नतीजों के रूप में उठाना पड़ा है। बहरहाल, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए इन चुनावी नतीजों के क्या मायने हैं, यह समझना हमारे लिए ज़रूरी है।
इन पाँच राज्यों में उस वक़्त चुनाव सम्पन्न हुए हैं जब पूरा देश ही कोरोना महामारी की दूसरी लहर और देशव्यापी स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है। चुनावों के दौरान विभिन्न पार्टियों द्वारा आयोजित बड़ी रैलियों और रोड शो का कोरोना संक्रमण के मामलों पर क्या असर पड़ा है, इसके परिणाम आज सबके सामने हैं। चुनावों के ठीक बाद बंगाल, तमिलनाडु और केरल में कोरोना संक्रमण और कोरोना से होनी वाली मौतों के मामलों में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है। लेकिन चुनाव आयोग इस बीच हाथ पर हाथ धरे बैठे देखता रहा और तमाम चुनावी पार्टियाँ इस महामारी की गम्भीरता का मख़ौल बनाती रहीं। अन्तिम चरण के मतदान के वक़्त कुछ ज़ुबानी जमाख़र्च इन पार्टियों द्वारा किया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और उसमें भी भाजपा और मोदी सरकार अन्त तक रैलियों के आयोजन में मशगूल थी और प्रधानमंत्री मोदी बड़ी बेशर्मी से हाथ हिला-हिलाकर मंच से बोल रहे थे कि इतनी बड़ी रैली तो उन्होंने आज तक नहीं देखी है!
जब रोम जल रहा था और वहाँ का राजा नीरो बाँसुरी बजा रहा था तो यक़ीनन कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ होगा। तमाम अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञों तक ने कहा है कि इतनी भीषणता और तीव्रता से कोरोना संक्रमण के फैलने में चुनावी रैलियों और कुम्भ जैसे धार्मिक जुटानों के ‘सुपर स्प्रेडर’ आयोजन ज़िम्मेदार हैं। लेकिन असल में तो सत्ता में बैठे वे लोग ज़िम्मेदार हैं जो सब जानते हुए भी यह होने दे रहे थे। यह भारत की जनता के ख़िलाफ़ एक भयानक अपराध से कम नहीं है। फ़रवरी में ही ख़ुद सरकार द्वारा नियुक्त वैज्ञानिकों की समिति ने चेतावनी दी थी और अप्रैल की शुरुआत से ही यह समझ आने लग गया था कि संक्रमण की यह दूसरी लहर ज़्यादा संक्रामक और घातक है, लेकिन बेगुनाह लोगों की जान को जोखिम में डालने का पाप भी चुनाव आयोग और मोदी सरकार के सर पर है। क्या इनके इस जनद्रोही आचरण के ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त दण्डात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए? मोदी सरकार की यह अक्षम्य आपराधिक लापरवाही एकमात्र सबसे बड़ा कारण है कि आज भारत की मेहनतकश अवाम को कोरोना महामारी और भुखमरी दोनों का शिकार होना पड़ा है।
एक तरफ़ तो कोरोना संकट के इस पूरे दौर में मोदी सरकार की बदइन्तज़ामी तथा सरकारी जवाबदेही और ज़िम्मेदारी से पलायन महामारी को और कई गुना अधिक विकराल बना रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ महामारी से लड़ने की कोई सुसंगत योजना बनाने और उसके सुचारू कार्यान्वयन की जगह समूचा केन्द्रीय मंत्रिमण्डल और केन्द्र सरकार चुनावों के प्रचार अभियान में मस्त थी। कोरोना आपदा के बीच ही पश्चिम बंगाल चुनाव को आठ चरणों में सम्पन्न कराया गया ताकि मोदी-अमित शाह और तमाम केन्द्रीय मंत्रियों की ज़्यादा से ज़्यादा रैलियाँ आयोजित करायी जा सकें। भाजपा ने हर चुनाव की तरह इन चुनावों में भी ख़ूब पैसा-संसाधन बहाया, मीडिया को सेट किया और चुनाव आयोग को भी अपनी जेब में बिठा दिया। बावजूद इसके, मोदी-शाह को मनमुआफ़िक़ चुनाव परिणाम नहीं मिले और पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में इसे हार का मुँह देखना पड़ा। इसका एक प्रमुख कारण, जैसा कि हमने पहले भी ज़िक्र किया, मोदी सरकार की कोरोना महामारी को लेकर अगम्भीरता और कुप्रबन्धन भी है, जिसका असर उत्तर प्रदेश में हाल ही में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों के नतीजों में भी नज़र आया।
जहाँ तक पश्चिम बंगाल का प्रश्न है तो भाजपा को जिताने के लिए न केवल संघ परिवार ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी बल्कि चुनाव आयोग ने भी इसके लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रखा था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, योगी आदित्यनाथ से लेकर तमाम केन्द्रीय मंत्री और अन्य राज्यों से भाजपाई-संघी अमले ने बंगाल “फ़तह” करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी। मोदी ने बंगाल चुनाव के मद्देनज़र ही बांग्लादेश की यात्रा की और वहाँ जाकर यह 12 लाख कोविड-वैक्सीन की डोज़ भी बांग्लादेश को दे आये! बंगाल चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका ने एक बार फिर से स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय फ़ासिस्टों ने नौकरशाही, न्यायपालिका और चुनाव आयोग तक में एक लम्बे अरसे में संस्थाबद्ध घुसपैठ की है और इन्हें अपने ज़रूरतों के अनुकूल ढाल लिया है। चुनाव आयोग की आपराधिक उदासीनता और मोदी सरकार की चुनाव जीतने की हवस ने पश्चिम बंगाल को भयानक कोरोना संक्रमण और मौतों के ज़लज़ले के बीच धकेल दिया है। चुनाव आयोग और भाजपाई अब दृश्य से नदारद हैं लेकिन कोरोना संक्रमण का ख़ामियाज़ा बंगाल की जनता को भुगतना पड़ रहा है।
पाँच राज्यों में सम्पन्न हुए इन चुनावों में सबसे अधिक चर्चा पश्चिम बंगाल के चुनाव को लेकर रही। इसका एक कारण यह भी था कि बंगाल के चुनावों पर संघ परिवार, भाजपा और मोदी-शाह की निगाह पिछले लम्बे समय से थी। इसके मद्देनज़र ही इनके द्वारा कई तैयारियाँ भी की जा रही थीं। नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लाने के पीछे भी एक प्रमुख मक़सद पश्चिम बंगाल और साथ ही असम के विधान सभा चुनाव थे। इसका कारण इन दोनों राज्यों में हिन्दुत्व फ़ासिस्टों द्वारा “मुसलमान” और “बांग्लादेशी घुसपैठिये” जैसी कल्पित दुश्मन की छवि-निर्माण करके राजनीतिक ध्रुवीकरण पैदा करना था। इसलिए फ़ौरी तौर पर हिन्दुत्व फ़ासीवादी राजनीति को स्थापित करने के दृष्टिकोण से आरएसएस व मोदी-शाह के लिए इन सभी राज्यों में से पश्चिम बंगाल का चुनाव सबसे ज़्यादा महत्व रखता था। बंगाल में मुसलमान आबादी विचारणीय संख्या में मौजूद है, जो कुल आबादी की लगभग 30 प्रतिशत है। फ़ासिस्टों के लिए इस लिहाज़ से यहाँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ज़मीन भी मुफ़ीद थी। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि भाजपा ने पैसे, संसाधनों और केन्द्रीय सरकार की सम्पूर्ण मशीनरी की ताक़त, विशेष तौर पर, पश्चिम बंगाल के चुनावों की तैयारी में झोंक दी थी। मोदी ने 20 और गृहमंत्री अमित शाह ने 50 से ज़्यादा रैलियाँ अकेले पश्चिम बंगाल में सम्बोधित की। इसके अलावा, भारतीय फ़ासिस्टों के इस्तेमाल के लिए एक बेहद नमनीय चुनाव आयोग की मौजूदगी ने भी भाजपा का रास्ता सुगम बनाने का काम किया। कहने के लिए बंगाल में मुक़ाबला त्रिकोणीय था, लेकिन कांग्रेस और संसदीय वामपन्थी पार्टियों को शुरुआत से ही कोई गम्भीर दावेदार के तौर पर नहीं देख रहा था।
बंगाल चुनाव के नतीजों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 292 सीटों में से 213 सीटों पर विजय हासिल हुई है और कुल वोटों का 47.94 फ़ीसदी प्राप्त हुआ है, दो सीटों पर प्रत्याशियों की मृत्यु होने के कारण चुनाव नहीं हो पाया था। 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 211 सीटों पर जीत मिली थी। वहीं दूसरी तरफ़ भाजपा को इस बार के चुनाव में 77 सीटें हासिल हुई हैं और उसे कुल डाले गये मतों का 38.13 प्रतिशत प्राप्त हुआ है। कांग्रेस, संसदीय वामपन्थी पार्टियों और इण्डियन सेक्युलर फ़्रण्ट का गठबन्धन ले-देकर एक सीट जीत सका, वह भी आईएसएफ़ की उम्मीदवारी वाली सीट पर।
चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भाजपा ने वोटों के ध्रुवीकरण की कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और ज़बर्दस्त साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल बनाया। इसके अलावा चुनाव से ऐन पहले कई दिग्गज टीएमसी नेताओं का भाजपा में शामिल हो जाना भी ममता बनर्जी के लिए झटका था, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय सुवेन्दु अधिकारी का भाजपा में जाना था जिसे कि तृणमूल में ममता बनर्जी के बाद दूसरा सबसे ताक़तवर नेता माना जाता था। इससे पहले 2017 में पूर्व तृणमूल कांग्रेस नेता मुकुल रॉय भाजपा में शामिल हो ही चुके थे। लेकिन चुनाव के वक़्त तो मानो दलबदलुओं का टिड्डी दल ही बंगाल के राजनीतिक पटल पर छोड़ दिया गया था! इन सबके चलते तृणमूल कांग्रेस की हालत ठीक तो नहीं लग रही थी और इसलिए ममता बनर्जी द्वारा “कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए” सुवेन्दु अधिकारी के विरुद्ध नन्दीग्राम से चुनाव लड़ा गया और हारा गया। अब नन्दीग्राम के आन्दोलन की अलग ही कहानी थी; वर्ष 2007 में लेफ़्ट फ़्रण्ट की सरकार के ख़िलाफ़ ममता बनर्जी उस आन्दोलन का चेहरा भले ही थी लेकिन वास्तविक संगठनकर्ता सुवेन्दु अधिकारी ही था। इसलिए भाजपा का इस सीट से जीतना अप्रत्याशित नहीं है। मज़ेदार बात यह है कि चुनाव के दौरान धनी किसान आन्दोलन का नेतृत्त्व करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने, जिसमें कि संसदीय वामपन्थी बातबहादुरों की धनी किसान यूनियनें भी शामिल हैं, नन्दीग्राम में भाजपा के विरोध में और तृणमूल कांग्रेस के समर्थन में प्रचार किया! हालाँकि सीपीआई-सीपीएम ने ख़ुद को इस प्रचार से दूर ही रखा क्योंकि सिंगूर-नन्दीग्राम का काला अतीत उनका पीछा नहीं छोड़ सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को हराने के नाम पर इस क़िस्म की ‘शंकर जी की बारात’ वाले यूनाइटेड फ़्रण्ट बनाने के असफल प्रयासों के ऐसे ही हास्यास्पद परिणाम सामने आते हैं। यह दीगर बात है कि धनी किसान आन्दोलन के नेताओं का भाजपा-विरोधी चुनावी प्रचार कोई ख़ास असरदार साबित हुआ भी नहीं।
बहुतेरे पर्यवेक्षक ममता बनर्जी के नेतृत्त्व में तृणमूल कांग्रेस की इस जीत को फ़ासीवाद की शिकस्त क़रार दे रहे हैं। ममता बनर्जी के नाम के क़सीदे पढ़ रहे हैं। ऐसा अति आशावादी विश्लेषण और कुछ नहीं बल्कि लिबरल वायरस से ग्रस्त और वर्ग दृष्टि से रिक्त दिमाग़ों की पैदावार होता है। पहली बात तो यह है कि महज़ चुनावों में हार-जीत से हिन्दुत्व फ़ासीवाद के प्राणान्तक ख़तरे के टल जाने का फ़ैसला नहीं हो सकता है और अतीत में ऐसा हुआ भी नहीं है। भाजपा भले ही चुनाव हार जाये, लेकिन आरएसएस और संघ परिवार की विचारधारात्मक-सांगठनिक संरचना की उपस्थिति हर मौक़े पर यह सुनिश्चित करती रहेगी कि हिन्दुत्व फ़ासीवाद के लिए समाज में ज़रख़ेज़ ज़मीन तैयार होती रहे। इसके अलावा पूँजीवादी आर्थिक संकट भी वस्तुगत तौर पर फ़ासीवाद जैसे धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के पनपने की ज़मीन तैयार करता है। इसलिए इन चुनाव परिणामों से इस हद तक आशान्वित होना वास्तव में बुर्जुआ उदारतावादी विभ्रम को ही दिखलाता है। दूसरे, पश्चिम बंगाल में भाजपा भले ही हार गयी हो लेकिन वह ख़ाली हाथ भी नहीं लौटी है। सोशल मीडिया पर ‘दीदी’ द्वारा भाजपा की फ़ासिस्ट राजनीति को धूल में मिला देने जैसी बहुत बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं लेकिन इस ओर कम ही लोग ध्यान दे पा रहे हैं कि बंगाल में सत्ता फिर से भले ही तृणमूल कांग्रेस के पास आ गयी है लेकिन यहाँ भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। साल 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 10.16 फ़ीसदी वोट के साथ मात्र 3 सीटें मिली थीं लेकिन 2021 में इसकी सीटें 77 तक पहुँच गयीं और वोट प्रतिशत बढ़कर 38 फ़ीसदी हो गया है! भाजपा भले ही सरकार न बना पायी हो लेकिन इस बार विधानसभा में अकेले विपक्ष के तौर पर वह सामने आयी है और कांग्रेस और संसदीय वाम दलों को उसने इस भूमिका से बेदख़ल कर दिया है। ममता बनर्जी की जीत से बंगाल की मेहनतकश जनता को क्या नसीब होगा यह तो पहले ही स्पष्ट है। बंगाल की जनता ग़रीबी-बेरोज़गारी और भुखमरी के जिस स्तर को छू रही है उसमें कोई बदलाव के आसार तो क़तई नज़र नहीं आ रहे हैं।
इसके अलावा, ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की जीत साम्प्रदायिक हिन्दुत्व फ़ासीवाद पर धर्मनिरपेक्षता की कोई जीत नहीं है, जैसा कि कुछ लोग शोरगुल मचाते हुए दावा कर रहे हैं; यह ध्रुवीकरण की राजनीति की जीत है। जहाँ तक हिन्दू धार्मिक प्रतीकों का सवाल है तो ममता बनर्जी ने भी चुनाव प्रचार अभियान में इस प्रतीकवाद का बख़ूबी इस्तेमाल किया है। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस द्वारा बांग्ला अस्मितावाद का कार्ड भी जमकर खेला गया जिसका मुख्य तत्व “बांग्ला’ बनाम “बाहरी” की राजनीति थी। साथ ही, टीएमसी ने भाजपा द्वारा पैदा किये गये मज़हबी ध्रुवीकरण का अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए खुलकर इस्तेमाल भी किया। मुसलमान आबादी ने एक मत होकर तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया है क्योंकि तृणमूल द्वारा यह डर भी ज़मीनी स्तर पर फैलाया जा रहा था कि अगर उसे वोट नहीं करोगे तो भाजपा जीत जायेगी और भाजपा को तृणमूल कांग्रेस ही रोक सकती है। यही काम आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने साल 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान किया था। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को फ़ासिस्टों द्वारा अंजाम दिये जा रहे इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का हमेशा चुनावी लाभ ही पहुँचा है और इसलिए भी यह इसकी कोई प्रबल मुख़ालफ़त न तो करती हैं और न करेंगी ही। यही कारण है कि मालदा और मुर्शीदाबाद जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में तृणमूल के 80 फ़ीसदी से ज़्यादा उम्मीदवार विजयी हुए हैं क्योंकि मुसलमान आबादी ने असुरक्षा और भय से प्रेरित हो एकजुट होकर तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया है।
बंगाल में कांग्रेस और संसदीय वामपन्थियों का सूपड़ा साफ़ होने का एक कारण यह ध्रुवीकरण भी रहा। आज़ादी के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि पश्चिम बंगाल विधान सभा में कांग्रेस और संसदीय वामपन्थी पार्टियों का एक भी विधायक नहीं चुना गया है। 2016 में कांग्रेस-वाम गठबन्धन को कुल 77 सीटें मिली थीं, ठीक उतनी ही जितनी भाजपा को इस बार प्राप्त हुई हैं। वहीं दूसरी तरफ़ अगर देखें तो हिन्दू आबादी के बीच अपनी पैठ को और पुख़्ता करने की मंशा से भाजपा 2014 से 2019 के बीच बंगाल में मुख्यतः दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) में अपना आधार दोगुना करने में सफल रही है, जिन तबक़ों से ग़रीबों का बहुलांश आता है और जो पारम्परिक तौर पर वामपन्थी पार्टियों का आधार हुआ करता था। हालिया चुनावों के बाद हुए तमाम सर्वेक्षणों में यह बात भी सामने आयी है कि बंगाल में “सवर्ण” व “उच्च” जातियों की तुलना में भाजपा को दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों और साथ ही आदिवासियों का समर्थन किसी भी अन्य पार्टी से अधिक प्राप्त हुआ है। यह दिखलाता है कि तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों का आधार भी यहाँ से सिमट रहा है और भाजपा पाँव पसार रही है। यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि पश्चिम बंगाल के माटीगारा-नक्सलबाड़ी विधानसभा सीट से इस बार भाजपा विजयी हुई है जो कि एक आरक्षित सीट थी। नक्सलबाड़ी का एक ऐतिहासिक महत्त्व है और इसलिए यह तथ्य अपने आप में बहुत कुछ ज़ाहिर कर देता है। इस क्षेत्र में 30 प्रतिशत दलित आबादी रहती है और उनके समर्थन के बग़ैर भाजपा का जीत पाना ही नामुमकिन था। तृणमूल कांग्रेस की जीत पर तालियाँ पीटने वाले कम्युनिस्टों को जश्न के नशे में इतना चूर नहीं हो जाना चाहिए कि वर्ग अन्तर्दृष्टि और वर्गीय राजनीति का दामन ही छूटने लगे।
पश्चिम बंगाल चुनाव में एक बात जिसके बारे में ज़्यादा चर्चा नहीं हो रही है वह है कांग्रेस के साथ ही संसदीय वामपन्थियों का राजनीतिक दृश्यपटल से साफ़ हो जाना। मज़दूर वर्ग की राजनीति का दावा करने वालों और असल में उनके हितों का सौदा करने वालों यानी सामाजिक जनवादियों और संशोधनवादियों का संसदीय चुनावी दंगल से ग़ायब हो जाने के लिए भी यह चुनाव याद रखा जायेगा! तीन दशक तक बंगाल में राज करने वाले संशोधनवादियों को इस विधानसभा चुनाव में एक सीट भी नसीब नहीं हुई। ज्योति बासु और बुद्धदेव भट्टाचार्य के कुख्यात दौरों में इन्होंने मज़दूर वर्ग की राजनीति को जिस तरह से अर्थवाद और संसदवाद के गड्ढे में धकेला है उस लिहाज़ से इनके साथ यही होना था। छद्म विकल्प नये विकल्प को खड़ा करने के रास्ते में बाधा ही बनता है। निश्चय ही पश्चिम बंगाल की मेहनतकश आबादी के सामने अपनी एकजुटता क़ायम करने और स्वयं को सही राजनीतिक विकल्प के इर्दगिर्द एकजुट करने की बड़ी चुनौती है।
असम में भाजपा गठबन्धन की सरकार ही फिर से सत्तासीन हुई है। यहाँ 2016 में भाजपा ने पहली बार सत्ता हासिल की थी। यह पहला मौक़ा था जब पूर्वोत्तर के किसी इतने बड़े राज्य में भाजपा अपनी फ़ासीवादी राजनीति के दम पर लगभग अकेले ही बहुमत के नज़दीक पहुँची और इसने अपने बूते पर सरकार बनायी। इस बार भाजपा गठबन्धन को कुल 126 सीटों में से 75 सीटों पर जीत हासिल हुई है। यह पहली बार ही हुआ है कि एक ग़ैर-कांग्रेसी सरकार असम में लगातार दो बार चुनकर आयी हो। भाजपा ने इस बार 93 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे जिसमें से उसे 60 सीटों पर जीत हासिल हुई है जो कि पिछली बार के ही बराबर है, वहीं इसके राजनीतिक सहयोगियों, असम गणपरिषद् (एजीपी) और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को 9 और 6 सीटें मिली हैं। कांग्रेस के नेतृत्त्व में बने “महाजोत” को, जिसमें कि 10 पार्टियाँ शामिल थीं, 51 सीटें प्राप्त हुई हैं। कांग्रेस को 29 सीटें मिली हैं। गठबन्धन के अन्य घटकों जैसे कि बदरुद्दीन अजमल की ऑल इण्डिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रण्ट (एआईयूडीएफ़) को 16 सीटें और बोडोलैण्ड पीपल्स फ़्रण्ट (बीपीएफ़) को बोडोलैण्ड प्रादेशिक क्षेत्र (बीटीआर) में कुल 4 सीटें हासिल हुई हैं।
बीपीएफ़ को पिछली बार यानी कि 2016 विधानसभा चुनाव में 12 सीटें मिली थी, उस वक़्त वह भाजपा की सहयोगी थी। भाजपा को कुल पड़े वोटों का 33.2 प्रतिशत प्राप्त हुआ है जबकि कांग्रेस को 29.6 फ़ीसदी वोट मिले हैं।
सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर असम में भाजपा का ज़बर्दस्त विरोध हुआ था। सीएए के ख़िलाफ़ खड़े हुए आन्दोलन से निकली दो नयी पार्टियों ने भी इस बार चुनाव में शिरकत की। इसमें से प्रमुख अखिल गोगोई द्वारा गठित रायजर दल था जिसकी तरफ़ से वह स्वयं इस बार शिबसागर सीट से चुनाव लड़े और भाजपा की उम्मीदवार को हराया। अखिल गोगोई ने कांग्रेस व वाम दलों द्वारा बदरुद्दीन अजमल की कट्टरपन्थी साम्प्रदायिक पार्टी एआईयूडीएफ़ से हाथ मिलाने पर विरोध भी दर्ज करवाया था और किसी भी सेक्युलर मोर्चे में ऐसे दल की मौजूदगी पर सवाल उठाये थे।
जहाँ तक भाजपा का प्रश्न है तो इस बार राज्य चुनाव में इसने सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर बेशर्म चुप्पी साध रखी थी। भाजपा अपने चुनावी घोषणापत्र तक में सीएए-एनआरसी को लेकर कोई बात नहीं कर रही थी। हालाँकि असम में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में भाजपा काफ़ी हद तक सफल हुई है। “बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठिये” के बरक्स “हिन्दू शरणार्थी” की छवि को स्थापित करने का भी ख़ासा प्रयास किया गया है। इसके अलावा भाजपा की जीत के पीछे उसका चाय बाग़ान मज़दूरों में मज़बूत आधार है, इसका भी एक कारण है; इसकी वजह से भाजपा वर्ष 2016 में भी सत्ता हासिल कर पायी थी। यही कारण है कि कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में चाय बाग़ान मज़दूरों का न्यूनतम वेतन 351 रुपये प्रतिदिन करने का वायदा किया था, लेकिन मुख्यमंत्री सोनोवाल ने चुनाव प्रचार शुरू होने से पहले ही मौजूदा 167 रुपये में 50 रुपये की बढ़ोतरी की घोषणा कर दी थी। इसके साथ ही असम के तीन पहाड़ी ज़िलों में भी भाजपा का आधार और सुदृढ़ीकृत हुआ है और उसने यहाँ पाँचों सीटें जीती हैं। बराक घाटी, जो बांग्ला बहुल क्षेत्र है, वहाँ भाजपा को 6 सीटें प्राप्त हुई हैं। समूचे चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने कांग्रेस-एआईडीयूएफ़ के गठबन्धन को “असमिया” पहचान के लिए ख़तरनाक बताया था, चुनाव को “दो सभ्यताओं का टकराव” बताया और भाजपा को “असमिया संस्कृति और सभ्यता” का संरक्षक बताया था। यही कारण है कि भाजपा ने नागरिक क़ानून संशोधन को लेकर चुनाव प्रचार में कोई बात नहीं की और पूरा प्रचार इस बात पर ही केन्द्रित किया कि कांग्रेस नीत गठबन्धन को जिताने का मतलब “बांग्लादेशी घुसपैठियों” को सत्ता सौंपना है। भाजपा को सीएए पर बात करने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं पड़ी क्योंकि “असमिया’ राष्ट्रीय पहचान के इर्द-गिर्द एक प्रतिक्रियावादी लामबन्दी संघटित करने में उसे एक हद तक सफलता हासिल हुई है और ग़ैर-मुसलमानों को नागरिकता दिये जाने के विवादास्पद मसले को चुनाव के दौरान वह ठीक इसीलिए नहीं उठाना चाहती थी। वहीं दूसरी तरफ़ बदरुद्दीन अजमल की पार्टी भी भाजपा-संघ परिवार द्वारा लगायी गयी इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आग में घी डालने का काम ही कर रही थी। एक प्रकार का कट्टरतावाद दूसरे प्रकार के कट्टरतावाद को खाद पानी देने का काम ही करता है जो कि असम के चुनावों में देखा भी गया। एक और बात जो समय के साथ स्पष्ट हो रही है वह है असम गण परिषद् जैसे मुख्य धारा में शामिल असमिया राष्ट्रवादी दलों की अप्रासंगिकता। अतीत में एजीपी ने असम में दो बार सरकार बनायी थी लेकिन इस बार वह कुल 9 सीटें पर ही सिमट गयी जो कि 2016 के मुक़ाबले 5 सीटें कम हैं। इसके अलावा एक अन्य असमिया राष्ट्रवादी दल एजेपी, जो कि आसू (ऑल असम स्टूडेण्ट्स यूनियन) और असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद् ने मिलकर बनाया था, एक भी सीट नहीं जीत पायी।
असम की मज़दूर-ग़रीब आबादी अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतों तक से महरूम है। इसके बावजूद किसी सही राजनीतिक विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में भाजपा गठबन्धन चुनाव जीत गया। असम के तमाम जनजातीय हिस्सों में संघ परिवार ने ख़ासी पैठ बना ली है। इनकी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ज़हरीली राजनीति के बूते ही यहाँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ हुआ है और इसका सीधा फ़ायदा भाजपा को मिल भी रहा है, जैसा कि ये चुनावी परिणाम दिखला रहे हैं।
तमिलनाडु में इस बार द्रमुक के नेतृत्त्व में धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबन्धन (एसपीए) की सरकार बनी है। पिछले 10 सालों से राज कर रहे अन्नाद्रमुक गठबन्धन को हटाकर द्रमुक गठबन्धन ने चुनाव जीता है। इस गठबन्धन में डीएमके के अलावा कांग्रेस, एमडीएमके, संसदीय वामपन्थी, थोल थिरुवामलन की वीसीके व कई अन्य छोटे दल शामिल हैं। वहीं दूसरी तरफ़ एआईएडीएमके ने भाजपा, पीएमके व कुछ अन्य छोटे दलों के साथ चुनाव लड़ा। द्रमुक नीत गठबन्धन को 234 सीटों में 159 सीटों पर विजय प्राप्त हुई, जिसमें डीएमके को कुल 133 सीटें हासिल हुई हैं जो कि स्पष्ट बहुमत है। अन्नाद्रमुक गठबन्धन को 75 सीटें हासिल हुईं जिसमें भाजपा को 4 सीटें मिली हैं। भाजपा 20 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। वर्ष 2001 से यह पहली बार है कि भाजपा का तमिलनाडु विधानसभा में प्रतिनिधित्व होगा। पीएमके ने, जिसका कि उत्तरी तमिलनाडु की वन्नियार जाति के बीच आधार है, चुनाव से पहले शिक्षा व सरकारी नौकरियों में मौजूद अति पिछड़ी जातियों के कोटे से 10.5 प्रतिशत आरक्षण वन्नियार समुदाय के लिए मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की अन्नाद्रमुक सरकार से लागू करवाया था। हालाँकि इस सियासी उठा-पटक के बावजूद पीएमके को 23 सीटों में से केवल 5 सीटों पर ही जीत मिली है। इसके पीछे एक कारण ग़ैर-वन्नियार पिछड़ी जातियों और दलित जातियों का द्रमुक के पक्ष में सुदृढ़ीकरण भी था।
हालाँकि यह भी सच है कि तमिलनाडु के राजनीतिक पटल पर पिछले दो दशक से कई जातिगत दल उभरे हैं। ये तमाम पार्टियाँ पिछड़ी जातियों के वर्चस्व वाले द्रविड़ अस्मिता आधारित दलों, जैसे कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक के पारम्परिक वोट बैंक में सेंध लगा रही हैं। इसके अलावा दोनों प्रमुख द्रविड़ पार्टियों की लोकप्रियता में भी कमी आयी है और द्रमुक और अन्नाद्रमुक को राज्य की सरकार बनाने के लिए गठबन्धनों का सहारा लेना पड़ा है, जैसा कि हालिया चुनावों ने दिखलाया भी है। हालाँकि आज भी बुर्जुआ राजनीति के दायरे में द्रविड़ पहचान का सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आज से सात-आठ दशक पहले था जब द्रविड़ आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। यही कारण है कि द्रविड़ अस्मिता और प्रतीकवाद की राजनीति ही आमतौर पर संसदीय राजनीति में छायी रहती है। वर्ष 1967 से ही द्रमुक और अन्नाद्रमुक तक़रीबन बारी-बारी से तमिलनाडु में सत्ता सुख भोगते रहे हैं। इस बार द्रमुक गठबन्धन की जीत के पीछे अन्नाद्रमुक सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर भी काम कर रही थी; वहीं जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक में किसी एक विशाल राजनीतिक क़द के नेता का अभाव भी एक वजह रही, बावजूद इसके पार्टी ने 66 सीटें जीतीं और 33.29 प्रतिशत वोट हासिल किये। द्रमुक ने 133 सीटें जीतकर 37.7 प्रतिशत वोट बटोरे। अन्नाद्रमुक से 2018 में अलग हुई एएमएमके कुछ ख़ास करतब नहीं दिखा पायी। वहीं द्रमुक गठबन्धन में शामिल थोल थिरुमावलन की वीसीके 6 में से 4 सीटों पर विजयी रही। कुल मिलकर कह सकते हैं कि भाजपा दक्षिण के इस राज्य में भी पाँव जमाने की कोशिश कर रही है। और जैसा कि पहले भी देखा गया है जिन राज्यों में भाजपा का कोई पारम्परिक सांगठनिक ढाँचा या आधार नहीं रहा है, उन तमाम राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ बनाकर उनकी बैसाखी के सहारे अपना आधार विकसित करती है और समय आने पर अपने चुनावी सहयोगियों पर ही वह बैसाखी ठीक से जमा भी देती है!
जो महानुभाव इस वक़्त तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक आदि की जीत में भारतीय “संघवाद” की विजय देख रहे हैं वे यह समझ पाने में अक्षम हैं कि इसी संघवाद का सहारा लेकर भाजपा उन राज्यों पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रही है जहाँ कि उसका कोई आधार नहीं रहा है। और यह काम भाजपा द्वारा हर-हमेशा क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों की बाँह मरोड़कर ही नहीं किया जाता है, बल्कि क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाले ये दल ख़ुद ऐसे संश्रय के इच्छुक हैं क्योंकि इन्हें केन्द्रीय सत्ता में पहले से मौजूद अपनी हिस्सेदारी मज़बूत करने और बढ़ाने का मौक़ा मिलता है। यह बात अलग है कि चाहे द्रमुक आये या अन्नाद्रमुक, तमिलनाडु की मेहनतकश जनता के जीवन के हालात में कोई आमूलगामी तब्दीली नहीं आयेगी। तमिलनाडु में द्रमुक-अन्नाद्रमुक के सांपनाथ और नागनाथ के इस सियासी रस्साकशी के बीच राज्य की मेहनतकश जनता का कोई भी भविष्य नहीं है। यह दोनों ही दल पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करते हैं और आम मेहनतकश जनता को द्रविड़ व तमिल अस्मितावाद और प्रतीकवाद के गोल चक्कर में उलझाकर रखते हैं।
केरल में इस बार भी सीपीएम की अगुआई में ‘लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रण्ट’ (एलडीएफ़) के पास ही सत्ता आ गयी है। इसने 140 सीटों में से 99 पर जीत दर्ज की। बंगाल में कांग्रेस के साथ गठबन्धन करके चुनाव लड़ने वाली सीपीएम की केरल में मुख्य विरोधी पार्टी कांग्रेस ही थी! यह इन चुनावबाज़ मदारियों का अवसरवाद ही है कि इनके लिए मुख्य चीज़ सत्ता है न कि सिद्धान्त। कांग्रेस-नीत गठबन्धन यूडीएफ़ को 41 सीटों से सन्तोष करना पडा है जिसमें कांग्रेस को कुल 93 सीटों में 21 सीटों पर जीत मिली है। ये दोनों ही गठबन्धन बारी-बारी से केरल की गद्दी पर क़ाबिज़ रहे हैं, लेकिन लगभग चार दशकों बाद लगातार दो बार एक ही गठबन्धन की सरकार बनी है। वहीं इस बार भाजपा केरल में अपना खाता भी नहीं खोल पायी है, हालाँकि 2016 में वह एक सीट जीती थी। एलडीएफ़ की जीत के प्रमुख कारण पिछली दो बार से आयी भीषण बाढ़ के दौरान किया गया सरकारी राहत कार्य है, 2018 में निपा वायरस संक्रमण के दौरान प्रदान की गयी स्वास्थ्य व अन्य आवश्यक सेवाएँ हैं और हाल में कोरोना महामारी का अपेक्षाकृत बेहतर रोकथाम का इन्तज़ाम है। हालाँकि चुनाव समाप्त होते ही केरल में कोरोना संक्रमण के मामले कई गुना बढ़ गये हैं। वैसे तो इन दोनों ही गठबन्धनों पर ही समय-समय पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगते रहे हैं, लेकिन वास्तविक विकल्प के अभाव में इन्ही दोनों में से किसी एक की सरकार बनती रही है। इसके अलावा केरल में संसदीय वामपन्थ की मौजूदगी एक भ्रम भी पैदा करती है, अक्सर नौजवानों में, जो इसी को समाजवाद का मॉडल समझ बैठते हैं। यह भ्रम भी किसी वास्तविक विकल्प के संगठित और संघटित होने में एक बड़ी अड़चन का काम करता है। जबकि सच्चाई यह है कि वहाँ पर शासन करने वाली तथाकथित-कम्युनिस्ट पार्टियाँ उदारीकरण-निजीकरण की लुटेरी नीतियों को लागू करने में क़तई पीछे नहीं हैं। बहुत से लोगों को यह भी विभ्रम है कि केरल में फ़ासीवादी भाजपा का रथ रोकने के लिए इन संसदीय वामपन्थियों को जिताना ज़रूरी है जबकि सच्चाई यह है कि फ़ासीवाद का कुक्कुरमुत्ता सामजिक जनवाद और संशोधनवाद के खण्डहर पर ही फलता-फूलता है। इसका सबसे बड़ा उदहारण जर्मनी में नाज़ीवाद का उभार था और हमारे देश में हिन्दुत्व फ़ासीवाद का उभार है। लेकिन जहाँ तक केरल की मेहनतकश जनता की जीवन स्थितियों का सवाल है तो उसके सामने भी उसके जीवन का सबसे बुनियादी सवाल रोज़गार का सवाल मुँह बाये खड़ा है और एलडीएफ़ या किसी अन्य सरकार के पास उसका कोई हल नहीं है। साथ ही, केरल में भाजपा की चुनावी हार को क़तई हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। संघ परिवार बेहद संयम और मुस्तैदी से यहाँ अपना विचारधारात्मक व सांगठनिक आधार तैयार कर रहे हैं। सबरीमाला के मुद्दे पर भी भाजपा एक आबादी के बीच जनमत बनाने में कामयाब हुई थी और चुनाव के दौरान भी वह इस मसले का इस्तेमाल कर रही थी। लेकिन हमारे देश के लिबरल वायरस से ग्रस्त बौद्धिक तबक़े को यह वास्तविकता दिखलाई नहीं पड़ती है क्योंकि वह स्वयं ही राजनीतिक निकटदर्शिता का बुरी तरह से शिकार है।
पुद्दुचेरी में भाजपा गठबन्धन की सरकार बनने जा रही है। यहाँ की 33 विधानसभा सीटों में से 30 पर विधानसभा चुनाव होते हैं और 3 सदस्य केन्द्र द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। यहाँ 10 सीटें ऑल इण्डिया एन आर कांग्रेस और 6 सीटें भाजपा ने जीती हैं। 2016 में यहाँ कांग्रेस गठबन्धन सत्ता में आया था। इस बार कांग्रेस को यहाँ 2 तो द्रमुक को 6 सीटें मिली हैं। 6 सीटें यहाँ निर्दलीय विधायकों ने जीती हैं। वैसे तो भाजपा की तरफ़ से लड़े ज़्यादातर उम्मीदवार कांग्रेस से ही दल बदल कर आये हैं और भाजपा का मौजूदा विधायक मण्डल वस्तुतः 2016-21 का कांग्रेस का विधायक मण्डल ही था! बुर्जुआ दलगत राजनीति की बजबजाती और बदबू मारती सड़ाँध तो पिछले 6 वर्षों में सभी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। यही कारण है कि इस पर पूँजीवादी संसदीय विपक्ष रुदालियों की तरह छाती पीटता है कि भाजपा वाले हमारे विधायकों को ऐसा ऑफ़र देते हैं कि ये निरीह बेचारे मना ही नहीं कर पाते हैं! इसे कहते हैं वैचारिक प्रतिबद्धता जो कि इनकी पूँजी के प्रति ही है! साम्राज्यवाद के इस पतनशील पूँजीवादी दौर में बुर्जुआ राजनीति में भी “मूल्यों” का जिस प्रकार का ह्रास हुआ है, स्वयं पूँजीवादी पैमानों से भी, वाक़ई अचम्भित करने वाला है। वैसे मूल्य भी वर्ग-निरपेक्ष तो होते नहीं हैं और बुर्जुआ राजनीति में मौक़ापरस्ती और दलबदलूपन ही सबसे मूल्यवान निधि है। यही कारण है कि इस ह्रासमान दौर में भाजपा की जोड़-तोड़ की राजनीति ख़ूब परवान चढ़ रही है। एन आर कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दलों और एआईडीएमके के द्रविड़ अस्मितावादियों को संघी फ़ासीवादी भाजपा के साथ हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ भी नहीं है। पुद्दुचेरी की मेहनतकश जनता के हितों का प्रतिनिधित्व मौजूदा राजनीतिक विकल्पों में से कोई सा भी विकल्प नहीं करता था। सत्ता परिवर्तन से फ़र्क़ सिर्फ़ इतना आना है कि पहले यहाँ की जनता की छाती पर कांग्रेस बैठकर राज कर रही थी अब उसे हटाकर भाजपा क़ाबिज़ हो गयी है।
इन राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद जो मुख्य बात दिखलाई पड़ी वह है भारत के लिबरल वायरस से ग्रस्त बुद्धिजीवियों व क़िसिम-क़िसिम के सामाजिक जनवादियों और वाम हलक़ों की अनैतिहासिक और ग़ैर-सटीक सोच से पैदा हुई ख़ुशफ़हमी और अति-आशावाद की आँधी जो सबसे अधिक सोशल मीडिया पर चली। चुनावों के इन मिश्रित नतीजों को यह दायरा फ़ासीवादी राजनीति के अन्त के तौर पर प्रस्तुत कर रहा है और मेहनतकश जनता को इसके ख़तरे के प्रति असावधान कर रहा है और मौजूदा चुनौतियों से लड़ने के ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी हस्तक्षेप निर्मित करने के रास्ते में मज़दूर वर्ग को निहत्था और अरक्षित छोड़ रहा है। इसको ही हमने बुर्जुआ उदारतावादी विभ्रम कहा है। वास्तविक क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति पर चिन्ता करने की बजाय देश के उल्लेखनीय बौद्धिक हलक़ों में एक अलग ही क़िस्म का अनालोचनात्मक उल्लास और उत्सव का सा माहौल दिखायी दिया है। इस लिबरल जमात के विषय में लेनिन का यह मूल्यांकन आज भी उतना ही सटीक है कि जब किसी लिबरल को गाली दी जाती है, तो वह कहता है: भगवान का शुक्र है, उन्होंने मुझे पीटा नहीं। जब उसकी पिटाई हो जाती है तो वह भगवान का फिर शुक्रिया अदा करता है कि उसे जान से नहीं मारा गया। और जब उसे मार दिया जाता है तो वह फिर भगवान का धन्यवाद-ज्ञापन करेगा कि चलो अच्छा ही है कि अनश्वर आत्मा को इस नाशवान शरीर से मुक्ति तो मिल गयी! यह है इनकी फ़ितरत। क्रान्तिकारी बदलाव इन्हें बदहज़मी देते हैं इसलिए यह छोटी तब्दीलियों से ही काम चला लेते हैं!
दूसरे ऐसे लिबरल मानस की समूची राजनीति का ध्येय वाक्य “कम बुरे” विकल्प का चुनाव करना होता है। बीच-बीच में कुछ क्रान्तिकारी और तथाकथित क्रान्तिकारी दल भी इसी लिबरल वायरस से ग्रस्त हुए पाये जाते हैं। ख़ास तौर पर बंगाल में ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की जीत पर ऐसा ही दृश्य प्रस्तुत हो रहा है। बुर्जुआ चुनावों की नूराकुश्ती में हार-जीत का खेल तो चलता ही रहता है। ज़्यादा दिन कहाँ हुए जब बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव और नितीश कुमार की जोड़ी (राजद-जदयू के अवसरवादी गठजोड़) ने भाजपा को हराया था। तब भी बहुत सारे चतुर सुजान लिबरल गण फ़ासीवाद की मुक्कमल हार की बातें करते नहीं थक रहे थे। फिर हुआ क्या? नितीश कुमार ने बिना कोई देर किये भाजपा का दामन थाम लिया और उसके बाद उनके होकर रह गये, बस अकेले छूट गये तो हमारे बेचारे लिबरल सज्जन! इसके बाद 2019 के लोक सभा चुनाव के समय उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के साथ आने के बाद इन लिबरल जमातों की शिराओं में मानो नये रक्त का संचार हो गया था! लेकिन वह आशावाद भी ज़्यादा दिन नहीं टिका। आजकल उद्धव ठाकरे इनके प्रिय नायकों में से एक हैं। बुर्जुआ चुनावों की धींगामुश्ती में हार-जीत को ख़ुद इन पार्टियों के नेता किसी सर्कस से कम नहीं लेते हैं, हालाँकि इन्हें लेकर लिबरल वायरस से ग्रस्त लोगों का हलक़ बेमतलब ही सूखता रहता है। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कोई भी छद्म आशावाद आगे चलकर और भी गहरी निराशा को जन्म देता है। लुटेरों के इस या उस दल की जीत से छद्म आशावाद पालने की बजाय जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों का असल ध्यान मेहनतकश जनता की मुक्ति के असल विकल्प को खड़ा करने की ओर होना चाहिए।
इसके अलावा लिबरलों की इस जमात में स्मृतिलोप की समस्या भी बड़े पैमाने पर पायी जाती है। जिन भी चेहरे-मोहरों को इन्होंने फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ नायकत्व की भूमिका प्रदान करने की हास्यास्पद कोशिश की है उन सभी का इतिहास इन फ़ासिस्टों के साथ सत्ता की सेज गरम करने के अवसरों से भरा पड़ा है। चाहे वह मायावती रही हो या अब इस जमात की नयी ‘पोस्टर गर्ल’ ममता बनर्जी ही क्यों न हो, इन सभी ने अतीत में भाजपा के साथ राजनीतिक पीगें काफ़ी बढ़ायीं थीं। लेकिन विभ्रम-मतिभ्रम के शिकार इन लिबरल जनों को इससे क्या लेना-देना है? सच्चाई यह है कि किसी विचारधारात्मक-सैद्धान्तिक धुरी और इतिहासबोध के अभाव में ये तबक़ा इस या उस छद्म विकल्प के पीछे बदहवास होकर दौड़ लगाता रहता है। वास्तविक बदलाव की किसी परियोजना पर काम करना इन्हें कोई पहाड़ उठाना प्रतीत होता है। और फ़िर ये ब्रेष्ट के शब्दों में छोटे बदलावों के माध्यम से बड़े बदलावों का रास्ता रोकने में लग जाते हैं।
एक दूसरी जमात भी मौजूद है जो इन चुनावों के नतीजों को भारतीय संघवाद की विजय के तौर पर घोषित कर रही है। इस जमात में भी कई तरह के लोग शामिल हैं – कांग्रेस-समर्थकों से लेकर संसदीय वामपन्थियों के बौद्धिक भी। लेकिन इस जमात के संघीय कोरस में अब “नाम में मार्क्सवादी लेकिन असल में क़ौमवादी” भी सुर से सुर मिला रहे हैं। पंजाब के ये भाषाई अस्मितावादी-बुण्डवादी-क़ौमवादी इन चुनावों के विश्लेषण करने के बहाने अपने संघवाद के ढोल-मंजीरे लेकर एक बार फिर आ धमके हैं। हालाँकि इनका यह विश्लेषण यही दर्शाता है कि इनकी आम तर्कबुद्धि भी किस क़दर कंगाली का शिकार हो चुकी है और मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी सिद्धान्त और व्यवहार से इनका विपथगमन द्रुत गति से हो चुका है।
बंगाल के चुनाव परिणाम पर इन क़ौमवादियों का कहना है कि यह केन्द्र के हिन्दुत्ववादी केन्द्रीय एजेण्डे पर संघवाद की विजय है! ये क़ौमवादी इस प्रकार के वर्ग-विश्लेषण रहित बुर्जुआ राष्ट्रवाद के दीवाने पिछले लम्बे समय से हैं। अब इनसे कोई पूछे कि ममता बनर्जी की टीएमसी का अस्मितावाद, केरल के सामाजिक फ़ासीवादियों की राजनीति और तमिलनाडु के भाषाई अस्मितावादियों की उठापटक उक्त राज्यों की मेहनतकश जनता के किन हिस्सों के असल हितों का प्रतिनिधित्व करती है? बुर्जुआ राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग के प्रिय नारे यानी कि “संघवाद” पर इस हद तक लहालोट हो जाना कहीं से भी कम्युनिस्ट राजनीति और सर्वहारा वर्गीय कार्यदिशा नहीं है, जिसका परिचय ये क़ौमवादी आये दिन देते रहते हैं। दूसरे, जिस क़िस्म की पहचान और अस्मितावादी राजनीति तृणमूल कांग्रेस द्वारा इस चुनाव और आम तौर पर भी बंगाल की राजनीति में की जाती रही है वह हर हाल में मज़दूर वर्ग की इंक़लाबी सियासत के लिए घातक है और मज़दूर वर्ग की भावी एकता की सम्भावना-सम्पन्नता में बाधक है। साथ ही, इन क़ौमवादियों का यह दावा कि भाजपा के “जय श्री राम” के नारे के ऊपर ममता का “जय बांग्ला” का नारा हावी हो गया, भी सच्चाई से कोसों दूर है। इन चुनावों में ममता बनर्जी ने “दुर्गा” के प्रतीक का इस्तेमाल सबसे ज़्यादा और खुलकर किया है क्योंकि “हिन्दू” पहचान पर वह भी अपना दावा नहीं छोड़ना चाहती थी और बंगाल की हिन्दू आबादी को अपने “हिन्दू ब्राह्मण” होने का सबूत दे रही थी और “नर्म हिन्दुत्व” का कार्ड खेल रही थी। यह वास्तव में संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट राजनीति की एक जीत ही है कि बुर्जुआ चुनावी अखाड़े में इसने हर प्रतिद्वन्द्वी को अपनी “हिन्दू” पहचान साबित करने के लिए बाध्य किया है और इस पूरे खेल के नियम अपने अनुकूल तय कर दिये हैं। लेकिन हमारे क़ौमवादी इस पर भी तालियाँ पीट रहे हैं। सच्चाई यह है कि किसी भी राजनीतिक परिघटना का विश्लेषण करने हेतु मार्क्सवादी नज़रिया ये क़ौमवादी-भाषाई कट्टरतावादी पहले ही कोल्ड स्टोरेज के हवाले कर चुके हैं और इसलिए हर घटना को व्याख्यायित करने के लिए अपने विचारधारात्मक तौर पर फटे झोले से एकठो संघवाद का उतना ही ख़स्ताहाल उस्तरा निकाल लेते हैं और सच्चाई की हजामत करने में जुट जाते हैं।
संघवाद की पिपहरी बजाने वाले ये क़ौमवादी असम में चुनाव नतीजों की अपने संघवादी चश्मे से कोई व्याख्या करने से साफ़ बच निकलते हैं। इनके अनुसार तो भारत जैसे एक बहुराष्ट्रीय देश में हिन्दुत्व फ़ासीवादियों की सबसे बड़ी कमज़ोरियों में से एक संघवाद ही है, तो फिर यह कमज़ोरी असम में रंग क्यों नहीं लायी? इसलिए असम के मामले में, जहाँ असमिया राष्ट्रीय पहचान और स्थानीय भावनाएँ किसी भी मायने में बांग्ला अस्मिता से कमतर नहीं हैं, बल्कि यह कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा की असम में यह अधिक हावी हैं, वहाँ के चुनाव परिणाम के ऐसे ही संघवादी विश्लेषण के समय ये क़ौमवादी दायें-बायें देखने लगते हैं। तमाम स्थानीय अन्तर्विरोधों और तथाकथिक संघवादी चैम्पियनों को भाजपा ने कैसे साध लिया? यही नहीं, कर्नाटक से लेकर पंजाब तक में, महाराष्ट्र से लेकर गुजरात तक में और हरियाणा (जिसे कि ये बुण्डवादी-राष्ट्रवादी अलग क़ौम मानते हैं!) से लेकर त्रिपुरा तक में चुनावी बिसात पर भाजपा की फ़ासीवादी मुहिम या तो उत्तरोत्तर मज़बूत होती गयी है या इसने क़ौमवादियों के प्रिय संघवादी झण्डाबरदारों को एकदम से निगल लिया है। यह यही दिखलाता है कि मार्क्सवादी विज्ञान की धुरी से जब किसी का हाथ और साथ छूट जाता है, तो ऐसे ही विरोधाभासी नतीजे सामने निकलकर आते हैं। क़ौमवादियों और साथ ही तमाम अन्य संघवाद के पैरोकारों को वास्तव में हिन्दुत्व फ़ासीवाद की असल फ़ितरत का पता ही नहीं है जिसका प्रमुख मक़सद साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर में पूँजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्सों की सेवा करना ही है। इसके लिए वह ख़ुद, जहाँ सुविधाजनक हो, केन्द्रीयता की धज्जियाँ उड़ाते हुए देश के किसी भी कोने के अलगाववादियों से हाथ मिला सकता है, गाय को थाली में सजाकर पेश कर सकता है और भाषा-संस्कृति को लेकर मनमुआफ़िक़ छूटें दे सकता है। ये भारतीय फ़ासिस्टों का विचारधारात्मक लचीलापन है जिसे जनसंघ और फिर भाजपा के समय से घटित होते हुए हम आसानी से देख सकते हैं। लेकिन ये क़ौमवादी, संघियों की हिन्दुत्व फ़ासीवादी विचारधारा में किस आदर्श, एकरूपता और निरन्तरता को तलाश रहे हैं यह भी शोध का विषय है! हालाँकि क़ौमवादियों के लेखन और चिन्तन में बुर्जुआ संघवाद से लगातार बढ़ रही पींगों की निरन्तरता अवश्य दिखलायी पड़ती है। वास्तविकता यह है कि तमाम राज्यों में क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग के तमाम राजनीतिक नुमाइन्दों को न तो हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों के साथ सत्ता की सेज सजाने में कोई गुरेज़ है तथा न ही उनकी गोदी में बैठने में इन्होंने अतीत में ही कोई कोताही बरती है। क्या कांग्रेस और क्या स्थानीय पार्टियों के नेता सभी के सभी तो गन्दे नालों के पानी की तरह भाजपा की गटरगंगा में आते-जाते रहते ही हैं। क्या इसे देखने के लिए किसी ख़ास हुनर की ज़रूरत है? तमाम राज्यों में भाजपा मज़बूत ही हमारे क़ौमवादियों के प्रिय स्थानीय संघवादी चैम्पियनों के साथ गठजोड़ करके हुई है। स्वयं पंजाब इसका जीता-जागता उदाहरण है।
असल में, इन क़ौमवादियों के अनुसार भारत में हरेक राष्ट्र और राष्ट्रीयता दमित है। इनके अनुसार इन तमाम राष्ट्रों को क़ौमी चरित्र से रिक्त बेक़ौमी/अराष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग दबा रहा है। यह विश्लेषण ही कितना दिवालिया है यह इतना पढ़कर ही समझ आ जाता है। सच यह है कि भारत का शासक वर्ग बेक़ौमी नहीं है, जैसा कि क़ौमवादियों का अहमक दावा है बल्कि एक बहुक़ौमी या बहुराष्ट्रीय शासक वर्ग है जिसमें हर राष्ट्र के बुर्जुआ वर्ग को अपनी शक्तिमत्ता और आकार के हिसाब से प्रतिनिधित्व प्राप्त है। ज़ाहिरा तौर पर सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर इन अलग-अलग धड़ों में कश्मकश चलती रहती है, जिसका राजनीतिक प्रतिबिम्बन बुर्जुआ संसदीय राजनीति में अलग-अलग दलों की खींचतान के रूप में भी होता है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इन राष्ट्रों के बुर्जुआ वर्ग दमित हैं। केन्द्र से लेकर राज्यों के स्तर पर होने वाली चुनावी राजनीति से लेकर सामाजिक धरातल पर उठने वाले विभिन्न आन्दोलनों में हम इस चीज़ को होता हुआ बड़ी ही आसानी से देख सकते हैं। लेकिन आँखों पर यदि संघवाद और क़ौमवाद का पट्टा चढ़ा हुआ हो तो इतने सामान्य तर्क और तथ्य भी किसी को समझाये नहीं जा सकते हैं। वास्तविकता यह है कि आज कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों के अलावा राष्ट्रीय प्रश्न भारत में और कहीं मौजूद नहीं है। लेकिन इन क़ौमवादियों में इतना साहस भी नहीं है कि यह बोल सकें कि यदि भारत के सभी राष्ट्र ही “क़ौमी” दमन की चक्की में पिस रहे हैं, तो फिर लेनिनवादी कार्यदिशा के अनुसार क़ौमी दमन के ख़िलाफ़ सिर्फ़ एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम बनता है – आत्मनिर्णय के अधिकार समेत अलग होने के अधिकार का कार्यक्रम। संघवाद या किसी भी प्रकार की क्षेत्रीय स्वायत्तता की हिफ़ाज़त या माँग इस राष्ट्रीय दमन के ख़ात्मे का कार्यक्रम हो ही नहीं सकते हैं, जोकि एक शुद्धतः सुधारवादी कार्यक्रम है, कम से कम लेनिनवादी कार्यदिशा तो इस प्रश्न पर यही है। लेकिन जैसा कि हमने कहा कि इस क्रान्तिकारी साहस के अभाव के चलते ही जब ये क़ौमवादी ख़ुद को इन “दमित” क़ौमों के रहनुमा के तौर पर पाते हैं तो इससे लड़ने के लिए ये झट से जेब से संघवाद की पिपहरी निकाल बजानी शुरू कर देते हैं!
मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी दर्शन मार्क्सवाद संघवाद का विरोध करता है और सुसंगत जनवाद पर आधारित केन्द्रीयतावाद का समर्थन करता है। संघवाद और कुछ नहीं क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग का नारा होता है। पूँजीवाद के अन्तर्गत मज़दूर जमात को संघवाद की विशेष तौर पर मुख़ालफ़त करनी चाहिए क्योंकि यह विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के मज़दूरों-मेहनतकशों की भावी एकजुटता को अवरुद्ध करता है और उनके बीच पार्थक्य की दीवारें खड़ी करता है। संघवाद का नारा बुलन्द करने का मतलब मज़दूर वर्ग की असल राजनीति और वर्ग संघर्ष से पलायन कर मज़दूर वर्ग को अपनी क़ौम के पूँजीपति वर्ग का पुछल्ला बनाना है। और अपने संघवाद के घिसे-पिटे साज़-बाज के साथ यही काम भाषाई अस्मितावादी-बुण्डवादी-क़ौमवादी करने में जुटे हुए हैं। पूरी दुनिया की तरह भारत में भी पूँजीवादी शोषण और इसके द्वारा पैदा किये जा रहे तमाम तरह के भाषाई, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, जातीय और लैंगिक विभेदों का ख़ात्मा सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण पर क़ायम रहकर ही सम्भव है। हिन्दुत्व फ़ासीवाद के रूप में पूँजीवाद के हितरक्षक को भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी वर्गीय एकजुटता की लोह मुष्टिका के प्रहार से ही धूल में मिलाया जा सकता है, संघवाद के सुधारवादी झुनझुने से नहीं।
इन चुनावों में एक बार फिर से भाकपा-माकपा जैसी संसदीय वामपन्थी संशोधनवादी पार्टियों की भी वास्तविक स्थिति सामने आ गयी। बुर्जुआ राजनीति के मलकुण्ड में आकण्ठ नहा चुकीं ये पार्टियाँ अपने घटिया क़िस्म के राजनीतिक अवसरवाद को ढाँपने के लिए उसे नित-नये वैचारिक आवरण पहनाती रहतीं हैं। आजकल ये अपनी मौक़ापरस्ती और मज़दूर वर्ग से अपनी ग़द्दारी को छिपाने के लिए अन्य पूँजीवादी दलों से हाथ मिलाने को फ़ासीवादी भाजपा के विरोध की रणनीति का नाम देती हैं और दावा करती हैं कि मोदी-शाह के पहिये को आगे बढ़ने से रोकने के लिए यह वक़्त की नज़ाक़त है, जिसे कि इनके अनुसार मज़दूर वर्ग को समझना चाहिए! इनकी इस तथाकथिक फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति का दिवालियापन इस बार के चुनावों के दौरान ज़ाहिर हो भी गया जब एक तरफ़ बंगाल में यह फ़ासीवादी रथ को रोकने के लिए कांग्रेस से गठबन्धन कर रही थीं और दूसरे तरफ़ केरल में कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव के मैदान में थीं! मानो वहाँ फ़ासीवाद के अग्रवर्ती अभियान को रोकना इनके लिए ज़रूरी नहीं था! यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि जनसंघ के रूप में भाजपा को मुख्यधारा में लाने का पाप और मज़दूर आन्दोलन से ऐतिहासिक विश्वासघात करके उसे अर्थवाद और संसदवाद के गड्ढे में गिराने का अपराध भी इन संसदीय बातबहादुरों के मत्थे ही है। इसलिए इनकी स्थिति भी कम हास्यास्पद नहीं है। बंगाल में तो पहले इनका बड़ा जनाधार खिसककर भाजपा के पास चला गया था, जो रही-सही कसर थी वह इस बार पूरी हो गयी जब तृणमूल कांग्रेस ने भी इनके पुराने पारम्परिक इलाक़ों में सेंध लगायी।
अन्त में सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही समझने की है कि उक्त राज्यों में चाहे कोई पार्टी जीती हो या कोई हारी हो इससे उन राज्यों की आम मेहनतकश जनता के जीवन में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आने वाला है। तमाम रंगों-झण्डों की पार्टियाँ पूँजीवादी व्यवस्था की ही पैरोकार हैं, इसकी हिफ़ाज़त में लगी हुई हैं और पूँजी-परस्त, मज़दूर-मेहनतकश विरोधी लुटेरी नीतियों को अंजाम तक पहुँचाने में जुटी हुई हैं। यह तथ्य इस बात से ही पुष्ट हो जाता है कि तमाम पूँजीवादी दलों को, चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो, तृणमूल कांग्रेस हो, द्रमुक-अन्नाद्रमुक हो या फिर संशोधनवादी भाकपा-माकपा ही क्यों न हो, इन सभी को बड़े पूँजीपति घरानों से लेकर छोटे पूँजीपति, धनी किसानों व फ़ार्मरों, व्यापारियों, बिल्डरों, डीलरों के वर्गों से करोड़ों-करोड़ रुपये हर साल चन्दे में मिलते हैं। अगर इस बार के विधानसभा चुनाव की बात करें तो हम पाते हैं कि बंगाल में कुल प्रत्याशियों में से 18 फ़ीसदी करोड़पति थे, असम में 27.9 फ़ीसदी उम्मीदवार करोड़पति थे, तमिलनाडु में 18.3 फ़ीसदी उम्मीदवार करोड़पति थे, वहीं पुद्दुचेरी में यह संख्या 23 फ़ीसदी थी। क्या इन पार्टियों और इनके प्रत्याशियों से मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकशों के हितों की नुमाइन्दगी की उम्मीद भी की जा सकती है? बिल्कुल नहीं!
इसके साथ ही, यदि कहीं फ़ासीवादी भाजपा और इसकी सहयोगी पार्टियों की हार हुई भी है तो वह जनता को एक तात्कालिक अल्पकालिक राहत प्रतीत हो सकती है लेकिन फ़ासीवाद का संकट किसी भी रूप में इससे टल नहीं सकता है। इसलिए चुनाव परिणामों से उत्साहित होने की बजाय जनपक्षधर ताक़तों और विशेष तौर पर सर्वहारा वर्गीय क्रान्तिकारी ताक़तों को जनता के सही राजनीतिक विकल्प को खड़ा करने की तरफ़ ग़ौर करना चाहिए। संसदीय राजनीति में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप करते हुए भी जनता के बीच संसदीय राजनीति के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल परिवर्तन किये जा सकने के विभ्रम को अधिकाधिक बेपर्द करते जाना चाहिए। और यह तभी सम्भव है जब मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता अपने स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष के माध्यम से संसदीय चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी करे और इसकी सीमाओं को व्यवहार में प्रदर्शित करे। मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन के शब्दों में ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रासंगिक संसदवाद को राजनीतिक दृष्टि से अप्रासंगिक व्यवहार में ही सिद्ध किया जा सकता है। मेहनतकश जनता की असल मुक्ति तभी सम्भव हो सकती है जब उत्पादन और राजकाज पर मेहनतकश वर्गों का ही क़ब्ज़ा हो और निर्णय लेने की ताक़त उसी के पास हो। भारत में यह चीज़ नयी समाजवादी क्रान्ति के द्वारा ही फलीभूत हो सकती है। कहना नहीं होगा कि चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश के चुनाव परिणामों ने मेहनतकश जनता के सामने अपना सही राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की ज़रूरत को ही पुनः रेखांकित किया है।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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