राष्ट्रपति मोर्सी सत्ता से किनारे, मिस्र एक बार फिर से चौराहे पर
नवगीत
दो साल पहले ‘अरब बसन्त’ के समय मिस्र की राजधानी काहिरा का तहरीर चौक लोगों के बेमिसाल विरोध-प्रदर्शन का केन्द्र बना था जिसने 30 साल से सत्ता पर काबिज हुस्नी मुबारक को चलता किया। तकरीबन ढाई साल के बाद तहरीर एक बार फिर से मानवीय इतिहास के सबसे बड़े विरोध-प्रदर्शन में से एक का केन्द्र बना है तथा एक और तानाशाह बनते जा रहे इस्लामिक राजनैतिक दल मुस्लिम ब्रदरहुड से सम्बधित राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी को लोगों के रोष ने चलता करने का मौका पैदा किया है। फिलहाल सत्ता मिस्र की फौज ने संभाल ली है और उसने छह महीनों में मुस्लिम ब्रदरहुड द्वारा कायम किए गए संविधान में सुधार, आम चुनाव और राष्ट्रपति के चुनाव का वायदा किया है और लोगों के रोष आंदोलन रुके हुए हैं। लेकिन दूसरी ओर मोर्सी के समर्थक सड़कों पर अपने ढंग से विरोध कर रहे हैं। घटनाओं के पीछे की छानबीन और भविष्य की संभावनाओं के बारे में कुछ चर्चा करने से पहले जरूरी है कि हम तहरीर-2 के घटनाक्रम के बारे में कुछ कहें।
तहरीर-2: घटनाओं का संक्षिप्त विवरण
‘अरब बसन्त’ के चलते हुस्नी मुबारक की सरकार गिरने के पश्चात मिस्र की फौज ने सुप्रीम काउंसिल बना कर आरजी तौर पर सरकार की जगह ले ली थी। इसके बाद अलग-अलग राजनीतिक दलों की आपस में और साथ ही फौज के साथ चली डेढ़ बर्ष लंबी कशमकश के बाद जून 2012 में मुस्लिम ब्रदरहुड के मोहम्मद मोर्सी ने राष्ट्रपति चुनाव जीत कर देश के प्रधान का पद संभाला था। इन चुनावों में मुस्लिम ब्रदरहुड द्वारा जीत हासिल करने की वजह यह नहीं थी कि उसने अरब बसन्त में मिस्र के लोगों की अगुवाई की थी, वह तो शुरुआत में अरब बसन्त में शामिल भी नहीं थी। जब हुस्नी मुबारक का बिस्तर गोल होना तकरीबन तय हो चुका था, तब जाकर वह रोष-प्रदर्शनों में शामिल हुआ, वह भी ज्यादातर दिखावे के लिए। अरब बसन्त की अगुवाई मुख्य तौर पर नौजवान और मज़दूर संगठनों, और साथ ही बुर्जूआ उदारपंथी राजनीतिक दलों के हाथ में थी। लेकिन इन दलों का सामाजिक- राजनैतिक सांगठनिक ढांचा मुस्लिम ब्रदरहुड के मुकाबले काफी कमज़ोर था। मुस्लिम ब्रदरहुड ने लोगों को ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई से राहत दिलाने और मुबारक सरकार की अमरीकी साम्राज्य और इजराइल के आगे घुटने टेकने की नीति को त्यागने के एजंडे के नीचे चुनाव लड़ा। साथ ही उसने लोगों के अंदर मौजूद धार्मिक भावनाओं का भरपूर फायदा उठाया और चुनाव में जीत हासिल की। लेकिन जैसा कि पहले से ही काफी स्पष्ट था कि मुस्लिम ब्रदरहुड के ऊपर अमरीकी “हाथ” है और वह देसी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ के खिलाफ जा ही नहीं सकता और ऐसा ही हुआ।
विदेश नीति के फ्रण्ट पर मोर्सी ने मुबारक से कुछ भी अलग नहीं किया; वहीं अमरीका से फ़ौजी सामान खरीदने के लिए सहायता हासिल की, फलस्तीन के लोगों के संघर्ष में कोई सरगर्म हिमायत देने से किनारा किया, इजरायल के आगे घुटने टेकने वाले कैंप-डेविड समझौते को जारी रखा, अमरीकी साम्राज्यवादियों और इजरायल के खिलाफ लड रहे सीरिया की मिस्र में स्थिति एम्बैसी को भी बंद कर दिया। घरेलू फ्रंट पर भी मोर्सी ने बेरोजगारी और महंगाई पर काबू पाने और लोगों की आर्थिक दिक्कतों को कम करने के लिए कुछ नहीं किया, उल्टा उसने मुस्लिम ब्रदरहुड के सत्ता पर मुकम्मल कब्जा करने के एजंडे को लागू करने का रास्ता पकड़ा। उसने लोगों के हाथ में ‘शरियत कानून’ का झुनझुना थमा कर रिझाने की कोशिश की और साथ ही राष्ट्रपति को असीम ताकत का मालिक बना कर तानाशाह बनने की कोशिशें आरंभ कर दी। उसकी यह कोशिश और उसकी सरकार द्बारा बनाए गए संविधान का विरोधी पक्षों जिनमें वही पक्ष थे जिन्होंने “रोटी, आजादी और सामाजिक न्याय” के नारे तले अरब बसन्त की अगुवाई की थी, की तरफ से तीक्ष्ण विरोध हुआ। लोगों में अभी मोर्सी से उम्मीदों के भ्रम मौजूद थे, इसीलिए मुस्लिम ब्रदरहुड इन कानूनों को लोगों की सहमती दिलाने में कामयाब हो गई परन्तु जल्दी ही मोर्सी के ढोल की पोल खुलना शुरू हो गई और मोर्सी तथा ब्रदरहुड का विरोध कम होने की बजाय बढता गया। मिस्र के 35 अलग अलग राजनैतिक दलों ने “क्रांति बचाओ राष्ट्रीय मोर्चा” बनाकर मोर्सी सरकार के विरोध को और तीक्ष्ण कर दिया। अप्रैल, 2013 में पाँच सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ‘तमरुद्द’ (बगावत) नाम का ग्रुप बनाकर ऐलान किया कि यह ग्रुप मोर्सी सरकार को गद्दी से उतारने के लिए 30 जून, 2013 तक डेढ़ करोड लोगों के हस्ताक्षर जुटाएगा। डेढ़ करोड का आँकड़ा मोर्सी की तरफ से राष्ट्रपति चुनाव जीतने के समय हासिल किए मत से ज्यादा है। लोगों की तरफ से इस अभियान को व्यापक समर्थन मिला। 30 जून से एक सप्ताह पहले ही डेढ़ करोड़ का आँकड़ा हासिल कर लिया गया और 30 जून तक मोर्सी को सत्ता से उतारने के लिए 2.2 करोड़ लोग हस्ताक्षर कर चुके थे। इसके कार्यकर्ताओं ने ग़रीब इलाकों, मज़दूर बस्तीओं, मज़दूरों के काम स्थानों, हड़तालों, दफ़्तरों में जाकर, ट्रैफिक सिग्नलों पर खड़े होकर, गलियों-सड़कों पर आम लोगों को सम्बोधित करके हस्ताक्षर जुटाए। बाकायदा कागजों पर हस्ताक्षर करने वाले हर इंसान के राष्ट्रीय पहचान नंबर से रिकार्ड रखा गया, अनपढ़ों के अंगूठों के निशान लिए गए।
लोगों से मिली हिमायत को देखते हुए ‘तमरुद्द’ एक हस्ताक्षर मुहिम से आगे बढ़ चुकी थी। इसके नेताओं ने अपील जारी की कि मोर्सी के एक साल पूरा होने के दिन से पहले के एक सप्ताह में पूरे सात दिन रोष-प्रदर्शन किये जाएं। मोर्सी के खिलाफ पहले का बिखरा हुआ विरोध अब एकजुट होने लगा। रोष प्रदर्शन शुरू हो गए। 26 जून को ‘तमरुद्द’ की तरफ से तहरीर चौक की तरफ कूच करने का आह्वान किया गया। 30 जून तक तहरीर ‘मोर्सी गेट-आउट’ के नारों से गूँज रहा था। ‘तमरुद्द’ की तरफ से पूरे मिस्र के सभी सरकारी दफ़्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों को काम बंद करने और सिविल नाफरमानी अन्दोलन में शामिल होने की अपील जारी की गई जिसको भरपूर समर्थन मिला। पूरे मिस्र के अलग-अलग शहरों में आम लोग शहरों के मुख्य केन्द्रों पर अनिश्चितकालीन धरनों पर बैठ गए और सब की पहली माँग थी – ‘मोर्सी बाहर, नए सिरे से चुनाव’। अंदाजों के मुताबिक पूरे मिस्र में 3-7 करोड़ लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया और सड़कों पर मोर्सी के खिलाफ नारे लगाए। मोर्सी ने भी मुबारक की तरह पहले सत्ता पर कब्जा बनाये रखने के लिए हर हथकंडा इस्तेमाल किया, उसने खुद को “मिस्र की फौज का सुप्रीम कमांडर” कह कर लोगों को धमकाया और साथ ही जनवाद की दुहाई दी, जनवाद की रखवाली के लिए जान तक देने के बयान दिए पर लोग कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे। लोग राष्ट्रपति भवन और मोर्सी की रिहायश तक घेरने की तैयारी करने लगे।
30 जून को आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए यह साफ लग रहा था कि मोर्सी के दिन अब लद गए हैं। 1 जून को मिल्ट्री ने राजनीतिक दलों को 48 घंटों के अंदर-अंदर आपसी मतभेद सुलझा कर राष्ट्रीय सरकार बनाने का अल्टीमेटम दे दिया। मोर्सी के विरोधियों ने सरकारी दल के साथ कोई मशवरा करने से पहले ही मना कर दिया था। 3 जुलाई को सेना ने देश में शांति और सुरक्षा के बनाए रखने के लिए लोगों की तरफ से सत्ता को संभालने का बहाना करके मोर्सी को राष्ट्रपति के पद से हटा दिया और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश महमूद मन्सूर को राष्ट्रपति नियुकत कर सत्ता संभाल ली। अब मुस्लिम ब्रदरहुड के पक्षधरों ने मोर्सी के पक्ष में आंदोलन करने शुरू कर दिए और मुस्लिम ब्रदरहुड ने मोर्सी को दोवारा पदासीन करने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया है। मुस्लिम ब्रदरहुड ने हथियारबंद कारकुन भी इस मुहिम में झोंक दिए हैं जिन्होंने मुस्लिम ब्रदरहुड के आम कारकुनों के साथ मिलकर फौज के ठिकानों पर छिटपुट हमले भी किये हैं। राजधानी काहिरा के बीच फौज के मुख्य ठिकाने के आगे मुस्लिम ब्रदरहुड के हिमायतियों के ऐसे एक धरने के दौरान सेना ने गोली चला दी जिसके कारण 50 से ऊपर लोग मारे गए। मोर्सी के सत्ता से हटने के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड विरोधियों को भी हिंसा का निशाना बना रहा है और इस के लिए “सनईपर शूटरों” का उपयोग करके टकराव उत्पन करने और धार्मिक मुल्लाओं, नेताओं की तरफ से नफ़रत फैलाने का काम भी किया जा रहा है। मोर्सी के पक्ष और सेना तथा विरोधियों में हिंसक टकराव जारी हैं और इस हिंसा में अब तक एक हजार से ऊपर लोग मारे जा चुके हैं, इन में ज्यादा सेना द्वारा मोर्सी समर्थकों पर किये हमले में मरे हैं। भविष्य क्या रास्ता पकड़ता है इस बारे में अगले हिस्से में चर्चा करते हैं।
मिस्र की वर्तमान जनबगावतः वर्तमान और भविष्य से जुड़े कुछ सवाल
1952 में रैडिकल बुर्जुआ नेता नासिर की तरफ से सत्ता संभालने के बाद मिस्र लगातार पूँजीवादी रास्ते पर आगे बढा और यहाँ अच्छा खासा देसी पूँजीपति वर्ग पैदा हो चुका है जो सत्ता पर काबिज है। नासिर के दौर में बेशक मिस्र के पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्य विरोधी रुख अपनाया लेकिन समय गुजरने के साथ उस को साफ हो गया कि आगे बढ़ने के लिए साम्राज्यवादी पूँजी के साथ गठजोड़ बनाना जरूरी है। दूसरी तरफ साम्राज्यवादी अमेरिका के लिए मिस्र बहुत अहम देश है। मिस्र अरब क्षेत्र का आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा देश है और क्षेत्र में इसकी रणनीतिक पोजीशन बहुत अहम है। इस को कंट्रोल में रखना अमरीकी साम्राज्य के लिए अरब क्षेत्र पर अपना प्रभाव बनाने और इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा करने के लिए अहम तो है ही, अफ्रीका महाद्वीप में अपने हित्तों की रक्षा के लिए मिस्र उसका अहम ठिकाना और साथी है। मुबारक की सरकार देसी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ की सत्ता थी और मोर्सी सरकार का वर्गीय चरित्र भी यही था। आज के मिस्र में और कुछ संभव ही नहीं है, सिर्फ मज़दूर वर्ग की सत्ता ही इसका विकल्प है। अरब बसन्त के कारण बेशक मुबारक सत्ता से परे कर दिया गया था पर इस से सत्ता के मूल चरित्र में कोई फर्क नहीं पड़ा क्यूँकि अगर कोई क्रांतिकारी सरकार कायम नहीं होती है तो सत्ता तब्दीली सिर्फ चेहरों की अदला बदली ही होती है। उस समय यह स्पष्ट था कि कोई क्रांतिकारी सरकार कायम होने की संभावना नहीं है क्योंकि समाज के आर्थिक सामाजिक ढांचे की कायापलट का प्रोग्राम पेश करने वाली कोई भी पार्टी इस हैसियत में मौजूद नही थी कि वह सत्ता संभाल सकती। दो साल के अन्तराल में ही यह बात एकदम साफ हो गई है। मोर्सी सरकार भी मुबारिक सरकार से किसी भी तरह अलग साबित नहीं हुई। उसकी नीतियाँ भी बुनियादी तौर पर वही थी जिनके साथ देसी-विदेशी पूँजी के हित सलामत रहें। अब एक बार फिर मिस्र 2011 की तरह ही फिर से उसी चौराहे पर खड़ा है।
मिस्र की सेना देसी-विदेशी पूँजी का सबसे भरोसेमंद स्तम्भ है। जब पूँजीपति वर्ग के बाकी चेहरे लोगों के गुस्से का शिकार बनते हैं और स्थिति विस्फोटक बनने लगती हैं तो ऐसे समय मिस्र की सेना पूँजी की रक्षा के लिए आगे आई है। उसने ऐसा अरब बसन्त के समय भी किया और अब एक बार फिर इसी को दोहराया। मोर्सी की सरकार को अमरीकी साम्राज्य का ‘आशीर्वाद’ हासिल था लेकिन जब लोगों ने इसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो स्थिती यह हो गई कि मुबारिक की तरह मोर्सी का बना रहना भी असंभव हो गया। जब लोगों के विद्रोह का आगे बढकर पूँजीवादी ढांचे के लिए खतरा बन जाने के आसार पैदा होने लगे तो मोर्सी मिस्र के पूँजीपति वर्ग और अमरीका का भरोसा गंवा बैठा। बदली हुई स्थिति में एक बार फिर सेना पर ही पूँजी ने अपना भरोसा जताया। अरब बसन्त के मुकाबले फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार अमरीका और मिस्र के पूँजीपति वर्ग ने यह फ़ैसला बहुत जल्दी ले लिया और 4 दिन में ही मोर्सी को रास्ता साफ करने के लिए कह दिया। सेना ने बहाना देश में सुरक्षा और शांति का बनाया है और लोगों की तरफ से सत्ता संभालने का नाटक किया है, लेकिन यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थन एवं मशवरे से ही यह संभव हुआ है। मौजूदा आन्दोलन का घटनाक्रम और इस से पहले मोर्सी-विरोधी दल के घटकों का व्यवहार ही उनकी वर्गीय स्थितीयां साफ कर देता है। नवंवर 2012 में मोर्सी की तरफ से असीम ताक़त हासिल करने के लिए आदेश पास करवाने और नए संविधान को लेकर रोष-प्रदर्शन चालू हो गए थे। आम कामकाजी लोग, विशेष तौर पर, मिस्र के मज़दूर मोर्सी सरकार द्वारा बेरोजगारी, महंगाई, ग़रीबी को दूर करने में नाकाम रहने पर लगातार हडतालें, प्रदर्शन कर रहे थे। जनवरी 2013 में मिस्र में 834 हड़तालें और प्रदर्शन हुए जिनमें से आधे आर्थिक-राजनैतिक मसलों के कारण हुए। इन आर्थिक-राजनैतिक हडतालों-प्रदर्शनों में से दो तिहाई मज़दूरों ने किये थे। अप्रैल तक यह गिनती बढती हुई 1,462 हो गई थी और मज़दूरों की हड़तालों-प्रदर्शनों की संख्या बढ कर दोगुनी हो गई थी। “तमरुद्द” आंदोलन की रीढ़ भी असल में मिस्र का मज़दूर वर्ग ही है। बुर्जुआ उदारपंथी मुहमेद अल्बारदाई और नस्रवादी ह्म्द्दीन सब्बानी की अगुवाई वाले “क्रांति बचाओ राष्ट्रीय मोर्चे” ने लोगों के रुख की नब्ज पकड़ते हुए इस विरोध को एकजुट करने की कोई कोशिश नहीं की। लोगों का मोर्सी-विरोधी रोष इसी से ही स्पष्ट हो जाता है कि कुछ कारकुनों द्वारा चालू की गयी हस्ताक्षर मुहिम को इतना जबर्दस्त समर्थन मिला। बेशक इस ग्रुप के पास कोई भी विस्तृत ढाँचा नही था। स्वाभाविक है कि अल्बारदाई और सब्बानी जैसे लोग पूँजीवादी ढांचे के भीतर सत्ता के विरोधी की भूमिका का दोस्ताना मैच खेलने के लिए ही बैठे हैं क्यूँकि पूँजीवादी ढांचा ऐसे विरोधी अपनी सत्ता के विरोध में किसी भी संभावित जन विद्रोह को, खास तौर पर खतरनाक विद्रोह को दिशाविहीन करने के लिए और लोगों की बेचैनी को ऐसे विरोधिओं के “सेफ्टी-वाल्व” के जरिए सुरक्षित ढंग से निकास देने के लिए पैदा करता है और बनाये रखता है। असल में यह पूँजी के हित्तों की हिफाजत करते हैं और अगर हालातों से प्रभावित ऐसे “नकली विरोधी” सरकार बनाते भी हैं तो वो पूँजी के हित्तों की सेवा ही करेंगे।
एक और रास्ता जो मिस्र के मौजूदा हालात पकड़ सकते हैं वह है 1992 के बाद के अल्जीरिया जैसे हालात पैदा हो जाना । 1992 में अल्जीरिया में इस्लामिक फ्रंट पर पाबन्दी लगाने के बाद अल्जीरिया की सेना और इस्लामिक फ्रंट के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया था जो आगे के छह साल तक जारी रहा और इस के कारण एक लाख लोग मारे गए थे। लेकिन मिस्र की स्थिति अलग दिखाई पड़ रही है। मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार का कार्य लोग देख चुके हैं और इस की साख काफी गिर चुकी है । दूसरा, मिस्र के पूँजीपति वर्ग और साम्राज्य के हित गृहयुद्ध की इजाजत नहीं देते। इस कारण ऐसा होने की संभावना कम ही है, संभव यही लग रहा है कि मोर्सी-समर्थकों के विरोध को मिस्र की सेना कुचल डालेगी।
इस तरह एक वार फिर, मिस्र की घटनाएँ यह साफ कर रही हैं कि पूँजीपति वर्ग की सत्ता का विकल्प मज़दूर वर्ग की सत्ता ही है और पूँजीवाद का विकल्प आज भी समाजवाद है। और किसी भी तरीके से पूँजीवाद का विरोध हमें ज़्यादा से ज़्यादा किसी चौराहे पर लाकर ही छोड़ सकता है, रास्ता नहीं दिखा सकता। भविष्य का रास्ता मज़दूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद और मार्क्सवादी उसूलों पर गढ़ी तथा जनसंघर्षों-आंदोलनों में तपी-बढ़ी मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी ही दिखा सकती है। मगर तब भी मिस्र की ताजा घटनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता, इनसे यह एक बार फिर साबित होता है कि जनता अनंत ऊर्जा का स्रोत है, जनता इतिहास का बहाव मोड़ सकती है, मोड़ती रही है और मोड़ती रहेगी। मिस्र का आगे का रास्ता फिलहाल अँधेरे में डूबा दिखाई दे रहा है, लेकिन यह अकेले मिस्र की होनी नहीं है, तमाम दुनिया में अवाम रास्तों की तलाश कर रहा है। दूसरी तरफ यह भी प्रत्यक्ष है प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ रसातल के अँधेरे कोनों में बैठकर अपने खंजर तीखे कर रही हैं, हिटलर-मुसोलिनी की सन्ताने तमाम दुनिया में पैर पसार रही हैं। बुर्जुआ उदारवाद अपनी नपुंसकता बहुत देर पहले ही दिखा चुका है और नाममात्र की कम्युनिस्ट पार्टियां गद्दारी कर चुकी हैं, लेकिन फिर भी मिस्र में तथा दुनिया के और हिस्सों में मौजूदा पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक ढांचे के खिलाफ लोगों का फूट रहा आक्रोश, अवाम की अनंत ऊर्जा के टूट रहे बांध, हमारा समय, वर्तमान ऐतिहासिक मोड़-बिंदु भविष्य के लिए आशाओं-उम्मीदों से भरे लोगों को सूरज के रास्ते पर चलने निमंत्रण देता है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2013
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