दो कविताएँ
– जैकी, गाँव धमतान साहिब, नरवाना, हरियाणा
घायल मज़दूर
जब सड़कों की ओर चलो रे भाईया
तब बदलेगा दूनिया का रवैया
रोक दो पूँजीपतियों का पहिया
और हर तरफ़ गुंजा दो दुनिया में ये नारा
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद।
अरे तूने ख़ूब चलाया रे हथौड़ा
मेहनत करके तन से ख़ून निचोड़ा
दिन रात काम पर अड़े रहे तुम
भूखे-प्यासे से ही पड़े रहे तुम
आज होश मे आओ रे मज़दूरों
और लगाओ एक ही नारा
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
नदियों में इतना पानी बहे ना
जितना है तूने बहाया पसीना
घायल परिन्दे की तरह ज़िन्दगी है तेरी
जानवरों की तरह है मरना-जीना
अगर आज़ाद पक्षी की तरह उड़ना है
तो लगाओ एक ही नारा
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद
अब सड़कों पर आना ही पड़ेगा
इन्क़लाब का नारा लगाना ही पड़ेगा।
तो बोल मजूरे इन्क़लाब ज़िन्दाबाद।
जब हम बोलेंगे
जब हम बोलेगे
सुनने वालों के कान बन्द हो जायेंगे
क्योंकि हमारी आवाज़
उन पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ है
जो हम लोगों को आपने पैसों से ख़रीदते है
हम बोलेगें इन ठेकेदारों के ख़िलाफ़
जो मज़दूरों के हक़ के पैसे ख़ुद हज़म कर जाते हैं
हम बोलेंगे उन सरकारों के ख़िलाफ़
जो जनता को जात-धर्म के नाम पर लड़वाते हैं
हम बोलेंगे मानवता तार-तार करने वालों के ख़िलाफ़
जो हर मानवीय चीज़ों को सिर्फ़
नष्ट करने के लिए बैठे हैं
हम बोलेंगे उन नौजवानों के साथ
जो इन्क़लाब का नारा लगाते है।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021
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