आपदा कैसी भी हो, उसकी मार सबसे ज़्यादा मज़दूर वर्ग पर ही पड़ती है

– अनुपम वर्मा, लखनऊ

तालकटोरा इण्डस्ट्रियल एरिया में स्थित रेलवे के पुर्जे़ बनाने वाली फ़ैक्ट्री ‘प्राग’ में काम करने वाले सौरभ ने ‘मज़दूर बिगुल’ के वितरण अभियान के दौरान हमें बताया कि उन्हें लॉकडाउन के बाद फिर से खुली फ़ैक्ट्री में दोबारा बुला तो लिया गया लेकिन नये जूते और पोशाक नहीं दी गयी। और अब वे लोहा ढोने का काम करने के जोखिमों को उठाकर फटे जूतों के साथ ही अपना काम जैसे-तैसे चला रहे हैं।
साथ ही कम्पनी ने एक नया नियम यह लगाया कि किसी भी मज़दूर की उपस्थिति बिना स्मार्टफ़ोन के दर्ज नहीं हो सकेगी। और इसलिए उन्होंने क़िस्तों पर एक नया मोबाइल फ़ोन ख़रीदा। बच्चे की ऑनलाइन क्लास लगना शुरू हो जाने के कारण उन्हें दूसरा स्मार्टफ़ोन भी लेना पड़ा क्योंकि जब बच्चे की क्लास शुरू होती थी तब वे फ़ैक्ट्री में होते थे।
इतने सारे ख़र्चों को झेलने के लिए कमर कस चुके सौरभ अब केवल इस बात का शुक्र मना रहे हैं कि कम्पनी ने उन्हें निकाला नहीं। जबकि उनकी कम्पनी कोरोना के कारण उद्योग-धन्धों में आयी मन्दी का हवाला देकर उनका शोषण पहले से भी ज़्यादा करके अभी भी मुनाफ़ा ही कूट रही है।
मज़दूरों में राजनीतिक चेतना की कमी की वजह से कई बार ऐसा होता है कि वे कठिन परिस्थितियों में काम मिल जाने पर पूँजीपति वर्ग के प्रति एहसानमन्द हो जाते हैं। और यह भ्रम उन्हें एकजुटता बनाने से रोकता है। सौरभ की कुछ बातों को सुनकर कुछ यही बात मेरे दिमाग़ में आयी। अपनी एहसानमन्दी जताते हुए उन्होंने यह बताया कि उन्हें लॉकडाउन का भी कुछ पैसा मिल गया। जब हमने थोड़ी और बातचीत की तो उन्होंने यह भी बताया कि कई मज़दूर जिन्होंने पहले यूनियन वग़ैरह की थोड़ी बहुत भी कोशिश की थी उन पर इस मौक़े पर हर बार की तरह ही गाज गिरी है। उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया है।
संगठित क्षेत्र से इतर असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों से भी हमारी बातचीत होती रहती है। खदरा के इलाक़े में रहने वाले अनेकों बैटरी रिक्शा चालक लॉकडाउन के समय से ही बद से बदतर ज़िन्दगी जीने को मज़बूर हैं। एक भाईसाहब हैं जिनकी पत्नी दिल की मरीज़ हैं और वे रोज़ कमाने और फिर रिक्शामालिक को किराया देने के बाद लगभग पचास-साठ रुपये ही घर ला पाते हैं। वे अपनी पत्नी का इलाज तो दूर उन्हें ठीक से खिला भी नहीं पाते। अभी तक उनका हाल दुरुस्त नहीं हो सका।
यही हाल उस इलाक़े के फ़ैन्सी चप्पल बनाने वाले कारीगरों का भी है। उनकी जूतियों के थोक ख़रीदारों ने अब मनमाने तरीक़े से कम क़ीमतें देकर उनसे चप्पलें-जूतियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया है। पहले से ही पढ़ने-लिखने के साधनों का ख़र्च उठाने में असमर्थ इन नौजवानों के लिए अब रोज़ी-रोटी कमाना भी दुश्वार हो गया है।
सरकार धनपतियों को राहत देने के लिए तो तरह-तरह के पैकेज दे रही है, लेकिन उसके पास ग़रीबों-मेहनतकशों के लिए थोथी जुमलेबाज़ी के सिवा और कुछ नहीं है।
नये साल में मज़दूरों के लिए इस बार अगर कुछ नया है तो वह है पहले से भी अधिक शोषण और ग़ुलामी।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments