लॉकडाउन और सरकारी उपेक्षा का शिकार स्कीम वर्कर्स भी बनीं

  • वृषाली

कोविड-19 महामारी के दौर में सरकार की लपरवाहियों का खामियाज़ा सबसे ज़्यादा मेहनतकश आवाम ने ही भुगता है और अब तक भुगत भी रही है। केन्द्र सरकार ने न तो महामारी को रोकने के लिए ही उचित कदम उठाये तथा न ही इसके नाम पर थोपे गये लॉकडाउन के दौरान ही जनता के सुख-दुख का ख़याल किया। नतीजतन, एक मजदूरों की बहुत बड़ी आबादी अचानक लागू कर दिये गये लॉकडाऊन के बाद पैदल घर वापस सफ़र करने को मजबूर हो गयी। दूसरी ओर स्वास्थ्यकर्मियों के लिए ताली-थाली बजाने व फूल बरसाने में मशगूल केन्द्र सरकार ने वक़्त रहते ज़रूरी बचाव सामग्री का भी इन्तज़ाम नहीं किया। इसी लापरवाही का शिकार जमीनी स्तर पर कार्यरत तकरीबन 39 लाख आँगनवाड़ी व आशाकर्मी भी हुईं। महामारी के दौर में इन महिलाकर्मियों का काम न सिर्फ़ जारी रहा बल्कि दुगुना भी हो गया। ‘स्वयंसेविकाओं’ के नाम से सम्बोधित आँगनवाड़ी व आशा महिलाकर्मियों को सस्ते श्रम के रूप में केन्द्र और राज्य सरकारें लम्बे समय से इस्तेमाल करती आयी हैं। आशाकर्मी मुख्यतः देशव्यापी स्तर पर सामाजिक स्वास्थ्य कर्मियों के तौर पर कार्यरत हैं व आँगनवाड़ीकर्मियों का मुख्य काम पोषाहार वितरण व 6 साल तक के बच्चों की प्री-स्कूलिंग का है। इन जिम्मेदारियों के अलावा कोविड महामारी के दौर में इन महिलाकर्मियों ने घर-घर जाकर सर्वेक्षण किये। इन्होंने सम्भावित कोविड मरीजों को चिन्हित किया और घर-घर जा कर महामारी से बचाव हेतु नागरिकों को जागरूक भी किया। लेकिन ज़मीनी स्तर पर महामारी के दौरान कार्यरत आशा व आँगनवाड़ीकर्मियों को बचाव की ज़रूरी सामाग्री भी मुहैया नहीं कारवाई गयी।
21 सितम्बर की ऑक्सफ़ेम की एक रिपोर्ट के अनुसार आशाकर्मियों में सिर्फ़ 52 फीसदी महिलाकर्मियों के पास दस्ताने व 75 फीसदी महिलकर्मियों के पास मास्क थे। इसके इतर केवल 23 फीसदी महिलाकर्मियों को पीपीई सुरक्षा किट मुहैया करायी गयी थी व सिर्फ़ 76 फीसदी आशाकर्मियों को सुरक्षा किट सम्बन्धी ज़रूरी जानकारी के लिए ट्रेन किया गया था। लगभग 29 फीसदी आशाकर्मी 8 घण्टे से ज़्यादा वक़्त फ़ील्ड में सक्रिय थी, व तकरीबन 42 फीसदी कर्मी 6-8 घण्टे कार्यरत थी। महामारी के दौरान फैली अफवाहों के कारण कई बार सर्वेक्षण पर गयी आँगनवाड़ी व आशाकर्मियों को लोगों की बेवजह नाराज़गी का भी सामना करना पड़ा। 
महिला एवं बाल विकास विभाग व स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मन्त्रलाय के तहत कार्यरत आँगनवाड़ी व आशा कर्मियों द्वारा दी जा रही सेवाएँ सामाजिक वितरण प्रणाली का एक अहम हिस्सा हैं। इस प्रणाली को और बेहतर कर सुविधाओं की गुणवत्ता बढ़ाने के बदले सरकार जनवितरण प्रणाली को ख़त्म कर निजी हाथों में सौंपने की तैयारी में बैठी है। लॉकडाउन के दौरान सिर्फ़ राजस्थान में ही तक़रीबन 8 लाख नये लाभार्थियों ने आँगनवाड़ी केन्द्रों में पंजीकरण कराया। लेकिन आँगनवाड़ी केन्द्रों की वितरण प्रणाली का समुचित उपयोग करके जहाँ घर-घर तक मास्क, सैनिटाइजर व राशन पहुँचाने के काम को सरकार आसानी से अंजाम दे सकती थी, वहाँ इन महिलाकर्मियों को ही ज़रूरी बचाव सामग्री तक भी मुहैय्या नहीं करवायी गयी। 
यह अप्रत्याशित नहीं है कि देखभालकर्ता के तौर पर आँगनवाड़ी केन्द्रों व अशाकर्मियों के तौर पर महिलाओं की ही नियुक्ति क्यों तय की गयी है। देखभालकर्ता का काम महिला विशेष के काम के तौर पर देखा जाता है और इस काम की महत्ता कम आंकी जाती है। इसलिए आँगनवाड़ी व आशाकर्मी अपनी निर्धारित ज़िम्मेदारियों के अलावा अन्य कई काम करने के बावजूद ‘स्वयंसेविकाएँ’ हैं किन्तु सरकारी कर्मचारी नहीं। महामारी के दौर में कार्यरत इन महिलाकर्मियों के लिए सरकार ने अलग से प्रोत्साहन राशि देना तो दूर, प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा सितम्बर 2018 में घोषित बढ़ाया हुआ मानदेय भी जारी नहीं किया है। प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत आशाकर्मियों को कोविड से बचाव के लिए 50 लाख के बीमे का प्रावधान किया गया था लेकिन ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार केवल 38 फ़ीसदी आशाकर्मियों को इसकी सूचना है। 
कहना नहीं होगा कि मज़दूर वर्ग के अलग-अलग हिस्सों पर कोरोना महामारी को काबू करने के नाम पर थोपे गये लॉकडाउन की बदइन्तज़ामियाँ कहर बनकर टूट पड़ी। आँगनवाड़ी और आशा कर्मी भी इससे बच नहीं पायी। उन्हें खासतौर पर लॉकडाउन के दौरान लगातार मानसिक यन्त्रणा से गुजरना पड़ा है। मोदी सरकार 20 लाख करोड़ की राहत देने के ढोल बजाती रही और पीएम केयर के नाम पर इकट्ठा किया गया सारा धन डकार गयी। क्या सरकार को नहीं चाहिए था कि कम से कम ज़मीनी काम में लगे कर्मियों को तो उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री उपलब्ध करवायी जाती? हम आँगनवाड़ी और आशा कर्मियों के सामने भी यह बात स्पष्ट हो गयी है कि हम अपने हक़ों की हिफाज़त संघर्ष और एकजुटता के बल पर ही कर सकते हैं। और इस कड़ी में स्थायी रोज़गार व कम से कम न्यूनतम वेतन जितना पारिश्रमिक पाने की लड़ाई हमारे संघर्ष के पहले मील के पत्थर होंगे

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021


 

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