मोदी की स्वच्छता अभियान की लफ़्फ़ाज़ी और स्‍कूलों में शौचालय बनाने का घोटाला

– प्रेम प्रकाश

देश में सरकारी विद्यालयों में शौचालयों के निर्माण पर भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) द्वारा संसद में प्रस्तुत रिपोर्ट में भयंकर अनियमितता और घोटाला सामने आया है। 23 सितम्बर 2020 को संसद में पेश इस रिपोर्ट में केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा सरकारी विद्यालयों में बनाये गये शौचालयों और उसमें हुए घोटाले को देखकर यह बात एक बार और पुख़्ता हो जाती है कि किस तरह से सार्वजनिक सम्पदा (जो देश की मज़दूर आबादी की मेहनत से ही पैदा होती है) की लूट बदस्तूर जारी है। मोदी सरकार की तमाम लफ़्फ़ाज़ी के बावजूद जनता के नाम पर जारी योजनाओं में पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरी जा रही हैं और दिन पर दिन ग़रीबों के बेटे-बेटियों के हक़ों पर डाकेजनी बढ़ती ही जा रही है।
सी.ए.जी. द्वारा भारत सरकार को यह रिपोर्ट 2 जनवरी 2020 को भेजी गयी थी जोकि संसद में 23 सितम्बर 2020 को पेश की गयी। इस रिपोर्ट में सरकारी स्कूलों में केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा बनाये गये शौचालयों की जाँच और उससे निकले निष्कर्षों को समझना ज़रूरी है जिससे विकास और जनता का नाम लेकर खेले जाने वाले लूट के इस खेल की हक़ीक़त को जाना जा सके।
शिक्षा का अधिकार क़ानून-2009 के तहत स्कूलों में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय के प्रावधान की बात कही गयी है। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2014 को घोषणा की कि देश में एक वर्ष के अन्दर प्रत्येक स्कूल में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय होगा। इसके बाद 1 सितम्बर 2014 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने ‘स्वच्छ विद्यालय अभियान’ की शुरुआत की। मंत्रालय के अनुसार इस काम के लिए 53 केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की भागीदारी से कुल 1,40,997 शौचालयों का निर्माण किया गया। विद्युत मंत्रालय, कोयला मंत्रालय तथा पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के अधीन आने वाले सात केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (एन.टी.पी.सी., पी.जी.सी.आई.एल., एन.एच.पी.सी., पी.एफ़.सी., आर.ई.सी., ओ.एन.जी.सी. तथा सी.आई.एल.) ने कुल 1,30,703 शौचालयों के निर्माण की बात कही जिसकी कुल लागत 2162 करोड़ रुपये है। सी.ए.जी. द्वारा इन शौचालयों के लेखा परीक्षण के लिए 15 राज्यों के 2048 स्कूलों के 2695 शौचालयों का नमूना सर्वेक्षण किया गया।
सी.ए.जी. की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि 3.08 प्रतिशत शौचालयों का निर्माण ही नहीं किया गया। जिन शौचालयों के निर्माण का दावा स्वयं इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा किया गया उनमें से 7.65 प्रतिशत शौचालयों का निर्माण सम्बन्धित स्कूलों में हुआ ही नहीं तथा 3.29 प्रतिशत शौचालयों का निर्माण आधा-अधूरा ही हुआ। सर्वे में यह बात सामने आयी कि 27 प्रतिशत स्कूलों में लड़कों तथा लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। जिन शौचालयों का निर्माण हुआ उनमें से 30 प्रतिशत प्रयोग में ही नहीं थे जिनका मुख्य कारण शौचालयों का टूटा होना, पानी का अभाव एवं उन्हें अन्य कार्य के लिए उपयोग में लाना शामिल है। 72 प्रतिशत शौचालयों में निरन्तर पानी की सुविधा नहीं थी। चार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा बनाये गये 79 प्रतिशत शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं थी क्योंकि शौचालयों में लगातार पानी देने की व्यवस्था की बात डिज़ाइन में ही नहीं रखी गयी थी। जिन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों ने पानी के लिए योजना बनाई थी उन्होंने भी 46 प्रतिशत शौचालयों में लगातार पानी उपलब्ध कराने की कोई व्यवस्था नहीं की थी।
सहज ही समझा जा सकता है कि अगर शौचालयों में पानी की सुविधा ही नहीं होगी तो वे किस काम के? जो बात सामान्य बोध से किसी भी इन्सान को समझ आ जायेगी वह बात शौचालय निर्माण करने वालों को क्यों नहीं आयी? इतने दिनों तक काम होता रहा तो क्या निर्माण के दौरान कोई जाँच नहीं की गयी? दरअसल इस पूरी निर्माण प्रक्रिया में बच्चों को सुविधा देना नहीं बल्कि असली लक्ष्‍य सार्वजनिक धन की लूट था। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि लगभग दो-तिहाई शौचालयों में पानी की समुचित व्यवस्था ही आँखों से ओझल हो जाये।
स्वच्छ विद्यालय अभियान पुस्तिका के अनुसार शौच के बाद हाथ धोने को ज़रूरी बताते हुए इसे स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी बताया गया है परन्तु 55 प्रतिशत शौचालयों में हाथ धोने की सुविधा या वाश बेसिन उपलब्ध नहीं थी। कुछ शौचालयों का निर्माण स्थायी प्रकृति का किया गया तथा कुछ शौचालयों का निर्माण अस्थायी या सचल प्रकृति का किया गया। अस्थायी/सचल प्रकृति के शौचालयों में से 85 प्रतिशत शौचालय टूटे होने या सीवर के गड्ढे की साफ़-सफ़ाई नहीं होने से प्रयोग करने लायक ही नहीं थे। कई शौचालय तो इतने छोटे बनाये गये थे या ग़लत तरीक़े से बनाये गये थे कि उनमें अन्दर जाया ही नहीं जा सकता था। कई शौचालय में बच्चों के प्रवेश के लिए पहुँच रैम्प या सीढ़ी ही नहीं बनायी गयी थी। कुछ शौचालय ऐसे थे जिनकी छतों का निर्माण ही नहीं हुआ था।
शौचालय निर्माण में कई काम राज्य सरकार की एजेंसियों को नामांकन के आधार पर दिये गये जो कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी.) के दिशानिर्देशों का उल्लंघन है। इसकी वजह से कुल 49.30 करोड़ रुपये का अतिरिक्त ख़र्च आया। सी.ए.जी. द्वारा जारी 46 पेज की इस रिपोर्ट को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे यह लूट, तोड़फोड़ तथा अव्यवस्था के अपराध की कोई रिपोर्ट हो। इस रिपोर्ट के साथ संलग्न तस्वीरों में एक-एक तस्वीर ऐसी है जो ख़ुद-ब-ख़ुद सरकारी विद्यालयों में शौचालय निर्माण में हुए घोटाले की दास्तान कहती है। प्रधानाध्यापक, प्राथमिक विद्यालय, छोटी चक, गोगरी (द.), खगड़िया का बयान है – “प्र.(प्राथमिक) विद्यालय में दो शौचालय वर्ष 2012-13 में सरकारी फ़ण्ड से बनाया। एन.टी.पी.सी. द्वारा विद्यालय में किसी भी प्रकार का शौचालय का निर्माण स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत नहीं किया गया है तथापि बी.आर. सी. के कहने पर मैंने शौचालय के भवन पर ‘एन.टी.पी.सी. के सौजन्य से बनवाया गया’ लिखवा दिया जबकि एन.टी.पी.सी. द्वारा विद्यालय को इस सम्बन्ध में कोई भी राशि नहीं दिया गया।” स्पष्ट है कि कई मामले ऐसे हैं जहाँ शौचालय का निर्माण हुआ ही नहीं और काग़ज़ पर निर्माण दिखाकर पैसा हजम कर लिया गया।
देश के मेहनतकश से हर सूरत में पाई-पाई निचोड़ने वाली मोदी सरकार किसी भी सूरत में पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने से नहीं चूकती। विकास के नाम पर एवं जनता के नाम पर घोषणाएँ की जाती हैं परन्तु वास्तव में जनता के पैसे की लूट को अंजाम दिया जाता है।
सरकारी स्कूलों में शौचालय के निर्माण का मुद्दा कुछ लोगों को कम महत्वपूर्ण लग सकता है परन्तु यह इस देश के आम आदमी से जुड़ा मामला है। यह न केवल सार्वजनिक धन के डाकेजनी का मामला है वरन ग़रीब जनता के बेटे-बेटियों के सपनों और भविष्य से जुड़ा मुद्दा है। ग़रीब आदमी भले ही इस असमानता और आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी के कारण अपने बच्चों को डॉक्टर व इंजीनियर बनाने का सपना नहीं देख सकता परन्तु वह अपने बच्चों को पढ़ाना ज़रूर चाहता है। आज भी एक आम आदमी शिक्षा को ही अपने बच्चों के भविष्य को सँवारने का एक ज़रिया मानता है। उत्तर प्रदेश से दिल्ली तक और देश के अन्य भागों में कई स्कूलों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ स्कूल में शौचालय नहीं होने या होने पर भी उपयोग हेतु रखरखाव न होने, पानी की व्यवस्था न होने के कारण थोड़े समय बाद स्कूल से घर लौट आने को विवश हैं।
नौजवान भारत सभा द्वारा दिल्ली में स्कूल बचाओ अभियान के तहत कुछ साल पहले किये गए सर्वेक्षणों में यह बात हमारे ख़ुद के अनुभव का हिस्सा है कि कई स्कूलों में शौचालयों के नहीं होने या ख़राब होने के कारण लड़कियों को पेशाब रोककर स्कूल में रहना पड़ता है और उन्हें मध्याह्न से पहले ही स्कूल छोड़ना पड़ता है। स्कूलों में पानी युक्त शौचालय की व्यवस्था शिक्षा से अभिन्न रूप से जुड़ी है और यह इस देश के मेहनतकशों के बच्चों के भविष्य से जुड़ी है। सरकारी स्कूलों में शौचालयों के निर्माण में भयंकर लापरवाही यह दिखाती है कि मोदी सरकार ग़रीबों और मेहनतकशों को न सिर्फ़ बेरोज़गारी और भुखमरी दे रही है वरन उसके बच्चों के शिक्षा और भविष्य से भी खेल रही है। अपनी जद्दोजहद भरी जिन्दगी के बीच हमें इस बात पर सोचना ही होगा कि पूँजी द्वारा शोषण, अपनी कमायी की लूट, अपने को जानवर समझे जाने और अपने बच्चों के जिन्दगी के साथ खिलवाड़ हम कब तक बर्दाश्त करेंगे?

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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