एक दिन की हड़ताल जैसे अनुष्ठानों से फ़ासिस्टों का कुछ नहीं बिगड़ेगा
मेहनतकश अवाम की दुश्मन इस सरकार के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग को एकजुट और आक्रामक प्रतिरोध के लिए तैयार करना होगा!
– सम्पादकीय
गहरे आर्थिक संकट की चपेट में भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही थी। मोदी की विनाशकारी आर्थिक नीतियों ने इसे और ख़स्ताहाल बना दिया और सरकार चलाने की बुर्जुआ योग्यता रखने वाले लोगों के इस सरकार में नितान्त अभाव के चलते अर्थतंत्र का कुप्रबन्धन चरम पर जा पहुँचा है। अडाणी और अम्बानी जैसे कुछ घराने मोदी सरकार से मनमाने फ़ैसले करवाकर इस संकट में भी मुनाफ़ा पीट रहे हैं मगर पूरा पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से त्रस्त है और किसी भी तरह से मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए हाथ-पाँव मार रहा है। आर्थिक क्षेत्र में मोदी सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद पूँजीपति अगर अब भी उसके पीछे खड़े हुए हैं, तो उसकी वजह यही है कि देश की जनता की मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट की जैसी अन्धी छूट एक फ़ासिस्ट सत्ता उन्हें दे सकती है वैसी कोई दूसरी बुर्जुआ ताक़त नहीं दे सकती। इसके अलावा, जनता को झूठे मुद्दों में उलझाने और बाँटने का काम जितनी कुशलता और निर्लज्जता के साथ ये फ़ासिस्ट कर सकते हैं, वैसे कोई और नहीं कर सकता।
मुनाफ़े के लिए छटपटाते पूँजीपति चारों ओर मुँह बाये दौड़ रहे हैं। जहाँ भी उन्हें मुनाफ़ा बटोरने के अवसर दिख रहे हैं, अपनी पालतू मोदी सरकार के सहारे वे उसे भकोस जाना चाहते हैं। चाहे एक के बाद एक सार्वजनिक उपक्रमों को थैलीशाहों के हवाले करना हो या पर्यावरण और लाखों-लाख आबादी को संकट में डालकर जल-जंगल-ज़मीन को कॉरपोरेट लालच के लिए बलि चढ़ाना हो, मोदी सरकार अपने आक़ाओं को ख़ुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। नये कृषि क़ानून भी इसी मुहिम का हिस्सा हैं। बताने की ज़रूरत नहीं कि देश के शासक पूँजीपति वर्ग का बड़ा और ताक़तवर हिस्सा औद्योगिक और वित्तीय पूँजीपतियों का है और कृषि क्षेत्र का पूँजीपति वर्ग सत्ता में भागीदार होते हुए भी ताक़त में उनसे बहुत पीछे है। पूँजीवाद में कृषि का उद्योग से पिछड़ना लाज़िमी ही होता है।
औद्योगिक पूँजीपति अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर पहले ही क़ब्ज़ा कर चुके हैं, अब खेती पर भी उनकी नज़रें लगी हैं। ज़ाहिर है, कृषि क्षेत्र के पूँजीपति इसे स्वीकार करने वाले नहीं हैं। हमने इन कृषि क़ानूनों और इनके विरुद्ध हो रहे किसान आन्दोलन तथा उसकी माँगों के वर्ग चरित्र के बारे में और इनके प्रति मज़दूर वर्ग के नज़रिये के बारे में ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक में विस्तार से लिखा था। आगे भी हम इसके सभी पहलुओं पर लिखेंगे। इस अंक के प्रेस में जाने तक किसान संगठन दिल्ली को घेरकर बैठे हैं और सरकार से उनकी पहली वार्ता बेनतीजा रही है। आने वाले दिनों में ज़्यादा उम्मीद इस बात की है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर सरकार के साथ उनकी कोई सहमति बन जाये और आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे बाक़ी मुद्दों को ठण्डे बस्ते में डालकर आन्दोलन ख़त्म हो जाये। कई किसान नेता इस आशय के बयान दे चुके हैं कि उनके लिए असली मुद्दा एमएसपी का ही है। एमएसपी का सवाल मुट्ठीभर फ़ार्मरों, धनी किसानों और कुलकों को छोड़कर ग़रीब किसानों की भारी आबादी और बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के हितों से कैसे मेल नहीं खाता है, इस पर हमारी राय आप विस्तार से ‘मज़दूर बिगुल’ के फ़ेसबुक पेज और वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं।
किसान आन्दोलन के दमन के लिए तमाम हथकण्डे अपनाकर मोदी सरकार ने यह भी साफ़ कर दिया है कि अपने कॉरपोरेट मालिकों की सेवा के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। धनी किसानों और फ़ार्मरों की अगुवाई वाले किसान संगठनों के पीछे भीड़ जुटने का कारण यह है कि पूँजीवादी संकट का असर खेती पर भी है और छोटे-मँझोले किसानों की हालत ख़राब है। पिछले साल भी दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु सहित देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों के जुझारू प्रदर्शन हुए थे। देश के कई हिस्सों में किसानों ने अपनी फ़सल बेचने की बजाय सड़कों पर ही फेंककर अपना विरोध दर्ज कराया था। गाँवों तक पूँजी की पैठ बढ़ने के साथ ही किसान आबादी का विभेदीकरण बढ़ रहा है और छोटे-मँझोले किसान मुनाफ़े की खेती में पिछड़ रहे हैं। कुलकों और धनी किसानों के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टियाँ समर्थन मूल्य बढ़ाने और क़र्ज़-माफ़ी जैसी माँगों के इर्द-गिर्द छोटे-मझौले किसानों को पहले भी लामबन्द करती रही हैं जिसकी वजह से किसानों के प्रदर्शनों में भारी भीड़ होती रही है। मगर इन आन्दोलनों की माँगें पूरी तरह बड़े किसानों के हित वाली रही हैं। इन सवालों पर हम पहले भी विस्तार से लिख चुके हैं, और आगे भी लिखेंगे।
मज़दूर हड़ताल की माँगें और उसकी ख़बर चर्चा से ग़ायब
26 नवम्बर को ही शुरू हुए किसानों के दिल्ली मार्च और उसके दमन के शोर में मज़दूरों की देशव्यापी हड़ताल की ख़बर पूरी तरह दब गयी। हालाँकि मुख्यत: संसदमार्गी वाम पार्टियों से जुड़ी यूनियनों के आह्वान पर होने वाली ऐसी एकदिवसीय हड़ताल महज़ हर एक सालाना अनुष्ठान बन चुका है जिससे सरकार या पूँजीपतियों को ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता, मगर अनेक क्रान्तिकारी संगठन भी इसमें भागीदारी करके मज़दूरों तक अपनी बात पहुँचाते हैं और एक व्यापक जुझारू संघर्ष का आह्वान करते हैं। मोदी सरकार की नीतियों की सबसे कमरतोड़ मार मज़दूरों पर ही पड़ी है। कोरोना के बाद लगाये गये लॉकडाउन ने करोड़ों मज़दूरों का काम छीन लिया है और जो काम पर हैं उन्हें भी कोरोना के बहाने तरह-तरह से लूटा और ठगा जा रहा है। ऐसे में मज़दूरों के ज़बर्दस्त एकजुट आक्रामक आन्दोलन की ज़रूरत है, मगर ऐसे अनुष्ठानों के सेफ़्टी वॉल्व के ज़रिये उनके असन्तोष को ठण्डा करने के अलावा ये संसदमार्गी पार्टियाँ और उनकी पिछलग्गू यूनियनें कुछ नहीं कर सकतीं। ये संसदीय लाल जमूरे तो अभी धनी किसानों के मंच पर दरी बिछाने और माइक सँभालने में ही लगे हुए हैं।
हर साल होने वाली एक या दो दिन की इन हड़तालों में देश के मज़दूर एक हद तक अपनी ताक़त दिखाते हैं लेकिन इससे पहले कि इस ताक़त से कुछ ठोस हासिल हो, मज़दूर वापस फ़ैक्टरियों-दफ़्तरों में चले जाते हैं और फिर से शोषण के चक्के में अपना हाड़-माँस गलाने लगते हैं। इस बार तो यह भी पिछले वर्षों की तुलना में काफ़ी कम रहा। इस तरह की हड़तालें इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा की जाने वाली रस्मी क़वायद है जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देती। यह हड़ताल जैसे मज़दूरों के शक्तिशाली औज़ार को भी धारहीन बनाने का काम करती है।
क्या इस हड़ताल के बाद राज्य सरकारें तय न्यूनतम वेतन लागू करने लगेंगी? या मज़दूरों को बढ़े हुए रेट से वेतन मिलने लगेगा? ठेका प्रथा ख़त्म हो जायेगी? फ़ैक्टरियों के हालात सुधार जायेंगे? कोरोना में जिन लोगों को काम से निकालकर आधी मज़दूरी पर फिर से रखा गया है, उनके साथ यह ठगी बन्द हो जायेगी? ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। यह बात हम और आप अपनी ज़िन्दगी के हालात को देखकर अच्छी तरह समझते हैं। ठेका प्रथा का दंश झेल रहे मज़दूरों के एक सशक्त आन्दोलन को खड़ा करने या मज़दूरों के अधिकारों को हासिल करने के लिए कोई प्रोग्राम लेने की बजाय ऐसी ग़द्दार ट्रेड यूनियनें एक दिन की हड़ताल की नौटंकी से मज़दूरों के ग़ुस्से को शान्त करने की क़वायद में जुटी हुई हैं। 1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से दो दर्जन बार देश के स्तर पर ‘भारत बन्द’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ आदि ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें आयोजित करती आयी हैं, लेकिन इसी दौर में एक के बाद मज़दूरी-विरोधी नीतियाँ बनती रही हैं और उनके अधिकार छीने जाते रहे हैं।
जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और विधानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारख़ाना लगाने के लिए ग़रीब मेहनतकशों का क़त्लेआम हुआ तो सीपीआई व सीपीएम से जुड़ी ट्रेड यूनियनों ने इसके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरों के हक़ों को छीनती हैं तो भारतीय मज़दूर संघ, इण्टक आदि जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? दरअसल, केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस व्यवस्था की रक्षक हैं जो इस तरह के प्रदर्शनों से मज़दूरों का ग़ुस्सा शान्त करने का काम करती हैं। दूसरी बात यह कि 5 करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ये यूनियनें इन मज़दूरों के हक़ों को ही सबसे प्रमुखता से उठाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँग इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। देश की 52 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, परन्तु ये न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है। तीसरी बात अगर यह वाक़ई न्यूनतम वेतन को नयी दर से लागू करवाना चाहती हैं और केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर विरोधी संशोधनों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वादे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है। मज़दूर तो इसके लिए तैयार होते हैं, परन्तु ये यूनियनें ऐसा कभी नहीं करेंगी!
ऐसे में यह सवाल बनता है कि मज़दूर वर्ग की रणनीति क्या होनी चाहिए? ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हम लगातार यह कहते आये हैं कि फ़ासीवाद एक व्यापक सामाजिक आधार वाला धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जो सत्ता में न रहने पर भी समाज में मौजूद रहता है। “हिन्दू राष्ट्र” की तमाम बातों के पीछे इसका असली मक़सद अपने पूँजीपति मालिकों की सेवा और इसके लिए मज़दूरों को लूटने-खसोटने के सारे इन्तज़ाम करना है। इसका मुँहतोड़ जवाब देने और इसे पीछे धकेलने का काम एक ताक़तवर कैडर-आधारित मज़दूर आन्दोलन और उसकी अगुवाई में ग्रासरूट स्तर से खड़ा हुआ व्यापक सामाजिक आधार वाला आन्दोलन ही कर सकता है। लेकिन यह सच्चाई है कि आज मज़दूर आन्दोलन बुरी तरह टूट-फूट और बिखराव का शिकार है। मज़दूरों का भारी हिस्सा पस्ती और निराशा में डूबा है। राजनीतिक चेतना की कमी के चलते मेहनतकशों का एक हिस्सा भी फ़ासिस्टों के प्रचार के प्रभाव में है। यहाँ तक कि कोरोना के दौर में भुखमरी और बेकारी झेलने के बाद भी उनमें फ़ासिस्टों के प्रति मुखर आक्रोश और नफ़रत की कमी है।
इस स्थिति के लिए उन संशोधनवादियों, संसदमार्गी नकली कम्युनिस्टों और सामाजिक जनवादियों को कभी माफ़ नहीं किया जा सकता, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान मात्र आर्थिक संघर्षों और संसदीय विभ्रमों में उलझाकर मज़दूर वर्ग की वर्गचेतना को कुण्ठित करने का काम किया है। ये संशोधनवादी फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष को सिर्फ़ चुनावी हार-जीत के रूप में ही प्रस्तुत करते रहे, या फिर सड़कों पर बस कुछ प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शनों तक सीमित रहे। दरअसल ये संशोधनवादी आज फ़ासीवाद का जुझारू और कारगर विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि ये “मानवीय चेहरे” वाले नवउदारवाद का और कीन्सियाई नुस्ख़ों वाले “कल्याणकारी राज्य” का विकल्प ही सुझाते हैं। आज पूँजीवादी ढाँचे में चूँकि इस विकल्प की सम्भावनाएँ बहुत कम हो गयी हैं, इसलिए पूँजीवाद के लिए भी ये संशोधनवादी काफ़ी हद तक अप्रासंगिक हो गये हैं। बस इनकी एक ही भूमिका रह गयी है कि ये मज़दूर वर्ग को अर्थवाद और संसदवाद के दायरे में क़ैद रखकर उसकी वर्गचेतना को कुण्ठित करते रहें और वह काम ये करते रहेंगे। जब फ़ासीवादी आतंक चरम पर होगा तो ये संशोधनवादी चुप्पी साधकर बैठ जायेंगे। अतीत में भी बाबरी मस्जिद गिराये जाने के आगे-पीछे फैले साम्प्रदायिक उन्माद का सवाल हो या फिर गुजरात में हफ़्तों चले बर्बर नरसंहार का, ये बस संसद में गत्ते की तलवारें भाँजते रहे और टीवी और अख़बारों में बयानबाज़ियाँ करते रहे। ना इनके कलेजे में इतना दम है और ना ही इनकी ये औक़ात रह गयी है कि ये फ़ासीवादी गिरोहों और लम्पटों के हुजूमों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने के लिए लोगों को सड़कों पर उतार सकें। बंगाल और त्रिपुरा में लोगों ने देख लिया है कि ये तो दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद अपने कार्यकर्ताओं तक को फ़ासीवादियों की गोद में जाने से नहीं रोक सकते।
पूँजीवादी संकट का यदि समाजवादी समाधान प्रस्तुत नहीं हो पाता तो फ़ासीवादी समाधान सामने आता ही है। इस बात को इतिहास ने पहले कई बार साबित किया है। फ़ासीवाद हर समस्या के तुरत-फुरत समाधान के लोकलुभावन नारों के साथ तमाम मध्यवर्गीय जमातों, छोटे कारोबारियों, सफ़ेदपोश कर्मचारियों, छोटे उद्यमियों और मालिक किसानों को लुभाता है। उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दी गयी मज़दूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा भी फ़ासीवाद के झण्डे तले गोलबन्द हो जाता है जिसके पास वर्ग चेतना नहीं होती और जिनके जीवन की परिस्थितियों ने उनका लम्पटीकरण कर दिया होता है। निम्न मध्यवर्ग के बेरोज़गार नौजवानों और पूँजी की मार झेल रहे मज़दूरों का एक हिस्सा भी अन्धाधुन्ध प्रचार के कारण मोदी जैसे नेताओं द्वारा दिखाये सपनों के असर में आ जाता है। जब कोई क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व उसकी लोकरंजकता का पर्दाफ़ाश करके सही विकल्प प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं होता तो फ़ासीवादियों का काम और आसान हो जाता है। आरएसएस जैसे संगठनों द्वारा लम्बे समय से किये गये प्रचार से उनको मदद मिलती है। भूलना नहीं चाहिए कि संघियों के प्रचार तंत्र का असर मज़दूर बस्तियों तक में है। बड़े पैमाने पर संघ के वीडियो और ऑडियो टेप मज़दूरों की एक आबादी को भी प्रभावित करते हैं। बहुत-सी जगहों पर ग़रीबों की कालोनियों और मज़दूर बस्तियों में भी संघ की शाखाएँ लगती हैं। गोदी मीडिया का अन्धाधुन्ध झूठा प्रचार भी मज़दूरों को प्रभावित करता है।
फ़ासीवाद निम्न-बुर्जुआ वर्ग का घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जिसके पास एक सामाजिक आधार और काडर फ़ोर्स होती है। इसका जवाब अमन-शान्ति और मेलमिलाप के नारों से नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग और नौजवानों के जुझारू दस्तों द्वारा ही दिया जा सकता है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के बरक्स एक जुझारू प्रगतिशील आन्दोलन खड़ा करके ही इसका मुक़ाबला किया जा सकता है। क्रान्तिकारी वाम की शक्तियाँ आज बिखरी हुई हैं। एक हिस्सा कठमुल्लेपन, अतिरेकपन्थ और दुस्साहसवाद का शिकार है तो एक हिस्सा सच्चाइयों से आँख चुराते-चुराते वस्तुगत तौर पर अवसरवाद और बिखराव का शिकार है। जो शक्तियाँ संजीदगी से सोच रही हैं उन्हें ताक़त कम या अधिक होने के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि सामने मौजूद कार्यभार की गम्भीरता को समझकर अपने आप को इस काम में झोंक देना होगा। उन्हें मज़दूरों के बीच अपने आर्थिक-वैचारिक-सांस्कृतिक काम को बढ़ाते हुए मज़दूरों के जुझारू दस्ते तैयार करने की शुरुआत करनी होगी। साथ ही निम्न मध्य वर्ग के नौजवानों के बीच संघी प्रचार की काट करते हुए उन्हें साथ लेने के लिए सघन वैचारिक-सांस्कृतिक-आन्दोलनकारी काम करना होगा। मध्य वर्ग के जो लोग घरों में दुबक जाने वाले सेक्युलर नहीं हैं, उन्हें भी साथ में लेना होगा।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फ़ासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ़ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फ़ासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमखम रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फ़ौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फ़ासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। मगर इसके लिए हमें अपनी भरपूर ताक़त के साथ तैयारी में जुटना होगा।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन