कोरोना के बहाने मज़दूर-अधिकारों पर मोदी सरकार की डकैती

– बिगुल संवाददाता

एक ऐसे वक़्त में जब कोरोना महामारी से पूरा देश जूझ रहा है फ़ासीवादी मोदी सरकार लगातार श्रम क़ानूनों पर हमले कर रही है और मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों को भी ख़त्म करने की पूरी तैयारी कर चुकी है।
कोरोना महामारी के कारण पहले से ही डगमगा रही वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस गहरी मन्दी में धँसने की ओर जा रही है उसमें पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा ना मारा जाये इसके लिए दुनिया भर में सरकारों द्वारा मज़दूरों के बचे-खुचे सारे अधिकार ख़त्म किये जा रहे हैं। दुनिया भर में तमाम दक्षिणपन्थी, फ़ासीवादी सत्ताएँ ऐसे ही कड़े क़दम ले रही हैं। भारत में भी मोदी सरकार पूरी नंगई के साथ अपनी मज़दूर विरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करने में लगी हुई है। कोविड-19 महामारी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था का जो नुक़सान हुआ है, उसका हर्जाना यह सरकार मज़दूर वर्ग से वसूलेगी। हालाँकि भारत की अर्थव्यवस्था पिछले काफ़ी समय से ही लगातार गिरती हुई नज़र आ रही थी, जिसे कोरोना ने बस एक धक्का देने का काम किया है।
अपने पहले कार्यकाल से ही लगातार मज़दूर विरोधी नीतियाँ लागू करने वाली मोदी सरकार कोरोना के संकट के नाम पर मज़दूरों पर अब एक और हमला करने की तैयारी में है। तमाम श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने के बाद अब यह सरकार मज़दूरों के काम के बुनियादी अधिकार पर भी हमला करने जा रही है। आज से क़रीब 150 साल पहले शिकागो के मज़दूरों ने काम के घण्टे 8 करने की लड़ाई शुरू की थी और हज़ारों क़ुर्बानियों के बाद पूरी दुनिया में यह लागू हुआ था, आज फ़ासीवादी मोदी सरकार उसे बढ़ाकर 12 घण्टे करने जा रही है।
सेक्शन 51, फ़ैक्ट्री एक्ट, 1948 जो कि यह कहता है “किसी भी युवा श्रमिक को फ़ैक्ट्री के अन्दर हफ़्ते में 48 घण्टे से अधिक काम नहीं करना है” (यानी 1 हफ़्ते में 6 दिन और हर कार्यदिवस में 8 घण्टे का काम) उस क़ानून को संशोधित कर मोदी सरकार काम के घण्टे को 8 से बढ़ाकर 12 करने जा रही है। ग़ौरतलब है कि फ़ैक्ट्री एक्ट में 4 घण्टे अधिक ओवरटाइम करने का भी प्रावधान है, लेकिन साथ-साथ इस क़ानून के अनुसार एक श्रमिक एक फ़ैक्ट्री के अंदर 3 महीने में 120 घण्टे से अधिक ओवरटाइम नहीं कर सकता और ओवरटाइम करने पर मज़दूर को दोगुनी दर से भुगतान किये जाने का प्रावधान है। हालाँकि भारत की अधिकतम फ़ैक्ट्रियों में यह क़ानून लागू ही नहीं होता है और मज़दूरों को सिंगल रेट से ही भुगतान किया जाता है।
मुनाफ़े की गिरती दर को बचाने के लिए यह फ़ासीवादी सरकार मज़दूरों का ख़ून चूसने के हर सम्भव प्रयास कर रही है। अब मालिकान मज़दूरों की छँटनी भी आसानी से और क़ानूनी रूप से कर पायेंगे। एक अनुमान के अनुसार काम के घण्टे 12 करने की वजह से क़रीब 33 फ़ीसदी मज़दूरों का काम छूट जायेगा और वे बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल हो जायेंगे। ज़ाहिर है सरकार के पास इन बेरोज़गार मज़दूरों के लिए कोई योजना नहीं है।
लॉकडाउन के दौरान ही श्रम मामलों पर स्थायी संसदीय समिति ने सरकार से कहा कि कोरोना के कारण बन्द हुए कारख़ानों के मज़दूरों को वेतन देने के लिए मालिकों को नहीं कहा जाना चाहिए। उनसे ऐसा करने के लिए कहना मालिकों के साथ “अन्याय” होगा। समिति ने औद्योगिक सम्बन्ध कोड 2019 पर अपनी रिपोर्ट में कहा कि अगर कच्चा माल नहीं मिलने या मशीन ख़राब होने जैसे कारणों से कारख़ाने में काम बन्द होता है तब तो मज़दूर को उसकी मज़दूरी मिलनी चाहिए लेकिन अगर किसी प्राकृतिक आपदा के कारण काम बन्द होता है, तब मज़दूरी देने की कोई बाध्यता नहीं होनी चाहिए। समिति ने कहा है कि बाढ़, चक्रवात, भूकम्प आदि के कारण जब लम्बे समय तक कारख़ाने बन्द होते हैं तो इसमें मालिक की कोई ग़लती नहीं होती। समिति के मुताबिक़ कोरोना महामारी भी ऐसी ही प्राकृतिक विपदा है इसलिए इसके कारण बन्द हुए कारख़ानों के मज़दूरों को वेतन देना मालिकों की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह कहीं नहीं कहा कि मज़दूरी नहीं मिलने से मज़दूरों और उनके परिवारों पर जो विपदा आयेगी उसका कौन ज़िम्मेदार होगा और उसकी भरपाई कैसे होगी! संसदीय समिति की चिन्ताओं में करोड़ों मज़दूर कहीं नहीं हैं। सांसद महोदय फ़ैक्ट्री मालिकों की चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं। इस समिति में वामपन्थी पार्टियों के भी दो सांसद थे जिन्होंने काग़ज़ी आपत्ति दर्ज कराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। ठीक वैसे ही जैसे, पिछले तीन दशकों से अन्धाधुन्ध लागू हो रही उदारीकरण-निजीकरण की विनाशकारी नीतियों पर वे संसद में बैठे-बैठे “आपत्ति और निन्दा-भर्त्सना” करते रहे हैं।
संसदीय समिति ने इसी रिपोर्ट में यह ख़तरनाक सिफ़ारिश भी की है कि ले-ऑफ़, छँटनी और कम्पनी बन्द करने के लिए जो विशेष प्रावधान अभी ऐसी हर औद्योगिक इकाई पर लागू होते हैं जिसमें 100 या उससे अधिक मज़दूर काम करते हैं, उनकी सीमा बढ़ाकर 300 मज़दूर कर दी जाये। यानी जिस कारख़ाने में 299 मज़दूर काम करते हों, वह बिना किसी मुश्किल के ले-ऑफ़, छँटनी या कम्पनी बन्द करने की कार्रवाई कर सकेगा। समिति ने कहा कि राजस्थान जैसी कुछ राज्य सरकारें तो पहले ही ऐसा क़ानून लागू कर चुकी हैं। ग़ौरतलब है कि राजस्थान में वसुन्धरा राजे की भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही सबसे पहले ऐसा क़ानून पारित किया था और तभी से मोदी सरकार उसे पूरे देश में लागू करवाने की कोशिश में लगी है। समिति ने सिफ़ारिश की है कि कर्मचारियों की सीमा बढ़ाने की बात औद्योगिक सम्बन्ध कोड में ही शामिल कर लेनी चाहिए।
इस समिति ने यह सिफ़ारिश भी की है कि सरकारी बन्दिशों के बिना बड़ी कम्पनियों को यह अनुमति दी जानी चाहिए कि वे मज़दूरों को अपनी मर्ज़ी से रख सकें और उनकी छँटनी भी कर सकें।
बीजू जनता दल के सांसद भर्तृहरि महताब के नेतृत्व में गठित इस स्थायी समिति ने यह भी अनुशंसा की कि किसी भी क्षेत्र में हड़ताल पर जाने से 14 दिन पहले मज़दूरों को सरकार को सूचित करना होगा। हड़ताल के अधिकार को ख़त्म करके, बेरोकटोक छँटनी-तालाबन्दी करके मुनाफ़े की गिरती दर से पैदा अपने संकट की पूरी भरपाई पूँजीपति वर्ग और उनकी सरकारें मज़दूर वर्ग से कराना चाहते हैं।
कोरोना महामारी का हवाला देकर इस सरकार ने लगातार श्रम क़ानूनों को ढीला करने का काम किया है, ताकि पूँजीपति वर्ग मज़दूरों की श्रम शक्ति को और बुरे तरीक़े से निचोड़ सके। इस महामारी के दौरान मज़दूरों के ऊपर राशन, दवा-इलाज से लेकर कमरे के किराये का जो भयंकर बोझ टूट पड़ा है, मोदी सरकार को इसकी कोई चिन्ता नहीं है। इसके उलट पूँजीपतियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए सरकार मज़दूरों की बड़ी आबादी की छँटनी करने में ज़रा भी चूक नहीं कर रही है। इस पूरी गिरती अर्थव्यवस्था का बोझ मज़दूरों के कन्धों पर आ पड़ा है।
मोदी सरकार सत्तासीन होने के बाद से ही लगातार मज़दूर विरोधी नीतियाँ बना और लागू कर रही है और इस महामारी की भयावह परिस्थिति में खुलेआम मेहनतकशों के हक़ों को छीन रही है जब उसे मालूम है कि मज़दूर इसका प्रभावी विरोध भी नहीं कर सकते। कोरोना वायरस की वजह से अर्थव्यवस्था को जो धक्का लगा है, उससे निपटने का पूरा बोझ मज़दूर वर्ग की पीठ पर लाद दिया गया है । यह तय है कि जब भी लॉकडाउन पूरी तरह खुलेगा तब मज़दूरों को और भी विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा और क़दम-क़दम पर लड़ने के लिए तैयार रहना होगा।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-सितम्बर 2020


 

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