लॉकडाउन में दिल्ली के मज़दूर : नौकरी जा चुकी है, घर में राशन है नहीं, घर जा नहीं सकते
– सनी सिंह
पिछले 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लागू करने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 24 मार्च को अचानक पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन घोषित कर दिया। दिल्ली में बड़ी संख्या में मेहनतकश ग़रीब आबादी रहती है जिसकी रोज़ की कमाई तय करती है कि शाम को घर में चूल्हा जलेगा कि नहीं। फै़क्ट्री मज़दूर, रेहड़ी-खोमचा लगाने वाले व निम्न मध्यवर्ग की आबादी जो कुल मिलाकर देश की 80 फीसदी आबादी है, उसपर लॉकडाउन क़हर बन कर टूटा है।
क्या प्रधानमंत्री के लिए यह समझना कोई रॉकेट साइंस था कि 21 दिनों तक यह आबादी घर के अन्दर रहकर गुज़ारा कैसे करेगी? वह खायेगी क्या? इस 80 प्रतिशत आबादी में बेघर और फुटपाथों पर व झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले 18 करोड़ लोग भी शामिल हैं। देश के नाम सम्बोधन में प्रधानमंत्री को यह भी बताना चाहिए था कि औद्योगिक क्षेत्रों में 8 गुना 10 की कच्ची छत के कमरे में रहने वाले मज़दूर परिवार किस तरह से 21 दिन गुज़ारेंगे? वह भी तब जबकि लॉकडाउन के बढ़ने की पूरी आशंका थी।
लेकिन मोदी को यदि किसी की चिन्ता है तो अपने पूँजीपति आकाओं की। इसलिए आदेश जारी करने के बजाय उन्होंने “गुज़ारिश” की कि लॉकडाउन के दौरान किसी मज़दूर को काम से निकाला नहीं जाये और पहले की तरह वेतन दिया जाये। कहने की ज़रूरत नहीं कि देश के शायद ही किसी औद्योगिक क्षेत्र में इसका पालन किया गया हो। अब तो सरकार इस प्राकृतिक आपदा में भी मज़दूरों को वेतन भुगतान करने का आदेश देने वाले श्रम क़ानून के अनुच्छेद को ही बदलने जा रही है।
अचानक लागू किये गये लॉकडाउन के कारण दिल्ली व मुम्बई जैसे शहरों में रोज़गार की ख़ातिर गये लोगों के लिए घर में बैठना मुमकिन नहीं था। काम छूट चुका था और खाने के लिए पैसे भी नहीं थे, घर लौटने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। लाखों मज़दूरों के सड़क पर उतर आने से जब सरकार की किरकिरी होने लगी तो दिल्ली की सड़कों पर पुलिस ने जगह-जगह बैरिकेड लगाकर मज़दूरों को आनन्द विहार स्टेशन जाने से भी रोक दिया। फिर 21 दिनों के लॉकडाउन को 19 दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया।
ऐसे में दिल्ली के औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरों के लिए जीवन की परिस्थियाँ और भी कठिन हो गयी हैं। काम बन्द हो चुका है, राशन ख़त्म हो चुका है और सरकार जो खाना बाँट रही है वह पर्याप्त नहीं है। कोरोना से मज़दूर आबादी मरे ना मरे पर भूख से मरने के लिए अभिशप्त है। मोदी लोगों से थाली बजवा रहे हैं, दिया जलवा रहे हैं, पर उनके लिए खाने का इन्तज़ाम नहीं कर रहे। अगर दिल्ली में सैकड़ों यूनियनें, सामाजिक संस्थाएँ, गुरुद्वारे आदि अपनी ओर से राशन और खाने का इन्तज़ाम न कर रहे होते तो ग़रीबों और मेहनतकशों के बीच भुखमरी की हालत कितनी भयंकर होती उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। दिल्ली मज़दूर यूनियन व उसकी करीबी अन्य यूनियनें भी करावलनगर, खजूरी, वज़ीरपुर, बवाना, शाहाबाद डेरी और बादली के मज़दूरों के बीच खाना पहुँचा तो रही हैं, लेकिन यह राहत कतई पर्याप्त नहीं है। हम यहाँ पर कुछ मज़दूर इलाक़ों के वास्तविक हालात और राहत कार्यों का संक्षिप्त विवरण दे रहे हैं।
मेट्रो विहार व बवाना जेजे कॉलोनी
उत्तर पश्चिमी दिल्ली के बाहरी छोर पर स्थित बवाना औद्योगिक क्षेत्र और उससे सटे मज़दूर रिहाइश मेट्रो विहार के उदाहरण से समझा जा सकता है कि मज़दूरों के हालात क्या हैं। मेट्रो विहार व जेजे कॉलोनी में ज़्यादातर आबादी कारख़ानों से लेकर सड़कों तक दिहाड़ी मज़दूरी का काम करती है। दिहाड़ी मज़दूरों के हालात तो लॉकडाउन के कुछ दिनों बाद ही बिगड़ने लगे और इसी कारण बवाना औद्योगिक क्षेत्र से भी एक बड़ी आबादी गाँव की ओर पलायन को मजबूर हुई। दूसरी तरफ जो मज़दूर कारख़ानों में काम कर रहे थे मार्च महीने के अन्त तक वह भी भूख से मजबूर थे। बवाना में ही काम करने वाले दुर्गा विजय बताते हैं – “महीने की शुरुआत में हमें पैसा मिलता है। अचानक लॉकडाउन लागू होने के कारण हमारे बचे-खुचे पैसे भी ख़त्म हो चुके हैं और मालिक ने भी पैसे देने से मना कर दिया है।” यही हालात बवाना में काम कर रहे हज़ारों मज़दूरों की है। प्रधानमंत्री ने तो एक जुमला उछाल दिया कि मज़दूरों का वेतन ना काटा जाये पर ज़मीनी स्तर पर हमेशा की तरह ठीक इसका उल्टा हो रहा है।
केन्द्र सरकार की तरह ही हवाई गोले छोड़ने में केजरीवाल सरकार भी पीछे नहीं है। केजरीवाल बोल रहे हैं कि स्कूलों में हमने दो टाइम के खाने का इन्तज़ाम कर दिया है। इसकी हक़ीक़त भी जान लेते हैं। मेट्रो विहार में सिर्फ़ 2 स्कूल हैं जहाँ खाना मिल रहा है। प्रत्येक स्कूल में दोनों टाइम मिलाकर रोज़ हज़ार लोगों को खाना मिलता है। यानी 2 स्कूलों में 2000। मेट्रो विहार की आबादी क़रीब 40,000 है और इसमें से 70% लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है। स्कूलों में जो खाना मिल भी रहा है वह आबादी के हिसाब से पर्याप्त नहीं है। रोज़ लोग 2-2 किलोमीटर लम्बी लाइनों में खड़े रहते हैं और ज़्यादातर लोगों को ख़ाली हाथ लौटना पड़ता है और जिन्हें खाना मिलता भी है वह परिवार का पेट भरने लायक नहीं होता। कम खाना और बहुत अधिक भूखे लोगों की वजह से अक्सर ही भगदड़ और अफ़रा-तफ़री के हालात पैदा हो जाते हैं।
भारत का खाया-पिया-अघाया मध्य वर्ग अपने फ़्लैटों में बैठकर ‘सोशल डिस्टेंस’ रखने के लिए सबको उपदेश झाड़ रहा है। मगर मज़दूर इलाक़ों में हालात इतने बदतर हैं कि सुबह उठने से लेकर रात सोने तक किसी भी समय सोशल डिस्टेंसिंग सम्भव ही नहीं है। मेट्रो विहार में 90 प्रतिशत आबादी के पास अपने घरों में शौचालय नहीं है। सबको सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ता है। मेट्रो विहार में 5 सार्वजनिक शौचालय हैं और एक शौचालय में करीब 50 सीटें हैं यानी कुल करीब ढाई सौ। तो सोचिए, क्या शौचालय की लाइनों में खड़े रहकर सोशल डिस्टेंसिंग सम्भव है? इसके बाद लोग स्कूलों में खाना लेने के लिए लाइन में लगते हैं। स्कूल में 11:30 बजे से खाना मिलना शुरू होता है और लाइन 9:00 बजे से ही लगना शुरू हो जाती है। सबके अन्दर डर बना रहता है कि उनकी बारी आने से पहले ही खाना ख़त्म ना हो जाये। तो सोचिए, 2 किलोमीटर लम्बी लाइनों में सोशल डिस्टेंसिंग सम्भव है? ऐसी लाइन हर सुबह और हर शाम लगती है।
केजरीवाल ने अस्थाई राशन कार्ड की स्कीम शुरू की है जिससे 3 महीने सबको राशन मिलेगा। परन्तु पहली बात यह कि राशन कार्ड की वेबसाइट शुरू होने के 2 दिन बाद ही बन्द हो गयी। शिकायत करने पर क़रीब 10 दिन बाद वेबसाइट खुली। दूसरी बात, सभी पार्टियों के दलाल लोगों से राशन के फ़ॉर्म भरने के 200-300 रुपये वसूल रहे हैं, जबकि फ़ॉर्म निशुल्क है। तीसरा, जिनका अस्थाई राशन कार्ड बन भी गया है उन्हें प्रति व्यक्ति 4 किलो गेहूँ, 1 किलो चावल दिया जा रहा है वह भी पूरे महीने के लिए। मुख्यमंत्री महोदय आप ही बताइए, क्या इतना राशन पूरे महीने एक व्यक्ति के लिए पर्याप्त होगा? ऐसे में बवाना औद्योगिक क्षेत्र मज़दूर यूनियन की तरफ़ से मेट्रो विहार और बवाना जेजे कॉलोनी में मज़दूरों को राशन मुहैया कराया जा रहा है। इसके साथ ही अस्थाई राशन कार्ड के फ़ॉर्म निशुल्क भरवाए जा रहे हैं। इस सबके साथ ही मज़दूरों को कोरोना से बचने के उपायों के बारे में शिक्षित करने का भी काम होता है और उनके बीच यह बातें भी होती हैं कि मज़दूरों को अपने हकों के लिए संघर्ष की तैयार भी करनी होगी।
शाहाबाद डेरी
शाहाबाद डेरी के मज़दूर इलाक़ों में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। केजरीवाल सरकार के तमाम दावे खोखले नज़र आ रहे हैं। सरकारी स्कूलों में खाना दिया जा रहा है पर वह आबादी के हिसाब से ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। लोग सुबह 8 बजे से लाइनों में लग जाते है फिर भी ज़्यादातर लोगों को ख़ाली हाथ लौटना पड़ता है। जो खाना मिलता है वह पूरे परिवार के लिए तो छोड़िए, उससे एक इन्सान का पेट भी मुश्किल से भरेगा। खाना बमुश्किल केवल 30 मिनट बाँटा जाता है। बाक़ी आबादी को निराश लौटना पड़ता है। सोशल डिस्टेंस की बातें मज़दूर इलाक़े में हो ही नहीं सकतीं। शाहाबाद डेरी में हज़ारों मज़दूर रहते हैं। इनका एक बड़ा हिस्सा घरेलू कामगारों का भी है। यहाँ बेलदारी, दिहाड़ी और कारख़ाना मज़दूर भी रहते हैं। शाहाबाद डेरी में साफ़ पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं है। हालाँकि इसे बसे हुए लगभग 45 साल हो गये हैं, लेकिन यहाँ अब भी लोग टैंकर से पानी भरते हैं। पाइप लाइन बिछे भी अरसा हो गया है लेकिन उसमें पानी का कोई अता-पता नहीं है। ऐसे में पानी लेने के लिए बहुत भीड़ हो जाती है। 15 परिवारों के लिए सप्ताह में एक से दो टैंकर ही मिल पाता है। तो ऐसे में पानी भरें या सोशल डिस्टेंस बनायें? शाहाबाद डेरी में प्रत्येक ब्लॉक में एक ही सार्वजनिक शौचालय है, जबकि 80 फ़ीसदी आबादी के घर में शौचालय नहीं है। ऐसे में इन जगहों पर बहुत भीड़ रहती ही है, उसपर से साफ़-सफ़ाई का भी कोई पुख्ता इन्तज़ाम नहीं होता।
राजकुमारी यहाँ रहनेवाली एक घरेलू कामगार हैं। वह लॉकडाउन से पहले 12 घण्टे काम करके बमुश्किल 7,000 कमा पाती थीं, इनके चार पढ़नेवाले बच्चे हैं, इनका ख़र्च भी राजकुमारी को देखना पड़ता है। परिवार में राजकुमारी अकेली कमानेवाली हैं। राजकुमारी के पति पिछले 6 महीने से बेरोज़गार हैं। ऐसे में इस परिवार पर लॉकडाउन क़हर बनकर आया है। जहाँ राजकुमारी काम करने जाती हैं वहाँ साफ़ कह दिया गया है ,’बिना काम के कोई पैसा नहीं मिलेगा’। इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था में महामारी हो या भुखमरी सारी मार मज़दूरों को ही झेलनी पड़ती है। लेकिन इस बीच घरेलू कामगारों ने अपनी यूनियन के नेतृत्व में सामुदायिक रसोई की शुरुआत की है। आम जनता से जुटाए सहयोग से चल रही इस सामुदायिक रसोई की बदौलत जहाँ सरकारी तंत्र के दावों की पोल ख़ुली है वहीं इसने जनता की अपनी पहलक़दमी भी खोलने का काम किया है। इस रसोई से हर दिन क़रीब 400 लोगों को खाना दिया जा रहा है। इसी बीच रसोई को आरएसएस और भाजपा के कुछ गुण्डों ने बन्द कराने की भी कोशिश की पर लोगों की एकजुटता के चलते वे असफल रहे।
वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र
वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में 75 हज़ार मज़दूर रहते हैं जो 1300 उत्पादन इकाइयों में 12-12 घण्टों की शिफ्टों में काम करते हैं। यहाँ की क़रीब 80 फीसदी आबादी झुग्गियों में रहती है। जिनके छोटे-छोटे कमरों में 4 से 5 मज़दूर या पूरा परिवार ही रहता है। मोदी की अपील के बावजूद यहाँ पर ज़्यादातर मज़दूरों को उनके काम से निकाला जा चुका है। साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि जितने दिन काम करोगे उतना ही वेतन मिलेगा।
मज़दूरों के कमरे रहने लायक नहीं और पुलिस उन्हें बाहर रहने नहीं दे रही है। विजय एक बर्तन फ़ैक्ट्री में स्टील की पत्तियों को तेज़ाब से धुलने का काम करते हैं। सुबह या शाम दोनों ही शिफ्टों में उन्हें 9 बजे से 9 बजे तक काम करना पड़ता था। जिसके बदले महीने में 7,000 रुपये मिलते थे। 1 अप्रैल को फ़ैक्ट्री मालिक ने हिसाब देते हुए कहा “मैं घर बैठा कर वेतन नहीं दूँगा, जितने दिन काम किये हो उतना ही पैसा मिलेगा”। विजय को वेतन में सरकार द्वारा निर्धारित की गयी न्यूनतम मज़दूरी का आधा भी नहीं मिलता। वह बताते हैं, “घर में अनाज सहित खाने-पीने की ज़रूरी वस्तुएँ खत्म हो चुकी हैं। खाने के लिए परिवार सामाजिक संगठनों पर निर्भर है। सरकार की तरफ़ से लाइन में लगने वालों को ही खाना बाँटा जाता है। पूरे परिवार के लिए लाइन में लगना सम्भव नहीं, जो मिलता है वह एक आदमी के लिए भी कम है।
लॉकडाउन के कारण 22 मार्च से फ़ैक्ट्रियों और कारख़ानों में उत्पादन नहीं हो रहा है। मज़दूरों का मार्च महीने का वेतन पहले से ही बकाया है। वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में प्रबन्धन पिछला बकाया देने के लिए भी मज़दूरों को दौड़ा रहा है। प्रेस चलाने वाले 50 वर्षीय अमरेश ने बताया, “प्रबन्धन ने कहा है जितने दिनों तक काम करोगे उतना ही पेमेंट मिलेगा।” वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में 30 मार्च से 1 अप्रैल के बीच बड़े पैमाने पर मज़दूरों को हिसाब देकर घर बैठने को कह दिया गया है। इस दौरान उन्हें 21 मार्च तक का ही भुगतान किया गया है। जब दो-दो सरकारों वाली राजधानी दिल्ली में ये हालात हैं तो दूसरे राज्यों के हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में लॉकडाउन लागू होने के बाद बड़ी संख्या में मज़दूरों को काम से निकाला गया है। कुछ को पैसा मिला जबकि कुछ अब भी फ़ैक्ट्रियों के चक्कर काट रहे हैं। यह लॉकडाउन का पैसा नहीं बल्कि पिछले महीने का बकाया पैसा था जिसका कई कम्पनी-मालिकों ने अभी तक भुगतान नहीं किया है। दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन की तरफ़ से मज़दूरों के बीच जन सहयोग से राशन बाँटने का काम जारी है और कई मज़दूरों के अस्थाई राशन कार्ड भी बनवाये गये हैं।
इस बीच दिल्ली सरकार द्वारा मज़दूरों को काम से निकालने या भुगतान न करने पर शिकायत हेतु जारी नम्बरों पर यूनियन की ओर से शिकायत की गयी परन्तु इस नम्बर पर कॉल उठाने वाले कर्मचारी लॅाकडाउन ख़त्म होने तक इन्तज़ार करने को कह रहे हैं जिसके बाद ही वे कार्यवाई करेंगे। यह भी मज़दूरों के साथ एक भद्दे मज़ाक के सिवा कुछ नहीं है।
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