कोरोना महामारी ने खोली पूँजीवादी चिकित्सा-व्यवस्था की पोल
आज मनुष्यता को समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था की ज़रूरत है
– आनन्द
चीन की एक दन्तकथा के अनुसार 2000 ईसापूर्व के आसपास वहाँ शासन कर रहे ‘पीत सम्राट’ के दरबारी वैद्य ने बीमारियों के इलाज के विषय में कहा था, “बीमारी फैलने के बाद दवा पर काम करना ठीक वैसा ही है जैसे प्यास लगने के बाद कुआँ खोदना या फिर युद्ध शुरू होने के बाद हथियार तैयार करना।” परन्तु चीन के इतिहास में 1949 में हुई नवजनवादी क्रान्ति के बाद के तीन दशकों तक का ही दौर ऐसा दौर कहा जा सकता है जब बीमारियों की रोकथाम पर उपरोक्त उक्ति के अनुरूप उचित ज़ोर दिया गया। आज जब पूरे विश्व में पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था कोरोना महामारी के सामने लाचार नज़र आ रही है तो माओकालीन चीन की क्रान्तिकारी समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठती है। यह अफ़सोस की बात है कि आज चीन अपनी उस क्रान्तिकारी विरासत से कोसों दूर जा चुका है, जिसके तमाम विनाशकारी दुष्परिणामों में एक यह भी है कि आज का चीन कोविड-19 की सही समय पर शिनाख़्त करके उसे क़ाबू में नहीं कर सका और उसे एक विश्वव्यापी महामारी में तब्दील होने से रोक नहीं सका।
बाज़ार समाजवाद के दौर में चीन के पूँजीवादी शासकों ने माओकालीन चीन में अन्य क्षेत्रों की ही तरह चिकित्सा के क्षेत्र में भी किये गये विलक्षण प्रयोगों को मिट्टी में मिलाते हुए चिकित्सा क्षेत्र और दवा उद्योग के बाज़ारीकरण को बढ़ावा दिया, परन्तु अब भी वहाँ चिकित्सा व्यवस्था का बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण में है और साथ ही समाजवादी अतीत की वजह से चीन के लोगों में अब भी स्वास्थ्य को लेकर सजगता की संस्कृति पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गयी है। इन वजहों से चीन देर से ही सही परन्तु कोविड-19 को वुहान शहर से बाहर फैलने से रोकने में सफल रहा। लेकिन इस बीच यह बीमारी दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल चुकी थी और तमाम विकसित पूँजीवादी देशों की चिकित्सा व्यवस्थाओं तक ने इस महामारी को रोकने में ख़ुद को अक्षम पाया। इस वैश्विक महामारी पर क़ाबू कर पाने में तमाम पूँजीवादी देशों की सरकारों की नीतियाँ और उनकी ओर से की गयी कोताही बेशक दोषी रहीं, परन्तु यह भी सच है कि पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था ऐसी महामारियों की रोकथाम करने में सक्षम ही नहीं है। इसलिए हमारे सवालों के घेरे में केवल सरकारें ही नहीं बल्कि यह समूची व्यवस्था होनी चाहिए।
कोरोना जैसी महामारी की रोकथाम करने में पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था इसलिए अक्षम है क्योंकि इसका मक़सद समाज को रोगमुक्त करना नहीं बल्कि रोगों के फैलने की परिस्थिति में मुनाफ़ा कमाने के अवसर तलाशना है। चाहे वह बीमारियों पर शोध का क्षेत्र हो या दवाइयों व अन्य चिकित्सा सामग्रियों (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट, टेस्टिंग किट, मास्क, ग्लव्स, वेण्टिलेटर, सर्जिकल व अन्य चिकित्सीय उपकरण आदि) का उत्पादन हो, या अस्पताल में रोगियों का इलाज करना हो, चाहे पैथोलॉजी का क्षेत्र हो या फिर स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र हो, पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के विकास के साथ ही साथ ये सभी विभिन्न क़िस्म के माल में तब्दील होते जाते हैं। पूँजीपतियों की नज़र इन मालों के उपयोग मूल्य पर नहीं बल्कि इनके विनिमय मूल्य पर गड़ी रहती है।
पिछले 4-5 दशक के दौरान पूँजीवादी विश्व में चिकित्सा के इस व्यवसाय में विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार अपने पाँव पसारती जा रही हैं। लोगों की विपत्तियों को भुनाकर मुनाफ़ा कमाने के इस गोरखधन्धे को ‘मेडिकल-इण्डस्ट्रियल कॉम्पलेक्स’ के नाम से भी जाना जाता है। विश्व साम्राज्यवाद के चौधरी अमेरिका में यह गोरखधन्धा अपने सबसे नंगे रूप में देखा जा सकता है जहाँ मुठ्ठीभर फ़ार्मा कम्पनियों, बीमा कम्पनियों और अस्पतालों की चेन ने समूची चिकित्सा व्यवस्था को अपने चंगुल में रखा हुआ है। लोगों की जानों से खेलने वाली इन कम्पनियों के शीर्ष पर जो लोग विराजमान होते हैं उनका चिकित्सा क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं होता, वे अन्य व्यवसायों की ही भाँति चिकित्सा को भी मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया समझते हुए अपनी योजनाएँ बनाते हैं। ब्रिटेन व यूरोप के कई देशों की बात करें तो अगर उन देशों में अब भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ अमेरिका की तुलना में बेहतर हैं तो इसकी वजह वहाँ के पूँजीपतियों की भलमनसाहत नहीं, बल्कि उन देशों में मज़दूर वर्ग के संघर्षों की विरासत रही है। हालाँकि नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के तीन से चार दशकों में वे देश भी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और बाज़ारीकरण की महामारी से अछूते नहीं रहे हैं और उन देशों में स्वास्थ्य बजट में लगातार कटौतियाँ की जाती रही हैं। इस वजह से इटली, स्पेन और इंग्लैण्ड जैसे देशों की चिकित्सा व्यवस्था को भी कोरोना महामारी पर क़ाबू पाने में अक्षम्य देरी हुई। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और बाज़ारीकरण की महामारी के सबसे ख़तरनाक नतीजे भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में देखने को आ रहे हैं जहाँ लूट के इस व्यवसाय के चंगुल में फँसकर हर साल लाखों लोग तबाह-बरबाद हो जाते हैं।
पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था में फ़ार्मा कम्पनियों की प्राथमिकता समाज की ज़रूरत के अनुसार रोगों से निजात पाने की नहीं बल्कि मुनाफ़े के आधार पर तय होती है। उनमें शोध पर आवंटित बजट में कटौती करके विज्ञापन, मार्केटिंग, पेटेण्ट की ख़रीद-फ़रोख़्त, दूसरी कम्पनियों के अधिग्रहण आदि पर ज़ोर आम बात है। जिन बीमारियों पर शोध होता भी है उनकी भी प्राथमिकता इस बात से तय होती है कि किस बीमारी की दवा बनाने में जल्दी और ज़्यादा मुनाफ़ा मिलेगा। अधिकांश फ़ार्मा कम्पिनयाँ फ़्लू, मलेरिया, इंसेफ़लाइटिस जैसी करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाली बीमारियों के लिए सस्ती और सर्वसुलभ एण्टीवायरल और एण्टीबॉयोटिक दवाओं की बजाय मोटापा कम करने, बुढ़ापा रोकने, पुंसत्व बढ़ाने और जीवनशैली से सम्बन्धित रोगों की दवाओं पर शोध करने में ज़्यादा संसाधन ख़र्च करती हैं क्योंकि इनमें मुनाफ़ा ज़्यादा होता है। 2003 में सार्स बीमारी के फैलने के बाद कुछ समय तक उसके टीके पर शोध शुरू हुआ था, परन्तु मुनाफ़ा कमाने का तात्कालिक मौक़ा न देख ये शोध भी ज़्यादा लम्बे समय तक नहीं टिक सके। जीवविज्ञान व चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हाल के वर्षों में हुई अभूतपूर्व तरक्की के आधार पर कई विशेषज्ञ यह दावा करते हैं कि सिद्धान्तत: फ्लू की सार्वभौमिक वैक्सीन मुमकिन है, परन्तु चूँकि फ़ार्मा कम्पनियों को उसमें ज़्यादा मुनाफ़े की सम्भावना नहीं दिखती है इसलिए ऐसी वैक्सीन अभी तक तैयार नहीं हो सकी है।
इसी तरह स्वास्थ्य बीमा के पूरे क्षेत्र में दैत्याकार बीमा कम्पनियों का दबदबा है जो लोगों के जीवन की असुरक्षा को भुनाकर और लोगों को विपत्ति का डर दिखाकर क़िस्म-क़िस्म के बीमा पॉलिसी रूपी माल बेचती हैं। अमेरिका के चिकित्सा जगत में तो इन बीमा कम्पनियों के वर्चस्व की वजह से वहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ ग़रीबों-मज़दूरों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी की पहुँच के बाहर हो चुकी हैं क्योंकि वे बीमा पॉलिसी ख़रीद नहीं सकते और दवा-इलाज का ख़र्च बेहद ज़्यादा है। जो लोग बीमा पॉलिसी लेते भी हैं उनमें से भी कई सही इलाज न मिलने पर मर जाते हैं क्योंकि बीमा कम्पनियाँ कोई दुर्घटना या बीमारी होने पर इलाज का ख़र्च उठाने से बचने के लिए तरह-तरह की तिकड़में करती हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि मुनाफ़े पर टिकी बीमा की यह प्रणाली लोगों की जेब पर डाका डालने का काम करती है, ना कि विपत्ति के समय लोगों को सम्बल देने का।
निजी अस्पतालों में दवा-इलाज के नाम पर बेहिसाब लूट पर टिकी पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था कोरोना जैसी महामारी के लिए बिल्कुल तैयार ही नहीं थी। अमेरिका जैसे समृद्ध देश की चिकित्सा व्यवस्था इस महामारी के आते ही धराशायी हो गयी। वहाँ निजी अस्पतालों की पूरी व्यवस्था पहले से ही घनघोर व्यावसायिकता के चंगुल में थी। नवउदारवाद के दौर में अस्पतालों में बेड की संख्या में लगातार गिरावट देखने में आयी। अस्पतालों पर यह दबाव रहता है कि उनके पास कुल बेड इतने ही होने चाहिए, कि किसी भी समय खाली बेड की संख्या कुल बेड के 10 फ़ीसदी से अधिक न हो। यही स्थिति मास्क, ग्लव्स, सैनिटाइज़र व चिकित्सीय उपकरणों की रहती है। डॉक्टरों, नर्सों, वार्ड ब्वाय आदि की भर्ती बिल्कुल किसी कम्पनी की तर्ज़ पर सीमित संख्या में करके उनसे ज़्यादा से ज़्यादा काम कराया जाता है और ज़रूरत न होने पर उनको नौकरी से निकाल बाहर किया जाता है। ज़ाहिरा तौर पर ऐसी व्यवस्था में अकस्मात आने वाली किसी महामारी के लिए तैयारी की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। ऐसे में यह ताज्जुब की बात नहीं है कि अमेरिका जैसे विकसित देश में जब कोविड-19 की बीमारी फैलनी शुरू हुई तब वहाँ के अस्पतालों में बेड, टेस्टिंग किट, मास्क, सैनिटाइज़र, पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट, वेण्टिलेटर आदि की भारी किल्लत हो गयी जिसकी वजह से कुछ ही हफ़्तों में कोरोना महामारी के केस और मरने वालों की संख्या वहाँ दुनिया में सबसे ज़्यादा हो गयी।
क्यों बेहतर है समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था
पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में निहित अराजकता और योजनाविहीनता का असर पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था की सीमा तय कर देता है। किसी प्राकृतिक आपदा या महामारी के आते ही इस व्यवस्था की सीमा जगज़ाहिर हो जाती है। पूँजीवादी ढाँचे के भीतर इस सीमा से पार पाने का कोई रास्ता नहीं होता। इसका एकमात्र रास्ता इस पूँजीवादी ढाँचे को तोड़कर समाजवादी व्यवस्था कायम करने से होकर जाता है। समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन की सामाजिक योजना के अहम हिस्से के रूप में चिकित्सा क्षेत्र का भी योजनाबद्ध विकास किया जाता है। समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था में मुनाफ़े की कोई जगह नहीं होती है और समाज में चिकित्सा शोध, दवा व चिकित्सा उपकरणों का उत्पादन, अस्पताल, नर्सिंग होम व पैथोलॉजी आदि का एकमात्र उद्देश्य समाज को बीमारियों से निजात दिलाकर एक स्वस्थ समाज बनाना होता है। समाज के योजनाबद्ध विकास में महामारियों की रोकथाम व उन पर नियंत्रण की योजना भी शामिल होती है।
जैसाकि सोवियत संघ (1956 तक) व चीन (1976 तक) के समाजवादी प्रयोगों में देखने में आया, समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था में स्वास्थ्य और साफ़-सफ़ाई के मुद्दे पर व्यापक जन-लामबन्दी की जाती है और चिकित्सा के क्षेत्र में जनता की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। सोवियत संघ में सोवियतों के स्तर पर और चीन में जनकम्यूनों व अन्य उत्पादक इकाइयों एवं स्कूल-कॉलेज के स्तर तक स्वास्थ्य सुविधाओं और साफ़-सफ़ाई की योजना बनायी जाती थी और लोगों की सक्रिय भागीदारी के ज़रिये योजनाओं को लागू किया जाता था। जनभागीदारी व योजनाबद्धता पर आधारित समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था की ही बदौलत न सिर्फ़ रूस में, जो 1917 की अक्टूबर क्रान्ति के पहले एक पिछड़ा पूँजीवाद देश था, बल्कि चीन में भी, जो 1949 की नवजनवादी क्रान्ति के पहले एक बेहद पिछड़ा अर्द्ध-सामन्ती व अर्द्ध-औपनिवेशिक देश था, महज़ कुछ वर्षों के भीतर तमाम जानलेवा बीमारियों पर क़ाबू पा लिया गया। माओकालीन चीन की चिकित्सा व्यवस्था कितनी कारगर थी इसका अन्दाज़ा इसी से लगया जा सकता है कि क्रान्ति से पहले वहाँ नवजात मृत्यु दर 1000 में 300 तक पहुँच चुकी थी जोकि 1970 के दशक तक आते-आते 40 से नीचे हो गयी जो अमेरिका जैसे विकसित देशों के समतुल्य थी।
इस सन्दर्भ में चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चिकित्सा के क्षेत्र में किये गये प्रयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस दौर में चिकित्सा व्यवस्था को महानगरों में स्थित बड़े अस्पतालों पर केन्द्रित करने की बजाय गाँवों और दूर-दराज़ के इलाक़ों तक ले जाया गया जहाँ चीन की अधिकांश आबादी रहती थी। इस दौरान माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने बीमारियों की रोकथाम पर विशेष ज़ोर देते हुए लोगों की सक्रिय भागीदारी पर विशेष ज़ोर दिया, हालाँकि इससे पहले भी 1950 के दशक में भी ‘देशभक्तिपूर्ण स्वास्थ्य अभियान’ जैसे अभियानों के तहत लोगों को स्वास्थ्य व स्वच्छता की मुहिम में शामिल किया गया था। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में गाँव-गाँव व दूरदराज़ के इलाक़ों तक स्वास्थ्य सुविधाओं को ले जाने वाले स्वास्थ्यकर्मियों की एक पूरी फ़ौज खड़ी की गयी थी जिसमें बड़ी संख्या में छात्रों-युवाओं और विशेष रूप से लड़कियों को शामिल किया गया था। ‘बेयरफुट यानी नंगे पाँव डॉक्टर’ कहे जाने वाले इन स्वास्थ्यकर्मियों को तीन से छह महीने का बुनियादी मेडिकल और पैरामेडिकल प्रशिक्षण दिया जाता था। ये स्वास्थ्यकर्मी उपचार से ज़्यादा रोकथाम पर ज़ोर देते थे। वे टीके लगाने, इम्यूनाइजे़शन करने, शिशु का जन्म कराने व अन्य प्राथमिक उपचार करने में प्रशिक्षित थे। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली व औषधियों के साथ ही साथ वे एक्युपंक्चर व मॉक्सीबशन जैसी चीन की पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली व औषधियों का प्रयोग करते थे। गम्भीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों को वे काउण्टी के अस्पताल में भेजते थे। 1970 के दशक में चीन के स्वास्थ्य कार्यक्रम को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी स्वीकार किया था और दुनिया के अन्य हिस्सों में इस तरह के स्वास्थ्य कार्यक्रम को बढ़ावा देने का अनुमोदन किया था।
चिकित्सा के क्षेत्र में सोवियत संघ और चीन में समाजवादी दौर में किये गये प्रयोगों के अतिरिक्त क्यूबा में किये गये प्रयोग का भी विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। क्यूबा के समाजवादी प्रयोग के तमाम भटकावों की वजह से उसे समाजवाद के मॉडल के रूप में तो पेश नहीं किया जा सकता परन्तु चिकित्सा के क्षेत्र में क्यूबा ने जो प्रगति की है उसको तमाम बुर्जुआ विश्लेषक भी स्वीकार करते हैं। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में आने वाली तमाम प्राकृतिक आपदाओं की ही तरह कोरोना महामारी के दौरान भी क्यूबा ने अपने डॉक्टरों को कई अन्य देशों में भेजा जो वहाँ की चिकित्सा व्यवस्था के उन्नत रूप को दिखाता है।
समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था कोरोना जैसी महामारियों से निजात पाने में सक्षम क्यों होगी यह कई स्तरों पर समझा जा सकता है। सबसे पहले तो समाजवादी चिकित्सा व्यवस्था में ऐसी महामारियों की रोकथाम के लिए एण्टीवायरस व एण्टीबैक्टीरियल दवाओं के शोध की राह में मुनाफ़े की बाधा नहीं होने की वजह से सही समय पर टीकों की खोज हो सकेगी। जब तक टीके की खोज नहीं होती तब तक पूरा चिकित्सा तंत्र कोरोना जैसे वायरस के संक्रमण होते ही उसे क़ाबू में करने के लिए सक्रिय हो जायेगा। अस्पतालों के बेड, टेस्टिंग किट व चिकित्सीय उपकरणों से लेकर मास्क, सैनिटाइज़र्स आदि के उत्पादन को प्राथमिकता दी जायेगी और मुनाफ़ाखोरी व जमाखोरी न होने की वजह से स्वास्थ्य सुविधाओं की किल्लत नहीं होगी और उनकी पहुँच हर नागरिक तक होगी। इस वजह से कोरोना जैसी महामारियों की आक्रामक टेस्टिंग, ट्रीटमेंट और क्वैरंटाइन करना भी आसान होगा जिससे यह महामारी अगर फैल भी जाये तो उसपर जल्द ही क़ाबू पाया जा सकेगा।
समाजवादी व्यवस्था के तहत ज़रूरत पड़ने पर ऐसी महामारियों के लिए विशेष अस्पताल महज़ कुछ दिनों में बनाना आसान होगा क्योंकि उत्पादन व चिकित्सा प्रणाली योजनाबद्ध होगी। उत्पादन मुनाफ़े की बजाय लोगों की ज़रूरतों पर टिका होने की वजह से समाजवादी राज्य के लिए यह सुनिश्चित करना आसान होगा कि महामारी की परिस्थिति में लोगों के भूखे मरने की नौबत न आये। यही नहीं संचार तंत्र पर समाजवादी राज्य का नियंत्रण होने और कम समय में जनता की व्यापक लामबन्दी कर पाने की क्षमता की वजह से ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जैसी रणनीति भी कारगर ढंग से लागू हो सकेगी और अन्धविश्वासों व अफ़वाहों पर भी आसानी से नकेल कसी जा सकेगी। चूँकि समाजवादी व्यवस्था लगातार वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देती है इसलिए पूरे समाज के लिए बीमारियों व महामारियों से लड़ना भी आसान हो जाता है।
कोरोना महामारी से पहले भी पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के पर्याप्त कारण थे। लेकिन इस महामारी ने यह दिन के उजाले की तरह साफ़ कर दिया है कि पूँजीवाद का एक-एक दिन मनुष्यता के अस्तित्व के लिए ख़तरा बनता जा रहा है। पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद की स्थापना की ज़रूरत आज पहले से कहीं ज़्यादा आसन्न हो गयी है।
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