इधर ग़रीबों-मज़दूरों की थाली से रोटियाँ ग़ायब,
उधर मोदी-गोदी मीडिया के नक़्शे से ग़रीबी ही ग़ायब!

– अनुपम

जुलाई 2019 में आयी विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 19 करोड़ 44 लाख लोग अल्पपोषित हैं, यानी देश के हर छठे व्यक्ति को मनुष्य के लिए ज़रूरी पोषण वाला भोजन नहीं मिलता। इसी तरह वैश्विक भूख सूचकांक 2019 के मुताबिक़ भूख और कुपोषण के मामले में भारत 117 देशों में 102वें स्थान पर है, जबकि श्रीलंका (66), बंगलादेश (88) और पाकिस्तान (94) भी हमसे ऊपर हैं। ख़ुद भारत सरकार के अनेक आँकड़े इन सच्चाइयों की पुष्टि करते हैं। पर यह सबकुछ जानते-समझते हुए हमारी सरकारें क्या कर रही हैं? हमारा यह “सबसे तेज़” मीडिया क्या कर रहा है? वे हज़ारों बच्चे जो सही पोषण के अभाव में रोज़ ही मर जाते हैं, उनके बारे में क्या ये मीडिया कुछ बताता है?

छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले राज्यों में गाँवों में ही नहीं, शहरी इलाक़ों में भी लोग दो वक़्त की रोटी के लिए तरस जाते हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं की तो बात ही दूर है। पिछले दो दशकों में अन्न उत्पादन के दोगुने हो जाने के बावजूद ये हालात हैं। फिर भी सरकारों, राजनीतिक दलों और गोदी मीडिया को यह सब दिखायी नहीं देता।

‘लाइवमिंट’ वेब पोर्टल ने पिछले 18 दिसम्बर को अपनी एक रिपोर्ट में बुन्देलखण्ड के तीन गाँवों में ग़रीबी और कुपोषण की जो स्थिति बयान की है उसमें देश की एक बड़ी आबादी के जीवन की झलक देखी जा सकती है। इस रिपोर्ट से कुछ दास्तानें हम यहाँ दे रहे हैं।

चित्रकूट ज़िले के दफाई गाँव की सीमा का परिवार चार लोगों का है। पर उसके घर में हालात ऐसे हैं कि वह न तो स्वयं ठीक से खा-पी पाती है और न ही अपने दो साल के बच्चे को खिला पाती है। उसका पति संजय ग्रेजुएट है पर गाँव में और आसपास दिहाड़ी मज़दूरी करता है। हाल के दिनों में उसे काम मिलना मुश्किल हो गया है। कभी-कभी वह दिन में 100 रुपये ही कमा पाता है। कभी वह भी नहीं मिलता। उसके दो साल के बच्चे को खाने के लिए नमक-रोटी से अधिक और कुछ नसीब नहीं। वह कहती है, “मेरी ज़िन्दगी पाँच रुपये के तेल और दो रुपये के मसाले का इन्तज़ाम करने में ही बीत जाती है।” अपने बच्चों को दूध पिला सके, इसके लिए वह ख़ुद अक्सर ही रात में भूखी रह जाती है। 2013 में बड़े तामझाम के साथ पारित हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत हर महीने 5 किलो अनाज सस्ती दर पर देने वाली योजना से भी सीमा का परिवार बाहर है। दफाई में 2016 के बाद से नये लोगों को शामिल करने के लिए कोई सर्वे नहीं हुआ है। नयी विवाहिता स्त्रियाँ और बच्चे इससे बाहर ही रह गये हैं जिससे अनेक परिवार भुखमरी के कगार पर पहुँच गये हैं।

16 साल की रजनी ने बताया कि उसके घर में रसोई गैस सिलेण्डर तो है, पर उसमें गैस नहीं है। उज्ज्वला योजना की यह सच्चाई गाँवों के बहुतेरे परिवारों में दिखाई देती है।

हीरे की खदानों के लिए मशहूर मध्यप्रदेश के पन्ना ज़िले में जामुनहेई गाँव की एक महिला गेंदाबाई के घर जब पत्रकार पहुँचा तो दोपहर के साढ़े तीन बजे वह 9 साल की अपनी बेटी के साथ दिन हल्दी और नमक डालकर पकाया भात खा रही थी। सुबह से उसने और कुछ नहीं खाया था। उसकी झोपड़ी में एक किलो चावल, थोड़ा गेहूँ, एक टमाटर, दो छोटे प्याज, कुछ हरी मिर्च और थोड़े से तेल के अलावा कुछ नहीं था। उसके बच्चों ने कभी दूध का स्वाद ही नहीं लिया था।

आपको ऐसी कई सारी बातें बुन्देलखण्ड में सुनने को मिल जायेंगी। एक अनुमान के अनुसार बुन्देलखण्ड की 70 प्रतिशत आबादी ग़रीबी में जीती है। इन हालात को सुधारने के लिए इन गाँवों में सरकारी नीतियों द्वारा क्या किया गया, इसका भी ज़िक्र रिपोर्ट में है।

दुनिया में बाँध बनाने के मामले में लम्बे-चौड़े रिकॉर्ड बनाने वाले देश में 1 करोड़ 80 लाख की आबादी वाले बुन्देलखण्ड की आम जनता अक्सर ही प्यासी रहती है। यहाँ की नदियाँ गर्मियों में सूखने लगती हैं। नहरों में पानी की कमी हो जाती है। इस थोड़े से पानी को गाँव-गाँव तक पहुँचाया जाये, इसके लिए भी कोई सुचारु व्यवस्था नहीं है। ऐसे में छोटे किसान सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर रहते हैं और बारिश नहीं होने पर उनकी फ़सल ख़राब हो जाती है। गर्मियों में नदियों के सूख जाने पर पानी के टैंक अगर आते हैं तो हफ़्तों और कभी-कभी महीनों बाद। ऐसे में सक्षम लोग तबाह खेती और पानी की कमी के कारण दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में काम करने के लिए चले जाते हैं। मगर बूढ़े और बाहर जाने में असमर्थ लोग वहीं दम तोड़ते रहते हैं।

विभिन्न दलों और सरकारों के बड़े-बड़े वादों-नारों के बावजूद बुन्देलखण्ड भूख से होने वाली मौतों का गढ़ बना हुआ है। सही पोषण के अभाव में बच्चों का मरना इन हुक्मरानों के लिए अब कोई नयी बात नहीं रह गयी है। वे इसे किसी आर्थिक आँकड़े की तरह ही गिनते हैं। 11,000 करोड़ की मिड डे मील योजना का 2019 का लेखा-जोखा देते हुए मानव संसाधन मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि मिड डे मील खाकर पिछले तीन सालों में 930 बच्चे बीमार हो चुके हैं। इन सभी बच्चों ने कोई लीची नहीं खायी थी बल्कि सरकारी स्कूलों में बाँटा गया वही खाना खाया था जिसके भरोसे कुपोषण से जंग लड़ने की बात अक्सर की जाती है। मीडिया के माध्यम से यह प्रचार किया जाता है कि बच्चों को पोषण वाला खाना मिलता है पर सच तो यह है कि इसी मिड डे मील में कभी छिपकली मिलती है तो कभी मरा हुआ चूहा। इसी वर्ष सितम्बर माह में एक पत्रकार ने मिर्ज़ापुर के एक सरकारी स्कूल में नमक-रोटी परोसने का वीडियो बनाकर इस ‘अच्छे खाने’ का खुलासा किया कि तो उल्टे उसी पर झूठे आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया गया। इसके एक ही महीने बाद सोनभद्र ज़िले में एक लीटर दूध में एक बाल्टी पानी मिलाकर बच्चों को देने का मामला सामने आया। इस पर भी लीपापोती करने की कोशिश की गयी।

बुन्देलखण्ड में ग़रीब भूमिहीन किसानों के बच्चे तो शायद ही कभी स्कूल का मुँह देख पाते हैं। अधिकतर को तो बेहद कम उम्र से ही ज़िन्दगीभर खटने का सबक़ पढ़ा दिया जाता है। खाते-पीते किसान उन्हें अपने यहाँ गेहूँ की फ़सल पकने पर उसकी रखवाली के लिए रख लेता है और पाँच महीने तक 24 घण्टे, सातों दिन की इस रखवाली के बदले उन्हें 200 किलो गेहूँ या लगभग 4000 रुपये मिलते हैं, यानी लगभग 27 रुपये प्रतिदिन।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज अपनी आख़िरी साँसें गिन रही है। आधार कार्ड लागू होने के बाद बहुत से लोगों को बिना राशन लिये लौटना पड़ रहा है। मिंट की रिपोर्ट के अनुसार, आम लोगों की उँगलियों की छाप का मुश्किल से ही मिलान हो पाता है क्योंकि कठिन मेहनत के कारण उनकी उँगलियाँ घिसी हुई होती हैं। अगर उनकी तरफ़ से सबकुछ ठीक होता है तो इण्टरनेट की धीमी गति या फिर बिजली चले जाने से उनकी पहचान नहीं हो पाती।

बुन्देलखण्ड के गाँवों में मनरेगा के तहत भी काम मिलना बहुत मुश्किल है। और इसके बाद भी मज़दूरी मिलेगी या नहीं, इसकी कोई गारण्टी नहीं है। कई कार्डधारकों के कार्ड पूरे ही ख़ाली दिखायी दिये हैं। पूरे देश में वित्तीय वर्ष 2019-20 में अप्रैल से दिसम्बर के बीच मनरेगा के तहत मिलने वाले रोज़गार में करीब एक-तिहाई की कमी आयी है।

यह ऐसा दौर है जब देश में पिछले 45 सालों में सबसे अधिक बेरोज़गारी है। रोज़गार में दिन-ब-दिन आती कमी और बढ़ती महँगाई के चलते पूरे देश में ही 2011-12 और 2017-18 के बीच ग्रामीण ग़रीबी में 4 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार इसी दौरान ग्रामीण क्षेत्रों के कुल उपभोग में 9 प्रतिशत की कमी आयी जो कि आज़ादी के बाद से पहली बार हुआ है। पर लोगों का ध्यान ग़रीबी, महँगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर न जाये, इसके लिए जाति-धर्म और नागरिकता के मुद्दे को आगे कर दिया गया है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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