“न्यू इण्डिया” में बच्चों का घिनौना कारोबार
– लालचन्द्र
हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। लेकिन ऐसे जुमलों की असलियत तब सामने आ जाती है जब ग़रीबों के बच्चे गोरखपुर और मुज़फ़्फ़रपुर से लेकर कोटा तक के अस्पतलों में बिना इलाज के दम तोड़ देते हैं। भारत को महाशक्ति बनाने के दावों को मुँह चिढ़ाते हुए करोड़ों बच्चे होटलों में प्लेट धोने से लेकर कारख़ानों में जानलेवा काम तक कर रहे हैं और सड़कों पर भीख माँग रहे हैं। यौन शोषण के शिकार हो रहे हैं। इस नंगी सच्चाई को सभी जानते हैं। पर कभी-कभी ऐसी दिल दहला देने वाली ख़बरें सामने आती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद कोई भी संवेदनशील इन्सान यह सोचने लगेगा कि बच्चों की दुश्मन इस व्यवस्था को जल्द से जल्द नष्ट कर देना चाहिए!
पिछली 21 दिसम्बर को बच्चों की तस्करी का एक बड़ा खुलासा ‘दैनिक भास्कर’ अख़बार ने प्रकाशित किया। अख़बार के अनुसार गुजरात से सटे राजस्थान के तीन ज़िलों, उदयपुर, डूँगरपुर और बाँसवाड़ा के 127 गाँवों में बच्चे बिक रहे हैं – उम्र 5 से 16 साल, कीमत 50 रुपये से 150 रुपये रोज़ाना। जो चाहे काम कराओ, जहाँ चाहे ले जाओ। इसमें बच्चियाँ भी शामिल हैं। कई बच्चे अपाहिज होकर लौटे हैं, तो कई बच्चे कफ़न में घरों को लौटे। रिपोर्टर द्वारा किये गये स्टिंग में दलालों ने बताया कि कुल 300 दलाल बच्चों को गुजरात ले जाते हैं। (जी हाँ, उसी गुजरात में जिसके तथाकथित विकास का शोर मचाकर नरेन्द्र मोदी ने 2014 में लोगों को फुसलाया था) इसके लिए गुजरात की 500 से ज़्यादा जीपें तीनों ज़िलों में दौड़ती हैं। जीप मालिक को प्रति बच्चा 50 रुपये मिलता है, जिसमें से वह 500 रुपये रोज़ाना पुलिस को देता है। तीनों ज़िलों से रोज़ाना 20 हज़ार से ज़्यादा बच्चों और महिलाओं की तस्करी गुजरात के लिए होती है।
इस प्रकरण में पुलिस से लेकर बाल संरक्षण आयोग का चेहरा भी बेनक़ाब हो गया है। पत्रकारों ने जब इन घटनाओं के बारे में बताया और 20 बच्चों को पुलिस को सौंपा तो पुलिस दिनभर बच्चों से सवाल करती रही। दिनभर से भूखे बच्चों को थाने में बिठाये रखा। बाल संरक्षण आयोग को सूचित करने के बावजूद देर रात तक कोई सुध लेने नहीं आया। पुलिस ने एक भी दलाल को गिरफ़्तार नहीं किया। उल्टा पत्रकारों व एक एनजीओ के कार्यकर्ता को धमकाया।
राजस्थान का अलवर ज़िला भी बच्चों की मण्डी जैसा ही है। यहाँ पर छोटी-छोटी बच्चियों को हार्मोन का इंजेक्शन दिया जाता है जिससे वे छोटी उम्र में ही बड़ी दिखने लगती हैं। फिर उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। यह सब पुलिस की नाक के नीचे और उन्हीं की शह पर होता है।
राजस्थान के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश में भी मानव तस्करी धड़ल्ले से जारी है। मानव तस्करी के मामले में भारत दुनिया के चोटी के देशों में शामिल है। किसी एक राज्य की सीमा के अन्दर तथा एक से दूसरे राज्य में मानव तस्करी के अलावा नेपाल व बंगलादेश से अन्तरराष्ट्रीय मानव तस्करी भी भारत में होती है। भारत से खाड़ी के देशों, अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में भी मानव तस्करी होती है। दुनियाभर में मानव तस्करी के पीड़ितों में एक-तिहाई बच्चे होते हैं।
आँकड़ों की बात करें तो 2017 में मानव तस्करी में राजस्थान पहले नम्बर पर था। बाल श्रम के मामले में यह तीसरे स्थान पर है। यहाँ सरकारी तौर पर 8.5 लाख बाल श्रमिक हैं। वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। मगर राजस्थान ही वह राज्य है जो श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने में सबसे आगे रहा है। अब मालिकों को श्रम विभाग आदि की जाँच का रहा-सहा डर भी दूर हो चुका है। ऊपर से, 2017 के बाद नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने आँकड़े प्रकाशित करना ही बन्द कर दिया है क्योंकि मोदी सरकार का मंत्र है कि जो आँकड़े उसके ख़िलाफ़ हैं उन्हें जारी ही मत करो, चाहे वह बेरोज़गारी के हों, आर्थिक विकास के या फिर अपराध के।
एनसीआरबी के पिछले आँकड़ों से पता चलता है कि मानव तस्करी में बच्चों-महिलाओं की तिजारत कितने बड़े पैमाने पर जारी है। वर्ष 2015 में 15,379 पीड़ितों में से 9034 की उम्र 18 वर्ष से कम थी। 2016 में यह संख्या बढ़कर 14,183 हो गयी। 2016 में मानव तस्करी से जुड़े 8137 मामलों में से 7670 से अधिक मामलों में मक़सद यौन शोषण एवं वेश्यावृत्ति था, 162 मामले चाइल्ड पोर्नोग्राफ़ी (बच्चों के अश्लील फ़ोटो और वीडियो बनाने) के थे। ये तो वे आँकड़े हैं जो रिपोर्ट में दर्ज हुए हैं। बहुत बड़ी संख्या ऐसे मामलों की होती है जिनकी रिपोर्ट ही नहीं होती। ग़रीब परिवारों को थानों तक पहुँचने नहीं दिया जाता। पहुँच भी गये तो थानों से रिपोर्ट लिखे बग़ैर भगा दिया जाता है। कुछ वर्ष पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में यह बात सामने आयी थी कि देश की राजधानी दिल्ली में 7000 बच्चे हर साल ग़ायब हो जाते हैं। हालाँकि विभिन्न संस्थानों का दावा है कि वास्तविक आँकड़े इससे कई गुना ज़्यादा हो सकते हैं, क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायतें लेकर पुलिस के पास जाते नहीं हैं, या फिर पुलिस बहुत से मामलों में गुमशुदगी की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करती है।
भारत सरकार ने मानव तस्करी को रोकने के लिए जो क़ानून बनाया है, उसमें ज़बरिया श्रम को शामिल नहीं किया गया है जबकि बड़े पैमाने पर लोगों की तस्करी उनसे ज़बरन काम कराने के लिए की जाती है। गुजरात की जिस घटना का अभी पर्दाफ़ाश हुआ है, वह तो हमारे समाज की बर्बर सच्चाई का महज़ एक छोटा-सा हिस्सा है। कारख़ानों, होटलों, ईंट भट्ठों, घरों, दफ़्तरों में बेहद सस्ती दरों पर काम कराने के लिए बच्चों, औरतों और बहुत सी जगहों पर पूरे के पूरे परिवारों को झाँसा देकर उनके गाँवों से ले आया जाता है। भारत में सबसे ज़्यादा मानव तस्करी जबरिया श्रम कराने के लिए होती है। इतना ही नहीं, पीड़ितों के लिए जो आश्रय गृह सरकार द्वारा चलाये जाते हैं वहाँ पर भी जबरिया काम, वेश्यावृत्ति, यौन शोषण के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। मुज़फ़्फ़रपुर व देवरिया के आश्रय गृहों में बच्चियों के साथ होने वाली हैवानियत की ख़बरें मीडिया से ज़रूर ग़ायब हो गयी हैं, लेकिन कोई भी संवेदनशील इन्सान उन्हें भूल नहीं सकता।
बिगुल मज़दूर दस्ता व नौजवान भारत सभा ने मई 2008 में राष्ट्रीय राजधानी में ग़ायब होते ग़रीबों के बच्चों और इस मामले में पुलिस प्रशासन द्वारा पूर्वाग्रहों से काम करने का सवाल उठाते हुए एक अभियान चलाया था। ग़ाज़ियाबाद, नोएडा और दिल्ली में ग़ायब हो रहे बच्चों और पुलिस की भूमिका पर ‘गुमशुदा बचपन’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी की गयी थी। इसके बाद कई मीडिया संस्थानों व अन्य संस्थाओं का ध्यान इधर गया था लेकिन पुलिस या सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई। दिल्ली हाईकोर्ट में यह मामला उठाये जाने के बाद कई दिशानिर्देश भी जारी किये गये। निठारी की घटना के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों ने एक विशेष जाँच समिति भी गठित की थी जिसने बच्चों के ग़ायब होने के सम्बन्ध में कई सिफ़ारिशें भी की थीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सम्बन्ध में दिशा-निर्देश जारी किये थे। लेकिन ज़्यादातर मामलों में किसी आदेश का पालन नहीं किया जाता है। चूँकि ये ग़रीब मज़दूरों के बच्चे हैं इसलिए इन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। दूसरी ओर, नोएडा में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ का बच्चा खो जाने पर पूरा प्रशासन व मीडिया उसे खोजने में लग जाता है।
हमें इस बारे में किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि किसी अदालती आदेश या प्रशासनिक क़दम से ही यह समस्या हल हो जायेगी। औरतों, बच्चों आदि को पूँजीवादी समाज के राक्षस से बचाने के लिए क़दम-क़दम पर लड़ते हुए हमें यह याद रखना होगा कि इस नरभक्षी व्यवस्था को तबाह किये बिना इन्सान द्वारा इन्सान का शोषण और लूट समाप्त नहीं होगी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020
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