वर्ष 2019 : दुनियाभर में व्यवस्था-विरोधी व्यापक जनान्दोलनों का वर्ष
– आनन्द सिंह
पिछले कुछ वर्षों से दुनियाभर में लुटेरे और उत्पीड़क शासकों के विरुद्ध जनता सड़कों पर उतर रहे हैं। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का संकट गहराते जाने के साथ ही जहाँ एक ओर दुनिया के अनेक मुल्क़ों में फ़ासिस्ट या अर्द्धफ़ासिस्ट क़िस्म की ताक़तें मज़बूत हो रही हैं, वहीं लोगों के अधिकरों पर हमला करने वाले सत्ताधारियों को उग्र जनसंघर्षों का भी सामना करना पड़ रहा है।
वर्ष 2019 में तो शायद ही कोई दिन रहा हो जब दुनिया के पाँचों महाद्वीपों के अनेक देशों में बड़ी तादाद में लोग सड़कों पर न उतरे हों। ये जनान्दोलन इतने व्यापक थे कि तमाम प्रतिष्ठित बुर्जुआ मीडिया घराने और थिंकटैंक भी 2019 को “वैश्विक विद्रोह का वर्ष” घोषित कर रहे हैं। उनके ऐसा करने के पीछे असली मक़सद शासक वर्ग को यह चेतावनी देना है कि जनता जाग रही है, सँभल जाओ और इससे निपटने की तैयारी करो। लेकिन मज़दूर वर्ग के नज़रिये से देखें तो विश्व पूँजीवाद को कमज़ोर करने में इन जनान्दोलनों का महत्व कम नहीं है।
इस साल हांगकांग, इराक़, ईरान, लेबनान, मिस्र, चिले, सूडान, इक्वाडोर, अल्जीरिया, आस्ट्रेलिया और फ़्रांस आदि की सड़कों पर विशाल जनसैलाब उमड़ पड़ा। इन आन्दोलनों की तात्कालिक वजहें भले ही अलग-अलग रही हों, लेकिन इन्हें विश्व-पूँजीवाद के संकट से काटकर नहीं देखा जा सकता।
हांगकांग की सड़कों पर लाखों की तादाद में उमड़े जनसैलाब की तात्कालिक वजह विवादास्पद सुपुर्दगी क़ानून था जिसके तहत हांगकांग में होने वाले किसी भी अपराध के अभियुक्त को चीन को सुपुर्द किया जा सकता था और उस पर चीन की कुख्यात अदालतों में मुक़दमा चलाया जा सकता था जहाँ 90 प्रतिशत मामलों में अभियुक्त को दोषी ठहराकर सज़ा दे दी जाती है। हांगकांग के लोगों को यह अपने शहर के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप लगा और उसके ख़िलाफ़ जनता सड़कों पर उतर पड़ी। इस आन्दोलन में बड़ी संख्या युवाओं और किशोरों की थी। शहर की ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर भी लाखों लोग सड़कों पर उतरे। इस जनान्दोलन को बर्बरतापूर्वक पुलिसिया दमन से कुचल देने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं और आन्दोलनकारियों ने पुलिस की आँखों में धूल झोंकने के नये-नये तरीक़े भी आज़माये। हाँलाकि इस आक्रोश की आग पर ठण्डे पानी के छींटे डालने के लिए हांगकांग के प्रशासन ने विवादास्पद सुपुर्दगी क़ानून वापस ले लिया, लेकिन उसके बाद भी यह जनान्दोलन थमा नहीं, बल्कि उसने और व्यापक रूप अख़्तियार कर लिया। बाद में प्रदर्शनकारी पुलिस के बर्बर दमन और हांगकांग में चीन के बढ़ते प्रभाव के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने लगे। ग़ौरतलब है कि इन प्रदर्शनों में इतने बड़े पैमाने पर जनभागीदारी को हांगकांग में चल रहे आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में रखकर ही समझा जा सकता है। दुनियाभर में आर्थिक असमानता वाले शहरों में हांगकांग सबसे ऊपर के पायदानों पर है। दुनिया के सबसे महँगे शहरों में भी हांगकांग की गिनती होती है। वहाँ सिर्फ़ ग़रीब ही नहीं बल्कि औसत मध्यवर्ग के लोग भी बड़ी मुश्किल से इन हालात को झेल रहे हैं। ऐसे में चीन का हस्तक्षेप उनके ज़ख़्म में नमक डालने का काम करता है। दोहराने की ज़रूरत नहीं कि चीन के नकली कम्युनिस्ट शासकों ने दुनिया की सबसे दमनकारी राज्य मशीनरी का निर्माण किया है। ख़ुद चीन के भीतर भी मज़दूर हड़तालों का सिलसिला जारी रहा लेकिन बुरी तरह नियंत्रित मीडिया के चलते उनकी कम ही ख़बरें बाहर आ पायीं।
लेबनान की सड़कों पर भी इस साल विराट जनसैलाब देखने को आया। वहाँ की सरकार द्वारा व्हाट्सऐप के इस्तेमाल पर लगाये गये भारी कर के बाद उमड़े इस जनान्दोलन ने देखते ही देखते आर्थिक तंगी और संकट के ख़िलाफ़ जनविद्रोह का रूप ले लिया। आन्दोलन के कुछ दिनों में क़रीब 13 लाख लोग यानी वहाँ की कुल आबादी के 20 फ़ीसदी लोग सड़कों पर उतरे। 2005 की ‘देवदार क्रान्ति’ के बाद पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोग बेरूत और त्रिपोली की सड़कों पर उतरे। लेबनान की भी अर्थव्यवस्था ढहने की कगार पर है। वहाँ का राष्ट्रीय क़र्ज़ जीडीपी का 150 फ़ीसदी से भी ज़्यादा पहुँच चुका है और वहाँ की मुद्रा का लगातार अवमूल्यन होता जा रहा है। महँगाई और बेरोज़गारी चरम पर है।
इसी प्रकार चिले में भी राजधानी सैंटियागो के मेट्रो रेल के टिकट के किराये में बढ़ोत्तरी के विरोध में शुरू हुए छात्रों-युवाओं के आन्दोलन ने जल्द ही एक व्यवस्था-विरोधी व्यापक रूप ले लिया। इस आन्दोलन के निशाने पर भी अर्थव्यवस्था का संकट, मज़दूरी में कटौती, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, लचर सार्वजनिक सुविधाएँ जैसे मुद्दे थे। इसकी व्यापकता का अन्दाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चिले की दक्षिणपन्थी सरकार को उसको कुचलने के लिए हज़ारों फ़ौजियों को सैंटियागो की सड़कों पर उतारना पड़ा। लेकिन उससे आन्दोलन और व्यापक हो गया। अन्ततः वहाँ की सरकार को घुटने टेकने पड़े।
फ़्रांस में तेल के दामों में बढ़ोत्तरी के विरुद्ध ‘पीली कुर्ती वालों’ का जो आन्दोलन इस वर्ष के मध्य में भड़का था वह सरकारी दमन और छोटी-मोटी रियायतें देकर शान्त करने के प्रयासों के बावजूद ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा। यह वर्ष ख़त्म होने तक फ़्रांस में जारी आम हड़ताल अपने 29वें दिन में प्रवेश कर गयी थी जो 51 वर्षों का रिकॉर्ड है।
पिछले साल इराक़, इरान, स्पेन, अल्जीरिया, सूडान में भी ज़बर्दस्त आन्दोलन देखने में आये और उनके बर्बर रक्तपातपूर्ण दमन में सैकड़ों लोगों की जान चली गयी। यह बात सच है कि उपरोक्त आन्दोलनों के भड़कने के तात्कालिक कारण अलग-अलग देशों में अलग-अलग रहे हैं। लेकिन इनमें एक चीज़ साझा है कि वे सभी पूँजीवादी संकट और दमनकारी पूँजीवादी राज्यसत्ता के विरुद्ध जनविद्रोह की अभिव्यक्तियाँ हैं। इतिहास में अक्सर ऐसा देखने में आया है कि सामाजिक-आर्थिक संकट के परिवेश में एक मामूली-सी लगने वाली घटना भी एक बड़े आन्दोलन के शुरू होने का कारण बन सकती है।
भूमण्डलीकरण के युग में आज पूँजीवाद सच्चे अर्थों में एक वैश्विक उत्पादन प्रणाली का रूप अख़्तियार कर चुका है। ऐसे में पूँजीवाद का संकट भी भूमण्डलीकृत होकर पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रहा है। विश्व पूँजीवाद 2007-08 से जिस संकट के भँवर में फँसा हुआ है उससे अभी तक बाहर नहीं निकल पाया है। मुनाफ़े की गिरती दर के इस संकट का असर समूची दुनिया में मन्दी, छँटनी, बेरोज़गारी, महँगाई के रूप में दिखाई दे रहा है। उत्पादक शक्तियों के विकास की अलग-अलग मंज़िलों में होने और अलग-अलग इतिहास होने के कारण संकट का असर भी अलग-अलग-देशों में अलग-अलग है। लेकिन भूमण्डलीकरण के युग में न सिर्फ़ संकट सार्वभौमिक हो रहा है बल्कि वैश्विक स्तर पर सूचनाओं और विरोध के तौर-तरीक़ों का भी आदान-प्रदान अभूतपूर्व रूप से हो रहा है। दुनिया के मज़दूरो, एक हो का मार्क्स का उद्घोष आज वास्तव में साकार होने की परिस्थितियाँ तैयार हो चुकी हैं।
ये सभी विरोध प्रदर्शन आम तौर पर पूँजीवाद के विरुद्ध होते हुए भी उनमें स्वतःस्फूर्तता का पहलू बहुत अधिक है। संगठनबद्धता, सुसंगत विचारधारा और नेतृत्व का अभाव इन आन्दोलनों में साफ़ दिखाई देता है। इस वजह से इनमें जनता की भारी भागीदारी के बावजूद शासक वर्ग के लिए इस भीड़ को क़ाबू में करना अक्सर आसान हो जाता है। जब दमन से बात नहीं बनती तो शासक वर्ग कूटनीतिक पैंतरा फेंककर आन्दोलनकारियों की कुछ तात्कालिक माँगों को मान लेते हैं और किसी दीर्घकालिक रणनीति के अभाव में ये आन्दोलन समय के साथ क्षीण हो जाते हैं। या फिर आन्दोलन के दबाव में सरकारें बदल जाती हैं और लुटेरे-उत्पीड़क शासकों का कोई दूसरा गुट सत्ता में आ जाता है। जैसाकि 2011 के ‘अरब विद्रोह’ के समय मिस्र सहित कई देशों में हुआ। सरकारें बदल गयीं लेकिन व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। संगठन, विचारधारा और नेतृत्व के अभाव में ये विद्रोह क्रान्ति की दिशा में नहीं बढ़ सकते हैं। वे वैकल्पिक व्यवस्था नहीं निर्मित कर सकते हैं क्योंकि उनके पास विकल्प का कोई ख़ाका नहीं है। मेहनतकश वर्ग के क्रान्तिकारी प्रतिनिधि भी आज दुनिया में बिखराव और कई तरह के वैचारिक भटकावों से जूझ रह हैं। उन्हें अपने बीच भी वैचारिक स्पष्टता लानी होगी, पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के काम करने के तरीक़ों को समझकर क्रान्ति की ओर बढ़ने की सही रणनीति और रणकौशल विकसित करने होंगे। तभी वे ऐसे आन्दोलनों के साथ एकजुटता ज़ाहिर करने के साथ ही पूँजीवाद-साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने तथा समाजवादी व्यवस्था के निर्माण हेतु जनक्रान्ति के लिए लोगों को तैयार कर सकेंगे।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020
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