पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में गिरावट रोकने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाती मोदी सरकार

पराग वर्मा

कांग्रेस, भाजपा और तमाम संसदीय पार्टियाँ पूँजीपतियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं और पूँजीपतियों के फ़ायदे के लिए नीतियाँ बनाने का काम करती आयी हैं। पूँजीपतियों के हित में ही कांग्रेस ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियाँ लागू कीं और भाजपा ने उन्हीं नीतियों को ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाया। जिस समय देश में चुनावी माहौल गर्म था, उसी समय अर्थव्यवस्था की खस्ताहाल स्थिति की भी तमाम ख़बरें आ रही थीं। यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के एक सदस्य ने अर्थव्यवस्था में चल रहे गतिरोध पर गहरी चिन्ता जताते हुए उसके भविष्य को लेकर निराशाजनक बातें कहीं। दरअसल भारत की अर्थव्यवस्था भी मुनाफ़े की गिरती दर के संकट के भँवर में बुरी तरह फँस चुकी है। इस पूँजीवादी संकट से निजात पाने के लिए पूँजीपति वर्ग के तमाम कलमघसीट नयी-नयी तरक़ीबें सुझा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के दूसरी बार चुनाव जीतने के कुछ ही दिनों बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने एक साक्षात्कार में ये घोषणा कर दी है कि आने वाले सौ दिनों में बड़े-बड़े आर्थिक सुधारों के क़दम सरकार द्वारा उठाये जायेंगे। इन सभी आर्थिक सुधारों की प्रमुख दिशा होगी विदेशी निवेशकों को ज़्यादा से ज़्यादा निवेश भारत में करने के लिए आकर्षित करना। ज़ाहिर सी बात है विदेशी निवेशक हों या भारतीय पूँजीपति, सभी निवेश करने में इच्छुक तभी होंगे जब उन्हें यहाँ पहले से अधिक मुनाफ़ा दिखायी पड़ेगा। पूँजीपतियों के मुनाफ़े का प्रमुख स्त्रोत होता है मज़दूर के श्रम पर डाका।

इसी को ध्यान में रखते हुए नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने जिन तीन प्रमुख आर्थिक सुधारों की घोषणा की है वो कुछ वे कुछ इस प्रकार हैं – “श्रम क़ानूनों में सुधार किया जायेगा। पुराने जटिल क़ानूनों को आसान करने के इरादे से 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों की जगह चार श्रम संहिताओं में श्रम क़ानूनों को समेटा जायेगा”, “सरकार और सरकारी उपक्रमों द्वारा जो ज़मीन उपयोग में नहीं लायी जा रही है उसको एक संयुक्त स्टॉक के रूप में दर्ज किया जायेगा और एक लैण्ड बैंक स्थापित किया जायेगा, जिससे इस लैण्ड बैंक से पूँजीपतियों को आसानी से ज़मीन बाँटी जा सके”, “लगभग 42 सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों का निजीकरण किया जायेगा और रक्षा और रेलवे जैसे क्षेत्रों में भी अब निजी कम्पनियों को हिस्सेदारी दी जायेगी”।

आइए देखते हैं कि इन घोषणाओं का भविष्य के दिनों में नीतियों के रूप में लागू होने पर मायने क्या हैं। पहली सुधार की घोषणा श्रम क़ानूनों से सम्बन्धित है। संगठित औद्योगिक मज़दूरों ने वर्षों से लगातार संघर्ष चलाते हुए सरकारों को मजबूर किया कि वह उद्योगपतियों द्वारा किये जा रहे शोषण या सम्भावित अतिशोषण से बचने हेतु कुछ क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करे और इसी आधार पर श्रम क़ानून बने जो कुछ हद तक मज़दूरों को सुरक्षा प्रदान करते थे। पर अब यही श्रम क़ानून पूँजीपतियों के बेहिसाब मुनाफ़े में बाधा बन रहे हैं और इसलिए पूँजीपतियों द्वारा समर्थित सरकार इस कोशिश में लगी है कि इन श्रम क़ानूनों को थोड़ा ढीला कर दिया जाये जिससे पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा कमाना आसान हो जाये। “विदेशी निवेश बढ़ाने” और “ईस ऑफ़ डूइंग बिज़नेस” जैसे विकास के जुमलों के अन्तर्गत किये जाने वाले श्रम क़ानून सुधारों का मतलब है पहले से स्थापित श्रम क़ानूनों को और कमज़ोर कर देना। मोदी सरकार 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों का 4 श्रम संहिताओं में विलय करेगी। इस विषय में विस्तृत जानकारी ‘मज़दूर बिगुल’ के इसी अंक में एक अलग लेख में दी गयी है।

दूसरा आर्थिक सुधार जिसकी चर्चा नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने की वह विदेशी निवेशकों को ‘लैण्ड बैंक’ के ज़रिये आसानी से ज़मीन मुहैया कराने की है। सार्वजनिक उपक्रमों से लेकर ये ज़मीन क्लस्टर्स के रूप बहुत कम क़ीमतों पर विदेशी पूँजीपतियों को दी जायेगी। विदेशी कम्पनियों ने पिछले सालों में जिन ज़मीनों का इस्तेमाल किया उनमें से ज़्यादातर कृषि भूमि या फिर जंगल की ज़मीन थी। कृषि भूमि या जंगल की ज़मीन को उद्योगपतियों को देने से वहाँ की स्थानीय आबादी को बेदख़ल करना पड़ता है और उन्हें उनके पारम्परिक व्यवसाय से दूर करना पड़ता है जिसका आम जनता विरोध करती है । हालाँकि सरकार का दमनतन्त्र इन छुटपुट विरोधों का गला बड़ी आसानी से ही घोंट देता है, परन्तु पूँजीपति वर्ग तो यह चाहता है कि नीतियों द्वारा ऐसी व्यवस्था बने जिससे प्राकृतिक सम्पदा पर पूँजीपतियों का अधिकार भी हो जाये और जनता का कोई विरोध भी ना झेलना पड़े। उद्योग लगाने पर होने वाली पर्यावरण की हानि को लेकर भी विदेशी कम्पनियों को क़ानूनी तौर पर पर्यावरणविद द्वारा चुनौतियाँ मिलती हैं। पर यदि औने-पौने दाम में ऐसी ज़मीनें विदेशी कम्पनि‍यों को मिल जायें जो पहले से ही सरकारी सार्वजनिक संस्थाओं के मालिकाने के अन्तर्गत आती हैं तो मालिकाना सम्बन्धी और पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनी दाँवपेंच से भी पूँजीपति वर्ग आसानी से बच जायेगा और बेलगाम प्राकृतिक सम्पदा का दोहन कर सकेगा।

तीसरे आर्थिक सुधार के रूप में नीति आयोग के राजीव कुमार ने बताया कि बीमार चल रहे सरकारी उपक्रमों की लिस्टिंग हो रही है और उनमें से 42 से ज़्यादा सरकारी उपक्रमों का या तो निजीकरण किया जायेगा या उन्हें बन्द कर दिया जायेगा। 24 उपक्रमों को तो बहुत जल्दी ही निजी हाथों में सौंपा जा सकता है और आयोग पहले ही इन खस्ताहाल सार्वजनिक कम्पनियों के निजीकरण की सलाह केन्द्र सरकार को दे चुका है, जिनमें एयर इण्डिया प्रमुख है। एयर इण्डिया में बहुत जल्द ही विदेशी निवेश देखने को मिल सकता है। सवाल यह उठता है कि क्या इन उपक्रमों का निजीकरण कर देने से इनकी आर्थिक स्थिति सुधर जायेगी और इनको दीवालिया होने से बचा लिया जायेगा? यदि एक तरफ़ सरकारी एयर इण्डिया के दीवालिया होने का उदाहरण है तो दूसरी तरफ़ निजी कम्पनियों किंगफ़िशर और जेट एयरवेज़ के उदाहरण भी हैं। बेहतर गुणवत्ता का उत्पादन और बेहतर आर्थिक प्रदर्शन का कारण बताते हुए सरकार इन सार्वजनिक कम्पनियों को सस्ते दाम पर पूँजीपतियों को बेच देना चाहती है। सरकारी उपक्रम सरकार को डिविडेण्ड भरते रहे हैं और सामाजिक न्याय सम्बन्धी अनेक कार्य करते रहे हैं, जिसके कारण उनका आँकलन केवल मुनाफ़ा कमाने की क्षमता देख के किया जायेगा तो उनमें से अधिकांश नॉन-परफ़ार्मिंग ही निकलेंगे। सरकारी उपक्रमों की सम्पत्ति दरअसल आम जनता की सम्पत्ति होती है और उसको निजी हाथों में बेचकर या विनिवेश करके सरकारें अपने कार्यकाल में हुए वित्तीय घाटे को सुधारती हैं।

मोदी सरकार ने भी इस वित्तीय वर्ष में 85 हज़ार करोड़ के सरकारी उपक्रमों के विनिवेश का लक्ष्य रखा है और हर साल इस लक्ष्य को बढ़ाया जा रहा है। 2019-20 में सार्वजनिक कम्पनियों के विनिवेश से 90 हज़ार करोड़ रुपये हासिल करने का लक्ष्य है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे इत्यादि सभी क्षेत्रों में भी निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके कारण मूलभूत सेवाएँ भी महँगी हो रही हैं और आम जनता की पहुँच से दूर होती जा रही हैं। यदि कोई उपक्रम घाटे में चला जाता है तो सरकार उसके पुनर्जीवन के लिए राहत पैकेज भी नहीं देती और वहीं दूसरी तरफ़ प्राइवेट कम्पनियों के दीवालिया हो जाने पर उनके बड़े-बड़े क़र्ज़ भी सरकार माफ़ कर देती है। सरकारी उपक्रमों को डिविडेण्ड देने पर सरकार मजबूर करती है और उन्हें उनके शेयर भी वापस ख़रीदने पर ज़ोर देती है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति डगमगा जाती है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार इन उपक्रमों का मूल्यांकन करवाती है और ज़ाहिर सी बात है कि नकदी में कमज़ोर और घाटे में जाते उपक्रम की क़ीमत बाज़ार में ज़्यादा नहीं आँकी जाती और इस तरह सरकारी उपक्रमों को बीमार करके उनके एसेट्स को सरकार औने-पौने दाम में पूँजीपतियों को बेच देती है और उन पैसों से सरकारी ख़ज़ाने में हुए वित्तीय घाटे की पूर्ति‍ भी करती है। राष्ट्रीय सम्पदाओं का दोहन करना सरकार अपना हक़ समझती है और जनता को इन सभी क़दमों के पीछे बेहतर विकास दर लाने का झाँसा देती रहती है।

ग़ौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 2018 के आख़िर में 5.8 प्रतिशत आँकी गयी जोकि पिछले पाँच सालों में सबसे कम है और बताया जा रहा है कि 2019 के पहले और दूसरे क्वार्टर में इसमें और ज़्यादा गिरावट के संकेत हैं। ढाँचागत पूँजीवादी संकट दिन-प्रतिदिन और तीव्र हो रहा है और साफ़ तौर पर घटती विकास दर और बढ़ती बेरोज़गारी इसके सूचक हैं। पूँजीवादी अर्थशास्त्री इस संकट की जड़ में मौजूद निजी मुनाफ़े पर आधारित इस व्यवस्था को नज़रअन्दाज़ करते हैं और कोशिश में लगे रहते हैं कि कुछ आर्थिक निवेश बढ़ जाये जिससे उत्पादन बढ़े और विकास दर सही हो जाये, परन्तु ऐसा होता नहीं है क्योंकि यह दीर्घकालिक आर्थिक संकट पूँजीवादी ढाँचे से जुड़ा हुआ है और इसके समाधान का रास्ता पूँजीवाद पर सवाल उठाकर ही निकलेगा। सुधार प्रक्रिया में मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष और तीखा होता जाता है और पहले के संकट से भी बड़ा संकट पैदा होता है। इस गहराते आर्थिक संकट का हल इसी ढाँचे में रहकर सुधार करने से नहीं बल्कि इस पूँजीवादी ढाँचे को बदलने से निकलेगा।


 

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